कोमल की डायरी - 9 - अब बोलो ? Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 9 - अब बोलो ?

नौ 

अब बोलो ?

                         मंगलवार, चैबीस जनवरी, २००६ 

           बहादुर जैसे लोग मुझसे मिलते हैं और मैं कुछ कर नहीं पाता। जो दुःखी हैं वे किसी आशा से मुझसे अपना दुःख बताते हैं। अपनी बेचारगी पर दुःखी हूँ मैं। मूक दर्शक बन कर रहना बहुत ठीक है क्या? गांधी की मूर्ति के सामने एक पेड़ के निकट बैठा हूँ सुमित और जेन की प्रतीक्षा में। बारह बज गए। पीड़ितों को संगठित होना होगा। मैं बुदबुदाता हूँ। कौन करेगा यह? जो असहाय हैं उन्हें न इतनी समझ है न शक्ति। फिर.....। किसी को करना पड़ेगा। किसी को क्यों? क्या तुम संगठित नहीं कर सकते? काम कठिन है तो चूहे की बिल ढूँढनी पड़ेगी। चुपचाप सब कुछ देख लेना ही क्या लक्ष्य है तुम्हारा? मेरा मन न जाने कितने प्रश्नों से उलझ रहा था। हर बार बात कुछ करने को लेकर अटक जाती। मन उद्विग्न हो उठा। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। काम करने वाले के लिए हमेशा अवसर है। न करने वाले के लिए अनेक बहाने उपलब्ध हैं। मैं उठ पड़ा। कुछ सोचते हुए टहलने लगा। क्या कभी ऐसा समय आएगा जब समाज में कोई कमजोर, दुर्बल न हो? पर ये शब्द तो तुलनात्मक हैं। विविधता के बीच सबल निर्बल तो रहेंगे ही। यह लड़ाई तो अनन्त है। हमेशा लड़ना पड़ेगा। हाँ, लड़ना ही होगा रोज, हर दिन जैसे घर में रोज झाडू देना होता है। कुछ न कुछ कचरा रोज निकलेगा ही, उसे साफ करना होगा। निमिष के लिए भी यह कार्य बन्द नहीं होना चाहिए, अन्यथा कूड़े का ढेर लग जाएगा। लगता ही रहता है ढेर। तभी तो चारो ओर समस्याएँ ही दिखती हैं। प्रारम्भ तो कहीं से करना ही होगा छिटपुट उत्तेजनाएँ, आक्रोश तो बिखरे हुए मिलते ही हैं। उन्हें दबाने के लिए पुलिस और प्रशासन की गाड़ियाँ दौड़ती हैं। कितने निरीह आखेट का शिकार हो जाते हैं? 'इसी व्यवस्था का शिकार तो तुम थे कोमल'। अन्दर से एक आवाज़ उभरी। 'हाँ, पर व्यवस्था कहाँ बदल सकी ?'

          'तुम हटे तो दूसरा कोई जाल में आया ही होगा। शिकारी भूखा थोड़े बैठेगा ? हर सामाजिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा ही होता रहता है। उसका निराकरण भी समाज को ही करना होता है। पीड़ित को आवाज़ उठानी होती है। लाभान्वित वर्ग उस आवाज़ को दबाने का प्रयास करता है। संघर्ष की शुरूआत यहीं से हो जाती है, एक निरन्तर चलने वाला संघर्ष। पर कोमल तू उसमें कहाँ है? तुमने उस पीड़ा को भोगा है? अपनी भूमिका तय कर।' मेरा दिमाग चकरा गया। विचार भी घाव करते हैं, यह मैंने अनुभव किया। टहलता रहा मैं, पर विचारों का दबाव कम नहीं हुआ। प्यास लगी। नल से दो चुल्लू पानी पिया।

सुमित अब भी नहीं आए, तो चिन्ता हुई। सुमित और जेन भी अध्ययन कर रहे हैं। अध्ययन कर चले जाएँगे। ज्यादा से ज्यादा कुछ सुझाव लिख जाएँगे जो कभी क्रियान्वित नहीं हो सकेंगे। पर समस्याएं तो अपनी जगह वैसी ही रह जाएँगी। अनुसंधानों पर विचार विनिमय हो, उन्हें क्रियान्वित करने की कोई योजना हो तब तो समस्याओं का कोई हल भी दिखे।

         ओ आम जन ! तुझे संघर्ष ही करना होगा। बहादुर का चेहरा मेरे सामने आ गया। रौताइन काकी, हरखू के साथ प्रधान जी का भी। लगता है सुमित को आज नहीं जाना है। मैं गांधीपार्क से निकलने ही वाला था कि सुमित और जेन एक चार पहिए की गाड़ी लिए आ गए।

