कोमल की डायरी - 6 - देवीबख़्श लोहबंका Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 6 - देवीबख़्श लोहबंका

छह

देवीबख़्श लोहबंका

                           शुक्रवार, बीस जनवरी, 2006

ठंड आज भी काफी थी। कोहरा ज़रूर बहुत हल्का था। आठ बजते छँट गया। हल्की पीली धूप शरीर को अच्छी लग रही थी। मैं दस बजे के आसपास गांधीपार्क पहुँचा। सुमित और जेन आ चुके थे। वे भुने हुए मूंगफली के दाने कुटकुटा रहे थे। मेरे हाथ में कुछ दाने देकर जेन ने कहा, 'जैन मंदिर के सिंहद्वार पर अश्वारोही की प्रतिमा! बात कुछ जँच नहीं रही थी।' 'क्या आचार्य आज मुझे बनना पड़ेगा?' मैंने जैसे ही कहा, सुमित ताली बजा कह उठे, 'हाँ क्यों नहीं ?'

'यह गुनगुनी धूप, किसी की चलनी, किसी का सूप।' जेन बच्ची बन गई थीं। इसी बीच एक ग्रामीण बालक 'गिसुली रे गिसुली कहवाँ मोर ससुरारि' गाता हुआ साइकिल से निकला। उसने हम लोगों को नहीं देखा था। मैं उसके गीत को सुनना चाहता था पर जब तक हम लोग उसको पुकारें, वह गेट तक निकल गया था। सुमित गीत का अर्थ समझकर मुस्करा रहे थे। जेन गिसुली का अर्थ नहीं समझ पाईं थी। जब उन्हें अर्थ बताया गया 'गुठली', वे भी हँस पड़ीं। 'गाँवों में बच्चे आम के टिकोरों की गिसुली को हाथ में लेकर पूछते हैं कि मेरी ससुराल किस दिशा में है? गिसुली जिस दिशा में छिटकती है उसी दिशा का संकेत मान लिया जाता है। यह बच्चों का एक मनोरंजक खेल है।' मैंने बताया।

'सुमित और हम भी पूछ लें भाई।'

'पर अभी टिकोरा आने में देर है।' मैंने कहा।

'ओ ! तब तो अश्वारोही की कथा ही....।'

'श्रावस्ती के शासक थे सुहृद्देव। इन्हें सुहेल देव भी कहा जाता है। महमूद गजनवी के आक्रमण हो रहे थे। महमूद का भांजा था सय्यद सालार मसऊद। वह अपनी सेना लेकर मथुरा, कन्नौज, सीतापुर होते हुए सतरिख पहुँचा। यहाँ रुक कर उसने अपनी एक टुकड़ी बहराइच की ओर भेजी। श्रावस्ती शासक का मान अधिक था। इन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। सुहेलदेव उस समय सुजौली दुर्ग में थे। आसपास के रजवाड़े इकट्ठा हुए। उन्होंने मसऊद के पास संदेश भेजा कि लौट जाएँ पर उन्होंने युद्ध का डंका बजवा दिया। पहली झड़प में मसऊद की सेना विजयी रही। सुहेलदेव सुजौली से लौटे। उन्हें युद्ध का विवरण दिया गया। उन्होंने लोगों को पुनः इकट्ठा किया। पिछली झड़प में मसऊद ने गायों को आगे कर दिया था। इस बार सुहेलदेव ने ज़मीन में लोहे के गोखरू गड़वा दिए। आतिशबाजों को भी लगाया। मसऊद के घेरे की गायों को हँकवाते ही युद्ध शुरू को गया। आतिशबाजी होने लगी। मसऊद की घुड़सवार सेना को गोखरू और आतिशबाजी दोनों से दिक्कतों का सामना करना पड़ा। चितौड़ा के तट पर भयंकर युद्ध हुआ। मसऊद की सेना के अधिकांश योद्धा कट गए। सुहेलदेव का एक बाण मसऊद को लगा। सिकन्दर दीवाना ने उन्हें सँभाला पर उनके प्राण निकल चुके थे। सालार सैफुद्दीन और रज्जब भी काम आए। हठीले पीर भी मारे गए।' 'पर इनके मजार तो बहराइच में बने हैं?' सुमित बोल पड़े।

