कोमल की डायरी - 14 - पंछी और पिंजरा Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 14 - पंछी और पिंजरा

तेरह

पंछी और पिंजरा

             ‌ ‌ ‌             शुक्रवार, दस फरवरी 2006

 बहादुर आज आया था। 'मृतक संघ' के काम में लगा है। लोग जुड़ रहे हैं। उसमें भी उत्साह का संचार हुआ है। न्याय पाने के लिए कितना संघर्ष करना है? कुछ लोग उसे निरन्तर धमकाते हैं। वे किराए के लोग हैं। कुछ भी कर सकते हैं। इसका कोई निदान ढूँढ़ना होगा। कोई न्याय की गुहार भी न लगा सके ! सत्ताइस जनवरी को ही जेन और सुमित को दिल्ली लौट जाना पड़ा। कुछ ज़रूरी काम था उन्हें। जेन ने चिट्ठी भेजी है। जाते समय मुझसे मिल नहीं सकी, इसका उसे खेद हैं। यहाँ की समस्याओं पर गंभीरता से काम करने का वादा किया है। अच्छी लड़की है, होशियार, कर्म में निपुण। सुमित भी बँध सकते हैं। हो सकता है न भी बँथे। आजकल लोग स्वतंत्र रहना ज्यादा पसन्द करते हैं।

'मृतक संघ' के लोग उत्साहित हैं। उन्हें शीघ्र कोई लाभ न मिला तब भी क्या वे लड़ते रहेंगे? जिनकी ज़मीने हड़पी जा रही हैं उनमें से अधिकतर प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। आदमी ने अंतःकरण खो दिया है। अब उसे ग़लत, गलत नहीं लगता । जब गलत ही नहीं लगता तो प्रतिरोध कैसे होगा? आदमी को वैचारिक आधार प्रदान करने के लिए अनेक संगठन काम कर रहे हैं पर अधिकांशतः एक दूसरे के विरोधी तेवर लिए हुए। यद्यपि सरकारें बनाने के लिए धुरविरोधी भी इकट्ठे हो रहे हैं पर सामाजिक समस्याओं पर अभी वैसी एकजुटता नहीं बन पा रही है। आज मैं पीपल चौराहे की ओर सबेरे गया था। काम की तलाश में आए लोग इधर उधर बैठे थे। जैसे ही कोई ग्राहक आता लोग उधर आशा भरी दृष्टि से देखते। कुछ चलकर उसके सामने आ जाते। वह दो-चार को छाँट कर ले जाता बाकी लोग पुनः प्रतीक्षा करने लग जाते। यहाँ मजदूरों की बाजार लगते बहुत दिन नहीं हुए। मजदूरों के चेहरों पर खिलखिलाती हँसी का कहीं नाम नहीं। कुशल कारीगर भी महीने में बारह-पन्द्रह दिन ही काम पाते हैं। साल के कुछ महीने बरसात और जाड़े के ऐसे होते हैं जब काम प्रायः नहीं मिल पाता है। मैं चौराहे के निकट पहुँचा तो एक लड़का एक झोरी लिए मेरे पास आ गया। उम्र रही होगी बारह साल। बोला, 'बाबू जी, आप मुझे ले चलिए मैं सबके बराबर काम करूँगा, बाबू जी। पैसा जो मन में आए दीजिएगा।'

'तुम्हारी तो अभी पढ़ने लिखने की उम्र है, काम करने कैसे आ गए?' मेरे पूछते ही उसकी पीड़ा छलक पड़ी 'बाबू जी, माई है, मैं हूँ। एक बीघा खेत है। बिना कुछ किए कैसे काम चलेगा? बाबू जी मुझे ज़रूर ले चलिए। मैं किसी से पीछे नहीं रहूँगा।

इसी बीच मेरे एक परिचित मजदूरों की तलाश में आ गए। मैंने इस लड़के को उनके साथ कर दिया। लड़के को जैसे बहुत बड़ी वस्तु मिल गई हो। अपनी झोरी लिए वह खुशी खुशी उनके साथ चला गया। बाल श्रम केवल कानून से कैसे खत्म कर पाएँगे? हमें कोई विकल्प देना होगा। मैं लौटने लगा तो देखा अब भी लगभग सौ मजदूर प्रतीक्षारत थे।

