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कहानी ‘शम्मा दुलदुल वाला

कहानी ‘शम्मा दुलदुल वाला’ रामगोपाल भावुक

शम्मा का पूरा नाम तो श्यामलाल धानुक है। लेकिन लोग उसे शम्मा बरार के नाम से पुकारते हैं। वह शादी-ब्याह में पैत्रिक सम्पति के रूप में प्राप्त हुई तुरही बजा आता है। इससे जो कुछ मिलता है उसीसे गृहस्थी ढकेलना पड़ती है। पत्नी यमुना प्रसव के काम में प्रवीण होगई है। गाँव में किसी के यहाँ बच्चा हुआ कि तत्काल बुलाओ यमुना को। और यमुना अपने बाल-बच्चे छोड़कर उसके दरवाजे से तब तक नहीं हटेगी जब तक जच्चा के बच्चा नहीं हो जाता। सारा नर्क साफ करने के बाद ही वह घर वापस आ पाती है। इसके बदले में उसे मिलेंगे सौ-पचास रुपये और पाँच किलो अनाज। वह अधिक के लिये कहती है तो लोग कहते हैं-‘अधिक देना होता तो शहर से नर्स को ही बुला लेते। विवश होकर उसे उतने में ही सन्तोष करना पड़ता है। आज सेठ धनीराम के यहाँ बहू के लड़का हुआ था। उन्होंने उसे खुश होकर एक पुरानी धेती भी दी थी। वह उसी धेाती को पति शम्मा को दिखलाते हुये बोली-‘जितने बड़े आदमी होते हैं उतनी ही कंजूसी दिखाते हैं। बनते हैं पूरे गाँव के बड़े सेठ और यह पोतना भी देते में सरम नहीं लगी। यह सुनकर शम्मा को गुस्सा आगया, बोला-‘यह तो अहसान में दी है। बेगार लेने के आदी हैं। अब थेाड़ी बहुत जमाने की हवा की वजह से देना पड़ता है।’ ‘यह धन्धा ही बेकार है। नौ महीने का नर्क पटको फिर भी भरपूर मजदूरी नहीं देंगे।’ वह बोली। शम्मा ने अपनी व्यथा उड़ेली-‘मैं भी अपने धन्धे से बाज आया। तुरही बजाते-बजाते दम फूल जाती हैं, लगता है धोंकनी फट जायेगी। ऊपर से कहते हैं कि मैं अपने दादा की तरह तुरही नहीं बजा पाता। इस शान में दादा का जीवन कितना चला! बत्तीस वर्ष की अवस्था में ही विदा माँग गये।’ यह सुनकर तो यमुना की आँखों के सामने अन्धेरा ही अन्धेरा दिखाई देने लगा। बोली-‘मैं कहती हूँ, कुछ और काम तलाश लो ,तो सुनते नहीं हो। मैं भी तंग आ गई हूँ नरक पटकते-पटकते।’ शम्मा ने अपनी योजना सुनाई-‘मैं रहीम उस्ताज के पीछे महीनों से लगा हूँ कि मुझे दुलदुल घोड़ी का काम सिखा दो। मुझे भी उनका ही भरोसा है और सब तो छुआछूत मानते हैं। हमें बिना काम के घर में नहीं घुसने देते। लेकिन रहीम चचा तो इन बातों को बिल्कुल नहीं मानते। अब तो यह इच्छा हो रही है कि जल्दी से रियाज शुरु हो जाये।’ इसी समय महाते रामप्रसाद की आवाज सुन पड़ी-‘ओ शम्मा.....।’शम्मा आवाज सुनकर समझ गया लो आगया यमुना का बुलउआ। शम्मा की आवाज निकली-‘ काये कक्का.....?’ ‘नेक यमुना कों तो पहुँचा दे। तेई काकी को पेट दूख रहो है। भैया जरा जल्दी से,.....मरी जा रही है।’ रामप्रसाद रिरियाया। ‘कक्का अभै तो व सेठ के यहाँ से आई है, दो कोर रोटी खाले, सोई आई। ’ राम प्रसाद रिरियाते हुये बोला-‘रोटी तो ज मेरे झा ही खा लेगी।’ शम्मा ने पुनः निवेदन किया-‘बस अभै आते। जा मुन्ना कों राख रही है। दो दिना में जाने अपयीं मथाई आज देखी है’ रामप्रसाद की रिरियाहट पुनः सुन पड़ी-‘ अरे ! जाय जल्दी राख दे। ज समय कुन पूछ कैं आतो।’ यमुना यह सुनकर पिघल गई। अपना सारा दुःख भूल गई। छटपटाती महातोन काकी आँखों के सामने दिखने लगी। उसने शम्मा को बच्चे के बारे में एक दो बातें कहीं और वह रामप्रसाद महाते के साथ ही चल दी। महाते रामप्रसाद की बैठक में बातें चल रही थी-‘देश को स्वतंत्रता क्या मिली है,ढेड़ जाति के जितने दिमाग आसमान पर चढ़े हैं, उतने किसी के नहीं।’ कोई दूसरा बात को आगे बढ़ा रहा था-‘अरे! जब भी बुलाने जाओ, नखरों से आती है। महाते कितनी देर के बुलाने गये हैं, अभी तक आई नहीं है।’ बातें महाते और यमुना दोनों ने सुन ली थीं। उनकी बातें बन्द कराने के लिये रामप्रसाद महाते ने जोर से खाँसा। उन्हें आया हुआ देख कर सभी चुप रह गये। यमुना ने देर नहीं की, घर के अन्दर चली गई पर उनकी बातें मन हीं मन चुभ रही थीं। ‘,ढेड़ जाति के भाव बढ़ गये हैं।’ वह अन्दर ही अन्दर बड़बड़ाई-‘लोग कैसी-कैसी बातें कत्तयें। कुन कोऊ मुफ्त में खबा जातो। अरे! जी-जान लगानों पत्तो ।’अब तक वह महातोन काकी के पास पहुँच चुकी थी। काकी की छटपटाहट देख उसके मन से वे सभी बातें रफू चक्कर होगईं। शम्मा ने रियाज शुरू कर दी थी। शुरू-शुरू में तो उसके पांव उठते ही न थे। महीनों के रियाज के बाद वह घोड़ी की दुलदुल चाल सीख पाया था। उस्ताद रहीम बूढ़े होगये थे। अब घोड़ी का बाना पहनकर उनसे नाचा न जाता था। उन्हें घोड़ी का बाना पहन कर नाचने वाले की जरूरत थी। बैसे वे यह काम अपने लड़के रमजान को सिखा देते पर उसको इस धन्धे में डालकर उसका जीवन बर्वाद नहीं करना चाहते थे। वह ताले बनाने का काम सीख गया था। उसकी रोज की कमाई थी। पहली-पहली बार एक शादी में वह ऐसा झूम कर नाचा था कि देखने वाले दंग रह गये थे। रहीम उस्ताद तासे पर थे, करीम खान ढोल पर, एक लड़का नाचने वाला पकड़ लिया गया था जो बादशाह के साथ रानी बनकर नाच रहा था। उसे वह दिन याद है, जब उस्ताद ने शम्मा को सौ का नोट इनाम में दिया था। उसे लगा था , इस धन्धे में उसका जीवन मौज में कट जायेगा। जीवन निर्वाह की निश्चिन्तता का आनन्द, भूखे पेट आदमी के सामने परोसी गई षट व्यंजनों की थाली के समान तृप्ति देने वाली होती है। उस दिन शम्मा गाँव भर में मुक्ति का झंडा लेकर घूमा था। कुछ दिनों बाद उस्ताद न रहे। वर्षों पहले शम्मा ने अपनी कम्पनी का मालिक बनने के सपने देखे थे। उस्ताद का लड़का चाहता था , उसकी कम्पनी चलती रहे। पर शम्मा अपना सपना तोड़ना नहीं चाहता था। उसने अपने पुरखों की दी हुई बीधाभर जमीन बेच डाली और दुलदुल घोड़ी का साज-सामान खरीद लाया। शुरू-शुरू में तो कोई शादी-ब्याह ऐसा न होता था कि दुलदुल घोड़ी वाला न जाये और शादी हो जाये। ऐसा चलन चला कि आज तक चल रहा है। मेरे छोटे भाईजी जब दूल्हा बने तो उनकी एक मात्र यही फरमायश रही कि शादी में दुलदुल घोड़ी वाला जरूर चले। नही ंतो शादी केंसिल कर दी जाये। मेरी शम्मा से यहीं पहली मुलाकात हुई थी। मैं ही उसे शादी में दुलदुल घोड़ी की शाही देने गया था। खूब बातें हुईं थीं। उसने मुझे नाचकर दिखलाया था। इससे पूर्व मैं घोड़ी की चालों के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। शम्मा