देहात में एक डिग्री कालेज देखना है। मैं भी गाड़ी में बैठा। सरसराती हुई गाड़ी चल पड़ी। पच्चीस मिनट बीतते गाड़ी एक डिग्री कालेज के गेट पर खड़ी हुई। गेट का छोटा दरवाजा खुला था। तीनों उतर पड़े। अन्दर आधे दर्जन कुत्ते सो रहे थे। कुत्तों से अपने को बचाते हुए मैं आगे बढ़ा पीछे-पीछे जेन और सुमित। कुत्तों ने एक नज़र देखा। उन्हें कहीं कुछ अटपटा नहीं लगा उन्होंने आँखें मूँद ली। अधिकांश कमरों में ताले लटक रहे थे। एक कमरे का दरवाजा खुला दिखा। मैं उसी तरफ बढ़ा। सुमित को शंका होने लगी कि आज कार्य दिवस है या नहीं। अपनी डायरी में देखा। आज कोई छुट्टी का दिन नहीं है। हो सकता है कालेज से सम्बन्धित किसी आदमी का देहान्त हो गया हो और शोक सभा के बाद कालेज बन्द हो गया हो।

तब तक मैं खुले कमरे में प्रवेश कर चुका था। कमरे में एक सज्जन साफ सुथरे बिस्तर पर सो रहे थे। बगल में एक स्टूल पर भरा जग और गिलास रखा था। नाक थोड़ी-थोड़ी बज रही थी। मैं असमंजस में था कि जगाया जाए या नहीं। तीनों बरामदे में आ गए। इसी बीच एक लड़का दौड़ता हुआ आया। पूछा, 'आप लोग कौन हैं?'

'हम लोग कालेज देखने आए हैं।' मैंने कहा।

'बाबू साहब आप लोग जाँच करने तो नहीं आए हैं?' लड़के ने पूछा।

'नहीं, नहीं हम लोग बस देखने आए हैं। कालेज तो बहुत अच्छा है।' 'बहुत अच्छा है बाबू जी। आइए देख लीजिए।' चारों एक पेड़ की छाया में आ गए।

'पर कोई यहाँ दिखता नहीं।'

'आप कोई जाँच वाले अफसर हैं। मैं प्रबन्धक जी को बताता हूँ।'

'कहाँ हैं प्रबन्धक जी।'

'कमरे में क्या सोए हुए हैं?'

'और प्राचार्य जी?'

'प्राचार्य जी का क्या काम ? सब काम तो प्रबन्धक जी ही देखते हैं। वही असली मालिक हैं।'

'प्रबन्धक जी का नाम ?' 'श्री राधेरमन ।'

'लड़के और अध्यापक?'

'लड़के देखना हो तो इम्तिहान में आइये बाबूजी। कहीं खड़े होने की जगह नहीं मिलेगी।'

'पढ़ाई नहीं होती?'

'होती क्यों नहीं, पर कोई पढ़े तब ना? जब कोई पढ़ना ही नहीं चाहता तो प्रबन्धक जी क्या करें? चालीस-पचास लड़के आ जाते हैं। दो बज गया है सब चले गये। इम्तिहान के समय मामला चुस्त रहता है।'

'अच्छा यह बताओ हमारा एक भाई है। पढ़ने लिखने में घामड़ है। क्या पास कराने का कोई जुगाड़ हो जायेगा?' सुमित ने ठोंक दिया।

'बिल्कुल पक्का बाबूजी। जो कहीं पास न हो वह यहाँ पास हो जायेगा। रुपया जरूर टनाटन पड़ी।' 'रूपया कितना लगेगा?'

'नम्बर कितना दिलाना चाहते हो बाबूजी। फस्ट का रेट अलग है। सेकेण्ड का रेट अलग। यह सब प्रबन्धक जी बतायेंगे। कहो उनको जगा दें। सब कुछ बता देंगे।'

'तुम कितना पढ़े हो?'

'प्रबन्धक जी की कृपा से बी.ए. पास हैं बाबूजी।'

'पर तुम बातचीत में कुशल हो।'

'बातचीत की कला तो अनुभव से आती है बाबूजी, अनुभव से। रोज किसी न किसी को चराना ही पड़ता है'।

'क्या तुम कालेज की सेवा में हो?'

'हाँ बाबूजी, प्रबन्धक जी कहते हैं जब सरकारी अनुदान मिलेगा तब वेतन लेना। अभी सेवा करो। हम भी देखकर काम किए जा रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह कालेज कभी अनुदान पर नहीं आयेगा। क्या सच है बाबूजी?'

