कोमल की डायरी - 19 - खरगोश भी नाच उठे Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 19 - खरगोश भी नाच उठे

उन्नीस

खरगोश भी नाच उठे

                                 गुरूवार अट्ठारह मई २००६

       आज जियावन आया था। उसने हरखू की व्यथा बताई। आसपास क्या हो रहा है? इसे भी। हरखू का खेत चला गया। बच गई केवल मड़ई और आबादी की थोड़ी सी ज़मीन। उसी में कभी कभी मूली-गाजर उगा लेता। एक गाय पालकर किसी तरह गुजर-बसर करता। एक ही लड़का था। बम्बई में रंगाई-पुताई करता। साल दो साल में कभी आता। हजार-पाँच सौ घर में रहकर खर्च कर जाता। फिर बम्बई । खेत जब मालिक ने जोत लिया था, हरखू ने बेटे को चिट्ठी लिखवाई थी। पता नहीं बेटे को चिट्ठी मिली या नहीं। कुछ दिन बाद पड़ोस का एक आदमी बम्बई जा रहा था। हरखू ने उससे विनती की उसकी चिट्ठी को बेटे तक पहुँचा दे। वह चिट्ठी ले गया। पन्द्रह दिन बाद चिट्ठी आई। लिखा था- 'इस समय कड़की चल रही है। काम नहीं मिलता। तबियत भी ठीक नहीं रहती। खाँसी बन्द नहीं हो रही है। घर कुछ भेज न पाऊँगा। माई और बापू को राम राम। गाँव जँवार के लोगन का राम-राम।' हरखू मन मसोस कर रह गए थे। चिट्ठी आने के तीसरे दिन मालिक ने हरखू से कहा, 'हरखू तुम्हारी ज़मीन बलुही है। दस हज़ार रुपया बीघा भी कोई नहीं देगा पर तुम्हारी तकलीफ देखकर एक बीघा खेत का दाम दस हजार में लगा देता हूँ। तब भी एक हज़ार बचता है। दिनोदिन उसका ब्याज बढ़ रहा है। सोचा था कि तुम्हारा बच्चा कुछ मदद करेगा तो रुपया मुझे मिल जाएगा। उसने तो बिलकुल कन्नी काट ली। अब रुपया मुझे कैसे मिलेगा हरखू?'

हरखू के मुख से आवाज़ न निकल सकी।

'क्यों चुप हो गए हरखू?'

'अब काउ बताई मालिक?' हरखू किसी तरह काँखते हुए कह सके। 'पर कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। रुपये की कीमत तो तुम जानते हो न।' 

'रुपया कै कीमत के नहीं जानत मालिक ।'

'तो फिर कुछ जुगाड़ करना पड़ेगा।'

'आपै कुछ बताओ मालिक ।'

'देखो तुम्हारी गाय बहुत छोटी है उससे पूरा रुपया वसूल नहीं हो पाएगा। तुम्हारी यह मड़ई मेरे खेत के बगल है। यह मड़ई इसकी ज़मीन और गाय मैं ले लेता हूँ। तुम्हें उद्धार करता हूँ हरखू, नहीं तो ज़िन्दगी भर कभी तुम उऋण न हो पाते। इसे मेरी कृपा ही समझो।'

हरखू मालिक मालिक चिल्लाते रह गए। मालिक ने गाय खुलवा लिया।

हरखू की पत्नी घास छीलने गई थी। लौटी तो देखा गाय खूँटे पर नहीं है।

हरखू झपटे, पत्नी से कहा, 'मार डाला तू ने।' पत्नी भौचक। पूरी बात जानकर रोने लगी। हरखू की आँखें एक बार लाल तो हुई पर धीरे धीरे शान्त हो गईं। रात के पिछले प्रहर दोनों अपनी मड़ई छोड़कर चले गए। हरखू की बात जब भीखी ने सुनी, उसका मन हाहाकार कर उठा। उसने सुबह ही अपने मालिक से कहा, 'मालिक अब आपके यहाँ काम न करब ।'

'क्यों?' मालिक ने पूछा।

'हमार आपके पटी-पटा होइगा।'

'उ कैसे? ब्याज में काम कर रहे हो। मूल ती बाकी है न?'