       'बहराइच तो अब मज़ारों का शहर हो गया है। पर इसके पहले बालादित्य या बालार्क तीर्थ था। यह एक सूर्य मंदिर था जिसमें उगते सूर्य (बाल रवि) को उकेरा गया था। मसऊद की मृत्यु के तीन सौ वर्ष बाद फिरोजशाह तुग़लक ने उसकी मज़ार बालार्क मंदिर में बनवा दी। अन्य सिपहसालारों की भी मज़ारें बनीं। सूफी फकीर के रूप में 'बालापीर' कहा गया। सूर्य मंदिर में रविवार को मेला लगता था। संयोग से मसऊद की मृत्यु भी रविवार को ही हुई थी। जेठ के पहले रविवार से प्रारम्भ हो पूरे महीने मेला चलता है। जेठ पूर्णिमा को सतरिख में भी मसऊद के पिता सय्यद सालार साहू की मज़ार पर लोग अकीदत करते हैं। मसऊद को गाजी बताया गया। सामान्य जन बहराइच मेले को 'गाज़ी मियाँ' का मेला कहते हैं। पर गाँव के बच्चे बालापीर को एक दूसरे रूप में याद करते हैं। मसऊद सतरिख में एक युवती से विवाह करना चाहते थे। इसी बीच युद्ध प्रारम्भ हो गया और उनका प्राणान्त हो गया। अब भी उनके विवाह की रस्म के लिए मेले में बारात आती है। बाला के विवाह से सीपी चूने लगती है। पके आमों की पहली खेप। पर देशी आमों के वे हरे-भरे बाग भी अब कट रहे हैं, फिर सीपी का चूना कैसे कोई जानेगा ? दशहरी, चौसा, लंगड़ा, सफेदा के अलावा और आमों का नाम बच्चे कैसे जानेंगे ? कोनहवा, बेलहवा, खटउवा, मिठउवा सब काल के गाल में समा गए न ? बहुत हुआ अलफांसों का नाम बच्चे जान लेंगे। अमावट, अमरस, पन्ना, पंचतारक संस्कृति वाले लौटाएंगे पर हरीराम, रमधनी, रमजान के लिए नहीं।' जैसे मैंने इतना कहा जेन की ताली बज उठी। 'गिसुली के साथ सीपी का उत्तम जोड़। धन्य हो आचार्य जी।' जेन ने कुछ ऐसा अभिनय किया कि हम दोनों को हँसी छूट गई।

'पर आचार्य जी, इतनी लम्बी भूमिका के बाद भी प्रश्न अनुत्तरित है।' जेन ने बांकी अदा से कहा।

'हाँ। सुहेलदेव अच्छे अश्वारोही एवं प्रशासक थे ही धार्मिक दृष्टि से भी काफी सहिष्णु थे। वे स्वयं जैन धर्म के अनुयायी थे। इसीलिए जैन मंदिर के सिंहद्वार पर उनकी  प्रतिमा प्रतिष्ठित है।'

'यह शहर धार्मिक सौहार्द के लिए भी जाना जाता है।' सुमित ने कहा।

'पर मुहर्रम के अवसर पर कुछ विवाद सुनने में आया है।'

'हाँ, जगमोहन महल के छोटे से टुकड़े को लेकर कुछ विवाद था जिसे सुलझाने की कोशिश हुई है।'

'क्या जगमोहन महल तक चल सकते हैं?' जेन उठ पड़ीं।

'क्यों नहीं ? चलिए।' कहते में चल पड़ा, साथ में जेन और सुमित ।

             रिक्शे पर बैठकर हम लोग पहुँचे। जगमोहन महल के ही कुछ अंश पर कांग्रेस भवन, कुछ अंश पर संघ कार्यालय तथा अन्य भवन बन गए हैं। एक दीवाल एवं चबूतरे का थोड़ा सा हिस्सा बचा है।

'इस महल का मुहर्रम से क्या सम्बन्ध ?' जेन ने पूछ लिया। 

'यह अवशेष गोण्डा नरेश देवीबख्श की ड्योढ़ी का है। मुहर्रम में ताजिया निकलती है। कर्बला में दफन करते हैं लोग। हुसैन की शहादत को याद करने का दिन। हिजरी सन का पहला महीना है मुहर्रम।'

इसी बीच रमजान भाई मिल गए। वे यहाँ के जानकार हैं। मेरे संकेत करते ही वे बोल पड़े। 'यह आगे महराजगंज मुहल्ला है। बाएँ राजा मुहल्ला। राजा का आवास होने के कारण ही राजा मुहल्ला नाम पड़ा। महराजगंज भी इसीलिए। राजा देवीबख्श के भवनों के अवशेष भी अब कहाँ रह गए ? ड्योढ़ी पर ताजिया रोकने का रिवाज़ था। यहाँ धूप दीप किया जाता। फूल चढ़ता। महाराज कुछ दूर तक ताजिया के साथ चलते । वे स्वयं ताजिया रखते थे। बनकसया और जिगिनाकोट में उन्होंने इमामबाड़ा बनवाया था। हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल थे राजा देवीबख्श ।'

