कोमल की डायरी - 8 - दौड़ते दौड़ते ही Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 8 - दौड़ते दौड़ते ही

आठ

दौड़ते दौड़ते ही

                             सोमवार, तैइस जनवरी २००६

गाँधी पार्क में आज चहलपहल ज्यादा है। शिक्षामित्रों का जमावड़ा है। वे आज प्रदर्शन करते हुए जिलाधिकारी को ज्ञापन देंगे। उनकी यात्रा गांधी मूर्ति के सामने से ही प्रारम्भ होगी। गाँधी की मूर्ति जैसे आज मुस्कराकर कह रही है, 'मैंने कहा था न शिक्षा को स्वावलम्बी बनाओ। कहाँ बनाया आपने? अब तो शिक्षा की समस्या से ही कतरा रहे हो। कब तक चलेगा यह सब ? भागोगे कब तक? इसके सामने खड़ा होना ही पड़ेगा। आज ही क्यों नहीं? कल शायद बहुत देर हो जायगी।' इनकलाब के नारे लगे। युवाओं में जोश आया। सभी शिक्षामित्र युवा ही हैं। इन्हें नियमित किया जाए। समय से वेतन मिले यह उनकी मुख्य मांगें हैं। सुमित आ गए थे। सुमित ने एक दो लोगों से बात की। 'छह छह महीना वेतन ही नहीं मिल पाता।' एक कहते हुए रोष से भर गया। 'प्रधान पांच सौ रुपया हर महीना स्वयं ले लेते हैं।' दूसरे ने अपनी पीड़ा बयान की। 'हमारे घर वालों ने प्रधान को वोट नहीं दिया था। पैसा आ जाने पर भी भुगतान ही नहीं करते वे। शिक्षा अधिकारियों से बात करो तो वो हाथ खड़े कर देते हैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं है यह।' तीसरा बड़बड़ाता रहा। नारों से जोश भरते हुए प्रदर्शनकारी चले।

               सुमित जिज्ञासु नेत्रों से प्रदर्शनकारी शिक्षामित्रों को जाते हुए देखते रहे। तब तक जेन भी आ गईं।

'मुझे थोड़ी देर हो गई। नहीं तो मैं भी यह दृश्य देख लेती।'

'अब भी देर नहीं हुई है। प्रदर्शनकारी जा ही रहे हैं।' सुमित ने शिक्षामित्रों की कठिनाइयों का जिक्र किया।

'भाई साहब, समय से वेतन भुगतान संभव क्यों नहीं है? भुगतान जब सरकार को ही करना है तो देरी क्यों होती है?' जेन ने कहा।

'इसे सरकार की अकुशलता कह लीजिए और क्या कहेंगे?' सुमित बोल पड़े। 

'हम व्यर्थ समस्याएं बढ़ाते हैं। समय से कार्य कर जिसे निपटाया जा सकता है। उसमें भी संकट?' जेन कुछ विचलित हो उठीं। 'यही तो संकट है। मुझे भी दुःख हुआ। चटपट काम करने में विश्वास नहीं करते।' 'इसी से तो भ्रष्टाचार बढ़ता है।' जेन कह पड़ीं। इसी बीच बहादुर दिख गया। सुमित ने उसे पुकारा। चारो एक छायाकार पेड़ के नीचे बैठे। सुमित और जेन के लिए बहादुर ने अपना अंगोछा बिछा दिया। मैंने अपना अंगोछा बिछाया जिस पर हम और बहादुर बैठ गए।

'बहादुर जी अपनी कथा बताइए। आप उस दिन नहीं बता सके थे, बहुत जल्दी में थे।' सुमित ने जिज्ञासा प्रकट की।

