कोमल की डायरी - 7 - फिर आऊँगा Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 7 - फिर आऊँगा

सात

फिर आऊँगा

                          इतवार, बाईस जनवरी २००६ 

ठंड अभी कुछ कम नहीं हुई। सुबह अच्छी ठंड पड़ती। अनेक वृद्ध ठंडक में चल बसते हैं। आज आसमान बिलकुल साफ था। आज मैं पहले गाँधी पार्क पहुँच गया था। सुमित ने पहुँचते ही पूछ लिया, 'राजा देवी बख्श दांग में कब तक जीवित रहे?'

मैंने दो पंक्तियां सुनाई-

              रानी राजा सिषर पर लोग भोग असथान । 

              तहं तन तजि कैलास गे, शिव के वचन प्रमान। 

      सुमित हंस पड़े। 'यह प्रश्न का उत्तर तो नहीं हुआ।' जेन ने कहा। 'लोकवाणी में वे भले अमर हों पर भौतिक रूप से उनका शरीर छूटा होगा।' 'हाँ, वे दिवंगत हुए लमती युद्ध के सात साल बाद कालाजार से। दाँग की जनता ने उनका खुलकर साथ दिया। तभी वे वहाँ रह सके। नेपाल नरेश ने अनेक सेनानियों को मौत के घाट उतरवा दिया था। अंग्रेज और नेपाल नरेश की साठगांठ थी।' कालाजार से राजा का मरना सभी को खल रहा था। 'कहते हैं फजल अली ने प्रथम कलक्टर का सिर काट लिया था।' सुमित ने उत्सुकता प्रकट की।

'फजल अली ने गोण्डा के प्रथम कलक्टर का सिर काट लिया था यह सच है।' 'पर कैसे? कलक्टर तो सुरक्षित घेरे में रहता है।' जेन को आश्चर्य हो रहा था। 'हाँ। फरवरी १८५६ में अवध प्रान्त ब्रिटिश अमलदारी में आया। गोण्डा-बहराइच मंडल में गोण्डा को पृथक जिला बनाया गया। सी विंगफील्ड कमिश्नर और कर्नल व्यायलू गोण्डा के डिप्टी कमिश्नर हुए। पूरे साल वे तहसीलों, थानों की व्यवस्था कराते रहे। तुलसीपुर के तराई जंगल में फजल अली ने अंग्रेजों के शिविर लूट लिए। कर्नल व्यायलू उसे दण्डित करने के लिए अपने दल के साथ गए। एक मिट्टी के किले में फजल शरण लिए हुए था। किले को घेरते हुए कर्नल व्यायलू ने फजल अली को समर्पण करने के लिए ललकारा। फजल अली ने जवाब में गोली चला दी। गोली कर्नल व्यायलू को लगी। वे घोड़े से गिर पड़े। उनके गिरते ही उनका दल भाग खड़ा हुआ। फजल अली बाहर निकला और व्यायलू का सिर काट कर ले गया।'

'किसी कलक्टर का का सिर काट लिया जाना सामान्य घटना नहीं है।' जेन ने कहा। 'पर बहुत असामान्य भी नहीं। आज भी अधिकारी आए दिन पिटते रहते हैं, इतना विकास होने के बाद भी।' मैंने बताया।

'फजल अली का फिर क्या हुआ?' सुमित ने पूछा।

'अंग्रेज सैनिकों ने एक दूसरी मुठभेड़ में उसे मार गिराया।'

'कहते हैं वह शातिर अपराधी था।' सुमित बोल पड़े।

'हो सकता है, पर सत्ताधारी विद्रोही को अपराधी ही कहता है।'

