कोमल की डायरी - 1 - नदिया धीरे बहो Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 1 - नदिया धीरे बहो

                  तेरा तुझको सौंपते..............?


हर रचना की एक आधारभूमि होती है। स्थानीयता का सच जब वैश्विक सच में बदल जाता है, रचना काल एवं स्थान की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है। कोई भी उपन्यासकार हवा में मुक्के नहीं चलाता। उसकी लेखनी समाज के विविध वर्णों, बिम्बों को उभारती हुई एक दिशा पकड़ती है। उसमें अतीत की स्मृतियाँ, वर्तमान की चुनौतियाँ, भविष्य का स्वप्न सन्निहित होता है। अतीत और भविष्य जिस विन्दु पर मिलते हैं, वही वर्तमान है। वर्तमान का विस्तार अतीत एवं भविष्य दोनों को समेटता है। वर्तमान को व्याख्यायित करने के लिए भी अतीत की आवश्यकता होती है। वही तीसरी आँख बन वर्तमान को अर्थ प्रदान करता है।

इस उत्तर औद्योगिक, ज्ञानात्मक समाज में कथा का रूप और कथ्य दोनों बदल रहा है। कथाकार के सामने भी अधिक जटिल चुनौतियाँ हैं। स्थानीयता और वैश्विकता, सन्निकटन और समन्वयन, समाकलन और विखण्डन, समरूपीकरण और विभेदीकरण की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चल रही हैं। इनके बीच की सामाजिक संरचना अत्यन्त जटिल रूप धारण करती जा रही है। विचारधाराएँ, विश्लेषण प्रक्रियाएँ उन्हें समझने की दृष्टि तो देती हैं पर उनकी विविधता घटनाओं के विविध अर्थ प्रस्तुत करती है। रचनाकार को यह देखना ज़रूरी होता है कि किन घटनाओं को किन सन्दर्भों के साथ रखा जाए। प्रतिक्रियात्मक रचनाएँ तात्कालिकता से वेष्ठित होती हैं। कोई स्थानीय चित्रण वैश्विक बन जाता है यदि उसकी अपील सार्वकालिक एंव सार्वभौमिक हो। इसीलिए विशिष्ट भूमि का चित्रण भी वैश्विक चित्रण कर रूप ले लेता है।

'कंचन मृग' एवं 'शाकुन पाँखी' के बाद 'कोमल की डायरी' मेरा तीसरा उपन्यास है। इसकी भावभूमि गोनर्द है जो ऊपरी सरयूपार मैदान का अंग है। जैसा कि नाम से ही प्रकट है, उपन्यास डायरी शैली में है। इसमें इतिहास की स्मृति है, भूगोल की चुनौतियाँ हैं, जिजीविषा की गाथा है। कहते हैं अर्थ सन्देश में नहीं ग्रहीता में होता है। कृति जैसी भी है आपके हाथों में सौंप रहा हूँ- 'तेरा तुझको सौंपते का लागत है मोर।'

