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पुस्तक समीक्षा- दमयन्ती: रामगोपाल भावुक

पुस्तक समीक्षा- दमयन्ती: रामगोपाल भावुक

पंचमहल इलाके की ग्रामीण नायिका

दमयन्ती नामक उपन्यास आज हम सबके सामने है, जिससे एक बार तो हम सबको यह भ्रम पैदा होता है कि सम्भवतः यह परवर के राजा नल और उनकी पत्नी दमयंती से जुडें आख्यान पर आधारित कथा होगी, यह धारणा इसलिए भी बनती है कि श्री रामगोपाल तिवारी भावुक जी के उपन्यासों की प्रिय कथ्य भूमि ऐसे पौराणिक और ऐतिहासिक पात्र और उनसे जुड़ें किस्से रहे आए हैं, लेकिन मैं आरम्भ मंे ही बता दूं कि यह उपन्यास ना दमयन्ती रानी का है, ना नरवर का है, ना ही हम इसे पौराणिक और ऐतिहासिक गाथा से जुड़ा उपन्यास कह सकते है। इसके पहले कि मैं अपनी नजर से इस उपन्यास का बारीक परीक्षण करूं मुझे यह उचित प्रतीत होता है कि उपन्यासकार की प्रास्थिति यानी कि उनकी लोकेशन की खोज खबर करता चलूं।

पंचमहली इलाके के मुख्य केन्द्र ड़बरा मंे उपस्थिति हो कर हम कहने की जुर्रत तो कर ही नहीं सकते कि पंचमहली का क्षेत्र कौन सा है और यहां साहित्य की क्या परम्पराऐं है। ड़बरा ही नहीं आसपास का पूरा इलाका अद्वितीय है। अनेकों साहित्यकारों की प्रसूता इस भूमि पर संस्कृत के अमर कवि भवभूति पैदा हुए थे, इसी भूखण्ड़ पर उन्होनें सपने देखे, कल्पनाऐं की और उन्हें नाटक व समाज मंे फलीभूत होते देखा। उनके जमाने से आरम्भ परम्परा को आज यहां सैकड़ों सर्जक और रचनाकार जारी रखे हुए हैं, सम्भवतः यहां की ख्यात मनीषा यहां की परम्परा और उनलब्धियांें को खोजने आर संजों कर रखने का काम कर रहीं है। अगर नहीं हुआ तो जरूर होना चाहिए, क्योंकि पंचमहली बोली का एक अपना अनूठापन हैं, जिसमंे तनिक सी बुन्देली मिठाई, तनिक ज्यादा भदावरी यानी चम्बल की बोलचाल की खटाईदार चिरपिराहट और काफी कुछ खड़ी बोली का नमा इस बोली को समृद्ध करता है।......अन्यथा न लें तो मैं यह भी कहना चाहुंगा कि इसी इलाके मंे पैदा हुए एक परिवार के तीन सदस्य आज जन-जन के स्मृति कोश मंे अपना नाम दर्ज करवा चुके हैं, भले ही वे साहित्यिक रचनाओं के अध्याय दर अध्याय न लिख रहें हों लेकिन वे ऐसे काम कर रहें है जिनको आधार बना कर तमाम लोग अध्याय दर लिखने का मन्सूबा बना रहें है। कथाकारों की परम्परा मंे ग्वालियर संभाग के समूचे अंचल पर जब हमारी नजर जाती है तो बुजुर्ग उपन्यास कार महेन्द्रकुमार मुकुल से आरम्भ हो कर आज इस अंचल मंे नए पुराने दर्जन भर लंेखक हिन्दी के कथा इतिहास मंे अपना नाम दर्ज करा चुके है, जिनमंे से तीन लोग आज आपके बीच यहां मौजूद है। भाई प्रमोद भार्गव एक संवेदनशील सृजक, विलक्षण संवावदाता और विचारवान कथाकार हैं, इन्हें आज यहां पा कर हम सबने खुद को भी इनकी रचनाशीलता मंे सहभागी बनाया है। मुकुल जी के बारे मंे तो कहना ही क्या? पुरानी पीड़ी के साहित्यिक पाठक आपके कथा साहित्य के प्रशंसक है। तीसरें हैं, आज के आलोच्य लेखक....नहीं बल्कि आज की गोष्ठी के चर्चित कथाकार रामगोपाल भावुक जी। भावुक जी के पास अनुभव की अथाह नदी है, लेखनगति का तीव्र गामी झरना और किस्सागोई की विलक्षण प्रतिभा। बिना किसी आधार के आप कथा बुन लेते हैं, उनके सूत्र जोड़ लेते हैं, और समाज के हर वर्ग के रचनाकार आपकी रचनाओं मंे आकर उन रचनाओं को आम आदमी की रचनाऐं बनातें है। आपकी रचनाऐं जनवादी रचनाऐं है, यह कहने मंे मुझे कोई सकोंच नही है। यहां भाई स्वतंत्र कुमार जी बैठे है, सम्भवतः वे भी आंशिक रूप से मुझसे जरूर सहमत होंगे।