'गोण्डा शहर कब बसा?' जेन ने प्रश्न करते हुए अपना चश्मा उतार कर साफ किया।

'आज जिसे खोरहसा कहा जाता है वही पहले राजधानी थी। गोण्डा उसी के अन्तर्गत झाड़ी झंखाड़युक्त भूमि थी। खोरहसा भी डुमरिया डीह शासक उग्रसेन डोम को हराने वाले सहजसिंह के वंशजों द्वारा बसाया गया था। वे कलहंस थे। सहज सिंह के वंशज लगभग दो सौ वर्षों तक राज करते रहे। राजा अचल नारायण सिंह ने रतन पाण्डेय से कर्ज़ लिया था। उसे लौटाया नहीं। रतन पाण्डेय अनशन पर बैठ गए। उनकी मौत हुई। अचल नारायण की दोनों पत्नियों के एक एक बच्चा था पर अचल नारायण की मौत के बाद उनके सेनापति प्रताप मल्ल ने सत्ता सँभाली। इन्हीं के वंशज मान सिंह १६१२ में गद्दी पर बैठे। वे एक शिकार करते हुए गोण्डा तक आए। उनके साथ कुछ कुत्ते भी थे। कुत्तों ने एक खरहे को देखा। उसका पीछा करने लगे। खरहा कुछ दूर तक भागता रहा जब बचाव का कोई उपाय न दिखा तो खड़ा हो कुत्तों की ओर झपटा। कुत्ते भाग खड़े हुए। मानसिंह को आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा जिस भूमि पर खरहे भी झपट्टा मार सकते हैं वह भूमि निश्चित रूप से वीर-प्रसू होगी । उन्होंने अपनी राजधानी खोरहसा से गोंडा स्थानान्तरित की। पर तब गोंडा का वह रूप नहीं था जो आज है।'

'चार सौ वर्ष पहले का गोंडा आज का गोंडा कैसे हो सकता है? जेन ने टिप्पणी की।

'गाँव या शहर ऊँची ज़मीन पर बसाए जाते हैं। गोण्डा शहर की भूमि भी पूरी तरह समतल नहीं है। ऊँचे भागों पर पहले लोग बसे। ज्यों ज्यों जन संख्या बढ़ती गई निचले भागों पर बसे। अब तो गड्ढे, नाले भी नहीं बच रहे। कभी यहाँ के सभी पोखर एक दूसरे से जुड़े थे। उनका पानी एक नाले से निकलकर टेढ़ी नदी में पहुँच जाता था। पर पोखरों का रास्ता बन्द कर दिया है लोगों ने।' हम तीनों लोग गाँधी पार्क से निकलकर सागर तालाब के किनारे आ गए।

'सागर तालाब के बीच यह टीला, उस पर भवन ?' जेन ने उत्सुक्ता प्रकट की।

'तुमने ठीक पकड़ा। गोण्डा नरेश अद्वैत सिंह के पौत्र राजा शिव प्रसाद सिंह कृष्ण भक्त थे। उन्हें वृंदावन बहुत प्रिय था। वे महीनों वृन्दावन में ही रह जाते। रानी चिन्तित हुईं। उन्हें डर लगा कि महाराज कहीं वृन्दावन ही न रह जाएँ। उन्होंने गोण्डा में ही वृन्दावन साकार करने की योजना बनाई। उसी का परिणाम है सागर तालाब उसके बीच बना गोवर्द्धन। राधाकुण्ड भी उसी कड़ी का हिस्सा है। राधाकुण्ड और तालाब दोनों जुड़े हुए थे राधाकुण्ड से बांसी युद्ध में आर्थिक मदद करने वाले डल पाठक का नाम भी जुड़ता है।'

सागर तालाब के सामने देवीबख्श पुस्तकालय। परिसर में देवीबख्श की अश्वारोही मूर्ति। हम लोग इसे देखकर आगे बढ़ गए। 'आगे रामलीला मैदान है' मैंने बताया। 'उसके आगे हनुमान गढ़ी। चलते हुए हम लोग राधाकुण्ड की सीढ़ियों पर धूप सेवन करने लगे। राधाकुण्ड के अन्दर पाँच कुएँ हैं। अब तो जल ही नहीं दिखता इसमें। चारों ओर सीढ़ियाँ और पूर्व की ओर जानवरों के पीने के लिए गऊ घाट ।'

'इतना सुन्दर पोखर पर अव्यवस्थित,' जेन के मुख से निकला।

'अपने शहरों को साफ सुथरा कहाँ रख पा रहे हैं हम ? सुमित बोल पड़े। हम लोग देर तक पोखर की जलकुम्भी को निहारते रहे।

