कोमल की डायरी - 18 - संकल्प Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 18 - संकल्प

अठारह 

संकल्प

                          मंगलवार, सोलह मई 2006

आज धूप बहुत तेज़ थी। नौ बजते ही चनचनाने लगी थी। हम लोग आज थाने गए थे। काकी के सम्बन्ध में प्रथम सूचना तो दर्ज करा देना ही चाहिए। दरोगा जी ने कहा, बिना किसी जानकारी के कैसी रिपोर्ट? अभीवह जिन्दा हो तो? ज्यादा से ज्यादा गुमशुदगी की दरख्वास्त दे दो। हम देखेंगे। तुम लोग भी पता लगाओ, हम भी लगाएँगे। इस महीने में ग्यारह लड़कियाँ भागी हैं। हम उन्हें खोज रहे हैं। तुम्हारी काकी को भी खोज में शामिल कर लेते हैं। कहीं सुराग लगे तो बताओ, हम दबिश देंगे।.. ... और हाँ दबिश दिलाने के लिए तेल आदि के खर्च का इन्तजाम कर लेना।' एक प्रार्थना पत्र देकर हम लोग चले आए। थाने से बहुत उम्मीद नहीं थी। थानेदार का व्यवहार उसके अनुरूप ही था। दोपहर की धूप बिलकुल जला देने वाली। जलवायु विज्ञान के लोग बता रहे हैं कि पृथ्वी का तापक्रम बढ़ रहा है। पर इस बार तो चैत में ही जेठ लग गया है। रमजान को घर भेज दिया। बहादुर अभी हरिद्वार से लौट नहीं पाया। उसने सूचित किया है कि काकी का जो पता दिया गया था वह तो सही है पर काकी न तो कभी यहाँ आईं, न कोई उन्हें जानता है। संभवतः विपक्षियों का एक षड्यंत्र रहा हो हम लोगों को भरमाने के लिए। अपराधी तत्व कितनी दूर तक सोचते हैं? मैं भी अपने आवास पर आ गया। प्यास लगी थी। तीन गिलास पानी गटागट पी गया। घड़े में ताज़ा पानी भर कर रखा। मन में काकी का बिम्ब बार बार कौंधता। जैसे कह रही हैं, 'रोना नहीं कोमल। मैदान से हटना नहीं।' मन में संकल्प उठ रहा है, 'नहीं हदूँगा काकी। आपका आदेश शिरोधार्य है।' लड़ाई आसान नहीं है यह समझ रहा हूँ। अभी हम तैयारी कर रहे हैं। कोई ठोस कदम उठा भी नहीं पाए। कोई प्रदर्शन भी नहीं हो पाया कि विपक्षी सक्रिय हो उठे। काकी को ले गए। सूचियाँ बनने लगीं। पर इससे कितना फर्क पड़ेगा? जो सिर हथेली पर रख कर चलते हैं उनके लिए मरना क्या, जीना क्या? इटली के वैज्ञानिक जियोर्दानो ब्रूनो का अन्त याद आ रहा है। सोलह फरवरी 1900 ई० को उसे पादरियों की अदालत के आदेश से जिन्दा जलाया गया था क्योंकि उसने कहा था पृथ्वी सूर्य के चारो ओर घूमती है। धार्मिक किताबों के विपरीत थी यह बात। 'जलाया मुझे जा रहा है मगर डर से काँप आप रहे हैं,' उसने कहा था। गैलीलियों को क्या कम सहना पड़ा? फर्क यही है काकी को अँधेरे में ले गए लोग? इतना साहस नहीं था कि......।

कल दीपांकर से भेंट हुई थी। वह 'चिराग' निकालता है। उसने कहा था प्रदर्शन कराओ हम मुख्य ख़बर बनाकर छापेंगे। बड़े अखबार तो बड़े दबाव में काम करते हैं पर वे भी कुछ न कुछ करेंगे ही। दीपांकर बहुत उत्साहित है। कुछ लोग ठीक ही कहते हैं आजकल घटनाएँ कथाओं से अधिक मारक हो गई हैं। काकी कोई जेसिका लाल नहीं कि अखबारों और चैनलों पर छा जाएँ। हैसियत के अनुरूप ही सब कुछ मिलता है यहाँ और हैसियत बदलना कितना मुश्किल ।