बहादुर ने एक नज़र मेरी ओर देखा।

'बता दो', मैंने कहा।

बहादुर की आँखें पुःन भर आईं। जेन उत्सुकता से बहादुर को देखती रहीं। 'भाई साहब गाँव में रहकर मैं कक्षा सात तक पढ़ पाया था। आठवीं में फेल हो गया तो पढ़ाई छूट गई। हम दो भाई थे, बूढ़े माता पिता। तीन एकड़ खेती थी किन्तु उससे केवल रोटी चल जाती थी। जवानी जोर मार रही थी। गाँव का एक आदमी बम्बई जा रहा था, मैं भी किराए का जुगाड़ करके बम्बई चला गया। बम्बई में भी ज़िन्दगी बहुत आसान न थी। रहने और आराम करने की जगह नसीब होना बड़ी बात थी। गाँव में बहुत सुविधाएं नहीं थीं पर रहने-सोने की दिक्कत न थी। बम्बई में अनेक लोग कूड़े के ढेर पर रह लेते। मैं भी काम की तलाश में इधर-उधर घूमता रहा। एक महीना एक कारखाने में काम किया। मेहनत का काम था। मेरी साँस फूलने लगी। जैसे ही पगार मिली, मैंने काम छोड़ दिया। एक झाबा फल खरीदा और गलियों में घूम-घूम कर बेचने लगा। काम यह भी मेहनत का था पर और कोई दिक्कत न थी। सबेरे आठ बजे से शाम आठ बजे तक यही काम करता। गाड़ी चल निकली पर रहने की दिक्कत तब भी थी। फुटपाथ पर ही झाबा रखकर सो लेता।

घर से खबर आई कि पिता का देहान्त हो गया। उस समय फोन की सुविधा घर-घर नहीं थी। चिट्ठी देर से मिली। मैं पिता के क्रिया-कर्म में शरीक नहीं हो सका। दुःख हुआ पर सोचा चलो यही बदा था। अपने धन्धे में लगा रहा। मन की उमंगे छलांग लगा रही थीं। सड़क के किनारे एक दिन झाबा रखकर बेचना शुरू किया। किसी ने टोका नहीं। मैं रोज वहीं सड़क की पटरी पर रखकर बेचने लगा। एक दिन महानगर वाले हमारा झाबा अपनी गाड़ी पर लाद ले गए। मुझ पर जुर्माना भी ठोंक दिया। मन बहुत दुःखी हुआ। पर तभी एक आदमी ने कहा कि यह बहुत अच्छा हुआ। चार छः बार पकड़े जाओगे तो आपकी यह जगह पक्की समझो। मेरी समझ में बहुत कुछ नहीं आया। साथियों ने कहा अपनी जगह मत छोड़ना। उनकी राय मानकर मैं अपना झाबा रखता रहा। महीने में एक-आध बार ज़रूर फल भरा झाबा जब्त हो जाता, जुर्माना होता पर कोई चारा न था। इसे अपनी नियति मानकर मैं फल लगाता रहा। फल काटकर दोने में रखकर बेचने लगा। कुछ पैसे जोड़ने की स्थिति में हुआ। पुलिस वाले ज़रूर रोज कुछ न कुछ ले जाते कभी फल, कभी रुपये।

घर से चिट्ठी आई, माँ बहुत बीमार है। मैं घर के लिए चल पड़ा। छत्तीस घण्टे की यात्रा के बाद घर पहुँचा तो माँ अन्तिम साँसे गिन रही थी। मुँह में गंगाजल डाला गया और माँ ने प्राण छोड़ दिया। अब रोने धोने का बहुत अर्थ नहीं था पर छोटा भाई दहाड़ मार कर रोता रहा। रोना भी शायद कभी कभी बहुत ज़रूरी हो जाता है। 

दर्द उसी बहाने धुल जाता है। किसी तरह वह चुप हुआ। गाँव वालों ने अर्थी का इन्तजाम किया। दाह संस्कार छोटे भाई से कराया। महाब्राह्मण, भाई पट्टीदार तथा ब्रह्मभोज के बाद छुट्टी मिली तो बम्बई की याद सताने लगी। पैसा भी खत्म हो रहा था। भाई भी बम्बई चलने की ज़िद करने लगा। मुझे वहाँ की कठिनाइयाँ याद आ रही थीं। पर कह नहीं सकता था। किसी प्रकार उसे मनाया कि वह अभी घर पर ही रहे। आगे फिर इस पर विचार किया जायगा। उम्र बढ़ती जा रही थी। मैं उम्मीद कर रहा था कि कोई लड़की वाला शायद हमारे घर की ओर भी मुँह करें। पर लगता था लड़की वाले लापता हो गए हैं। गांव वाले जुटते, दाना पानी लेते कहते जुगाड़ कर ही रहे हैं। अनेक लोगों के नाम गिनाते। कहते शादी विवाह की कोई कमी नहीं होगी। पर कोई भी लड़की वाला नमूदार नहीं हुआ। जब केवल टिकट भर का पैसा बच रहा, मैंने बम्बई का टिकट लिया। अपने अड्डे पर आ गया।

अपने धन्धे में लग गया। बम्बई भी शान्त कहाँ रह पाती है?