लौटते हुए गाँधी पार्क में आ गया। दीपांकर मिला। उसने नई ख़बर दी। बताया, 'लगभग दस छुटभैया नेता जिसमें दो ज़मीन जायदाद हड़पने वाले भी थे, कोतवाल पर दबाव डाल रहे थे कि कोमल को किसी मुकदमें में फँसा कर जेल भेज दिया जाए।'

'फिर क्या हुआ?' मैंने पूछ लिया।

कोतवाल ने कहा, 'आखिर मामला क्या है?'

'जहाँ देखो वहीं वह टाँग अड़ाता रहता है।' एक ने कहा।

'मृतक संघ बनवाकर हम लोगों के विरोध में उतर आया है।' एक ज़मीन हड़पने वाला बोल पड़ा।

'क्या किसी की ज़मीन हथियाने की तैयारी है?' कोतवाल ने पूछ लिया।

'बिना आपकी कृपा के कैसे संभव है?' नेता ने हँसते हुए कहा।

'ज़मीन तुम लोग हथियाओगे और बदनाम मुझे करोगे?'

'नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है साहब ? आपको बदनाम कौन कर सकता है? कोई कर रहा हो तो बताइए। हम लोगों के रहते आप पर कोई लांक्षन? यह कोमल तो नहीं...... कहिए तो उसे सबक...

'नहीं, नहीं कोमल का इसमें कोई दखल नहीं है। वह आदमी तो मुझे ठीक लगता है।'

'वह गरीबों में अपनी पैठ बना रहा है। 'मृतक संघ' वाले उसके इशारे पर चलते हैं। वह कोई विस्फोट करा सकता है।'

'विस्फोट?'

'हाँ विस्फोट ही साहब। पता चला है 'मृतक संघ' वाले प्रदर्शन करने वाले हैं।'

'प्रजातंत्र में यह तो होता रहता है। जब तक आन्दोलन हिंसा पर उतारू न हो जाए, मुझे बहुत चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं होती। प्रदर्शन करना प्रजातंत्र में कोई अपराध नहीं है।'

'हम लोग नहीं चाहते कि प्रदर्शन हो। आप कुछ मदद कीजिए।' 'कौन सी मदद?'

'कोमल को अगर किसी केस में जेल के अन्दर कर दिया जाता तो प्रदर्शन की हवा निकल जाती।'

'तुम में से जिसको कहो जेल भिजवा दूँ।' कोतवाल ने हँसते हुए कहा। 'तुम लोग जाओ, खुराफात करने की ज़रूरत नहीं है।'

'वे लोग खिसिया गए थे पर चुप नहीं बैठेंगे। सावधान रहना।' दीपांकर ने सचेत किया।

गाँधी पार्क की एक बेंच पर मैं कुछ देर बैठा रहा यह सोचते हुए कि सचेत कैसे रहा जा सकता है? पढ़ी हुई एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं। गुनगुनाने लगा-

गिरते गिरते करमू की आवाज थरथराई है-

'गोलियाँ हमने सीने में खाई है।

मित्रो, यह अस्मिता की लड़ाई है। ये खून के कतरे खेतों, गली-कूचों में बिजाओ । नई फसल उगाओ।'