'यहाँ बगल में कृष्ण चन्द्र 'हैरत' और उनके भाई लक्ष्मी चन्द्र दद्दा रहते थे जिनकी पंक्तियाँ लोगों की ज़बान पर हैं। बाबू ईश्वर शरण के निवास श्याम कुटीर तक हम लोग गए। आज़ादी की लड़ाई का केन्द्र था यह घर। ईश्वर बाबू नहीं हैं पर उनकी सरलता, अतिथि प्रेम, कार्यकर्ता का जीवन देश और समाज के लिए सब कुछ बलिदान करने का भाव क्या कोई भूल सकेगा? यहीं रहते 'जयहिन्द' कहकर सबका स्वागत करने वाले गंगाबारी, खद्दर की आधी बांही की कमीज़ और नेकर पहने तिरंगा लिए। तेरह साल की अवस्था में कार्यकर्ता बने। 'स्वराज' के लिए अपने जीवन का दान दिया। जीवित रहते उसे निभाया।'

'आज क्यों नहीं निकलते ऐसे लोग?' जेन कसमसा उठीं।

'हमने अपने कारखाने का साँचा बदल दिया है।' सुमित कह गए। राधाकुण्ड से होते हुए हम लोग पूर्व की ओर चले। कुछ चलकर मैं ठिठका। बताया, 'यहाँ से दक्षिण गणिकाओं के निवास हैं। बाएँ हाथ का क्षेत्र चौक है।' 'चौक के निकट ही गणिकाएँ क्यों पाई जाती हैं?' जेन ने पूछ लिया। 'जहाँ गणिकाएँ रहती हैं वहीं चौक बन जाता है यह भी तो कहा जा सकता है।' मैंने कथ्य को उलट दिया। 'चौक बाजार का केन्द्रीय स्थल हुआ करता था। गणिकाएँ भी चौक के आसपास बसती रहीं जहाँ ग्राहक मिल सकें। गणिका आवासों के निकट बाज़ार विकसित होते रहे। गणिकाओं और बाज़ार के बारे में रोचक कथा कही जाती है।'

सुमित मुस्करा उठे।

'कैसी कथा?' मैंने पूछ लिया।

'शहर से गणिकाओं को निकालकर बाहर बसाया गया। देखा गया कि वहीं बाज़ार बस गया। उन्हें फिर शहर से बाहर किया गया। पुनः वे केन्द्र में आ गईं। आज चौक से हटकर नई आधुनिक बाज़ारें विकसित हो रही हैं पर वहाँ भी अड्डे विकसित हो जाते हैं। पुराने चौक अब घनी आबादी वाले क्षेत्र हो गए हैं। चौक का एक अर्थ गणिका निवास भी होता है।'

'यह बीच में पाण्डेय भवन है जिसका एक भाग उन्होंने दूकानदारों को बेच दिया है।'

'पाण्डेय लोगों का?' जेन ने प्रश्न किया।

'हाँ, देवीबख्श के देवखुर चले जाने पर गोण्डा का राज कृष्ण देव पाण्डेय एवं अयोध्या के राजा मान सिंह में बँट गया। अशरफ बख्श का बूढ़ापायर और सादुल्लानगर भैया हरिरत्न सिंह को तथा तुलसीपुर महाराजा बलरामपुर को मिल गया।'

'जो आज़ादी के लिए लड़े वे मर-खप गए।'

'आज़ादी के लिए हमेशा कुछ लोगों को मरना-खपना पड़ेगा अन्यथा आज़ादी की रक्षा नहीं हो सकेगी।' सुमित ने जोड़ दिया।

'ठीक कहते हो सुमित भाई। यह संघर्ष तो आज भी बहुत ज़रूरी है। जो अपना ही पेट भरने में लगे हैं, उनसे यह लड़ाई संभव नहीं है।'

'हाँ, आज आज़ादी पर किए जाने वाले आक्रमण अधिक सूक्ष्म, अप्रत्यक्ष और शीघ्र पहचान में न आने वाले हैं पर उनकी मारक शक्ति अधिक है। जिसका शिकार किया जा रहा है उसे पता ही नहीं चल पाता।'

जिगर साहब के मुहल्ले की ओर हम लोग बढ़े ही थे कि दाईं ओर एक मकान के सामने एक युवती दिख गई। मैंने एक-दो बार उसे देखा था। बताया, 'वह गणिका है।'

'सुमित साक्षात्कार लेना चाहोगे?'