ने बतलाया कि घोड़ी की यह चाल आदमी को मदमस्त बना देती है। यह चाल ह्दय को छू जाती है कि आदमी का इस चाल में चलने को मन करने लगता है। उसकी बानगी देखकर मेरा मन भी यांे ही करने लग गया था। उस दिन से लगने लगा था शम्मा नाचना ही नहीं बल्कि लोगों की मनोवृति भी जान गया था। हर दशक आधुनिक होता है। इन दिनों प्रत्येक दशक में पाश्चात्य सभ्यता ने दस्तक लगाई है। बीसवी सदी के सातवे-आठवे दशक में डिस्को ध्वनियाँ जन मन में बैठने लगीं थीं। लोक ध्वनियों एवं लोक नृत्यों का देवाला निकलना शुरू हो गया था। लोग दुलदुल घोड़ी को भूलने लगे थे। पहले जमाने में शादी-ब्याह में बैंन्ड वाला चाहे न हो किन्तु दुलदुल घोड़ी वाला होना ही चाहिये। पहले शम्मा को चैन न मिल पाता था। अब काम की तलाश में लोगों के पास जाना पड़ता था। इसी कारण उसका अवमूल्यन होगया था। पहले जो रेट थे, वे अब आधे रह गये थे। यों शम्मा के भूख-प्यास के दिन आ गये। अबकी बार तो तमाम चक्कर काटने के बाद एक काम मिल पाया तो उसने यह बात यमुना से कही-‘इस महीने तो बस एक ही शाही मिल पाई है। क्या करें खर्च ही नहीं निकला। इससे तो गाँव में तुरही बजाता रहता था वही ठीक था। लोग कलेऊ भी देते थे। अब तो वह भी हाथ से चला गया। यमुना ने सलाह दी-‘अरे! इसे छोड़कर कोई और धन्धा तलाश लो या फिर वही पुराना धन्धा शुरू कर दो।’ दोनों बड़ी देर तक गुमसुम कुछ तलाशते रहे। अब उसने शहर के बैन्ड वालों से मिलना शुरू कर दिया। इस क्रम में उसकी मुलाकात कृष्णा बैन्ड वाले से हुई। कृष्णा बैन्ड वाले ने शम्मा से कहा-‘ तुम अपनी कम्पनी को हमारी कम्पनी में मिला दो। तुम्हें जो बचता था, वह हमसे एडवान्स में ले लिया करो।’ एडवान्स की बात पर शम्मा की जीभ में पानी आ गया। पर उसकी कम्पनी का अस्तित्व दाव पर था। जिसके लिये किसी दिन उसके उस्ताद के लड़के से मन मुटाव हो गया था। आज उसी का अस्तित्व अपने हाथों से मिटाना पड़ रहा है। जीवन में नाम का भी कुछ महत्व होता है पर वह विवश है। भूख के दरबार में नाम का अस्तित्व शून्य रह गया है। अब एक आदमी ‘कृष्णा दुलदुल वाला’ नाम का बोर्ड लिये रहता था। करीम चाचा व चाँद खाँ खुश दिखते थे ,क्योंकि वे अब बड़ी कम्पनी में काम करते थे। शम्मा को ढोल और तासे की ध्वनि पर मजबूरी में पैर उठाने पड़ते थे। अब उससे उस तरह नाचा न जाता था। मुझे ग्वालियर में एक बारात में जाना पड़ा। उस बारात में शम्मा भी आया था। रोज के आदमी को भला कौन भूल पाता है! उसे देखकर मेरे मन में उसका नाच देखने की तीव्र इच्छा जाग्रत हो गई थी। इस समय उसकी पोशाक पहले से अधिक चमकीली हो गई थी। शुरू-शुरू में शम्मा ने दो चार हाथ अच्छे दिखाये। बाद में मैंने देखा, वह नाच नहीं रहा था। मुझे लग रहा था,नाम के बोर्ड ने कलाकार का मन तोड़ दिया है। उसका अस्तित्व कहीं और विलीन होगया है। किन्तु वह आज भी जीवन की आशा में संघर्ष कर रहा है। 00000 सम्पर्क -कमलेश्वर कालोनी (डबरा) भवभूति नगर जि0 ग्वालियर, म0 प्र0 475110 मो0 9425715707

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