चैत्र शुक्ल१, सम्वत् २०६४ 
मंगलवार, २० मार्च, २००७ 

                                             - डॉ. सूर्यपाल सिंह 

एक
पुरोवाक्ः नदिया धीरे बहो

बहादुर पैदल इतनी तेज़ गति से चल रहा है कि पीछे चलने वालों को कभी-कभी उसके तलवे दिख जाते हैं। आज पेशी है। रौताइन काकी की खोज में वह हरिद्वार गया था। कल गाड़ी से उतरकर पहले वह कोमल के आवास पर ही गया था। ताला लगा देखकर घर चला गया। आज उनसे भेंट करनी है। टेढ़ी के निकट पहुँचा तो मधुर कंठ से गाती हुई एक युवती का स्वर 'नदिया धीरे बहो सैंया जी उतरेंगे पार' कानों में रस घोल गया। युवती ने दूसरी बार टेरा 'नदिया धीरे बहो' तो उसकी दृष्टि घास छील कर बैठी चार युवतियों की ओर चली गई। कितनी मग्न हैं युवतियाँ? कितना मधुर स्वर? उसे अपनी पत्नी का चेहरा याद आ गया। बहुत अच्छा गाती है वह। विनोद का कोई अवसर निकाल ही लेती मुट्टी भर अपेक्षाओं के बीच। दोनों फलों की रेड़ी लगाते। पर अब यह सब सपना है। पुश्तैनी ज़मीन के लिए कचहरी का चक्कर, रौताइन काकी का गुम होना, अब फुर्सत कहाँ? कोमल भैया से मिलकर संगठन की समस्याओं पर विचार करना है। छबीले को खड़ा करना है। काकी को खोज निकालना है। एक साथ कितने काम? पर करना है, हर हालत में करना ही है। विचारों के साथ उसके पैर भी उठ रहे हैं। शब्द नहीं फूट रहे हैं तो क्या हुआ? विचारों के साथ कदमताल करते उसके पाँव। उसे अपना पाँव भी मजबूती से रखना है। कोमल भैया यही तो बताते हैं। वे देश दुनिया की बात पढ़ते रहते हैं। वह तो जो पढ़ पाया था उसमें कुछ भूल ही गया था। यह कहो, मुकदमा लड़ते, कोमल भैया का संसर्ग करते फिर कुछ पढ़ने लगा है। वह 'मृतक संघ' का सचिव है। चौंकिए नहीं, वह कोई भूत या जिन्न नहीं है। वह एक आदमी है पर सरकारी कागज़ात में मरा हुआ। वह अकेला ऐसा आदमी नहीं है। बहुत से ऐसे लोग हैं जो जीवित हैं पर उनकी ज़मीन, ज़ायदाद हड़पने वाले उन्हें मरा हुआ बताते हैं। पूरी ज़िन्दगी कई लोग कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाते रहे पर अपने को जीवित सिद्ध न कर पाए। इसी बीच उनका असली परवाना आ गया और चल बसे। अब भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो दौड़ रहे हैं। उन्हीं लोगों ने 'मृतक संघ' की स्थापना की है। कोमल को वे अध्यक्ष बनाना चाहते थे पर उन्होंने बिना कोई पद लिए निरन्तर काम करने की बात कही। कोमल ने ही इन लोगों को सुझाया था कि संघ बनाकर संघर्ष करने में सुविधा रहेगी।

बहादुर गांधी पार्क में कोमल की प्रतीक्षा करता रहा। वे अक्सर प्रातः गांधी की मूर्ति के आसपास किसी पेड़ के नीचे बैठे कुछ पढ़ते-लिखते हुए मिल जाते। लोग उनसे यहीं मिलते। कोमल यथासंभव लोगों की मदद करते। जब दस बज गया और कोमल नहीं दिखे तो बहादुर को चिन्ता हुई। वह उनके घर की ओर गया। कोमल बहराइच रोड पर रहते थे। अकेले थे, भोजनादि स्वयं बना लिया करते। जीविका चार बीघे खेत तथा बम्बई की कमाई के अवशेष से चल जाती। शेष समय अध्ययन और जनसेवा में बिताते। सेवा के बदले किसी तरह का प्रतिदान लेने से बचते। किसी की एक कप चाय भी स्वीकार करने में संकोच करते। सत्तू और चबेना उनके असली साथी थे। वह कोमल की कोठरी तक गया पर उनकी कोठरी में ताला लगा था। आसपास एक-दो लोगों से पूछा भी पर कोई कुछ बता न सका। बहादुर को कचहरी जाना था। उसके पैर कचहरी की ओर बढ़ गए।

लौटते समय उसने फिर कोमल को टटोलने की कोशिश की, पर व्यर्थ। दुःखी मन से वह अपने गाँव चला गया। कोमल ने अपने कोठरी की एक चाभी बहादुर को भी दे रखी थी। कभी-कभी वह कोमल के साथ रुक जाता था। पर आज वह चलते समय चाभी घर पर ही भूल आया था। जब से रौताइन काकी लापता हुईं बहादुर चैन से सो नहीं पाया है। वही एक थीं जो कहने को तैयार थीं कि यह असली बहादुर है। वह रौताइन काकी की खोज में बहुत दौड़ा पर पता नहीं लगा सका। लोग मज़ाक में पूछते, 'रौताइन काकी तुम्हारी कौन होती हैं?' यह क्या बताए ? काकी को गुम हुए पूरे तीन सप्ताह हो गए। कोमल भी चिन्तित हो उठे थे। क्या उनके गुम होने का सम्बन्ध उनकी गवाही की तैयारी से है? कहीं यह सच कहने के लिए खड़े होने की सज़ा तो नहीं है ? काकी हमेशा सच कहने के लिए प्रस्तुत रहतीं। कपट करने वाले उनसे डरते, कभी-कभी तंग भी करते। उनके पास दो बीघा खेत था। उसी में मेहनत करके जो उगा पातीं उसी से काम चलता। विवाह के डेढ़ महीने बाद ही विधवा हो गई थीं। उम्र थी पच्चीस वर्ष। ससुराल में ससुर के आलावा कोई न था। पिता ने दूसरा विवाह करने का प्रस्ताव किया था।