'मूल-ब्याज तौ हम नाहीं जानित है मुला हमार आपके पटी-पटा होइगा।' 'तुम्हें किसी ने भरमा दिया है भीखी। किसी पढ़े लिखे आदमी को बुला लो, हिसाब समझा देंगे। अगर हमारा नहीं कुछ निकलेगा तो चले जाना जहाँ इच्छा होगी। इतना तो तुम भी समझ सकते हो कि ब्याज में काम करने पर मूल तो बाकी ही रहता है।'

'ब्याज बहुत है मालिक ।'

'यह अब तुम तय करोगे? रुपया तेरे बाप ने लिया उन्होंने ब्याज तय किया। अब तुम

'हमै ई कुछ नहीं आवत मालिक। हम इहै जाना कि ब्याज बहुत है। बीस साल काम कीन सब पटिगा। चाहित तो चुप्पै उठिकै चला जाइत मुला हम बताय कै जावा चाहित है।' 'भागि जातेव' तौ पकड़वा लेता मैं। दिल्ली, बम्बई कहीं तो मिलते। तुम्हारी राह गलत है भीखी। हम तो तुम्हारी शादी कराने के चक्कर में हैं और तुम ?' 'हमें शादी नहीं करना है मालिक। आप हमें छोड़ देई यही बहुत है।' 'पागल तो नहीं हो गए भीखी। हम तुम्हें छोड़ दें। हमारा रुपया कौन देगा?' 'का रुपया अबहीं बाकी है मालिक?'

'मूल तो अभी बाकी है ही। तुमने कहाँ दिया?'

'यह समझ लेव मालिक कि सब पटिगा। चौबीस घण्टा काम कीन। अब कुछ बाकी नाहीं रहिगा। अब चलित है मालिक।' भीखी ने अपना अँगोछा उठाया और चलने लगा। 'मालिक राम राम' जैसे ही उसने कहा, मालिक का तमाचा उसके गाल पर पड़ा।

'कैसे जाओगे तुम ? तुम्हारी यह हिम्मत?'

मालिक बड़बड़ा उठे। 'मालिक आपने मार दिया। अब भीखी रुकै वाला नहीं है मालिक।' जैसे ही मालिक ने अपना हाथ पुनः उठाया, 'मालिक अब हाथ न उठायो नहीं तो........। 'नहीं तो क्या हो जाएगा रे।' मालिक गरज उठे। 'जौ हमरौ हाथ उठिगा तो इज्ज़त कौन रहि जाई मालिक ।'

'तू हाथ उठाएगा। तू हाथ उठाएगा?...... तेरी यह हिम्मत?' मालिक हाँफते हुए चारपाई पर बैठ गए, तब तक घर के अन्दर से मालकिन निकल पड़ीं 'भीखी चाहत है तो जायदेव। जौ वोहकै हाथ उठिगा तौ इज्ज़त माटी मा मिलि जाई।'

भीखी उठे, 'मलकिन राम राम' कहकर चल पड़े। संयोग से मालिक के पास उस समय कोई नहीं था। पुत्रवधू घर के अन्दर थी। छोटा लड़का इलाहाबाद में पढ़ता है, बड़ा दिल्ली गया था। भीखी कुछ दूर गए होंगे कि दो गॅजेड़ी मालिक के साथ गाँजा पीने आ गए। मालिक ने कहा, 'मौके पर नहीं आते हो। दौड़ो भीखी को पकड़ो।' पहले तो दोनों कुछ समझ नहीं पाए पर जब मालिक ने फिर कहा, 'जाओ भीखी को पकड़ो ।' दोनों भीखी की ओर लपके। भीखी ने दूर से ही कहा, 'तुम लोग लौट जाओ। हमने मालिक का घर छोड़ दिया है।' दोनों ठिठक गए। मालिक ने दुबारा कहा पर उन पर असर नहीं हुआ। आस पास के पुरवों में ख़बर फैलते देर न लगी। एक पुरवे में रात दस बजे खरगोशों की एक सभा हुई। कुल पैंतीस लोग, उसमें पच्चीस महिलाएँ। ज़मीन हड़पने वालों के खिलाफ प्रदर्शन पर चर्चा हुई। भीखी के कदम से पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी उत्साहित थीं। दो युवाओं ने कुछ अन्य मुद्दों पर भी चर्चा करनी चाही पर वरिष्ठ जनों ने प्रदर्शन पर ही ध्यान केन्द्रित करने की बात की। रौताइन काकी के साथ जो कुछ हुआ उसे सुनकर महिलाएँ गुस्से से भरी थीं। एक ने कहा, 'चुप रहने से काम न चली?'

