रत्नावली-रामगोपाल भावुक
आदरणीय सडैया जी,
सादर प्रणाम।
आपके आदेशानुसार मैंने रत्नावली उपन्यास का अध्ययन किया । इसे मैने पूरी गंभीरता से पढा यद्वपि इस मेंरेप ास पढने क लिए चर्चीत पुस्तकें रखी है । जिनमे मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास अल्मा कबुतरी श्री लाल शुक्ल का बिश्ररामपुर कासंत ज्ञान चर्तुवेदी का बारामासी जैसे चर्चीत उपन्यास शमिल है। पर मैने सर्वप्रथम रत्नावली ही पढा आपका आदेश इसका एक बढा कारण था। फिर तुलसी मेरे प्रिय कवि है । इस कारण रत्नावली चऱित्र से भी प्रिय लगता है । और तिसराका रण ग्वालियर संभाग क ेलेखको खासकर उपन्यास लेखको का सामने हो ना भी था। आप तो जानत े है िकइस संभाग मे श्री पून्नी ंिसंग,महेश कटारे, महेश अनघ, राजेन्द्र लहरिया ए, असफल ओर ंिकचिंत मांत्र मैं ही कथा लेखको के रूप् में हिंदी साहित्य में जाने जाते है ।
मैने मनोयोग से इस पुस्तक पढी आपका आदेश था। अपनी प्रतिक्रिया दे सो अपनी बात आंरभ करता हूॅ।
यह उपन्यास तुलसीदास जी की पतनी रत्नावली के अल्पज्ञात जीवन और व्यक्तित्व पर केद्रित उपन्यास है। लेखक कल्पना सूझ बुझ के धनी है। साहित्य इतिहास में मोजुद कुछ नामो ,कुछ घटानाओं औश्र कुछ ंिकंवदंितयो ं के ढाचं मे डालकर कथा का मनोरम चदोंवा तानकर उन्होने कथानक की दृष्टी से शानदार रचना तैयार कर ली थी । उपन्यास में ग्रामीण जीवन की सहजता तीर्थ प्रति ललक , साधु संतो की यात्राएं धर्म के प्रति श्रद्वा तीज त्योहारों का वर्णन समाज के द्वेषी लोगे के प्रसंग आदि से एसे मुदृदे है । जो उपन्यास को बहुआयामी और सम्द्व करते है । भावुक जी की सराहना होनी चाहीए
प्रात्रो के नाम यद्पी इतिहास प्रमाणीत है । तथापि कुछ नाम काल्पनिक है । यॉं यू कहें कि कुछ पात्र काल्पनिक है । इन्हे रचने और कथा का विन्यास सजाने में लेखक ने खुब सुझ बुझ का परीचय दिया है।
पर सब कुछ अच्छा और प्रशसनीय ही नही है। में भाषा को लेक र बेहद विस्मित हुॅ। दरअसल इसे या तो अवधि भाषा मे लिखा जाना था या फिर खडी बोली में ही सबकुछ होता पर खडी बोली में लिखा होने के बावजुद इसमें तमाम बोलियो के कुछ शब्द है , हांलाकी इस विषय मे दाा सीताकिशोंर खरे ज्यादा अधिकृत तौर पर कहेंगे यदि वे कृपा करेंगे तो पर कही बोलचाल के लहजे में तो कही खडी बोली के साहित्य लहजे में होने से उपन्यास एक रस नही रहा है ं। इसी कारण संवाद भी एसेनही लगते कि जैसे कई बोल रहा हो ,बल्कि किताबी संवादो ं की भरमार है ।संवाद लिखने का ढंग भी उतना उतना कलात्मक नही है । जितना जरूरी था। एक ही पेराग्राफ में कई प्रश्न और कई उत्त्र लिख दिये गये है । जो मात्र उद्वारण चिन्ह लग जाने से संवाद जैसे नजर आते है । पर कोई प्रभाव नही छोडते नही एंेसा लगता है कि जैसे अलग-अलग व्यक्ति बोल रहे है ।यदि हर व्यक्ति का कथन या संवाद उद्वरण चिन्ह के साथ नही अलग पंक्ति से लिखा जाता तोज्यादा प्रभावकारी होता
कथा साहित्य के आधुनिक गुणों में मनोविश्लेषण एक जरूरी गुण है । इस उपन्यास में मनोविश्लेषण तो बहुत है । पर उनमे भी यही कमी है। कि एक ही अध्याय में ( यहॉं तक की एक ही प्ष्ठ पर ) कई पात्रों के अंर्तद्वद दिंखाये गये है । ये सब राम के संबोंधन के साथ (उत्तम पुरूष्)में अपना इस कारण सब के सब गढमगढ हो गये है । अगर हर पात्र को अलग अलग अध्याय देकर विश्लेषण होता तो अच्छा होता। यदि पहलापन्ना ही लिया जाये तो सहज रूपसे द्ष्टव्य होता है । कि यह न तो उपन्यास की भाषा है। न इसे अच्छा ग कहेगंे कुछ कच्ची-कच्ची री साम्रगी दिखाई देती है ं। यहा जिसे स्वयं लेखक ही यदि एक बार नही दृष्टीसेदेख्कार सुधार ने संवारने बैठ जाता तो शानदार ष्शुरूवात हो सकती थी मात्र कुछ शब्दो का हेर फेर होता इस पृष्ठ पर तुलसी पत्नी ष्शंका क आंगन में तानो का लेन देन जैसे शब्द युग्म कमजौर है ।
पुरे उपन्यास में भावुकता का समावेश है । जो कि इस चरित्र की जान है ।लेखककी संवदनशीलता सराहनीय और कथा में वह उपस्थित भी रही है । पर कही कही पात्रों की भावक्रम आदि से अंत तक एक से नही रहे है ।हॉं कुछ पात्रों के संबोंधन भी बदले है । जैसे गंगेश्वर की मॉ। पहले प्ष्ठ पर रत्नावली काकी कहकर याद करती है तो बाद में ताई कहकर वास्तविक रूप् से वह ताई ही है । पर तुलसी जी के जमाने में ताउ ताई ष्शब्द प्रचलित नही थे । इसकी खोज बीन भी जरूरी है ।
मैं हर पृष्ठ पर सोचता रहा कि यदि इस उपन्यास मंे थेाड़ी कला, थेाड़ा शिल्प और जुड जाते तो मजा आ जाता मजा यानि साहित्य रस का मजा वैसे उपन्यास ठिक है पर लेखक खुद इस काम मे समर्थ है ।कि उपन्यास को वैसा बना देता जैस ा इसे होना चाहिए था। या जैसा हो सकता था काश विद्वान और अनुभवी लेखक अपनी संपूर्ण कथ्य कला संपूर्ण कुशलता समूची विद्ववता इसमें लगा देते ।
लेखक महाशय केा आप मेरा नमन और बधाई प्रेषित कर दिजिए ।