मैं क्या कुछ लेकर पैदा हुआ था? ज्यादा से ज्यादा लोग मौत दे सकते हैं। मौत का स्वागत है। जो विश्वास 'मृतक संघ' वालों ने दे रखा है उस पर हर हालत में खरा उतरना है। जेन ने चिट्ठी में मेरी जीवन कथा माँगी है। लिखा है थीसिस के लिए बहुत ज़रूरी है। ये समाजशास्त्री हमारे जीवन से क्या निष्कर्ष निकालेंगे? क्या कुछ किया है मैंने अब तक ? पर भेजना ही है, वे चाहे जो उपयोग करें। अतीत की स्मृतियाँ उभरने लगीं। एक बार मैं थरथरा उठा। उभर आया स्टेशन का बिम्ब 'साले हरामजादे गिरहकटी करता है मादर.......।' दरोगा मारते जा रहे और मुँह से शुभ शब्दों का उच्चारण भी। मैं बेदम हो रहा था। पीठ पर बरते के निशान बन गए। मुक्के थप्पड़ की गिनती नहीं थी। वे थके तो दीवान जी को लगा दिया। फिर वही शुभ शब्दों का उच्चारण और.....। मुझको जो गालियाँ मिल रही थीं उससे उतना कष्ट नहीं हो रहा था माँ और बहन को जो शुभ वचन गिन गिन कर दिए जा रहे थे, उससे सारा शरीर झनझना उठता। जब दीवान जी भी थके, मुझे कोठरी में बन्द कर दिया। मैं बैठ नहीं पा रहा था। टूट-फूट नहीं थी पर शरीर की पूरी कुटम्मस हो चुकी थी। मैं ज़मीन में पड़ गया। शरीर का पोर पोर दुःख रहा था। पड़े पड़े न जाने क्या क्या सोचता रहा? चार घण्टे के बाद कोठरी का दरवाजा खुला। मुझे फिर दरोगा जी के सामने ले जाया गया। रात के तीन बजे थे। मैं खड़ा नहीं हो पा रहा था। उनके सामने ही धम्म से बैठ गया।

'खड़ा हो,' दरोगा जी ने डाटा।

'खड़ा नहीं हो पाऊँगा,' मैंने कराहते हुए कहा।

'न टूट, न फूट, कहता है खड़ा नहीं हो पाऊँगा।' एक थप्पड़ उन्होंने बाएँ गाल पर जड़ दिया।

'मर जाएगा साहब,' दीवान जी ने कहा।

'मर जाने दो, मर ही जाना चाहिए इसे।' कहते हुए दरोगा जी अपनी कुर्सी पर जा बैठे।

'पैसा कहाँ रख आया, बता दे नहीं तो साहब मार डालेंगे। ज़िन्दगी चाहता

है तो बता।' दीवान जी ने दया दिखाते हुए कहा।

'कुल पाँच सौ चालीस रुपया था, दे दिया। अब कुछ नहीं है।' 'ऐसा नहीं हो सकता।'

'सच कह रहा हूँ साहब।'

'बिलकुल झूठ कह रहा है। कोई कैसे विश्वास करेगा? तू रुपया कहीं छिपा आया है। साहब की मार का अन्दाज़ तुझे नहीं है। भूत और जिन्न भी पानी माँगते हैं।'

'साहब मुँह सूख रहा है प्यास लगी है।'

'पानी नहीं मिलेगा, पहले बता।'

'जो सच था बता दिया साहब।'

'तेरी मौत आ गई है।' दीवान जी ने सिर के बाल को जोर से खींचा। लगा कि प्राण निकल जाएँगे। तभी एक महिला आ गई। दरोगा जी ने अपने बगल बिठाया उसे। उम्र यही पचीस-तीस के बीच। दीवान जी ने मुझसे कहा, 'चल उठ'। मैं किसी तरह चल पड़ा। टोंटी से पानी पिया। मुझे फिर कोठरी में बन्द कर 'चुपचाप सो जा' दीवान जी ने ताला बन्द करते हुए कहा।

सबेरे फिर कोठरी का ताला खुला। मैं किसी तरह उठा। फिर दरोगा जी के सामने। फिर वही प्रकरण। वही प्रश्न। मेरे पास भी उत्तर देने के लिए नया कुछ नहीं था।

'इसे जेल भेज दो' दरोगा जी ने आदेश दिया। 'कागज तैयार कर दो। इसे पता चलना चाहिए कि किसी दरोगा से झूठ बोलने का परिणाम क्या होता है?' 'मैं झूठ नहीं बोल रहा।' मेरे मुँह से निकल गया। मैं सोच रहा था कि इस बार फिर मार पड़ेगी पर ऐसा नहीं हुआ। दीवान जी कागज बनाने में लग गए। मुझे फिर कोठरी में डाल दिया गया।