'कौन थे राजा देवीबख्श ?' सुमित के इतना टोकते ही रमजान भाई उबल पड़े, 'कैसे जानोगे तुम लोग ? टिनिन टिनिन सुनने, टी.वी. देखने, चैटिंग से फुर्सत मिले तब न ? राजा ने कोई चालीसा भी नहीं लिखवाया। कोई शिलालेख नहीं। घरों, कचहरियों की दीवारें थीं ढह गईं। तुम्हारा मकान नहीं ढहेगा क्या ? जिगिनाकोट हो या गोण्डा का जगमोहन महल हमेशा कैसे रहेगा ? राजा में तुम्हारी रुचि न होना स्वाभाविक है। प्रजातंत्र में पले हो। प्रजातंत्र में राजा का क्या काम ? पर क्या वह सिर्फ राजा था ? माना वह माँ के समान बेगम हजरतमहल और अपना राज बचाने के लिए अंग्रेजों से लड़ा। नहीं बचा सका तो उसे जाना ही था। अंग्रेज उसका राज अपने पिटुओं में बाँटते ही। अयोध्या, बलरामपुर और पाण्डेय बन्धुओं में राज बँट गया। किस्सा खत्म। इससे अधिक कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं। तुम लोग सभ्य, सलीकेदार हो इस लिए भूल सकते हो पर आम आदमी कहाँ भूल पा रहा है ? बिरहा गायक अब भी झूम कर गाता है-

                जब देवीबकस कै राज रहा।

देवीबख्श के किस्से कोरी गप्प नहीं हैं भाई साहब।' रमजान ने ज़रा तेज़ आवाज़ में कहना शुरू किया।

'तुम्हारे खोजी लोग तो अब गप्प की भी उपयोगिता साबित कर रहे हैं। देवीबख्श किसी राजा के बेटे नहीं थे। गोण्डा की रानी भगवन्त कुंवरि ने उन्हें गोद लिया था। उम्र थी सोलह वर्ष। पिता दलजीत सिंह को क्या पता था कि उनका बेटा किसी दिन गोण्डा का राजा बनेगा। पर देवीबख्श राजा हुए। अपने कारनामों से उन्होंने जनता का ही नहीं मलिका का भी दिल जीत लिया। सही कामों के लिए ताकत चाहिए। देवीबख्श नवजवान, कुशल, ताकतवर घुड़सवार थे। तलवार चलाने में माहिर। घोड़े भी कभी-कभी बड़े ज़िद्दी मिल जाते हैं, जल्दी काबू में नहीं आते। अवध की राजधानी लखनऊ में एक घोड़े को काबू करने में कुछ लोग यम का दरवाजा खटखटा चुके थे। देवीबख्श के सामने भी प्रश्न चुनौती के रूप में आया। राजदरबार चुनौतियों के अड्डे होते हैं। देवीबख्श कूद कर घोड़े पर बैठे। शहर का चक्कर लगाकर जब वे लौटे घोड़े के मुँह से फेन निकल रहा था। झरोखों से नवाब की माँ मलिका किश्वर तथा अन्य बेगमों ने देखा। वे जीने से उतरीं। देवीबख्श की दृष्टि पड़ी। मलिका के पास पहुंचे। सिर झुकाया। मलिका के मुँह से निकला 'बेटा'। देवीबख्श की लबों ने उत्तर दिया 'माँ'। देश दुनिया गवाह है कि उन्होंने अन्त तक यह सम्बन्ध निभाया।

अंग्रेजी शासन के विरोध में जो स्वर फूटा उसे तुम लोगों ने विकल्पहीन विद्रोह कहा है न? कह लो जो चाहो। अत्याचार, दमन, अपमान होने पर ही व्यक्ति विरोध पर उतरता है न? आदमी तैयारी कुछ करता है, हो जाता है कुछ।' 

'हमारे अनुसन्धान का बहुत कुछ उपउत्पाद के रूप में ही आया है।'

सुमित बोल पड़े। 'यहीं कर्नलगंज से सटे सकरौरा में सैनिक छावनी थी। 9 जून को सिपाहियों ने विद्रोह किया। अंग्रेज अपने परिवार को सुरक्षित निकाल ले गए पर आग कहाँ बुझ सकी ? एक सुरक्षित ज़िन्दगी से असुरक्षित काँटों भरी मंजिल की ओर कोई क्यों चल पड़ता है ? बेगम हज़रत महल की एक आवाज़ पर चहलारी का अठारह वर्षीय नवयुवक राजा बलभद्र सिंह अपने छः सौ वीरों के साथ क्यों अपना प्राण दे बैठा ? फुर्सत हो तो रेठ नदी के पानी से उसकी कथा सुनो। पर तुम इक्कीसवीं सदी के लोग हो, तुम्हें फुर्सत कहां? तुम तो रेठ नदी का पानी भी बेचकर उसे सुखा दोगे ? व्यावसायिकता का युग है न ?'