कुछ न कुछ होता ही रहता है। मराठी, गैर मराठी, कभी हिन्दू-मुसलमान, कभी माफिया सरदारों की भिड़न्त। एक दिन दंगा हो गया। हम लोग कहाँ जाएँ? सिर छिपाने की जगह नहीं। एक पेड़ के तने से सटे खड़े रहे। फल बिक गये थे बहुत थोड़ा सा बच रहा था। उसे ही निकालकर औरों को दिया, स्वयं भी खाया। भूख दंगाइयों को भी लगती होगी। पूरी रात हम लोग पेड़ के सहारे ही खड़े रहे। पुलिस की सीटियाँ बजतीं। सड़क पर सन्नाटा पर फुटपाथिए कहाँ जाते?

सबेरे अखबार आया तो छीना झपटी होने गली। हर आदमी जानना चाहता था कि कोई अपना तो नहीं मारा गया। मरने वालों की सूची लम्बी थी। उसमें मुन्नू का भी नाम था। उसने अपने दाहिने हाथ पर अपना नाम गुदवा रखा था। मुझे लगा ये मेरे गाँव का मुन्नू न हो जिसकी शादी डेढ़ महीने पहले हुई थी। दस दिन में वह गाँव से आया था। गाँव के ही कुछ लोग आये। सब लोगों मे मिलकर तय किया चीरघर चला जाये। हो सकता है गाँव का ही मुन्नू न हो। पहले डरते-डरते हम लोग उसके अड्डे गये। पता चला वह दंगे के बाद अड्डे पर नहीं लौटा। शंका पुख्ता होने लगी। चीरघर पहुँचने पर लाशें ही दिखीं। पुलिस का पहरा। एक सिपाही से हम लोगों ने मुन्नू के बारे में पूछा। उसने सूची देखी। हममें से एक आदमी को ले गया। लाश दिखाया। शरीर क्षत-विक्षत था पर सिर और गोदा हुआ हाथ साबुत था। रोते हुए आदमी लौटा। अपना मुन्नू ही है, हमें छोड़कर चला गया। डेढ़ महीने पहले शादी। घर के लोग कैसे बर्दाश्त कर पायेंगे? तय हुआ लाश को लेकर दाह संस्कार किया जाये। घर को तार दिया जाय। गाँवों में तार भी चिट्ठी की तरह बँटता है। दुखी मन से हम लोग शव को दाह संस्कार के लिए ले गये। 'लाश तो पुलिस भी ठिकाने लगा सकती थी।' जेन के मुँह से निकल गया। 'यही गाँव है मैम? अपनों के होते हुए लावारिश की भांति जलाया जाना गाँव में अच्छा नहीं माना जाता। गाँव के लोग थे तो उन्हें यह दायित्व लेना ही था।' बहादुर की वाणी में दर्द झलक रहा था।

चिट्टी-पत्री, गाँव वालों के आने जाने से पता चला। मुन्नू की वधू ख़बर पाकर बेहोश हो गई थी। हफ्तों वह चारपाई पर पड़ी रही। उसके माँ बाप भी बहुत दुःखी थे पर क्या करते ?

'क्या उसकी शादी दुबारा हुई?' जेन पूछ बैठी।

'उसने स्वयं मना कर दिया।'

'क्या?'

'हाँ', उसने कहा-'जो होना था हो गया। दूसरी बार शादी नहीं करूंगी।' जेन पूछ बैठी, 'क्या उसकी शादी न हो पाती?'