भावुकजी के ग्रामीण पात्रों की भाषा पंचमहली बोली है और इस भाषा को पढ़ कर मुझे देश के ख्यात कथालेखक ग्वालियर वासी अग्रत महेश कटारे की खूब याद आती है। कटारे जी को हमारे देश का हिन्दी पाठक समाज ग्रामीण कथालेखक के रूप् मंे ही जानता है। भावुकजी की गांवों मंे सक्रियता मुझे इसी अंचल के कथा लेखक राजेन्द्र लहरिया की याद दिलाती हैं, लहरिया जी जमीनी स्तर पर समाज सेवा मंे युवा तुर्क माने जाते है और ग्वालियर के बेहद क्षेत्र के सुपावली गांव व आसपास के इलाके मंे वहां के आम जन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाज सेवा और जनसमस्याओं के लिए आंदोलन का शंखनाद करते है।,और संयोग से उनकी नौकरी भी भावुकजी के तरह इसी शिक्षा विभाग मंे है। स्त्री पात्रों की उपस्थिति भावुक जी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के साथ करते हैं, इन्हें पढतें समय मुझे भिण्ड़ के कथा लेखक ए.असफल की याद आती हैं, असफल और भावुक जी जब भी स्त्रियों व दलितों की चर्चा करतें है तो दूर बैठ कर देखनें वाले की तरह नहीं बल्कि उनके बीच का व्यक्ति बन के करते है। मुकुल जी की तरह भावु की पुरानी यादगार शैली के कथा लेखक है। और अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच भी पठन-पाठन के लिये समय बचाने की इनकी जीवन शैली की बात की जाये तो मुझे भाई आनन्द मिश्र जी का ही नाम याद आता है, जो भावुक जी से कई गुना ज्यादा व्यस्त रहते हैं, और सम्भवतः कई गुना ज्यादा ही पढतें है। तो इस तरह भावुक जी मंे तमाम विशेषताऐं है। तो इस तरह भावुक जी जिन्हें बाहर तमाम जगह सम्मानित किया गया हैं, जिनकेे नाम अनेक पुरस्कार और अलंकरण समर्पित हुए हैं, अपने नये उपन्यास के साथ हमारे सामने मौजूद है।