तब तक प्रबन्धक जी जग चुके थे। उन्होंने पुकारा, 'रत्तन'। और रत्तन दौड़कर उनके सामने हाजिर हुआ।

'पानी' उनके मुँह से निकला।

रत्तन ने गिलास में पानी उड़ेलकर दिया।

प्रबन्धक जी गटागट पी गये। 'एक गिलास और,' उनके मुँह से निकला।

रत्तन ने एक गिलास पानी और दिया।

'किससे बात कर रहा था तू।'

'कुछ लोग आपसे मिलने आए हैं, उन्हीं से।'

'कौन लोग मिलने आए हैं? कोई सरकारी अफसर ?'

'यह तो हमने नहीं पूछा।'

'बुलाकर बैठाओ। प्रबन्धक जी बाथरूम में घुस गए।' तीनों के लिए तीन कुर्सी लगा रत्तन हमें बुला ले गया।

'बैठिए बाबू जी।' रत्तन के कहते ही तीनों बैठ गए। प्रबन्धक जी बाथरूम से निकले। राम राम हुआ। तख्ते पर सुखासन की मुद्रा में बैठ गए।

'आप लोगों का परिचय?' 'ये सुमित और जेन जे.एन.यू. के शोधार्थी हैं। आपके महाविद्यालय को देखने के लिए आए हैं।'

'और आप?'

'मैं यहीं का हूँ। आप लोगों की सहायता के लिए चला आया।'

'रत्तन', प्रबन्धक जी ने पुकारा।

'दौड़कर लछिमन के यहाँ से इमरती ले आ। अच्छी इमरती बनाता है। आप खाकर खुश हो जाएँगे। महानगरों में ऐसी इमरती नहीं मिलेगी। शुद्ध देशी माल है।' प्रबन्धक जी मुस्कराए।

'प्रबन्धक जी, आपके महाविद्यालय में बच्चे नहीं दिखते ।'

'आपने बहुत ठीक सवाल किया। मैं सारा गणित अभी समझाता हूँ। आप सरकारी आदमी नहीं हैं इससे आपको बताने में कोई हर्ज नहीं है। मैंने यह महाविद्यालय दस वर्ष पहले शुरू किया था। आप तो जानते हैं सरकार स्ववित्त पोषित की मान्यता देती है। असेवित क्षेत्रों में डिग्री कालेज खोलने के लिए सरकार पचास लाख अनुदान एकमुश्त भी देती है। मैंने विधायक जी का काम किया था। सोचता था कि वे मदद करेंगे पर उल्टा उन्होंने स्वयं महाविद्यालय खोलने के लिए आवेदन कर दिया। खैर, मैंने खोला, अध्यापक रखे। उन्हें डेढ़ हजार रूपए महीने वेतन भी देता हूँ। प्रारम्भ में देखा यह कि किसी कक्षा में पन्द्रह किसी में बीस विद्यार्थी आते। मुझे बहुत अखरा। किसी किसी में कोई नहीं आता। मैंने सोचा लोग पढ़ना नहीं चाहते हैं। पढ़ने के बहुत से साधन हो गए हैं। अब लोग डिग्री चाहते हैं। दूसरे साल से मैंने प्रवेश लिया। परीक्षा फार्म भराया, कक्षाएँ बहुत देर से चलवाई, परीक्षा लिया और रिजल्ट कार्ड बाँट दिया। इसमें मुझे भी सुकून है और लड़कों को भी। अब सोचो हिमालय कि तराई से ही नहीं नेपाल से भी बच्चे आते हैं। यदि हम साल भर क्लास चलवाएँ तो उन्हें कितना कष्ट होगा? सभी बच्चों का सम्पर्क नम्बर नोट है। ज़रूरत पड़ने पर तुरन्त बुलाया जा सकता है। इस महाविद्यालय में योग्यताधारी अध्यापक हैं, छात्र-छात्राएँ हैं सिर्फ क्लास ज़रा कम चलता है। अध्यापकों को भी मानो पेंशन मिलती है। हम बच्चों का बड़ा ध्यान रखते हैं। उनका कष्ट मुझसे देखा नहीं जाता। वे हमारे लिए सब कुछ हैं। परिणाम हमारा बहुत अच्छा होता है। अभिभावक भी अच्छा परिणाम चाहते हैं। मैं तो आपको राय देता हूँ कि आप भी महाविद्यालय खोलिए। इससे कमाऊ धन्धा और कोई नहीं है। हमारे कई मित्र पहले भट्ठा चलाते थे, अब कालेज चलाने लगे हैं। इसमें न हरें, न फिटकरी और रंग चोखा। मैं इसका अर्थशास्त्र समझाता हूँ। मेरे महाविद्यालय में एक हजार पाँच सौ बच्चे नामांकित हैं। मैं तीन हजार रूपये फीस प्रवेश के समय ही ले लेता हूँ। विश्वविद्यालय परीक्षा शुल्क अलग से। कुल कितनी फीस आई?'