रमजान भाई के व्यंग्यभरे वचन सुनकर जेन और सुमित कभी मुस्कराते, कभी खीझ उठते। चुभने वाली बात पर कुछ कहना चाहते पर मैं रोक देता। रमजान भाई से सुन लेना ही ठीक है।

'चलो, एक कप चाय पी लें, फिर बात हो।' सुमित ने कहा। हम चारों ने नजदीक की दूकान पर एक एक कप चाय पी। दूकान छोटी थी, चाय ठीक बनी थी। चाय पीकर हम लोग कांग्रेस भवन परिसर में ही धूप में बैठ गए। धूप अच्छी लग रही थी। रमजान भाई कुछ याद करते हुए बोल पड़े, 'देवीबख्श बेगम हजरत महल के पक्ष में निरन्तर अंग्रेजों से लड़ते रहे। अंग्रेजों ने लालच भी दिखाया पर वे कहते थे, 'कोई माँ का साथ कैसे छोड़ सकता है।' 'बेलवा और लमती में उनका निर्णायक युद्ध हुआ था।' मैं बोल पड़ा।

'हाँ, पहले बेलवा में अंग्रेजी सेना से टकराव हुआ। बेगम हजरत महल बेटे बिरजीस कद्र के साथ बौड़ी होते हुए नेपाल की ओर बढ़ रही थीं। दक्षिण छोर पर अंग्रेजों को रोकने का काम देवीबख्श कर रहे थे। फागुन का महीना। बेलवा शिविर में चहल पहल । देवीबख्श, मेंहदी हसन, जोत सिंह के सैनिकों में कुछ कर गुजरने का उत्साह। फगुनहट सर सर करती सुगन्ध बिखेरती हुई। सायंकाल भोजन के बाद ननकू कुछ गुनगुना रहे थे। जोत सिंह ने ननकू से कहा, 'कुछ हो जाए।' ननकू उठे। अपनी टोली के सदस्यों को बुला लाए, टेर भरी- 

            अवध मा होली खेलें रघुबीरा। अवध मा....।

            केकरे हाथ कनक पिचकारी केकरे हाथ अबीरा।

            रघुबर हाथ कनक पिचकारी सिय के हाथ अबीरा।

            अवध मा होली खेलें रघुबीरा। अवध मा....। 

ढोल की थाप और मजीरे की रुनझुन। सभी झूम उठे। 

'ननकू भाई 'जल कैसे भरौं' सुना दो मन फरफरा रहा है।' जोतसिंह के साथ बैठे ठाकुर ने कहा। ननकू फड़क उठे। ढोलकिया ने थाप दी। ननकू और उनके साथियों का स्वर लहराया-

             जल कैसे भरौं जमुना गहरी ? 

इतना निकलते ही लोग उछल पड़े। दुबारा ननकू ने जैसे ही टेरा-     

             जल कैसे भरौं जमुना गहरी ? 

लोगों की साँसें रुक गईं। 

             ठाढ़े भरौं ससुर मोरा देखैं

             निहुरि भरौं भीजै चुनरी । 

            जल कैसे भरौं जमुना गहरी ।

सभी योद्धा रस से सराबोर हो उठे। 'वाह ननकू वाह।'

बिरहा नहीं होगा ननकू भाई ?' एक सैनिक ने जैसे कहा, दूसरा दौड़कर नगड़ची बुला लाया। ननकू ने अपने साथियों को ललकारा। फेंटा कसा। कान में उंगली डालकर आलाप भरा-

           बिरहा केरी खेती न भइया 

           ना बिरहा फरै डारि 

           बिरहा बसे हृदव मां रामा 

           जब उमगे तब गाउ।

इसके बाद ननकू ने एक नज़र श्रोताओं पर डाल मंगलाचरण के रूप में सुमिरनी टेरी- 

         पहिल सुमिरनी मा शारद जे दिहिन बुद्धि औ ज्ञान सुनौ।      

         दूसर सुमिरनी मातपिता जे लड़िकस किहिन सयान सुनौ।

नगड़ची ने थाप दी ही थी कि खून से लथपथ एक सैनिक को पीठपर लाद कर लाया गया। 'अंग्रेजी सेना निकट आ गई है' नायक ने कहा। गान बन्द हो गया, सभी सन्न। जोतसिंह उठे। दस घुड़सवारों को साथ ले अनकने चल पड़े।

थोड़ी देर में जोतसिंह तेजी से लौटे। सेना की दो टुकड़ियों को बारी-बारी से पहरा देने के लिए कहा। स्वयं महाराजा देवीबख्श से विमर्श करने चले गए।

दिन निकलते ही देवीबख्श की फौज अंग्रेजी फौज के सामने थी। रोक्राफ्ट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना आगे बढ़ी। तुमुल युद्ध। अंग्रेजों की सेना में गोरखा और सिख भी। युद्ध गति पकड़ गया। दोनों ओर के कितने ही सैनिक यमलोक पहुँच गए। रात में बैठकें होतीं। घायलों का उपचार होता। गोली, बारूद आदि के भण्डारों की छानबीन होती। रणनीति पर विचार होता। देवीबख्श की आठ बन्दूकें नष्ट हो गईं। पांच सौ जवान काम आए पर जवानों के उत्साह में कोई कमी न थी।

             रोक्राफ्ट ने अपने शिविर में बैठक की। अंग्रेज सेना के बहुत से जवान हताहत हुए। होपग्रान्ट की मदद मिल पाना संभव नहीं हो पा रहा। उसे लगा कि देवीबख्श से इस समय पार पाना बहुत कठिन है। रणनीति के तहत उसने अपनी सेना को पीछे हटने का निर्देश दिया। रोक्राफ्ट कप्तानगंज की ओर लौट पड़ा। देवीबख्श के खेमे में भी खुशी की लहर दौड़ गई। कोई आसानी से मौत का वरण कहाँ करना चाहता है ?