जेल के अन्दर एक नया अनुभव हुआ। जो कैदी मार-पीट या हत्या करके आते हैं जेल में भी सीना तान कर चलते हैं पर जो चोरी या गिरहकटी में पकड़े जाते हैं वे कोई सम्मान नहीं पाते। मेरी ड्यूटी भोजनालय में लगा दी गई। काम मेहनत का था, अधिक समय लेता था पर मैं सोचता था यही ठीक है। अधिक समय आटा गूँथने में ही लगता। हाथ दर्द करने लगते पर मैं चुपचाप काम करता रहता। कभी कभी व्यंग्य वाण सुनने को मिल जाते, 'अबे, सुन बे गिरहकट।' तरह तरह की बातें मुझे सुननी ही पड़ती।

जेल में भी तरह तरह के कैदी। राजनीतिक कैदी तो जेल को अपने सिर पर उठा लेते। चाय, पानी, दूध भोजन किसी की आपूर्ति पर वे अपना गुस्सा उतारते। हमेशा मोबाइल लिए बतियाते रहते। जेल कर्मचारी भी उन्हें देखकर अनदेखा करते। बड़े अपराधी भी ठाट से रहते। उनसे मिलने वाले उनके उपयोग की वस्तुओं का अम्बार लगा देते। खुद खाते दूसरों को बाँट कर अपना रोब गालिब करते। जेल उनके लिए आराम करने की जगह है, सुरक्षित भी। दूर दूर तक फैले अपनी गोल के लोगों से बतियाते, सन्देश देते, योजनाएँ बनाते, योजनाएँ क्रियान्वित हो जातीं, तो खुशियाँ मनाते। बहुत से कैदियों पर दर्जनों मुकदमें चलते पर वे मस्त रहते। कहते जेल तो मेरी ससुराल है, जब चाहा चले आए। कुछ लोग अपनी जमानत रद्द कराकर जेल आते। अपनी योजना सफल कर लेते फिर जेल के बाहर। अनेक कैदी अपराध 1 की नई नई तरकीबें बताते। अपराधों की अनन्त कथाएँ चलती रहतीं। मुझे भोजनालय से जल्दी छुट्टी नहीं मिल पाती पर कथाएँ छन छन कर कानों तक पहुँचती रहतीं।

एक दिन बापू मिलने आए। उनके साथ एक वकील भी थे। उन्होंने कहा, 'चिन्ता करने की बात नहीं, वाद में कोई दम नहीं। छूट जाएगा।' बापू चूड़ा और गुड़ लाए थे। माँ दुःखी है बापू ने बताया। लौटने लगे तो उनकी भी आँखें भर आई थीं। वकील से कहा, 'ऐसा कुछ कीजिए जिससे बेटा जल्दी छूट जाए।'

'मेरे लिए चिन्ता न करो, मैं ठीक हूँ।' मैंने बापू से कहा। पर पिता पिता होता है। उनका हृदय विकल था। वकील साहब ने कहा, 'जमानत न कराई जाए। इससे मुकदमा जल्दी लगेगा।' 'ठीक है जैसा आप उचित समझें', बापू ने कहा। वे मुझे ढाढस बंधाते हुए लौट गए। मुझे माँ ज़रूर याद आ रही थी। उसी को याद करते हुए मैं भोजनालय की ओर बढ़ गया।

शाम को छुट्टी मिली। अपनी कमरी बिछाकर लेटा तो स्मृतियाँ फिर कुरेदने लगीं। हम लोग बरवार है। गिरहकटी पुश्तैनी धन्धा है। पर हम लोग सोते हुए, अलसाए हुए की जेब नहीं काटते। हमारा ग्राहक सजग हो, सचेत हो तभी हम लोग अपना काम करते हैं। कक्षा नौ में था तभी मैंने यह काम शुरू किया। पहली यात्रा में दो दिन के अन्दर नौ सौ रूपये मिले थे। एक महीने ही काम किया था कि दरोगा जी की नज़र में चढ़ गया। उन्होंने बुलाकर पूछा कि कितने दिन से काम कर रहे हो। मैंने बताया। 'देखो तुम बिल्कुल नए हो। जो भी कमाई करोगे उसमें बारह आना मेरा, चवन्नी तेरा। हिसाब-किताब साफ रखना। कोई छल कपट न हो। साल में एक बार तुम्हें पकडूंगा भी। जेल भी भेज दूँगा। कचहरी से छूट जाओगे। पुराने हो जाओगे तो दस आना पर भी चल जाएगा पर अभी बारह आना देना होगा। निकालो जेब में कितना रुपया है?' 'पाँच सौ बीस', मैंने कहा। निकालकर दे भी दिया। 'पाँच सौ बीस' में मैं तुम्हें क्या लौटाऊँ? यह तो मेरा एक दिन का खर्च नहीं है।' कहते हुए उन्होंने बीस रुपया लौटा दिया। उन्हीं के नियमों से मुझे एक सौ तीस रुपया मिलना चाहिए था पर मिला कुल बीस रुपया। मन दुःखी हो गया। भविष्य में थोड़ा छल करता रहा।