'पैंतालिस लाख ।'

साल में पाँच लाख आप पढ़ाई लिखाई, परीक्षा पर खर्च कर दीजिए। पाँच लाख भवन पर लगाइए। शेष बचा पैंतीस लाख आपका अपना है। कौन सा धन्धा बिना किसी मेहनत के पैंतीस लाख दे देगा? फिर आप गोवा घूमिए या लन्दन। जेनेवा की सैर कीजिए या होनोलुलू की। पैसा जेब में है तो सब ठाठ ही ठाठ है। मैं कहता हूँ उदार बन जाइए। पाँच लाख महाविद्यालय पर और उड़ा दीजिए। तब भी तीस लाख आपके अपने हुए। यदि आप बच्चों और अध्यापकों से भेंट करना चाहते हों तो तिथि निश्चित कीजिए हम सबको बुला देते हैं। हमारा दस-पाँच हजार खर्च हो जाएगा। पर आपके लिए हम इतना कर देंगे। बोलो कब बुला दें सभी को ?'

'आपका गणित समझ में आ गया है। अब बच्चों और अध्यापकों से भेंट करना ज़रूरी नहीं है।' सुमित बोल पड़े।

'कहा न, आप समझदार लोग हैं। सरकार भी यदि कभी जाँच करना चाहती है तो पहले तिथि निश्चित कर जाँच कराती है। यही शालीन तरीका भी है।' तब तक रत्तन एक किलो इमरती लेकर पहुँच गया। आलमारी से प्लेट निकाला। एक मेज ले आया। उसी पर इमरती सजा दिया। जग के पानी से सब का हाथ धुलवाया।

प्रबन्धक जी ने कहा, 'पाइए।'

'यह तो बहुत है', जेन बोल पड़ीं।

'नम्बर एक का माल है मैडम, कहीं से भी नम्बर दो का नहीं। खाइए। मुझे तो एक-दो किलो रोज मँगाना ही पड़ता है। आप की तरह कोई न कोई आता रहता है। मुझे अपना गणित समझाना ही पड़ता है, क्या करूँ?' विधायक जी के महाविद्यालय से डेढ़ करोड़ सालाना की बचत होती है। विधायक निधि जो महाविद्यालय के बहाने जेब में चली जाती है वह अलग से।' जेन और सुमित प्रबन्धक जी का मुँह ताकते रहे।

'शोध वगैरह कीजिए। यह सब तो ठीक है पर पैसे का स्रोत ढूंढिए।'

प्रबन्धक जी ने इमरती को मुँह मे रखते हुए कहा। रत्तन चार गिलास में पानी रखकर जग भरने चला गया।

'आपके यहाँ तो मनोविज्ञान और भूगोल विषय भी हैं। इनके प्रयोग कैसे होते हैं?' जेन पूछ बैठी।

'प्रयोगशालाएँ हैं। उपकरण भी हैं। पर छात्र कम आ पाते हैं तो काम भी थोड़ा कम ही हो पाता है। कहा न, सबका जुगाड़ है। ऐसे परीक्षक मिल जाते हैं जो घर बैठे परीक्षा ले लेते हैं। बाएँ हाथ से नोट लिया दाएँ हाथ से नम्बर दिया। एक बार एक खुराफाती अध्यापक परीक्षक नियुक्त हो गया था। कहने लगा कि बिना परीक्षा लिए अंक नहीं दूँगा। मेरे लिए संकट उपस्थित हो गया। परीक्षा तो करा देता पर पता नहीं वह सनकी कितना नम्बर देता? मैंने दौड़धूप कर उसका नाम बदलवाया। तब काम बना।'

'आपके बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में नहीं आ पाते होंगे?'