'क्यों नहीं? यदि तुम्हारी इच्छा हो।'

'मैं तो चाहती हूँ इससे बातचीत की जाए।'

'चलिए', सुमित आगे बढ़ गए। युवती को आभास हो गया। निकट पहुँचने पर उसने मुस्करा कर स्वागत किया।

'आपसे कुछ बात करना चाहती हूँ।'

'मैं समझ गई थी। आप पत्रकार हैं न?

'पत्रकार तो मैं नहीं हूँ। हम दोनों जवाहर नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के शोधार्थी हैं।'

'तब तो और भी अच्छा है। आइए हम लोग कमरे में बैठकर बात करें।' हम तीनों उसके साथ उसकी बैठक में आ गए। कमरा साफ सुथरा, सजावट की चीजें थोड़ी पर करीने से रखी हुई। मकान पुराना था। बरसात में उतरती तरी के निशान बहुत स्पष्ट । फर्श पर बिछा हुआ कालीन भी पुराना, रंग कुछ उतरा हुआ। युवती अन्दर चली गई। किसी वरिष्ठ महिला से बात कर लवंग और इलायची का डिब्बा लेकर आ गई। हम सब के आगे रखा। तीनों ने लवंग इलायची को लेकर मुँह में डाला। 'कहिए क्या पूछना चाहती हैं?' बैठते हुए उसी ने प्रश्न कर दिया।

'आप कितने दिनों से इस धन्धे में हैं?'

'पाँच वर्ष से ।'

'कैसे इस धन्धे में आ गई?' मेरी तो दादी, नानी भी इस धन्धे में थीं। पर इस धन्धे में दुर्घटनावश भी बालिकाएँ आती हैं। कोई न कोई घटना उन्हें ठेल देती है। स्वेच्छा से ये लड़कियाँ इस धन्धे में नहीं आती हैं। पर एक बार आ जाती हैं तो निकल नहीं पातीं, यदि निकलना चाहें तब भी।'

'क्यों?'

'आप तो जानती ही हैं कि इस धन्धे में कोई सम्मान नहीं है। पैसा, प्रतिष्ठा कुछ थोड़े लोगों को ही मिल पाती है। अधिकांश खर्चे पूरे कर पाएँ यही बहुत है। मुख्य धारा से खिसके हुए लोग हैं हम। घरों के दरवाज़े हम लोगों के लिए सदा बन्द हो जाते हैं। अपवाद स्वरूप कहीं कहीं कुछ का पुनर्वास हो गया, पर यह संख्या बहुत कम है। उन्हें भी अनेक परेशानियाँ उठानी पड़ती हैं।' 'अनेक बड़े नगरों में लोगों ने माँग रखी है कि उन्हे यौनकर्मी के रूप में स्वीकार किया जाए।' 'अपने को सुरक्षित रखने के लिए ऐसा कर रहे हैं वे। समाज में सबसे असुविधा-ग्रस्त प्राणी हैं हम, निषिद्ध पल्ली वासी। हमें अभ्यास करना पड़ता है कि मन न चाहे तब भी देह का व्यापार कर सकें। कोठे पर सब गलत लोग ही नहीं आते, भद्र लोग भी आते हैं स्वयं को बचाते हुए। किसी समय नृत्य गान का पेशा सम्मान का धन्धा था। आज भी अनेक लोग इस पेशे में सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं। महानगरों में तो हम लोगों का धन्धा हाइजेक हो गया है।'

'हाइजेक?' जेन मुस्कारा उठीं। सुमित भी सतर्क हुए।

'हाँ हाइजेक ही कहना चाहूँगी मैं। कालगर्ल, नाइट क्लब, डांसबार सहित अनेक रूपों में। अब तो पुरुष वेश्याओं की खोज होने लगी है।'

'ठीक कहती हैं आप। महानगरों में ऐसा हो रहा है। पर आपके यहाँ?'