कितने ही लोग उन्हीं की गोद में खेलते हैं जो उन्हें हानि पहुँचा रहे हैं? आत्म गौरव का कोई बोध नहीं। वे जानते हैं खड़ा होना मुश्किल है। खड़े होने के प्रयास में किसी की गोद में गिरना ही पड़ेगा। संभवतः इसीलिए खड़े होने का प्रयास ही नहीं करते । काकी का बिम्ब बार बार खड़े होने के लिए प्रेरित करता है। बहादुर की एक पेशी पर कचहरी में विपक्षी से झड़प हो गई थी। उसने कहा था यमद्वार देखना चाहते हो क्या? भीखी के पुरवे पर भी इसी तरह का संकेत मिला। अपने हक के लिए खड़े हो, अन्याय का विरोध करो तो यमद्वार दिखाने के लिए लोग तैयार मिलते हैं। सरे आम हत्या करके लोग मगन घूमते हैं। जो एक हत्या कर लेता है वह हत्या विशेषज्ञ हो जाता है- निर्भय। कानून गवाही माँगता है। गवाही देकर मौत कौन ले? इसीलिए किसी को कोई सज़ा नहीं, हरगंगे।

इसी परिवेश में काम करना है। छबीले और भीखी अभी थरथरा उठते हैं पर खड़े होंगे। धरती वन्ध्या नहीं होती। आदमी में खड़े होने की भावना जोर ज़रूर मारती है। देवीबख्श ने इसी धरती पर सब कुछ खोया पर लोक उनकी स्मृति को सहेज कर रखे हुए है। तुलसीपुर की रानी ऐश्वर्य देवी, बूढ़ापायर के अशरफ बख्श फाँसी का फंदा चूमने वाले राजेन्द्र लाहिड़ी सहित न जाने कितने अनाम योद्धा समाज के लिए ही लड़ते चले गए। राम, कृष्ण, गौतम, महावीर सभी तो समाज को दिशा देने के लिए आजीवन प्रयासरत रहे। कोई क्या लेकर आया है? क्या लेकर जाएगा? इतना घमासान फिर किस लिए? पर सत्ता, सम्पत्ति, यश के पीछे भागने वाला मनुष्य?... कोमल तेरी नियति क्या है? एक प्रकरण को लेकर तू दौड़ रहा है। उसमें भी कितनी बाधाएँ? बाधाओं से कैसा डर? मन में विचार उठता है।

आज अम्मा और बापू की बहुत याद आ रही है। बापू आपने जो चाहा था, कुछ भी तो नहीं कर सका मैं। आपकी इच्छा थी कि घर बसा लूँ। मैं टालता रहा। अब तो पूरी तरह टल गया। बापू क्षमा कर देना मुझे। अब जिस प्रकरण से जुड़ गया हूँ वही सामने है बापू। दिन रात उसी का सपना। सारे आवेग उसी में समा गए हैं। यदि मेरे साथ कोई घटना घटी बापू तो अनेक कोमल खड़े मिलेंगे। एक जाएगा कई पैदा होंगे बापू। तुम्हें अपने कुल की चिन्ता थी न? पूरी दुनिया के वंचित आपके वंशज होंगे बापू। क्षमा कर देना मुझे। दुनिया परीक्षा लेती है बापू-बड़ी निर्मम परीक्षा। आपका बेटा इस परीक्षा में खरा उतरे, आशीर्वाद देना बापू। माँ अपने सीमित संसाधनों में खुश रहती थी। मुझे भी कोई कष्ट नहीं है बापू। छबीले और भीखी जैसों को खड़ा कर पाऊँ, सम्बल देना बापू। बापू.........बापू..........। कहाँ पहुँच गया मैं? काकी का सख्त आदेश है। आँसू नहीं निकलते अब सूख गए हैं वे। मैं प्रयास कर रहा हूँ काकी, खरा उतरने के लिए। जेन कहती थी सामान बाज़ार में पटा है। अब हम चुनाव कर सकते हैं। एक एक वस्तु के सैकड़ों माडल । अपनी इच्छानुसार खरीद लो। ऐसा अवसर कहाँ था पहले? पर छबीले, भीखी जैसों के लिए सामानों से पटे बाज़ार का क्या अर्थ? जिसकी जेब में छदाम नहीं, उसके लिए कहाँ बाज़ार, कौन सी सामग्री? किस बाज़ार ने उसकी परवाह की।