'नहीं मैडम। लड़के अपने आप पढ़ते हैं। कुछ बच्चे आते भी हैं। बहुत जगह अब भी नौकरी के लिए अंक ही निर्णायक बना हुआ है। वहाँ हमारे बच्चे बाजी मार ले जाते हैं जैसे शिक्षा में। बिना अंक अच्छा हुए आप उधर झाँक नहीं सकते।' 'परीक्षा की पवित्रता तो न रह पाती होगी?' सुमित ने दाग दिया।

'परीक्षा के दिन हमारे लिए चुनौती के दिन होते हैं। हम विशिष्ट व्यवस्था करते हैं। पवित्रता भी बनाए रखते हैं और बच्चों की मदद भी करते हैं- 'गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।' कहकर प्रबन्धक जी खिलखिला कर हँसे।

'देखो भाई, वे फिर चालू हो गए।' अपना रास्ता बिलकुल साफ है। जब तक पिछड़ापन है, जुगाड़शास्त्र है, आप भी बहती गंगा में हाथ धो लीजिए। आगे शिक्षा का क्या रूप बनता है कौन जाने ? इस समय तो बड़ी बड़ी कम्पनियाँ शिक्षा के क्षेत्र में उतर रही हैं। मैंने तो सुना है कि अमेरिका में परीक्षा में एक लड़की ने लिखा कि आज मौसम परीक्षा देने का नहीं है। आज तो समुद्र किनारे पिकनिक मनाना चाहिए। इसी पर उसे 'ए' ग्रेड दे दिया गया। हमारे यहाँ तो इस पर अंक ही न दिया जाता।'

'पुस्तकालय और वाचनालय की क्या स्थिति है?' सुमित के पूछते ही प्रबन्धक जी खिल उठे ।

'बढ़िया पुस्तकालय भवन बनाया है हमने। पुस्तकें भी हैं। वाचनालय कम ही खुलता है। पुस्तकालय से पुस्तकें प्रवेश के समय ही दे दी जाती हैं। बच्चे साल भर पढ़ते हैं। भई, कुछ तो बच्चों के लिए करना ही पड़ता है।' कुछ प्रबन्धक और प्राचार्य तो हमसे छात्रों को बस में रखने के गुर सीखने आते हैं। मुझे सिखाना ही पड़ता है। अब तो लोगों ने प्रबन्धक सभा का अध्यक्ष बना दिया है। दायित्व दिया है तो सँभालना ही है।'

'रत्तन।' उनके मुख से निकला।

'जी साहब।'

'साहब लोगों को बढ़िया चाय पिलाओ दूध की। जहाँ जाएँगे गुणगान करेंगे।'

'जी साहब।' और रत्तन दौड़ गया।

'आप लोग पढ़े लिखे होशियार लोग हैं। शोध कीजिए उसमें हमें कोई एतराज नहीं हैं। पर मेरी एक योजना है आप उसमें काम करें तो लाख पचास हजार आपको भी दे सकता हूँ। काम मुश्किल से दो महीने का है, बाकी दिन आप चाहे जो करें। काम भी कोई कठिन नहीं है पर मैं उसे बहुत बड़े पैमाने पर करना चाहता हूँ।'

'क्या है योजना?' सुमित ने पूछ लिया।

'बताता हूँ। इस समय पूरी दुनिया में सामान्य ज्ञान, सामान्य स्टडीज का क्रेज है। हर प्रतियोगिता में पूछा जाता है। इसी को लेकर मेरी एक योजना है। मैं एक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता करना चाहता हूँ।'

'यह तो बहुत लोग करा रहे हैं।' जेन ने कहा।

'कराते होंगे मैडम, किन्तु मेरी तरह नहीं कराते होंगे। मैं पहला इनाम एक लाख का देना चाहूँगा।

'तब तो आपकी योजना सचमुच बड़ी आकर्षक है।' सुमित की उत्कंठा बढ़ गई। 'दूसरा इक्यावन हजार, तीसरा इकतीस हजार तथा नौ नौ हजार के दो सान्त्वना पुरस्कार।'

'तब तो दो लाख के इनाम ही हो गए।' जेन भी उत्सुक हुईं। 'इतना ही नहीं एक लाख रूपया मैं विज्ञापन पर खर्च करूँगा। एक लाख परीक्षा संयोजन में तथा एक लाख में पुरस्कार वितरण का भव्य समारोह।'

'आप तो पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं।' सुमित के मुँह से निकल गया। 'कुछ कमाने के लिए बहाना ही पड़ता है। आप सोचते होंगे पैसा मेरी टेंट से जायेगा। ऐसा नहीं है। यहीं दिमाग़ लगाने की ज़रूरत पड़ती है। मैं सारी योजना समझाता हूँ। प्रतियोगिता में यदि आप सौ रूपये प्रवेश शुल्क रखें जो इनाम की राशि देखते ज्यादा नहीं है।' सुमित ने भी हुंकारी भरी।