'शादी हो जाती, उसके पिता ने प्रस्ताव भी रखा पर वह तैयार नहीं हुई।' 'ओ गाड'। जेन को वे घटनाएँ याद आने लगीं जिसमें पत्नी पति के हत्यारे से शादी रचा लेती है।

मेरा भाई बार बार लिखता, 'मैं भी बम्बई आना चाहता हूँ।' मैं हर बार उसे घर पर ही रहने की सलाह देता। उसने खेत को बटाई दे रखा था। स्वयं बना खा लेता और इधर-उधर घूम कर समय बिताता ।

मेरी भी दोस्ती एक महिला से हो गई। वह भी गलियों में घूमकर ठेले पर फल ही बेचती थी। थोड़ी पढ़ी-लिखी भी थी। एक दिन उसने कहा, 'मेरे माता-पिता से मिल लो।' उसका संकेत मुझे गुदगुदा गया। कहाँ तो लड़की वाले टपकते ही नहीं थे और कहाँ लड़की स्वयं प्रस्ताव कर रही है। मैं उसके माँ-बाप से मिला। उन्होंने मेरे बारे में जानकारी प्राप्त की। वे भी किसी तरह गुजर-बसर कर पा रहे थे। उन्होंने सहमति दे दी। एक मंदिर में हम दोनों एक दूसरे के हो गए।

अब ज़िन्दगी में एक साथी मिल गया। किराए की एक खोली में अपनी गृहस्थी बनाई। दोनों युवा थे। सीमित साधनों में भी कामनाओं के पंख फड़फड़ाते। सपने बुनने से कौन रोक सकता था? रात बातों में ही बीत जाती। दिन में दोनों फिर अपने-अपने ठेलों के साथ भागते। चार पैसा बच जाता तो सपनों का अम्बार लग जाता। अब गाँव की सुधि भी कम आने लगी। छोटा भाई भी एक दिन बम्बई आ गया। खेत बटाई पर था ही एक पट्टीदार को देखरेख का भार सौंपा और फुर्र हो लिया। छोटे भाई को भी काम चाहिए था। एक ड्राइवर से मेरी पहचान थी। भाई को उसी के साथ लगा दिया ड्राइवरी सीखने के लिए। वह भी रुचि ले रहा था। सीख कर छोटा भाई भी ड्राइवरी करने लगा। एक स्कूल की गाड़ी चलाता और रात में भी वहीं रह जाता। अपने को व्यवस्थित करने की ललक में गाँव छूटता गया। गाँव, शहर हर जगह कुछ लोग कचहरी के काम में बहुत माहिर होते हैं। बिना कचहरी गए उनका खाना नहीं पचता। ऐसे ही एक आदमी की नज़र मेरे खेतों पर पड़ी। उसने फर्जी कागजात तैयार कराकर खेत अपने नाम करा लिया। काम इतना गुपचुप हुआ कि किसी को पता नहीं चल सका।

वह आदमी वर्षों मौन रहा, कागजी कार्यवाही करके चुप। जब उसे इत्मीनान हो गया कि वह पूरी तरह कागज में खेतों का मालिक हो गया है, बटाईदारों को सूचना दी। धीरे-धीरे बटाईदारों से गल्ला वसूलने लगा। जिस पट्टीदार को देखरेख का भार सौंपा था उसने विवरण देते हुए चिट्ठी भेजी। मैंने एक खोली ले ली थी, तंगी में था। तुरन्त न जा सका। गांव चिट्ठी भेजा, जल्दी ही आऊँगा। आप थोड़ी बहुत देखभाल करते रहें।' कुछ पैसा इकट्ठा करते छः माह बीत गया। एक दिन गाँव का टिकट ले आया। गाड़ी में साधारण डिब्बे दो ही लगते हैं। उसमें आदमी भूसे की तरह भर जाते हैं। पर कोई चारा न था। एक माह तक सभी सीटें भरी हुई थीं। पत्नी परेशान थी। उसे समझाया पैतृक सम्पत्ति है। उसे बचाना होगा। जल्दी लौदूँगा। गाड़ी में बैठा तो अनेक शंकाएँ उठ रहीं थीं। छोटा भाई गाड़ी में बैठाने आया था। इससे अधिक वह भी कुछ करने की स्थिति में नहीं था। एक सिपाही ने पचास रुपया लिया तो छः इंच जगह शरीर टेकने के लिए दिलाई।

तीसरे दिन जब गोण्डा स्टेशन पर उतरा, अंग अंग टूट रहा था। गाँव पहुँचा पट्टीदार के यहाँ रुका। घर मरम्मत चाहता था। पर सबसे ज़रूरी था कचहरी जाकर कागजातों की जाँच करना। अपने एक साथी को लेकर कचहरी गया। एक वकील साहब को पैसा दिया कि मुआइना कर लें। उन्हीं के तख्ते पर बैठा रहा। चार बजे उन्होंने बताया कि खेत दूसरे के नाम हो गया। मुकदमा करना पड़ेगा। शाम को थका हारा घर लौटा।