इस उपन्यास की कथा प-लैशबैक पद्धति से पाठक के सामने आती है। ग्वालियर नगर के धवन होटल मंे दीवानगिरी यानी कि गुण्डों से निपटने के लिये एक नया नौकर भगवती बहाल किया गया है, जिसे देखकर होटल मंे काम करने वाली महिला-परिचारिका सुनीता को आरम्भ मंे तो उससे नफरत होती हैं, फिर एक घटना के कारण उसका दृष्टिकोण बदलता है और वह भगवजी की ओर आकृष्ट होती है। भगवती के कमरे मंे एक फोटो ऐलबम देखते हुए सुनीता को बहुत कुछ याद आता है, ओर वह क्रोध से भर जाती हैं ज बवह देखती है कि भगवती वहीं क्रूर दूल्हा है जो उसे मंड़प के नीचे दुल्हन के रूप मंे छोड़ कर चला गया था। तब वह पिघल उठती है जब देखती है कि अपने किये पर पछतावा करता भगवती अब भी अपनी उस ग्रामीण दुलहिन दमयंती को याद करता है। दो नों होटल से भाग निकलतें है। ओर भोपाल जा पहुंचतें है, जहां कि भगवती की बी.एच.ई.एल. मंे नौकरी लग जाती है। सहसा व्यवधान सा आता है जबकि सुनीता को ब्लैकमेल करने वाला महेन्द्रनाथ उसे खोज लेता है, और फिर एक दिन महेन्द्रनाथ के भर दोपहरी घर आ पहुंचनें से नाराज सुनीता अपने पति की पिस्तौल से गोली चलाती हैं, और महेन्द्रनाथ के प्राण पखंेरू उड़ जाते है। तीर्थयात्रा जाने का मन बना चुकी सुनीता या दमयंती घबराती नहीं बल्कि घर के पीछे बने गटर मंे महेन्द्रनाथ की लाश फेंक कर बड़ें आराम से तीर्थ को चल देती हैं, अपना पूरा जीवन याद करती दमयंती के साथ पाठक उसके जीवन को जानता है, दमयंती का मन नहीं मानता तो वह लौट आती है, और सीधे थाने जाकर महेन्द्रनाथ कह हत्या कबूल कर हवालात मंे पहुंचती है। हैरान और परेशान भगवती तो दमयंती की इस हरकत से बड़ा परेशान है, वह वकील की सलाह लेना चाहता है, लेकिन उसके पास गांठ मंे कानीकोड़ी नहीं हैं, और सहसा अवतरित होता है एक पात्र जा पूरी कथा मंे नैपथ्य मंे रहकर भी कथा की धूरी था। पाठकों को पूरी कहानी बताकर मैं उनकी उत्सुकता नहीं खत्म करना चाहता, लेकिन कथा का अंत हर उस ग्रामीण किस्से की तरह होता है कि रामजी जैसी उनकी निभाई वैसी सबकी निभाना।

इस उपन्यास की बुनावट आज के हिन्दी उपन्यासों की बुनावट से कतई भिन्न है, तो पात्रों की सोच और कथा मंे आयी रूपये पैसे की मात्रा आज के पाठक को बड़ी कम सी लगेगी। कारण यह है कि यह उपन्यास आज नहीं बल्कि सन् 68 मंे लिखा गया था, अब वहीं उपन्यास सैंतीस-अड़तीस साल लेखक की अलमारी मंे कैद रहने के बाद पाठकों के लिए उपलब्ध हुआ है। आइए अब कुछ खरी-खरी बातें भी कह सुन ली जायें।

उपन्यासों के दो वर्ग होते हैं, एक साहित्यिक और दूसरे पापुलर। पापुलर बोले तो लोकप्रिय यानी पाकेट बुक्स मंे छपने वाले उपन्यास। देखने मंे यह उपन्यास साहित्यिक दिखता है, लेकिन पढ़ने मंे पापुलर। इस उपन्यास की कथा मंे संस्पेंस, रोमांस और घटना बहुलता पाठक को उलझाए रखती हैै। एक लेखक और समीक्षक के नाते मैं इस उपन्यास को सामाजिक उपन्यास कह सकता हूं, सामाजिक उपन्यास यानी कि ऐसी रचना जो उपदेशों मंे तो बहुत आगे रहें, लेकिन प्रस्तुति मंे कमजोर। भावुक जी मंे अपने आसपास के तमाम लेखकों जैसे गुण तों हैं लेकिन कला और शिल्प के नजरिए से उनका यह उपन्यास वैसा सशक्त नहीं है। पहला अध्याय प्रकृति वर्णन से आरम्भ होता है फिर धवन होटल की इमारत के वर्णन के साथ भगवती के अवतरण, उसके मनो विश्लेषण और अचानक सुनीता के मन में घुस कर उसके मनोविश्लेषण के साथ समाप्त होता है, फिर आगे की कथा उसी के साथ आगे बढ़ती है। संवादों की भाषा किताबी सी लगती है तो कहानी किसी फिल्मी कथा सी, जिसमें खूब सारा रहस्य है, बड़ा रोमांच भी है।