सौ-पचास बचा कर रख लेता शेष उन्हें पकड़ाता पर पूरी चवन्नी कभी नहीं मिली। जो कुछ बचा पाता घर दे आता। पाँच महीने बीत गए। छठें महीने जब उन्होंने पकड़ा, मेरे पास कुल पाँच सौ चालीस रुपये थे। सब ले लिया और जो कुछ किया मैं आपको बता चुका हूँ। मैं सोचता रहा यह धन्धा मुझे छोड़ देना चाहिए। सारी कमाई दूसरे को दे दो और ऊपर से मार खाओ। इज्ज़त नाम की चीज़ नहीं। यदि छूटा तो यह धन्धा नहीं करूँगा। सोचते विचारते कब नींद आ गई पता न चला। दूसरे दिन पेशी थी। महीने में एक बार पेशी पड़ती। पेशी के दिन काम से फुर्सत रहती। नहा थो कर तैयार हो जाता। दस बजे कचहरी ले जाया जाता। कुछ कागज पत्र की छानबीन होती। थोड़ा मोड़ा काम होता फिर तारीख पड़ जाती। वकील की सलाह के अनुसार मैंने बयान दिया। सरकारी वकील ने बहुत झकझोरने की कोशिश की पर मैं टस से मस न हुआ। मुकदमें में दरोगा जी भी परेशान हुए। मजिस्ट्रेट ने गवाह प्रस्तुत करने के लिए कहा। उन्होंने एक आदमी को खड़ा किया। उसने उल्टा सीधा बयान दिया। जिरह में बिलकुल उखड़ गया। मुझे लगने लगा कि साक्ष्य के अभाव में मुझें मुक्ति मिल सकती है। मेरे वकील काफी खुश थे।

अगली पेशी पड़ी तो दरोगा जी ने अपना बयान डट कर दिया। लगता था जैसे मैंने उन्हीं की जेब काटी है। पर जिरह में उखड़े तो फिर जम नहीं पाए। पसीने से तर हो गए। मुकदमें की कार्यवाही चलती रही। अगले छः महीनों में पक्ष-विपक्ष के सब बयान और जिरह सम्पन्न हुए। पूरे साल सत्ताइस दिन जेल में रहा। दो दिन घर पर रहा। तीसरे दिन माँ से कहा कि काम के लिए जा रहा हूँ। उसने समझा कि पुस्तैनी धंधा करने जा रहा है पर मैंने बम्बई का टिकट लिया और चला गया। सोचा था कोई काम मिल जाएगा। बम्बई बड़ा शहर है। गाँवों के लोग जाते रहते हैं पर वहाँ जाकर रहने का संकट देखा उससे सारा सपना चकनाचूर हो गया। कुछ पैसे लेकर गया था। कंजूसी से उसे खर्च करता रहा पर वह कितने दिन चलता? दो एक परिचित का पता ले गया था पर वे किसी प्रकार की मदद करने में हिचकिचा रहे थे। कारण मैं जानता था। किसी गिरहकट पर विश्वास करना कठिन होता है। पैसे खत्म हो गए पर काम न मिल पाया। देखा देखी फुटपाथ पर सो लेता पर पुलिस वहाँ भी तंग करती। भूख से तड़फड़ा रहा था। बार बार पुश्तैनी धन्धे की याद आती पर उससे जुड़े अपमान को यादकर काँप उठता। भूखा परेशान मैं जा रहा था कि एक फल बेचने वाला दिख गया। वह सेव और केला बेच रहा था। भूख जब काबू से बाहर होने लगी तो मैंने उससे दो केला माँगा। वह देने लगा तो मैंने कहा, 'आज पैसा नहीं दे पाऊँगा।' उसको अन्दाज़ लग गया कि कोई भैया लोग है। पूछा 'कहा के रहने वाले हो।' मैंने जनपद का नाम बताया। उसने कहा, 'मैं भी तो वही से आया हूँ। जल्दी आए हो। काम नहीं मिला?' 'नहीं' मैंने बताया। उसने दो के बदले चार केले दिए। कहा 'खा लो फिर बात करेंगे।' केला खाकर मैं उसी के पास बैठ गया। उसने अपनी राम कहानी बताई। नाम बताया बहादुर। कहा, 'बड़ी मुश्किल से किराए की खोली का जुगाड़ किया है। घरवाली मराठी है। दोनों फल बेचते हैं।' फल बेचने में तीन दिन मैंने बहादुर की मदद की। उसका परिचय एक कोठी वाले सेठ से हो गया था। बहादुर ने सेठ से बात की। कहा, 'भाई गाँव से आया है। आपके यहाँ कोई काम हो तो।'