ससुर जी भी सहमत थे पर काकी ने कहा, 'जो होना था हो गया। अब विवाह की बात मत करो।' पिता चुप हो गए थे। ससुर की आँखें चमक उठी थीं। कुछ वर्ष पहले ससुर का भी देहान्त हो गया था। काकी अकेली हो गई थीं। लोग उनका सम्मान करते पर छल-छद्म करने वाले उनके खरेपन से परेशान रहते। कुछ बुजुर्ग कहते रौताइन को गवाह बनने की क्या ज़रूरत थी? चुपचाप अपने घर रहतीं। क्या एक रौताइन के गवाह बनने से दुनिया बदल जाएगी? पर काकी सबका जवाब देतीं। ज़रा भी चिन्तित न होतीं। वे सच के पक्ष में खड़ी मिलतीं। अब पंचायत में लोग उन्हें बुलाने से कतराते। वे खर कहतीं और उस पर डटीं भी। पंचायतों में भी अब धाँधली बढ़ने लगी थी। लोग पंचायत में धंधलियाने की कोशिश करते। उन्हें दुःख होता और पीड़ित के पक्ष में खड़े होने में ज़रा भी संकोच न करतीं। स्वार्थ कहीं छू नहीं गया था। दो बीघा ज़मीन और एक गाय उनकी पूँजी थी। गाय पालने से कुछ समय बचता तो गाँव की बच्चियों को पढ़ातीं। दो महीने पहले उन्होंने गाय को बेच दिया था। दूसरी गाय लाने की जुगुत में थीं कि गुम हो गईं।