अपनी अब तक की यात्रा में हिन्दी का उपन्यास आज जिस मुकाम पर है, वहां आकर भावुक जी का यह उपन्यास कुछ बेमेल सा लगता है, क्योंकि आज कथासाहित्य में सुरेन्द्र वर्मा का मुझे चांद चाहिए, मैत्रेयी पुष्पा का अलमा कबूतरी, एक असफल का लीला छप रहा है, जिसमें आज का जमाना है, आज का बाजारवाद, भूमण्डलीकरण, समाज में संघर्ष करती जन जातियां और इन सबके बीच उभर कर आती गांव की भोली कन्या से कस्बे की चुस्त और सयानी हो चुकी लीला जैसी नायिकाऐ है। लेकिन हमे इस उपन्यास की तुलना ऐसे सिद्वहस्त लेखकों के उपन्यासों से नहीं करना चाहिए, बल्कि इसी शैली के दूसरे उपन्यासों से करना चाहिए। अब समस्या यह है कि हम भावुकजी को किस युग का कथा लेखक मानें, उम्रदराज होने के नाते ये पुरानी पीड़ी के है, लेकिन प्रकाशन समय, लेखकीय परिश्रम और कलात्मक जिज्ञासा के कारण इन्हे आज का लेखक कहा जा सकता है, ऐसा लेखक जो घर-मोहल्ले के किसी बुजुर्ग की तरह एक तरफ बैठ कर किस्से सुनाए, पुराने राजा-रानी के किस्से नहीं बल्कि आम आदमी के संघर्ष के किस्से, उसके दुख दर्द के किस्से और समाज के घात प्रतिघातों की कहानियां भी।

इस तरह इस उपन्यास से यह आशा तो की जा सकती हे कि यह पाठकों को एक और पठनीय व रोचक किताब के रूप में प्राप्त होगी, लेकिन भावुकजी की जो क्षमता है, इनमें जो उर्जा है, बल्कि यूं कहें कि इनमें जो कथा कहने का कौशल है, उसे यह पुस्तक उतना सिद्व नहीं कर पाती है। इनके उपन्यास गूंगा गांव से आगे का उपन्यास होने के बावजूद यह उपन्यास अभी भी एक समीक्षक की नजर से गूंगा गांव से बहुत पीछे है, लेकिन पाठक इसे किस रूप् में लेंगे, उसे कैसा लगेगा, इसकी कोई भविष्यवाणी कर पाना मेरे लिए कतई असंभव है। क्यों कि इनका उपन्यास ’रत्नावली’ जिस तरह से चर्चित हुआ और इन्हे जैसी पाइकीय प्रतिक्रियायें मिी वे चौंकाने वाली थीं, दरअसल समीक्षकों की नजर में यह उपन्यास बड़ा कमजोर माना जा रहा था। लेकिन किसी किताब का भविष्य बाचने का अंतिम व संपूर्ण ठेका सिर्फ समीक्षकों का ही नही होता, उसके बारे में सही निर्णय केवल पाठक ही लेते है।

मेंरी शुभकामनाऐं है कि पाठको का खूब प्यार इस पुस्तक को मिले।

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