सेठ को गेट मैन की ज़रूरत थी। उन्होंने कहा, 'पक्का आदमी चाहिए।'

'बिलकुल पक्का आदमी है।' बहादुर ने बताया।

'कोठी से बाहर नहीं जाना है। खाना, पीना, संडास सब अन्दर ही।'

'बिलकुल नहीं जाएगा।' बहादुर ने स्वयं उत्तर दे दिया।

'घरवाली का लफड़ा नहीं पालेगा।'

'नहीं सेठ जी घरवाली का कोई लफड़ा नहीं।'

'सत्तर किलो माल पीठ पर लाद कर चलना होगा।'

'चल लेगा सेठ जी।'

'साल में दस दिन छुट्टी मिलेगी। इससे अधिक नहीं।'

'मंजूर है सेठ जी।'

'आदमी को मामूली पढ़ना लिखना आना चाहिए।'

'आता है सेठ जी।'

'पर आदमी है कहाँ?'

मैं बगल में ही था। बहादुर ने मुझे आगे कर दिया, कहा 'यही है सेठ जी।' सेठ जी ने मुझे नीचे से ऊपर तक गौर से देखा। कहा, 'हूँ। इस कागज पर अपना नाम लिखो ।'

'मैंने लिख दिया। संयोग से मेरी लिखावट अच्छी थी। शरीर भी गठा था।'

'इसकी गारन्टी लेते हो।'

'हाँ सेठ जी।'

'तो आज से मैं इसे अन्दर करता हूँ। यह बाहर नहीं जाएगा।'

'ठीक है सेठ जी।'

'क्या यह गूँगा है बोलता क्यों नहीं?'

'मुझे मंजूर है सेठ जी।' मैंने कहा। 'तो चल मेरे साथ।' मैं सेठ जी के साथ

उनकी कोठी में घुस गया। मुझे एक ड्रेस दिया गया, एक बेंत तथा एक लम्बी टार्च। सातवीं मंजिल पर

एक छोटी सी कोठरी थी जिसमें एक तख्ता पड़ा था। उस पर एक दरी बिछी थी। एक किनारे खाना बनाने के लिए सिलेन्डर तथा चूल्हा। बगल ही एक बाथरूम। प्लास्टिक के डिब्बे में आटा, दाल। मुझे इसी में अपना आसन लगाना था। 'रोटी-दाल बना खाकर शाम आठ बजे तैयार हो जाओ। सुबह आठ बजे तक गेट पर ड्यूटी देनी है।' सेठ के मुंशी ने कहा। मैं अपने काम में लग गया।