 'यहाँ शादी-विवाह में पहले लोग रंडियों का नृत्य देखते थे। फिर धीरे-धीरे लौंडों के नृत्य की ओर झुकाव हुआ। पूर्वांचल और बिहार में लौंडों के नृत्य का चलन अधिक है। इसीलिए हम लोगों के धन्धे पर दबाव बढ़ा है। टी०वी० ने भी प्रभावित किया है। नृत्य गान में काम न मिलेगा तो विवश होकर यौनकर्म की ओर झुकाव होगा ही। जीविका का साधन भी है यह पुरातन धन्धा। अनेक लोग इस धन्धे से पलते हैं।' 'ग्राहकों की रुचियों में अन्तर पड़ा है?'

'बहुत लोग चाहते हैं कि हम लोग वह सब करतब भी दिखाएँ जो हैम्बर्ग और बैंकाक की वेश्याएं दिखाती है।'

'आप बैंकाक हो आई हैं क्या?'

'गई तो नहीं हूँ लेकिन जो गए हैं उनके मुख से सुना है। बहुत गलत नहीं बताया होगा उन लोगों ने।'

'गायन में आपकी रुचि?'

'शास्त्रीय और सुगम दोनों में है। दादरा और ठुमरी समझने वाले ज़रूर कम हुए हैं किन्तु ग़ज़ल, लोकगीत, पाप आदि का चलन बढ़ा है। सभी कुछ गाना पड़ता है, तन थिरकाने वाले गीत भी।'

'क्या इतनी कमाई हो जाती है कि खर्च आसानी से चल सके?'

'नहीं। खर्च कठिनाई से ही चलता है। हम लोगों के साथ ते पूरी टोली होती है। सब का खर्च चलाना पड़ता है।'

'क्या गणिकाएँ शहर में ही केन्द्रित हैं?'

'नहीं। गाँवों में भी उनके पुरवे हैं। इस जनपद में आज़ादी के पहले छोटे छोटे तालुकेदार थे। उनके संरक्षण में वेश्याएँ भी पलती थीं। राजाओं की आर्थिक स्थिति कमजोर हुई पर पतुरियन पुरवा अब भी आबाद हैं। उनके ग्राहक अब सामान्य जन से आते हैं। गा-बजाकर किसी प्रकार अपना पेट पालती हैं। बालक बालिकाओं को अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती है।'

'आप तो शिक्षित हैं?'

मैंने भी कानपुर रहकर पढ़ा है। बहुत सा काम स्थान छोड़कर करना पड़ता है।'

'क्या शिक्षा का लाभ आपको मिला है?'

'हाँ, इधर-उधर भागना ज़रूर पड़ता है पर काम मिल जाता है। पढ़ाई का फायदा मिलता है। बराबर में कुछ न कुछ पढ़ती सीखती रहती हूँ। मैंने दिल्ली से नृत्य की शिक्षा ली है। दिल्ली और बम्बई में स्टेज शो से भी जुड़ी रही।'

'फिर यहाँ?'

'यह मातृभूमि है। माँ और नानी ने यहीं ज़िन्दगी बिता दी। कुछ इसका भी ऋण है।'

'आपने मकान को नया रूप नहीं दिया?'

'बताया नहीं, मेरी कमाई से अनेक लोग पलते हैं। कुछ समाज का भी ऋण है न?'

'एक प्रश्न, बिलकुल व्यक्तिगत ।'

'क्या?'

'क्या कभी किसी एक से जुड़ने की इच्छा हुई?' 'आपने कठिन प्रश्न किया है। हम सब को किसी एक से न जुड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है। पर मन तो मन है। किसी से जुड़ने का सपना भी पलता रहता है, वेश्या के मन में यह संघर्ष निरन्तर चलता रहता है। नूपुर पहनने की लालसा में कितनी ही वेश्याएँ विचलित हुईं।'

'आपसे मिलकर बहुत कुछ जाना। क्या कोई गीत भी गुनगुना सकेंगी?'