समय के साथ अवध का अधिकांश अंग्रेजी सेना के कब्जे में आ चुका था। गोण्डा, बहराइच के लोग ही चुनौती दे रहे थे। यहाँ भी बलरामपुर, अयोध्या के शासक, कृष्ण दत्त पाण्डेय, भया हरिरत्न सिंह मझगावाँ अंग्रेजों के साथ आ गए थे। गोरखपुर, बस्ती में अंग्रेज काबिज हो चुके थे।

बरसात बीती। जाड़ा शुरू हुआ। अंग्रेजी सेना पुनः संगठित हो देवी बख्श को घेरने के लिए आगे बढ़ी। देवीबख्श लमती में अपना अड्डा जमा चुके थे। उसके साथ मानसिंह की बहन मानवती देवी जो नवाब वाजिद अली शाह की बेगम थीं, तुलसीपुर की रानी ऐश्वर्य देवी, बुढापायर के अशरफ बख्श, मझगवाँ के भगवन्त सिंह, देवीबख्श सिंह के साले चर्दा के जोत सिंह छः द्वारा के कलहंस, क्रान्ति बिगुल बजाने वाले मंगल पाण्डेय के भतीजे बुझावन पाण्डेय, शंभूनाथ शुक्ल, अच्छन खाँ, बाबा राम चरण दास, अमीर अली आदि सहयोगी के रूप में। ब्राह्मण, क्षत्रिय, यादव, मेवाती, पठान सहित हर कौम के लोग। संख्या बाइस हजार। अंग्रेजों से लोहा लेने का उत्साह। सरयू के उस पार होपग्रान्ट के साथ कर्नल टेलर के नेतृत्व में चार हजार तीन सौ सैनिक। बस्ती की ओर से रोक्रफ्ट की फौज। उत्तर की ओर से बिसेनों जनवारों की सेना के साथ हरि रत्न सिंह, साथ में कृष्ण दत्त पाण्डेय और उनके सहयोगी।

सत्ताईस नवम्बर को युद्ध शुरू हो गया। हरि रत्न सिंह एवं कृष्ण दत्त पाण्डेय की सेनाएँ उत्तर से आगे बढ़ीं। पूर्व से रोक्राफ्ट, सरयू के उस पार से होपग्रान्ट। नदी पार करना मुश्किल था। देवीबख्श के नवजवान नदी को अपने घेरे में ले चुके थे। जो पार करता उस पर कड़ी नज़र रखते। होपग्रान्ट ने कुछ सैनिकों को उतारने की कोशिश की पर सफल न हो सके। देवीबख्श के सैनिकों ने नावें डुबा दीं। रोक्राफ्ट, हरिरत्न और कृष्ण दत्त पाण्डेय अपना दबाव बनाने का प्रयास करते रहे। दोनों ओर के सैनिक निरन्तर हताहत ।

रोक्राफ्ट चिन्तित दिख रहे थे। होपग्रान्ट अयोध्या से ही अपनी रणनीति बनाने में व्यस्त थे। अयोध्या के राजा मान सिंह होपग्रान्ट के साथ विमर्श करते रहे। युद्ध गति पकड़ रहा था। हताहतों की संख्या बढ़ती गई। युद्ध का आज तीसरा दिन। देवीबख्श सिंह ने नवजवानों का उत्साहवर्द्धन किया। रोक्राफ्ट ने अपने नवजवानों की पीठ थपथपाई। घमासान युद्ध। तोपें और बन्दूकें आग उगलने लगीं। अश्वारोही और पैदल अपने विपक्षियों को रौंदने के लिए उतावले, उन्माद का वातावरण।

होपग्रान्ट और मानसिंह ने योजना बनाई। सिखों को साधु तथा अन्य सैनिकों को दूध बेचकर लौटने वाले दुधहा के वेष में सरयू उतारने का प्रयास किया जाए। अगले दिन युद्ध चलता रहा और दूध देकर लौटने वाले दुधहा तथा संन्यासी सरयू उतरते रहे। वे उतर कर गांवों में शरण लेते। इधर रोक्राफ्ट एवं कृष्णदत्त में गुपचुप हुई। कृष्णदत्त ने कहा, 'आप चिन्ता न करें। मैं महाराज गोण्डा के यहाँ रहा हूँ। नसनस जानता हूं। अपने लोग मदद करेंगे।' रोक्राफ्ट आश्वस्त नहीं हो पा रहे थे। पाण्डेय ने उन्हें हर तरह से आश्वस्त करने का प्रयास किया।