शाम को बहादुर अपने घर पहुँचा तो उसका पोर-पोर टूट रहा था। अपनी कोठरी का ताला खोला। अंदर चूहे उछलकूद मचाए हुए थे। लालटेन जलाई। उसे धीमा कर दिया। कमीज़ उतार कर खूँटी पर टाँगी। तख़्ते पर लेट गया। कोठरी की छत में दो छिपकलियाँ चिपकी हुईं थी। एक छिपकली ज़मीन पर गिर पड़ी। कुछ देर चुप पड़ी रही। फिर धीरे से उठी और दीवार के सहारे ऊपर चढ़ने लगी। बहादुर छिपकली का चढ़ना देखता रहा। थोड़ी दूर जाने पर फिर गिरी, कुछ क्षण चुपचाप पड़ी रही। फिर धीरे से पूँछ घुमाई और दीवार पर चढ़ने लगी। फिर गिरी और पुनः वही क्रिया। गिरना और चढ़ना जारी रहा। बहादुर लेटे लेटे गिनता रहा। पाँचवीं बार छिपकली छत तक पहुँच ही गई। बहादुर सोचने लगा क्या हम छिपकली से भी गए बीते है ? वह उठा। हाथ पैर धोकर जैसे ही तख़्ते पर बैठा चुनमुन आ गया। अभी युवा है। कक्षा आठ तक पढ़ा है। सड़क किनारे बैठकर पंचर बनाता है। दस-बीस कमा लेता है, उसी में मगन रहता है। 'काका आपने सुना?' लगभग फुसफुसाते हुए चुनमुन ने कहा। 'क्या?' कहकर बहादुर उत्सुक दृष्टि से उसे देखने लगा। 'लोग कहत हैं कि रौताइन काकी के खेत लिखिगा।' 'के लिखावा?' 'यही तो नहीं पता चलत। पर कहत बहुत लोग हैं।' 'तुमने कब सुना?' 'आज ही, काका। किसी से कहिएगा नहीं। नहीं तो पहाड़ टूट पड़ी। कोई बाधै लिखावा होई और का कूकुर-बिलारि लिखैहैं? अब बाघे के नाउँ के लेय ? यही से पता नहीं चलत है। कुछ दिन मा पता चली। का हँसी-खुशी छिपत है?'
'काकी का भी कुछ पता चला ?'
'काकी के बारे में तो कोई साँस नाहीं लेत। जब खेत-पात लिख दिहिन तब हिंया का करै आवैं ? गाँव जँवारि मा वहै साँचु कहै वाली रहीं। न जाने का उनके मन मा आवा बेच-बाँचि के चल दिहिन?'
'चुनमुन, पता नहीं उन्होंने लिखा या.?' बहादुर ने लम्बी सांस खींची।
'क्या? काकी ने नहीं लिखा और लिखिगा ?'
'कौन जाने चुनमुन ?' 'किसी से बताइएगा नहीं, काका।'
'किसी से क्यों बताऊँगा? तुम ज़रा पता लगाते रहना। जो लोग पंचर बनवाने आते हैं शायद कोई कुछ पता दे जाए।' 
इसी बीच चुनमुन को उसके पिता ने पुकारा। वह उठा और चला गया।
बहादुर की आँखें जलने लगीं। 'तो काकी का भी खेत लिख गया।' वह बुदबुदा उठा। 
'काकी भी लिखने गई होंगी। नहीं नहीं काकी ने खेत नहीं लिखा है। कोई तिकड़म किया गया है। चुनमुन ठीक कहता है किसी बाघ ने ही लिखाया होगा। जब तक सामान्य जन मिमियाते रहेंगे, बाघ जो चाहेंगे कर लेंगे। आम जन को हमेशा क्या बकरी बन कर रहना होगा? इसीलिए कोमल भैया संगठित होने की बात करते हैं। पर आज वे भी नहीं मिले। हर बार वे गांधी जी की मूर्ति के आसपास मिल जाते थे जैसे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हों। यदि कोमल जी भी काकी की तरह. । नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बहादुर का दिमाग सुन्न हो गया था। वह तख़्ते पर बहुत देर तक बैठा रहा। भोजन बनाने की इच्छा न हुई। थका था, लेट गया।
            सबेरे उठा। कोमल की दी हुई चाभी जेब में रखी। शहर जाने की तैयारी करने लगा। गर्मियों के दिन पाँच कोस पैदल। जल्दी में उसने दो रोटी सेंकी। नमक मिर्च में एक प्याज काटकर उसी से रोटी खा गया। एक छोटा सा डंडा हाथ में लिया और चल पड़ा।
            गांधी पार्क पहुँचते ही उसकी आँखें कोमल को ढूँढ़ने लगीं, पर कोमल का दूर-दूर तक कहीं कोई पता न था। उसके पैर कोमल के आवास की ओर बढ़ गए। मन आशंकित था। कोठरी में आज भी ताला लगा था। मुकदमें के कुछ कागज़ात कोमल के पास रखे थे। उसने कोठरी का ताला खोला। उसके मुकदमें के कागज़ एक फाइल में करीने से रखे थे। फाइल के नीचे एक डायरी रखी थी। डायरी उठाकर उसने उसके पन्नों को उलट-पलट कर देखा। पूरी डायरी भरी थी। एक बार मन में आया कि डायरी को वहीं उसी तरह रहने दे। पर दूसरे ही क्षण सोचने लगा-कोमल का कुछ पता नहीं चल रहा है, डायरी यहाँ रखना ठीक नहीं है। वे आ जाएँगे तब लाकर दे देंगे। इस समय इसे अपने साथ ले चलना ही ठीक है। वह अपनी फाइल और डायरी साथ ले कचहरी चला गया। दिन भर कोमल के बारे में ही सोचता रहा। शाम को अपने गाँव की ओर चला तो उसे लगा कि कोई उसका पीछा कर रहा है। वह बार-बार पीछे मुड़कर देखता। जब वह रुक जाता तो पीछा करने वाला भी किसी बहाने रुक जाता । वह एक निश्चित दूरी