'इस समय साज-बाज तो नहीं है पर आपके अनुरोध को टालूँगी नहीं।' वे उठीं और हाथ में घुंघरू लेकर आ गईं। हाथों से ही घुंघरू बजाना शुरू किया।

'आपको एक लोक प्रचलित झूमर सुना दूँ।'

'अवश्य ।'

'एक स्त्री का पति परदेश जाने की तैयारी कर रहा है। पत्नी दुःखी होती है। उसकी वेदना शब्दों में फूट पड़ती है।'

उन्होंने गुनगुना कर गाना प्रारम्भ किया-

                 जुगुति बताए जाव 

                 कवने विधि रहिबो राम। 

                 जौ तुहैं सामी बहुत दिन बितिहैं 

                 अपनी सुरति मोरी बहियाँ लिखाए जाव। 

                 जुगुति बताए जाव 

                 कवन विधि रहिबो राम ।

                 जौ तुहैं सामी बहुत दिन बितिहैं 

                 बिरना बोलाइ मोको मैके पहुँचाए जाव। 

                 जुगुति बताए जाव 

                 कवने विधि रहिबो राम। 

                 जौ तुहैं सामी बहुत दिन बितिहैं 

                 बहियाँ पकरि मोको गंगा डुबाए जाव । 

                 जुगुति बताए जाव 

                 कवने विधि रहिबो राम।

स्वर लहरियों में खो गए हम लोग। कितना मधुर स्वर। आलाप भरते ही रस की बरसात। भावों की कितनी सूक्ष्म पकड़। 'बहुत अच्छा गाया आपने।' जेन कह उठीं। सुमित भी विभोर हो उठे।

'इस कर्म में लगी महिलाओं को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। क्या उनमें कोई अन्तर ?' जेन कहते सकुचा रही थीं।

'हम लोगों के नाम बहुत हैं। संस्कृत में एक शब्द है वार। इससे जुड़ कर अनेक शब्द बने हैं वारमुखी, वारयुवती, वारयोषित, वारवधू, वार वनिता, वारवाणी, वार विलासिनी, वारसुन्दरी, वारणी, वारकन्या, वारांगना। अनेक अन्य शब्द हैं।

गणिका, क्रीड़ानारी, नगरनायिका, मंगलामुखी, रंडी, वेश्या, तवायफ, नगरवधू, वर्चटी, विभावरी। कोई शब्द दूसरे का पर्यायवाची भले ही मान लिया गया हो पर सबके अपने कुछ विशिष्ट अर्थ हैं, अलग वज़न है। हैसियत और कर्म के आधार पर लोगों को नाम मिलता है। कोई शेम्पेन पीता है, कोई कच्ची दारू। कोई शेम्पेनबाज नहीं कहता पर दारूबाज अक्सर कहा जाता है। क्या कीजिएगा? समाज कम हैसियत वालों के प्रति अधिक निर्मम होता है।'

'आपने बहुत सही नब्ज पर उँगली रखी। इधर जिगर साहब की मज़ार तक जाना चाहती हूँ।' जेन के कहते ही हम लोग उठ पड़े।

'ज़रूर जाइए। अच्छे शायर थे। उनके कूचे से गुजरिए। आप सब को मेरा प्रणाम।' कहकर युवती ने हाथ जोड़ लिया। सामाजिक अन्तर्द्वन्द्वों की पोटली संभाले हुए हम लोग निकले। चलते हुए हम लोग जिगर साहब की मज़ार की ओर बढ़ गए। मज़ार के रखरखाव से जेन दुःखी हुई। हमें भी कष्ट हुआ। जिगर साहब का बचपन मुरादाबाद में बीता। वहीं उन्होंने उपनाम मुरादाबादी लिखना शुरू किया। असगर साहब गोंडा में थे। जिगर साहब उनकी शायरी से मुतासिर हुए। वे भी यहाँ चश्में के कारोबार के सिलसिले में आए और बस गए। असगर साहब का देहान्त गोण्डा में न होकर इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ था।

             शाइस्तए सोहबत यहाँ कोई नहीं असगर 

            हिन्दू नहीं देखे कि मुसलमां नहीं देखा।

सुमित गुनगुना उठे। जेन ने जिगर साहब का कलाम पढ़ा था वे भी-

             कोई न घर है अपना कोई न आस्ताँ है 

             हर शाख है नशेमन हर फूल आशियां है।

गुनगुनाने लगीं। मुझे भी कृष्ण चन्द्र हैरत की पंक्तियां-

             ये कह दो जाके जाहिद से अगर समझाने आए हैं।

             कि हम दैरो हरम होते हुए मैखाने आए हैं।

याद आती रहीं।

हम लोग लौट पड़े। मोलहू राम की दुकान पर काफी पी। जेन दूकान में आने जाने वालों को गौर से देखती रहीं। जो भी आता उसकी दृष्टि भी जेन पर अवश्य पड़ती। काफी पीकर तीनों आगे बढ़े। पीपल चौराहे पर राजेन्द्र लाहिड़ी की मूर्ति को देखकर जेन बोल पड़ीं।