युद्ध चलता रहा। मैदान लाशों से पटता रहा। मझगवाँ के भगवन्त सिंह हरावल में आगे बढ़े। अंग्रेजों की ओर से गोरखा धुआँधार गोलियां चला रहे थे। 'अल्लाहो अकबर,' 'हर हर महादेव' की गर्जना करते हुए देवीबख्श के सैनिक गिरते रहे। अंशुमान क्षितिज के नीचे चले गए। अन्धेरा होने लगा। सेनाएँ लौट पड़ीं।

            युद्ध का छठा दिन। रक्त और लोथों से पटे लमती के मैदान में अश्वारोही और पैदल आमने सामने। पाण्डेय हरिरत्न तथा रोक्राफ्ट की सेनाएं लमती को घेरने लगीं। दुधहा और संन्यासी वेष में आए हुए सैनिक भी लाम बन्द हो गए। देवीबख्श सिंह की सेना के लिए रसद आने का रास्ता भी घिर गया। दोनों ओर से भयंकर युद्ध । देवीबख्श के सामने कोई टिक नहीं पा रहा था। अचानक उनकी तोपें बन्द हो गईं। तोपची दौड़ते हुए आए, 'महाराज अनर्थ हो गया। बारूद में बालू और भूसा भरा है।' रोक्राफ्ट और होपग्रान्ट का दबाव बढ़ गया। तोपों के चुप होते ही अयोध्या की ओर से भी सैनिक नावों से आ गए। भयंकर रक्तपात। गाजर मूली की तरह सैनिक कटने लगे। बन्दूक और तोप के सामने भाले, बरछे, कृपाण कब तक काम करते ? मझगवाँ के भगवन्त सिंह खेत रहे। भगवान अंशुमाली अस्ताचल की ओर जाने की तैयारी कर रहे थे। राजा के सैनिक प्राणों पर खेलते हुए आगे बढ़ रहे थे। उत्साह में कोई कमी न थी। अंग्रेजों की तोपें और बन्दूकें पके आम की तरह राजा के सैनिकों को गिराती रहीं। अन्धेरा होने पर सेनाएँ शिविर में लौटीं। देवीबख्श के शिविर में सैनिकों की संख्या हज़ार के आसपास थी। महाराज ने सैनिकों को इकट्ठा किया। घायलों के उपचार की व्यवस्था हुई सैनिकों का दाह कर्म किया गया। पुनः सब लोग इकट्ठा हुए। महाराज ने पूछा 'अब?' 'हम लड़ेंगे अन्तिम साँस तक।' एक स्वर से सब ने कहा। 'पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।' महाराज की गम्भीर वाणी गूंजी। 'हमारी तोपों ने मौन साथ लिया है। समय हमारे विपरीत है।' 

'तब ?' जोत सिंह ने पूछा। 

'हमें इस वक्त टिकरी वन में अपने को व्यवस्थित करना होगा। हमारा कोई भी जवान अंग्रेज सेना द्वारा बन्दी नहीं होना चाहिए।'

          अपने बचे हुए सिपाहियों एवं साथियों के साथ देवीबख्श सिंह, जोतसिंह, मानवती देवी, अशरफ बख्श टिकरी वन की ओर चल पड़े। अंग्रेज सेना पीछा करने की सोचे इसके पहले ही बचे हुए सैनिकों के साथ वे टिकरी वन में पहुँच गए। प्रातः अंग्रेजी सेना शिविर में लूटपाट कर टिकरी की ओर चल पड़ी। तब तक देवीबख्श सिंह बनकसया कोट पहुँच चुके थे। सहयोगी कम थे पर राजा की सुरक्षा में प्राण देने को तत्पर। अंग्रेज सेना टिकरी जंगल में राजा को खोजती रही।

               बनकसया कोट भी राजा के लिए सुरक्षित नहीं था। कुछ साथियों के साथ वे भिनगा की ओर प्रस्थान कर गए। सेना की एक टुकड़ी अंग्रेजों को रोकने के लिए रुक गई। अंग्रेजी सेना जब बनकसया पहुँची, राजा समर्थकों ने करारी टक्कर दी। राजा की यात्रा निष्कण्टक करने के लिए राजा के सैनिकों ने अपने प्राण देकर अंग्रेजों को रोका।

            अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ देवीबख्श सिंह ने अपनी दूसरी और तीसरी रानी को मैके, चर्दा एवं पयागपुर पहुँचवाया। भदावर के राजा की बेटी राजमहिषी महाराज के साथ ही रहीं। भिनगा होते हुए महाराज सुराही दरें से दांग उपत्यका के समीप देवखुर रतन नाथ मंदिर के निकट चले गए। दांग और देवखुर की जलवायु में कौवे को भी जूड़ी आती है। पर अब विकल्प क्या था ? किसी बीहड़ स्थान पर ही रहा जा सकता था। रानी तुलसीपुर ने भी अपने गोद के बच्चे को घोड़ी पर बिठाया, स्वयं कूद कर बैठीं, भूमि को प्रणाम किया, कुछ थोड़े साथियों को साथ लिया और देवखुर आ गईं। उनके पति राजा दृगनारायण सिंह को बेलीगारद में गोली मार दी गई थी। किसी समय दांग तुलसीपुर राज का अंग था किन्तु इस समय नेपाल राज्य में था।

अशरफ बख्श को अंग्रेजों ने उनकी कुटिया में ही जला दिया था। नवागगंज के निकट होला तालिब में उनकी मजार अब भी है। आपको एक बात बताऊँ ? 'बताइए जो भी जानकारी आपके पास हो ?' सुमित उनकी जानकारी से प्रभावित हो रहे थे।

'आज अयोध्या में राम मंदिर का मसला उलझ गया है न ?'