'यदि दस हजार प्रतियोगी बैठते हैं तो सौ रूपये के हिसाब से कितना हुआ?' 'दस लाख।' सुमित की आँखें खुली की खुली रह गईं। 'इसमें से पाँच लाख घटा दीजिए। पाँच लाख बचे। इसमें भी एक लाख डिरेक्टर के लिए रख दीजिए तो चार तो कहीं नहीं गए। अब बोलो?' प्रबन्धक जी ने इतना कहकर जैसे ही जाँघ पर हाथ मारा, रत्तन चाय लेकर आ गया।

'अच्छा अब चाय पिया जाए' प्रबन्धक जी के मुस्कराने की अदा देखने लायक थी।

'ये गोपनीय बाते हैं। सबको नहीं बताई जाती हैं किन्तु आप जे.एन. यू. से आए हैं। हमारी योजना में सहयोगी होने की हैसियत रखते हैं। इसीलिए मैंने खोलकर सब बातें बता दीं। सबको थोड़े बताऊँगा।' कहते हुए उन्होंने चाय का कप उठाया। सभी चाय पीने लगे।

'मैडम आप विचार करें। यदि आप डिरेक्टर बन जायेंगी तो मुझे खुशी होगी।'

'अभी तो मैं एक काम में लगी हूँ।'

'पर इससे आपकी शोध में कोई व्यवधान तो पड़ना नहीं है। क्यों सुमित जी?' 'बात तो आपकी बिलकुल ठीक है। हम लोग इस पर विचार करेंगे।'

'मुझे जे.एन.यू. का ही आदमी चाहिए। आप लोग स्वयं न कर सकें तो कोई व्यवस्था कीजिए।'

'दिल्ली जाकर ही हम लोग आपको कोई सूचना दे सकेंगे।'

'ठीक है। कोई आज ही का काम नहीं है। इस कालेज से मैं पचास लाख भी कमा लूँ तो कितने लोग जानेंगे? इस प्रतियोगिता से देश भर में अपना नाम देखना चाहता हूँ। क्यों ठीक है न?'

'ठीक क्यों नहीं है,' सुमित बोल पड़े।

'आपने बताया कि दस साल पहले यह कालेज शुरू किया। इसके पहले आप क्या करते थे?' जेन पूछ बैठी।

'किसी संन्यासी से उसका भूत नहीं पूछा जाता मैडम,' कहते हुए प्रबन्धक जी कहीं खो गए। एक क्षण सन्नाटा। लगा जैसे प्रश्न अनुत्तरित रह जाएगा। पर प्रबन्धक जी सँभले, कहा, 'क्या उत्तर देना ज़रूरी है?'

'यदि आपको कोई कष्ट हो रहा हो तो कोई ज़रूरी नहीं है।' जेन का स्वर था।

'नहीं, मैं उत्तर दूँगा पर इस समय नहीं।' प्रबन्धक के इतना कहते ही बड़े बाबू नमूदार हो गए। वे शहर से लौटे थे। प्रबन्धक जी ने उनका परिचय कराया। 'अभी हम लोग चल रहे हैं। आपकी अपेक्षाओं पर विचार कर उत्तर देंगे।' कहते हुए सुमित के साथ ही सभी उठ पड़े। प्रबन्धक जी बरामदे तक आए। रत्तन गेट तक पहुँचाने आया। 'बाबू जी फिर आइएगा।' कहकर उसने भी हाथ जोड़ लिया। कुछ दूर निकलते ही एक परिषदीय स्कूल दिखाई पड़ा। बच्चों की संख्या सौ के आस पास रही होगी। पेड़ के नीचे एक बच्चा गिनती गिना रहा था। एक दूसरे पेड़ के नीचे एक बच्चा पहाड़ा रटा रहा था दो दुनी चार, दो तियाईं छह, दो चौको आठ। कक्षा तीन और चार के बच्चे गणित लगा रहे थे। ब्लैक बोर्ड पर प्रश्न हल किया हुआ था। अध्यापक महोदय कक्षा पाँच के बच्चों के लिए इमला बोल रहे थे। गाड़ी पहुँचते ही सारा काम ठप हो गया। मैं उतरा। अध्यापक महोदय को तीनों का परिचय देते हुए आने का मकसद बताया। तब तक जेन और सुमित भी उतर चुके थे। अध्यापक को प्रणाम किया। अध्यापक के चेहरे पर प्रसन्नता का भाव उभर आया। 'यहाँ क्या स्वागत करूँ आपका ? यहाँ जल का ही प्रबन्ध हो सकता है।'

'इसकी आवश्यकता नहीं है मास्टर साहब।' मैंने कहा।

'आपकी व्यवस्था तो बहुत उत्तम है। अकेले आपने सभी बच्चों को काम में लगा रखा है।' जेन ने कहा।