'क्या औरतें जायँगी धरने में?, एक वृद्ध ने प्रश्न किया। 'काहे न जायेंगी?' छुटकी ने तेज़ स्वर में उत्तर दिया। 'औरतें हलुवा पूड़ी नहीं है जिन्हें लोग खा जाएँगें।' मझली काकी बोल पड़ीं। काकी की तीन बिस्वा आबादी पड़ोसी ने कब्जा कर लिया था। काकी वापस पाने के बेचैन थीं। मन ही मन उसे शाप देतीं। पर इससे कोई असर नहीं पड़ा था। उनका अनुमान है कि धरना-प्रदर्शन से उनका भी काम हो सकता है। असमर्थों के हीनता बोध पर छुटकी का पारा हमेशा गरम हो जाता। उसे लगता था कि धरना प्रदर्शन से उसका खोया हुआ सम्मान वापस आ सकेगा। उसके पति को एक माझी ने सरे आम थप्पड़ मार दिया था। त्यौराइन इसलिए धरने में जाना चाहती थीं क्यों कि उनके पड़ोसी ने अपना खेत जोतते समय इनका भी एक आँतर खेत जोत लिया था। वे चिल्लाती रह गईं। तिवारी जी भी दौड़े पर किसी ने सुना नहीं। मन मसोस कर रह गईं वे। आर्थिक तंगी से जूझते तिवारी कुछ कर न पाए।

मृतक संघ के लोगों ने दिन-दिन, रात-रात मेहनत करके यह परिवेश बनाया कि अब लोग खड़े होने का साहस जुटा रहे हैं। उन्हें लगने लगा है कि कुछ बदल सकता है। परिवेश बनाकर डाले गए बीज में अब अंकुर फूटने लगे हैं। बाघों को यह उम्मीद न थी कि कभी खरगोश भी खड़े होने की बात करेंगे। दूसरी, तीसरी आज़ादी की माँग करेंगे।

'तो आप लोग कठिनाई झेलने के लिए तैयार हैं?'

एक ने प्रश्न किया। 'हाँ बिलकुल तैयार हैं।'

'हम धरना-प्रदर्शन करेंगे तो हम पर जोर जुल्म और बढ़ेगा।'

'हम हर कीमत अदा करने के लिए तैयार हैं।' समवेत स्वर उभरा।'

तो ठीक है। आपस में फूट न पड़े।'

'नहीं पड़ेगी।'

'हम में फूट डालने की कोशिश होगी। बाघ हमारे हितैषी बनकर हम में फूट डालेंगे।'

'हम बाघों को करारा जवाब देंगे।'

'वे पुलिस के सहारे हमें तंग कर सकते हैं। हमें जेल जाना पड़ सकता है।'

'हम खुशी खुशी जेल जाएँगे।'

'हम अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। कोई चोरी नहीं करने जा रहे हैं।' छुटकी बोल पड़ी। 'कौन यहाँ जेल जाने की बात कर रहा है?' एक उभरती दहाड़ती आवाज़ आई। सभी चुप। मौन। छुटकी कसमसा उठी। 'आग से खेलकर कोई ज़िन्दा नहीं बचेगा।'

'जिसकी छाती बज्जर की हो सामने आवै ।'

छुटकी अपने बराबर एक लाठी लेकर तड़क उठी।

'छुटकी अपनी जगह पर खड़ी रहो नहीं तो गोली सीने के उस पार उतार दूँगा।' आवाज़ पुनःआई।

'देखती हूँ तेरी गोली में कितनी ताकत है। हिम्मत हो तो सामने आ ।' छुटकी उछल पड़ी। सिर से पैर तक काले कपड़े से ढकी एक आकृति निकट आने लगी। एक हाथ कट्टा तना हुआ। छुटकी जैसे आविष्ट हो लाठी लेकर कूदी। 

लाठी तान कर मारने ही जा रही थी कि आवाज़, 'मैं झंखड़ हूँ छुटकी।'

लाठी रोकते रोकते कट्टे पर लगी। कट्टा हाथ से छूट कर गिर पड़ा। झंखड़ छुटकी का पति था।

'तो तुम मेरे सीने में गोली मारने आ रहे थे।'

'मैं तुम सब की हिम्मत देखना चाहता था। इसीलिए मैंने यह नाटक किया।' झंखड़ ने बताया। 'वह तो कहो मैं लाठी को कुछ रोक ले गई। न रोक पाती तो?' छुटकी फफक पड़ी।