'हाँ उलझा ही है।' मैंने भी सहमति व्यक्त की।

'पर अठारह सौ सत्तावन की क्रान्ति के समय हिन्दू मुसलमानों ने इसे सुलझा लिया था ?'

'हाँ मैडम, बिल्कुल सच कह रहा हूं रत्ती भर भी झूठ नहीं।'

'कैसे ?' जेन प्रश्न किए जा रही थीं।

'उस क्रान्ति के समय हिन्दू मुसलमान का एका देखने लायक था।'

'वह तो था।' सुमित भी बोल पड़े।

'आपको बता दूँ। अंग्रेजी सेना का मुकाबला करते हुए देवीबख्श के सहयोगी अयोध्या के बाबा राम चरण दास, शम्भूनाथ शुक्ल, अच्छन खाँ हसन कटरा के अमीर अली जैसे योद्धा पकड़ लिए गए थे। बाबा राम चरण दास और अमीर अली को अयोध या में रामजन्मभूमि के निकट कुबेर टीले पर एक इमली के पेड़ में लटका कर फाँसी दे दी गई। शम्भूनाथ शुक्ल और अच्छन खां के सिर रेती से रेत रेत कर विद्रोहियों का भेद पूछा पर इन बहादुर देशभक्तों ने प्राण दे दिया पर भेद न दिया।' रमजान मियाँ कहते हुए रोते जा रहे थे। हम सभी की भी आँखें भर आईं थीं।

'यही बाबा रामचरण दास, अमीर अली, अच्छन, शम्भूनाथ शुक्ल के प्रयास से झगड़े की जड़ ही खत्म हो जाने वाली थी। फैजाबाद की बादशाही मस्जिद में मुसलमानों की सभा को संबोधित करते हुए अमीर अली ने कहा, 'भाइयों, बहादुर हिन्दू हमारे साथ सल्तनत मजबूत करने के लिए लड़ रहे हैं। इनके दिल पर काबू पाने के लिए हमारा फर्ज़ है कि अयोध्या की श्रीराम जन्मभूमि जिसे हम बाबरी मस्जिद कहते हैं, जो हकीकत में राम चन्द्र जी की जन्मभूमि को जमींदोज़ करके बनवाई गई थी, हिन्दुओं को वापस दे दें। इससें हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद की जड़ इतनी मजबूत हो जाएगी जिसे अंग्रेज के बाप भी नहीं उखाड़ पाएंगे।' अमीर अली के इस भावनात्मक भाषण का मुसलमानों पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे इसके लिए खुशी खुशी राजी हो गए। यह खबर जब अंग्रेजों को लगी, उनके होश उड़ गए। उन्होंने अपना जाल फेंका। उनकी कूटनीति के कारण अमीर अली और बाबा रामचरण दास का यह प्रयत्न सफल न हो पाया। हम अभी तक इसे झेल रहे हैं।'

'देवी बख्श की ड्योढ़ी का यह चबूतरा तो अब घेर दिया गया है।'

जेन ने कहा।

'मैडम, यहाँ कब्जे का सवाल था। कोई देवीबख्श के लिए कुछ नहीं कर रहा था। जमीन का एक टुकड़ा बचा है। इसको लेकर भी हिन्दू मुसलमान के बीच नफरत का बीज बोया जा सकता है। यह कहो, सूझ बूझ से उस पर देवीबक्श की मूर्ति बिठा दी गई है। भाईचारा बो नहीं सकते, नफरत ही बोओ।' रमजान भाई का चेहरा सुर्ख हो गया था। 'मैंने उर्दू और संस्कृत दोनो में एम.ए. किया है। 

दोनों की मूल भावनाओं को समझने की कोशिश की है। आम आदमी अमन चाहता है। आप भगवान अंशुमाली को जल अर्पित करो, हम नमाज़ पढ़ें। क्या फर्क पड़ता है इससे? 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सूत्र हो या जिगर की बानी- 'हमारा पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे,' एक ही दिशा की ओर इशारा करते हैं, पर लोग चलने दें तब न? ज़रा इस दिशा में भी सोचिए ।'

'जरूर ज़रूर', जेन रमजान भाई के वक्तव्य से गद्गद् थीं। 

'भाई साहब अपने बारे में कुछ बताएँगे?' जेन ने प्रश्न कर दिया। 

'मेरी ज़िन्दगी कोई खास नहीं। बिलकुल आम आदमी हूँ धूलि की तरह।' 