दूसरे दिन वकील साहब ने मुदकमा दाखिल किया। हर महीने पेशी पड़ने लगी। कभी-कभी मेरे पहुँचने के पहले ही तारीख पड़ जाती। बम्बई से चिट्ठी आती। मैं एक बार गया पत्नी को भी ले आया। पर बचाया हुआ पैसा खत्म हो रहा था। पत्नी को फिर बम्बई ले गया। वह अपने धन्धे में लग गई। मुझे लौटना पड़ा। पैसे की तंगी बराबर बनी रही। अब वर्षों बम्बई न जा पाता मुकदमें का खर्च, आमदनी का टोटा। किसी तरह दिन कटते रहे। भाई ने भी बम्बई में ही शादी कर ली। मैं पहुँच न सका। पत्नी ने कुछ दिन कमाकर कुछ पैसा भेजा। धीरे-धीरे उसने भी हाथ सिकोड़ लिया। चकआउट की दो बीघा जमीन मेरे नाम बच रही थी। मुकदमें के खर्च के लिए उसे भी बेच दिया। मुकदमा अपनी रफ्तार से चलता रहा। प्रतिपक्षी ने जवाब दावा लगाया कि यह बहादुर नहीं हैं। असली बहादुर ज़मीन लिखकर चला गया। कभी लौटा नहीं। मेरे वकील ने कहा कि तुम्हें गवाह ढूँढना होगा जो कह सके कि तुम असली बहादुर हो। मैने प्रधान जी से बात की। वे टाल मटोल करने लगे। रौताइन काकी से कहा। वे तेज महिला हैं, तैयार हो गईं। पर तभी से पेशी पड़ती जा रही है। प्रतिपक्षी कभी सुलह की बात करने लगता है, कभी कुछ और। जानता हूँ वह कपट चाल चल रहा है। पत्नी से भी अब कोई सम्बन्ध नहीं रह गया। खर्चे के लिए कभी कभी रिक्शा चलाता हूँ।

धीरे-धीरे मुझे पता लगा कि मेरी तरह पीड़ितों की संख्या सैकड़ों में है। कुछ तो लड़ते-लड़ते मर गए। किसी को ज़मीन वापस नहीं मिली। मुझे भी दौड़ते हुए सत्रह साल बीत गए हैं।'

बहादुर चुप हुए तो सन्नाटा छा गया। जेन ने पूछा, 'क्या शहरों में भी ज़मीन मकान हड़पने की कार्यवाहियाँ होती हैं।'

'क्यों नहीं होती?' सुमित बोल पड़े। जो लोग किसी कारण से शहर में रह नहीं पा रहे हैं, उनके मकान समर्थ लोग कब्जाते जा रहे हैं। कभी-कभी तो सभी के सामने दिन दहाड़े लोग ज़मीन, मकान पर कब्जा कर लेते है। प्रशासन भी समर्थ का ही साथ देता है। अब तो ज़मीन मकान हथियाने, अपहरण करने का धंधा राजनेता, अधिकारी सभी करने लगे हैं।'

'पर कोमल जी', सुमित के मुख से निकला ही था कि शास्त्री महाविद्यालय के गेट से कुछ विद्यार्थी नारा लगाते हुए निकले, तानाशाही नहीं चलेगी, इन्कलाब ज़िन्दाबाद।' चारों खड़े होकर उधर ही देखने लगे। आगे-आगे लड़कों का झुण्ड पीछ-पीछे दरोगा कुछ सिपाही।

'बहादुर ने कहा बाबू चलूँ।'

'रुको भाई।' सुमित बोल पड़े। 'एक-एक कप चाय पी लिया जाए' सुमित के झोले में एक थर्मस था। उसमें तीन कप चाय थी। उसी से चार कप बनाया गया। सभी चाय पीते रहे और छात्रों के क्रिया कलाप देखते रहे। चाय खत्म हुई तो बहादुर ने फिर कहा, 'बाबू अब चलूँगा।'

'ठीक है, चलो। मिल कर बताते रहना।' मेरी आँखें भीग गई थीं।