शाम आठ बजे से पहले ही मैं तैयार हो गेट पर आ गया। मुंशी जी ने दिन के गेट मैन से मेरा परिचय कराया। उसका नाम था कमल। सुलतानपुर के किसी गाँव का रहने वाला था, हट्टा कट्टा स्वस्थ, बड़ी बड़ी मूछें। बाल अधपके। आठ बजा तो चाभी पकड़ाते हुए उसने कहा, 'सावधान रहना। यह बम्बई है।' आज पहला दिन था मैं सतर्क था। नौ बजे के आस पास सेठ जी के पुत्र और पुत्र वधू कोठी से बाहर निकले, दो बजे के आसपास लौटेंगे, सावधान रहना।' 'जी साब' मैंने उत्तर दिया। रात गहराने लगी। आसपास के कमरों की बत्तियाँ बुझने लगीं। मैं ड्यूटी पर मुस्तैद था। दो बजने को हुआ तो मैं प्रतीक्षा करने लगा। दो बजकर दस मिनट पर गाड़ी आई। वही दोनों उसमें थे। मैंने गेट खोला गाड़ी अन्दर आई। भैया गाड़ी से बाहर निकले पर बहू जी निकल नहीं रहीं थीं। 'कोमल, इन्हें संभाल कर ले आओ।' भैया ने कहा पर वे निकलने का प्रयास ही न करतीं। किसी प्रकार उन्हें निकाला पर खड़े होने की स्थिति में वे न थीं। उन्हें दोनों हाथों में उठाकर ले चलना पड़ा। बेडरूम में ले जाकर लिटाया। मैंने अब तक पुरुषों को कभी कभी धुत्त देखा था। किसी महिला को धुत्त देखने का यह पहला अनुभव था। खड़े बैठे समय बीता। सबेरे आठ बजे ड्यूटी से छूटा तो आँखों में मिर्ची लगी हुई थी। शरीर टूट रहा था। दूसरे दिन फिर अपनी डयूटी पर लगा। नौ बजे भैया और बहूजी पुनः बाहर जाने के लिए निकले, बिलकुल ताजा, कल की घटना का कहीं कोई निशान नहीं। मैं अपनी ड्यूटी पर डटा था यह सोचकर कि कहीं कोई कमी न रह जाए। दो बजा। पन्द्रह मिनट बाद गाड़ी आई। आज बहू जी चला रही थीं और भैया धुत्त। बहू जी निकलीं। भैया अचेत से। 'इन्हे निकाल कर ले आओ', बहू जी बोली। बड़ी मुश्किल से निकाल पाया। वे खड़े ही न होते। पीठ पर लाद कर बेड रूम तक पहुँचाया। आकर सोचने लगा, यह कैसा तमाशा है- एक दिन बहू जी धुत्त दूसरे दिन भैया जी। बेड रूम छठी मंजिल पर था लिफ्ट न होती तो बेडरूम तक पहुँचाना आसान न था। आठ बजे छुट्टी मिली तो सेठ जी का बुलावा आ गया। उनकी व्यक्तिगत सेवा में लगा नौकर पंजाराम आकर बता गया। मैं गया प्रणाम कर खड़ा हो गया।

'कोठी की बातों की चर्चा कहीं नहीं करोगे।' उन्होंने कहा।

'नहीं मालिक'। ऐसा कुछ नहीं होगा।' 'जबान सिल कर रखो, मानो है ही नहीं।'

'ठीक है मालिक ।'

दिन इसी तरह कटने लगे। कभी कभी बहादुर से मिलने की इच्छा होती पर सेठ जी से छुट्टी माँगना आसमान से तुरई तोड़ना था। कभी कभी घर-गाँव की भी याद आती पर तय कर लिया कि साल-दो साल नौकरी करने के बाद ही छुट्टी लेने की बात करूँ। सेठ जी के यहाँ कई अखबार और पत्रिकाएँ आतीं। अखबार वाले सबेरे ही डाल जाते। मैं सुबह जब तक कोठी के लोग जागते या पंजाराम अखबार और पत्रिकाएँ उठाकर ले जाता कुछ न कुछ पढ़ लिया करता। धीरे-धीरे पढ़ने का चस्का लग गया। जैसे ही अखबार आता, मैं उसे लेकर बाँच डालता प्रमुख ख़बरें और मनोरंजन के कालम। इससे देश दुनिया की खबरें मिलने लगीं पर अपने गाँव जँवार की कोई सूचना न होती। बहूजी महिलाओं की कई पत्रिकाएँ मँगातीं। मैं उन्हें भी पढ़ जाता। कभी कभी सोचता क्या मुझे इसी कोठी में ही रहना है? एक मन कहता 'हाँ' एक मन कहता 'नहीं'। रोटी चल रही है यही क्या कम है? यह विचार मुस्तैदी से ड्यूटी पर लगाए रखता।