समर्थों के लिए दुनिया सिकुड़ गई है। ज्ञान पार्क विकसित हो रहे हैं। समर्थ राष्ट्र अपेक्षाकृत असमर्थ का दोहन कर रहे हैं। हम एड़ी उठाए हुए पश्चिम की ओर ताक रहे हैं। कब तक ताकेंगे इसी तरह? दुनिया की पंचायत में भी बड़ा बाघ अपनी ही बात मनवा लेता है। उन्मादी उसे अवसर देते हैं। धर्म, जाति, भाषा, रंग, नस्ल किसी का उन्माद काफी है मनमानी करने के लिए। बाघ इनका उपयोग करता है। निरीह जन गाजर, मूली की तरह काट दिए जाते हैं। कब तक चलेगा यह सब ? आज़ादी की लड़ाई में यहाँ पुरुष ही नही महिलाएँ भी जेल गईं। क्या उनका सपना वही था जो आज हो रहा है।

भाई लाहिड़ी तुमने कहाँ जन्म लिया है? आ जाओ। तुम्हीं ने सिखाया था अन्याय के सामने सिर मत झुकाना। अन्याय और शोषण के बारीक सूतों की पहचान कितनी कठिन हो गई आज? मैं सोच ही रहा था कि दरवाज़ा खुला। मैं तख्ते पर पाल्थीमार कर बैठा था। दरवाजे की सिटकिनी नहीं लगी थी। बाउर के साथ भीखी ने आकर राम राम कहा तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। '

भीखी तुम?' मेरे मुख से निकला।

'हाँ भैया। आपकी बात कुछ कुछ समझ मा आवति है। बाउर भैया रोजै टिहुनियावत हैं। काम तो हम मालिक के हिंया छोड़ि देब मुला कमवा कै जुगाड़ तौ करहिन का परी। बिना किहां के खवाई?

'ठीक कहते हो भीखी। काम तो करना ही है पर दाम उचित मिले इसकी व्यवस्था की जाएगी।' 'आज मालिक के साथै हम दूनौ आयन है। ई बाउर हिंया दौराय लावा।'

L

मैंने उठकर एक डिब्बे से बरसोला निकाला। बाउर बरसोला देखकर हँस पड़ा। वह जानता है कि यह संगम मेले में ही खरीदा गया है। एक एक दोनों ने लिया। खाकर पानी पिया। बाउर यहाँ आया है। रंगढंग जानता है। रोटियों के डिब्बे की ओर उसने संकेत किया। मैं समझ गया उसे भूख लगी है। भूख की पीड़ा तो भोक्ता ही बता सकता है। डिब्बे में चार रोटियाँ और सब्जी थी। दो दो रोटी दोनों खाकर निश्चिन्त हुए तो लगा कि उन्हें बहुत कुछ मिल गया है।

'खुद खड़ा होना पड़ेगा भीखी। तभी कोई दूसरा भी कुछ मदद कर पाएगा।' 'ठीकै कहत हौ भैया। आपन पाँव मजबूत होई तबै।'

'हाँ तभी ।' 

'सोचित हमहूँ हन। आगे। राम जानें भैया अब चली?' भीखी ने कहा। 'हाँ चलो। हम लोग फिर मिलेंगे।' कहकर दोनों को विदा किया। बाउर भीखी को लाकर आज बहुत खुश था।