'यह तो बिलकुल मासूम बच्चा लगता है।'

'हाँ, बहुत कम उम्र थी लाहिड़ी की। छब्बीस वर्ष पाँच माह अठारह दिन के थे जब फाँसी हुई। काकोरी वाद में इन्हें फाँसी की सजा हुई। इनकी मूर्ति जेल के फाँसीघर पर भी लगी हुई है।'

'चलो उसे भी देखते हैं।' सुमित चल पड़े। गुड्डूल चौराहे के आगे बढ़ते ही मैंने कहा कि यह हास्य सम्राट जी.पी. श्रीवास्तव का आवास है जिनकी हास्य रचनाएँ आपने पढ़ी होंगी।

'पढ़ने को कहाँ मिलीं? सुन रखी है।' जेन ने उत्तर दिया।

'नाम ही हँसा देते हैं- लम्बीदाढ़ी, लतखोरी लाल, इधर जनाना उधर मर्दाना, भैया अकिल बहादुर, दिल ही तो है। कहानी, नाटक उपन्यास सभी कुछ लिखा उन्होंने, प्रेमचन्द और प्रसाद के साथ ही।'

महिला अस्पताल चौराहे पर रिक्शा लिया। जेल की ओर चल पड़े। जेल के पिछले हिस्से में फाँसीघर है, उस पर लोहे का जालीदार बड़ा गेट है जिससे लाहिड़ी की मूर्ति साफ दिखती है। हम लोगों ने उसी गेट से मूर्ति को देखा।

'काकोरी वाद?' जेन ने पूछ लिया।

'चौरी चौरा काण्ड के बाद गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया था। इससे कांग्रेस के बहुत से नेता और नवजवान तिलमिला उठे। वे आन्दोलन को चलाए रखना चाहते थे। क्रान्तिकारियों ने सबसे पहले हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी अक्टूबर 1924 में बनाई। संघर्ष करने के लिए धन की आवश्यकता थी। इसके लिए एक योजना बनी। 9 अगस्त 1925 को दस व्यक्तियों ने लखनऊ के निकट काकोरी गाँव में 8 डाउन ट्रेन से आने वाला रेल विभाग का खज़ाना लूट लिया। इसी को काकोरी काण्ड कहा जाता है। ब्रिटिश सरकार ने अन्धाधुन्ध गिरफ्तारियां कीं। मुकदमा चलाया। अशफाक उल्ला खाँ, राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी हुई। चार को आजीवन कारावास, छः को लम्बी सजाएँ। चन्द्रशेखर आज़ाद पकड़े नहीं जा सके। राजेन्द्र लाहिड़ी का जन्म 29 जून 1901 को जिला पद्मा में हुआ था। वे काशी में स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष के छात्र थे। उसी समय क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आए और काकोरी योजना में सम्मिलित हुए। फाँसी के समय लाहिड़ी का जज़्बा देखने लायक था। उन्होंने पत्र लिखकर बड़ी बहन से आशीष माँगा। चेहरे पर ज़रा भी शिकन नहीं। वे कहते थे-मैं मरने नहीं जा रहा हूँ, अपितु स्वतंत्र भारत में शीघ्र जन्म लूँगा। उनके घर के कुछ लोग बाबू श्यामाचरण के यहाँ आकर ठहरे थे। फांसी पर चढ़ते समय लाहिड़ी ने वन्देमातरम् का उद्घोष किया। बगल के अरहर के खेत में बैठे उनके घर वाले, ईश्वर शरण और लाल बिहारी टण्डन आदि ने वन्देमातरम् का उत्तर वन्देमातरम् से दिया।' सुमित बताते गए।

'नवयुवकों में क्या यह जज़्बा आज दिखता है?' जेन पूछ बैठीं।

'इसका उत्तर तो तुम्हीं दे सकती हो।' सुमित बोल पड़े।

'प्रश्न उठता है तो कहीं न कहीं सन्देह अवश्य है।' जेन ने टिप्पणी की।