'नहीं भाई, आप के विचार कितने संगत हैं? हम आपके बारे में जानना चाहते हैं।' सुमित भी बोल पड़े। 'जरूर बताइए भाई साहब', मैंने भी जोर दिया। 'आप इस धरती की उपलब्धियों से रूबरू हो रही हैं मैं तो बस..।'

'तब भी। आपकी ज़िन्दगी भी एक उपलब्धि है।' जेन कह गईं।

'ठीक है, बताए देता हूँ। मेरे बाबा के बाबा सत्तावनी क्रान्ति में शहीद हुए थे। बाबा भी राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत थे पर अपनी ज़मीन जायदाद के बारे में भी सजग थे। उनके पास करीब तीन सौ बीघे ज़मीन थी। मेरे बाबा अकेले थे पर मेरे अब्बू दो भाई थे। अब्बू पढ़े लिखे, इन्सानियतपसन्द और कौल के पक्के थे। स्वप्न में भी कोई कौल करते तो उसे पूरा करते। उनकी गाँव जँवार में अच्छी साख थी। उनकी शादी हुई तो मामू की शादी भी पिता जी की बहन से हुई। मैं पैदा हुआ तो अब्बू बहुत खुश हुए। लोगों को खिलाया पिलाया। मेरा बचपन बहुत खुशी खुशी बीता। मैं पढ़ने लगा। इसी बीच मामी जो मेरी फूफी भी थीं, का देहान्त हो गया। अब्बू की एक छोटी बहन और थीं। अब्बू ने चाहा कि उनकी बहन से मामू फिर शादी कर लें पर मामू तैयार न हुए। इसी पर अब्बू खफा हो गए। मेरी माँ और मुझे उन्होंने ननिहाल भेज दिया। मम्मी को फिर कभी ससुराल जाना नसीब नहीं हुआ। मम्मी और हम घर से निकाल दिए गए थे। नाना ने बहुत विनती की, समझाया पर अब्बू माँ और मुझे लाने के लिए तैयार नहीं हुए। नाना ने ही हम लोगों की परवरिश की। पढ़ाया लिखाया और दस बीघा ज़मीन मम्मी के नाम लिख दी। उधर पिता जी ने अपनी ज़मीन जायदाद चाचा जी को लिख दी।'

'आपका ध्यान नहीं आया उन्हें?' जेन ने पूछ लिया। 

'ध्यान का प्रश्न ही कहाँ था? वे तो मामू और नाना से बदला लेना चाहते थे। माँ और मुझे निकालकर उन्होंने बदला ले लिया।'

'किसी ने उन्हें समझाया भी नहीं।' जेन निरन्तर प्रश्न करती रहीं।

'वे किसी की मानते कहाँ थे ?'

'क्या माँ अभी हैं?'

'उनकी मौत हो चुकी है।'

'और पिता ?'

'उनकी मौत तीन महीने पहले हुई है।'

'आपको उन्होंने बुलाया नहीं ?'

'वे छः महीने बिस्तर पर ही रहे। मैंने ही उनकी सेवा की।'

'उन्होंने कुछ कहा नहीं ?'

'क्या कहते ? ज़मीन जायदाद पहले की चाचा जी को लिख चुके थे। अब तो उनके पास कुछ था नहीं।'

'मुझे सन्तोष है कि उनकी सेवा कर सका।'

'आपके मन में कोई असन्तोष ?'

'बिलकुल नहीं।'

'सैकड़ों बीघे के वारिस थे आप ?'

'मैडम, इस देश में करोड़ों लोगों के पास एक बीघा भी नहीं है। मेरे नाना तो मेरे लिए. ।' कहते हुए वे उठ गए थे। आगे किसी की कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई। सुमित ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा, 'भाई साहब एक एक कप चाय और हो जाय।'

'कोई ज़रूरत नहीं है भाई साहब।' रमजान भाई ने कहा।

'इसी बहाने दस मिनट आपका साथ रहेगा।' जेन ने भी आग्रह किया। 'चलिए, जब आप लोगों की इच्छा है।' हम चारो लोग रानी जामवन्ती कुंवरि चौराहे तक आए। वही एक ढाबली पर चाय बनवाई। खड़े खड़े चाय पी। सभी के मन में एक कसक थी। रमजान भाई शून्य में कहीं खो गए थे। हम लोग भी चुप। जेन ने बैग से बिस्कुट निकालकर सबको दिया।

'चाय अच्छी है।' रमजान भाई ने कहा। 'अपना ही सुख दुःख महत्वपूर्ण नहीं है औरों के सुख-दुःख को भी समझने की ज़रूरत है।'

हम लोगों ने चाय खत्म की। रमजान भाई भी अपनी चाय ख़त्म कर हाथ मिला चल पड़े। जेन ने उन्हें आदाब कहा। वे खुश हो गए। हम तीन लोग गुड्डूमल चौराहे की ओर बढ़ गए।