बनाए रखता। गांव निकट आ गया। अन्धेरा होने लगा था। पीछा करने वाला व्यक्ति भी बाईं ओर मुड़ एक पगडंडी पकड़ चला गया। बहादुर की जान में जान आई। क्या उसके भी पीछे कुछ लोग लगे हैं? उसका मन पंछी पंख फैला उड़ता रहा। संशय की काली छाया में स्मृतियों के अनेक बिम्ब उभरते रहे। रबी की फसल कट चुकी है। खेत खाली पड़े हैं। दो महीने पहले गाँव में गेंहूँ की फसल लहरा रही थी। वह अपने खेत में दूसरे की फसल देखता। एक टीस उठती। गन्ने को कांटे पर ले जाते किसान कभी ट्राली, कभी बैलगाड़ी में। घटतौली से अनजान। गन्ने को जल्दी से जल्दी बेचने के लिए पर्चियों की मारामारी। कुछ नई चीनी मिलें बन रही हैं। किसान सोचते हैं कि इससे मारामारी कम हो जाएगी। भुगतान भी शायद जल्दी होने लगे। जाड़े में अब भी किसी किसी के दरवाजे पर अलाव जलते। पर अलाव पर पूरी पंचायत न जुटती। एक्का-दुक्का लोग बैठे मिलते, प्रायः बूढे या बच्चे। संशय का जिन्न गांवों में भी कुलांचे भरता।
              बहादुर ने अपनी कोठरी का दरवाजा खोला। फाइल और डायरी को एक किनारे रखा। बर्तन जूठे थे, उन्हें साफ करने लगा।
              तीन दिन से लगातार बहादुर कोमल की खोज में घूमा है। आज गांधी पार्क में गांधी की मूर्ति के सामने बैठा वह गाँधी की आँखों को निहार रहा है। 'क्या यही तुम्हारा सपना था?' वह मूर्ति से ही पूछता है। 'क्या इसीलिए तुमने अपना सबकुछ दाँव पर लगाया था?' उसे लगता है कि गांधी की मूर्ति मुस्करा रही है। वह खीझ उठता है। 'तुम्हारी मुस्कान से मुझे कोई राहत नहीं मिल रही है। काकी का पता नहीं, कोमल का भी पता नहीं चल रहा। कमजोर आदमी के उदय के सपने को बिखरते देख रहे हो न?' बहादुर मूर्ति के चेहरे पर आँखें टिकाए हुए है। उसे लगता है कि गाँधी की मुस्कान गायब हो गई है। उसने रौद्र रूप धारण कर लिया है। उसकी आँखें झपक जाती हैं। कोमल की डायरी उसके अंगोछे में बंधी हुई है। वह उठा और चलने ही वाला था कि मेरी दृष्टि पड़ गई। मैंने पुकार लिया 'अंगोछे में क्या बाँध रखा है?' 'डायरी है। कोमल भैया की कोठरी में मिली थी। वे मिल ही नहीं रहे हैं।' उसने लम्बी साँस ली। मैंने देखना चाहा। उसने खोलकर डायरी मेरे हाथ में पकड़ा दी। मैंने उलट पलट कर देखा। कोमल और बहादुर से कई बार भेंट हो चुकी थी। एक बार मेरे घर भी आए थे वे। उसने कहा, 'बाबू जी डायरी आप अपने पास ही रख लो। जब कोमल भैया मिलेंगे तो उनको दे दिया जाएगा। मैं कहाँ-कहाँ इसे लिए घूमूं?' मैंने डायरी ले ली। घर आकर उसे पढ़ने लगा। बिना खत्म किए उसे बन्द नहीं कर सका।
                  दूसरे दिन मैं गाँधी पार्क पहुँच गया। कोमल वहीं सुबह मिलते थे। आज सन्नाटा था। कोमल का कहीं कोई निशान नहीं। बहादुर भी कोमल की खोज में आ गया। मैंने पूछा, 'डायरी तुमने पढ़ी थी?'
'उलट-पलट कर देखी थी।' उसने कहा।
'मुझे लगता है रौताइन काकी अब इस दुनिया में नहीं हैं।'
वह दहाड़ मार कर रो पड़ा, 'कैसे पता लगा बाबू? कैसे?'
'डायरी के अन्तिम पृष्ठों से संकेत मिलता है।'
'क्या ?'
'हाँ, डायरी के पन्ने यही कहते हैं।'
जब थोड़ा स्थिर हुआ तो कहा, 'कहाँ लिखा है बाबू? हमें भी सुना दो।' मैंने डायरी का वह अंश सुनाया। वह जैसे कहीं खो गया, 'तो काकी गईं पर भैया कोमल?'
'कोमल की खोज में तो मैं भी हूँ।' 
'बाबू जी। बाबू जी...।' कहते वह आवेश में आ गया। चेहरा सख्त हो गया। आँखें लाल। थोड़ी देर बाद वह सामान्य हो पाया।
'हम सभी कोमल की खोज में हैं। अभी कोई पता नहीं चल सका। डायरी के अंश क्या कुछ कहते हैं ?'
'इसका संकेत तो मिलता है कि ख़तरा उनके लिए भी था।'
'क्या ! उनके लिए भी? नहीं... नहीं कोमल भैया हम लोगों को छोड़कर नहीं जा सकते।' वह फूट पड़ा।
काकी कहीं रहीं 'रोना नहीं' और तुम रो रहे हो। हम लोगों को कोमल की खोज में जुट जाना चाहिए। काकी के शब्दों को मैंने फिर सुनाया। उसकी मुट्टियाँ बँथ गईं। रोना बन्द हो गया। चेहरा पुनः लाल हो गया।
डायरी के अन्तिम कुछ पन्नों को मैंने उसे फिर सुनाया। लगा जैसे वह अपने को तोल रहा है।
'बाबू जी इस डायरी के अंश क्या जनता तक नहीं पहुंच सकते ?'
'पहुँच क्यों नहीं सकते ?'
'तो ऐसा कुछ करो बाबू जी... ऐसा कुछ करो। डायरी का दर्द सभी अनुभव करें बाबू जी।'
'ठीक सोचते हो तुम ?'