'क्या करूँ ?, हम और एक शिक्षामित्र दो इस विद्यालय में हैं। १२५ बच्चे नामांकित हैं। सौ से ऊपर ही उपस्थित रहते हैं। हम इन बच्चों के लिए अपनी शक्ति भर मेहनत करते हैं। कभी किसी को छुट्टी लेनी पड़ी या मीटिंग आदि में जाना पड़ा

तो एक ही आदमी को रहना पड़ता है। कोई और विकल्प भी नहीं है।'

'मास्टर साहब मेरी बधाई स्वीकारें। आपके काम से हममें आशा का संचार हुआ है।' सुमित बोल पड़े।

'इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ मैं। यह आप लोगों की सदभावना है।' बगल के घर से मास्टर साहब ने तीन कुर्सियाँ मँगाई। तीनों को बिठाया। स्वयं भी अपनी कुर्सी पर बैठे।

'क्या बच्चों के कुछ क्रिया-कलाप देखना चाहेंगे?'

'उसे ही देखकर तो मन प्रसन्न हो उठा,' सुमित की आवाज़ खनकी।

'यदि आप लोगों की इच्छा हो तो बच्चों से दो एक गीत सुनवा दिया जाए। उनके अनपढ़पन में भी एक लय है।'

'ज़रूर-ज़रूर', जेन प्रसन्न हो उठीं। अध्यापक के संकेत पर दो बच्चों ने बड़े ही मधुर कंठ से लोकगीत गया- 

     निबिया कै पेड़वा जबै निक लागै जब निबकौरी न होय ।       मालिक, जब निबकौरी न होय। छियौ राम छियौ।               गेहूँवा कै रोटिया जबै निक लागै घिउ से चभोरी होय।           मालिक, घिउ से चभोरी होय। छियौ राम छियौ ०।             अच्छा धोबिया जबै निक लागे धोवै बगुला कै पंख ।           मालिक धोवै बगुला कै पंख। छियौ राम छियौ ०।               अच्छा समिया जबै निक लागै कि परजा का खुश के देय।      मालिक, परजा का खुश कै देय। छियौ राम छियौ ०।

संगीत से परिवेश रसमय हो उठा। मास्टर साहब ने दो बच्चियों को खड़ा किया। उन्होंने टेरा-

              पुरुब देश से आई रेलिया 

              पच्छिम से आई जहजिया

              रेलिया होइगई मोर सवतिया 

              पिय का लादि लैगै हो। पिय का०। 

              रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी 

              उइ पैसवइ बैरी हो। 

              देशवा देशवा मा भरमावै

              उइ पैसवइ बैरी हो। उइ पैसवई० । 

              भुखिया न लागइ, पियसिया न लागइ । 

              हमका मोहिया लागइ हो। 

              तोहरी देख कै सुरतिया

              हमका मोहिया लागइ हो। हमका ० ।

              सेर भर गोहुँवा बरिस दिन खइबइ

              पिय का जाइ न देबइ हो।

              रखबै आँखिया हजुरवा

             पिय का जाइ न देबइ हो। पिय का ०।

       सभी की आँखे सजल हो गईं। गीत के स्वर जैसे ही तिरोहित हुए मास्टर साहब खड़े हो गए। बच्चों से कहा, 'कक्षा चार-पाँच के बच्चे कला की कापी निकाल लें। पेंसिल से एक चित्र बनाना है। आपको पन्द्रह मिनट का समय दिया जाता है।' बच्चे झटपट तैयार हो गए। एक ने पूछा,' किसका चित्र बनाना है गुरू जी?' बताता हूँ', कह कर मास्टर साहब ने जेन से कहा, 'मैडम आप कुर्सी खिसका कर बैठ जाएँ । 'मैडम स्वयं विस्मित सी बैठ गईं। 'मैडम का चित्र बनाना है।' मास्टर साहब ने कहा। बच्चे चित्र बनाने में लग गए। जो बच्चे गिनती पहाड़ा याद कर रहे थे वे मास्टर साहब के संकेत पर पुनः अपने काम में लग गए। सुमित और मैं चकित। जेन मूर्तिवत बैठी थीं।

     'मैडम हिलिएगा नहीं,' सुमित ने चिकोटी काटी।

     'पलकें मत झपकाइएगा।' जेन केवल मुस्कराती रहीं। पता नहीं कहाँ से एक मच्छर घूमता हुआ आकर जेन की कानी उंगली में काट कर उड़ गया। जेन ने अंगूठे से धीरे-धीरे उस स्थान को सहलाया। उन्हें दूर एक गौरय्या का जोड़ा फुदकता दिखा। वे उनका फुदकना देखती रहीं। गौरय्या पक्षी घर आँगन का पक्षी कहा जाता है। पर कीटनाशकों आदि के प्रयोग से ये पक्षी बहुत कम हो गए हैं। पहले तो सुखवन को गौरय्या से बचाने के लिए एक आदमी को निरन्तर देखना पड़ता था पर अब इन पक्षियों का दर्शन ही दुर्लभ हो रहा है। दूर फुदकता गौरय्या का जोड़ा शायद पूछ रहा है कि बिना पक्षी के मनुष्य कैसे रहेगा?