'तो पहली बलि मेरी चढ़ती छुटकी। आज मैं बहुत खुश हूँ छुटकी ।' छुटकी को गोद में उठा कर नाचने लगा।

'छोड़ मुझे' छुटकी भी ज़मीन पर पैर पड़ते ही थिरक उठी। मझली काकी दौड़कर ढोल मँजीरा ले आईं। त्योराइन को देते हुए टेर लगाई.. निबिया के पेड़वा न काटेव बाबा निबिया चिरड्या बसेर। बाबा निबिया.....। बिटिया के जियरा दुखायउ न बाबा बिटिया घर के उजेर। बाबा बिटिया.......। भिनसारे ती चिरई उड़ि उड़ि जइहें रहि जाइ निबिया अकेलि। बाबा रहि......।

'आओ आओ नाचो' कहकर झंखड़ ने सभी को शामिल कर लिया। नर नारी सभी नाच उठे। ढोल की थाप पर छुटकी की पीर भरी वाणी गूँजती रही। छोटे छोटे सुख भी कितने महत्वपूर्ण होते हैं?

'नीम का पेड़ नहीं कटेगा बाबा' झंखड़ बड़बड़ा उठा। अब हम खड़े हो सकेंगे हर आक्रमण के खिलाफ। उठते पाँवों की गति के साथ उसका मन भी उड़ रहा था। बाउर और भीखी दूसरे पुरवे में बैठे बात कर रहे थे। छुटकी के स्वर को सुन वे भाग कर आए। भीखी को देखकर लोग लिपट गए।

'काका यहीं रहो। दो रोटी सेंक लूँगी आपौ के लिए। आप लोगन का जगाओ।' छुटकी बोल पड़ी।

'हाँ काका जब तक हाथ पाँव चली आप कै जिम्मा हमार।' झंखड़ भीखी और बाउर को भी साथ खींच कर नाचने लगा।





बीस

पुनश्च : कोमल का पता लगे तो बताइएगा 

आपने कहीं कोमल भाई को देखा है ? बहादुर, रमजान ही नहीं, 'मृतक संघ' के सभी लोग हैरान हैं। वे दिन-रात एक किए हुए हैं पर कहीं पता नहीं लग रहा। हरखू, भीखी, बाउर सभी उन्हीं की खोज में हैं। बहादुर की पेशी पर तारीख ही मिलती है। लोग कहते हैं हर चीज़ का जुगाड़ है कचहरी में। बहादुर का मुकदमा जिस गति से चल रहा है उससे क्या उसकी ज़िन्दगी में फैसला हो पाएगा? उसके न रहने पर पैरवी कौन करेगा?.. .तब?

बेछांह होते ही हरखू की भगतिनिया चल बसी। संभवतः वह एक बीघा खेत, गाय और मड़ई का निकल जाना बर्दाश्त न कर सकी। सब लोग बताते हैं कि उसे लू लग गई थी। भगतिनिया को आग देकर हरखू भी गड़बड़ा गए हैं। जब तब हर किसी को दो हाथ जड़ देने लगे। लोगों ने हरखू का हाथ बाँध दिया है। छुटकी के पुरवे में ही एक नीम के पेड़ के नीचे हरखू आंय-बांय बकता रहता है। छुटकी और झंखड़ शौच आदि तथा भोजन पानी के समय हाथ खोल देते हैं। दूसरे किसी को वह अपने पास फटकने नहीं देता।

जनपद और तहसील के मुख्यालय 'मृतक संघ' के प्रदर्शन की बाट जोह रहे हैं। 'मृतक संघ' के लोग कोमल के न होने से बेचैन हैं। प्रदर्शन की तिथि निश्चित करने के लिए छुटकी के नेतृत्व में एक बैठक बुलाई गई है।

बहादुर, रामजान, झंखड़ सभी आयोजन को सफल बनाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। हरखू, छबीले, भीखी, बाउर सभी आपकी ओर ताकते हुए राम राम कह रहे हैं। कोमल भाई का कहीं पता लगेगा तो बताइएगा। हुलिया है- कद पाँच फुट आठ इंच, छोटी मूछें, बाल खिचड़ी, मुंह थोड़ा लम्बा, आँखें कुछ कहती हुई, पैरों में चप्पल, कुर्ता-धोती या पायजामा पहने हुए।