        पक्षी के जोड़े ने जेन को उबार लिया। पन्द्रह मिनट बीत गया उन्हें पता ही न लगा। मास्टर साहब ने जैसे कहा, 'समय समाप्त' बच्चे मास्टर साहब की ओर देखने लगे। पाँच के बच्चे आकर मैडम को अपना चित्र दिखाएँ।

लड़के पंक्ति में आकर मैडम को चित्र दिखाने लगे। मैडम अवाक ! इतना अच्छा रेखांकन इन छोटे बच्चों द्वारा। चार के बच्चे सुमित और मुझे चित्र दिखाने पहुँच गए। सभी बच्चों का रेखांकन देखकर विस्मित थे।

'पाँच का एक बच्चा भाषा तथा चार का एक बच्चा गणित की कापी दिखा जाए।' मास्टर साहब के कहते ही दो बच्चे उठे, आकर कापी दिखाने लगे। सुमित और मैंने कॉपियाँ देखीं।

'यदि और कुछ देखने की इच्छा हो तो बताएँ।'

मास्टर साहब ने कहा।

'बहुत कुछ देख चुके गुरू जी;' जेन के मुख से निकला। 'कम्प्यूटर की शिक्षा नहीं दी जाती है?'

'बिजली तो है नहीं। बिना बिजली के कम्प्यूटर का प्रबन्ध हो भी जाए तो चले कैसे?'

'आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं मास्टर साहब। बिना ऊर्जा के कैसे चलेगा?' सुमित ने भी हामी भरी। जेन ने टाफी के कुछ पैकेट बैग में रख लिए थे। उन्हें निकाला और मास्टर साहब को सौंप दिया। 'मैं बच्चों को कुछ दे नहीं पा रही हूँ।' जेन का स्वर संकोच से भरा था।

गद्गद् भाव से मास्टर साहब से बिदा ली। चलते चलते जेन ने पूछ लिया, 'गुरू जी आपका नाम?' 'श्रीनिवास।' मास्टर साहब ने उत्तर दिया। बच्चों ने एक स्वर से कहा 'जय हिन्द'। तीनों ने 'जय हिन्द' कहकर उत्तर दिया। गाड़ी चल पड़ी। 'सुमित जी आपको बताऊँ?' मैंने कहा। 'सौ सवा सौ बच्चों पर दर्जन भर अध्यापक भी मिल जाएँगें।'

'कहाँ?'

'शहर से आठ किलोमीटर के घेरे में।'

'ऐसा क्यों?

'ऐसे लोग जो शहर में रहते हैं, शहर के आसपास ही अपनी नियुक्ति चाहते हैं। दबाव बनाकर वे वहीं भीड़ लगाए रहते हैं। पाँच कक्षाओं पर दस बारह अध्यापक ! आप सोच सकते हैं कैसे पढ़ाते होंगे?' शहर से आठ किलोमिटर के घेरे में उन्हें शहरी आवासीय भत्ता भी मिलता है। काम कम सुविधा ज्यादा।'

'यह तो प्रशासनिक व्यवस्था की कमजोरी है।'

'दबाव में अधिकारी उचित व्यवस्था नहीं दे पाते। वे जन प्रतिनिधियों को खुश करने में लगे रहते हैं।'

'जन प्रतिनिधि क्या अव्यवस्था फैलने के लिए होते हैं?'

'अब इसे कौन कहे?'

शिक्षक नेताओं के हाथ में थोड़ी सुविधा की बटेर थमा दी जाती है। वे नीतिगत दबाव नहीं बना पाते। नीतियों के क्रियान्वयन से अधिकांश को असुविधा होती है। अनीतिकर निर्णय बहुतों की स्वार्थ पूर्ति में सहायक होता है। जैसे घर अघर हुए वैसे अकानून का शासन अनेक को सुखद अनूभूति देता है।'

'हम सब लाली पाप बनकर रह गए हैं, क्या?', जेन ने जँभाई ली।