'ओ पिंजरे में बन्द पंछी, कभी कभी मन व्यंग्य करता। पर व्यंग्य करना आसान था, रोटी का जुगाड़ मुश्किल। 'चिड़िया ऐसे ही पालतू बनाई जाती है।' मन में विचार उठता। विचारों में उथल-पुथल होती पर ज़िन्दगी का भोगा हुआ सच किसी जोखिम की ओर प्रेरित न कर पाता। साल-दो साल कौन कहे, पूरे पाँच वर्ष गुज़र गए। न मैंने छुट्टी ली, न काम से गैर हाज़िर हुआ। मैंने घर जाने की योजना बनाई। सेठ जी से कहा। उन्होंने कहा, 'छूट्टी तुम्हारी बाकी है ही। चले जाओ। समय से लौट आना। तुम्हारे लोग छुट्टी पर जाते तो समय से नहीं लौटते।'

'मैं लौट आऊँगा समय से पहले ही।' आश्वासन दिया। अपनी पगार से खर्च भर के लिए रुपये लिया करता। एक हजार रुपया महीना सेठ जी के यहाँ ही जमा रहता। पाँच साल में साठ हज़ार हो गए। पर सेठ जी रूपये को कहीं लगा दिया करते। उससे मेरे खाते में व्याज के बीस हजार हो गए थे। मैंने बीस हजार ही लिया शेष साठ हजार सेठ जी के यहाँ फिर जमा करा दिया। सेठ जी ने बर्थ रिजर्व करा दी थी।

कोठी से निकला तो लगा कि किसी दूसरी दुनिया में आ गया हूँ। जिधर देखिए आदमी ही आदमी। सेठ जी ने कहा था कि पैसे का ड्राफ्त बनवा दें पर मैंने ही मना कर दिया था। गाड़ी में बैठा तो पाँच वर्ष पहले रेल के साथ बिताए दिन पुनः याद लगे। मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा आया। अपनी बर्थ पर चुपचाप लेट गया। झोले को सिर के नीचे दबाकर। अपने स्टेशन पर उतरा तो ऐसा लगा जैसे पिंजरे में बंद पंछी को किसी ने छोड़ दिया हो। गाँव पहुँचा। माँ बहुत खुश हुई। बापू भी प्रसन्न हुए। इन पाँच वर्षों में मैंने पाँच चिट्ठियाँ लिखी थीं पर उसमें भी अपना पता नहीं लिखा था। मेरी चिट्ठियाँ घर पर पहुँची पर घर से चिट्ठी आने का जुगाड़ न था। बापू मुझे खोजने के लिए बम्बई आने का मन बनाते रहे पर आ नहीं सके। एक महीना इष्ट-मित्र, नाते रिश्ते के बीच खुशी खुशी कट गया। केवल बीस दिन बचा। उसमें तीन दिन रास्ते के लिए ही चाहिए। में एक दिन पहले ही पहुँच जाना चाहता था। बापू चाहते थे कि मैं शादी के खूंटे से बाँध दिया जाऊँ। मैंने कहा, 'अभी शादी नहीं करूँगा। शादी की बात करोगे तो मैं आज ही चला जाऊँगा।' बापू चुप हो गए पर मन से दुःखी थे।

गर्मियों के दिन थे। जँवारू निमंत्रणों की भरमार। बारातों में रात भर टी.वी. पर फिल्में देखी जातीं। सबेरे आँख कडुवानें लगती। जब मैं बम्बई गया केवल शहरों में ही टी.वी. कुछ घरों में आया था। मैं अपने दरवाजे पर नीम के पेड़ की छाया में एक चारपाई पर बैठा था। किंकर काका आ गए। हल्की सी बारिश रात में हो गई थी। वे बिरवाही खोद कर लौटे थे। 'बेटा कोमल, तूने ठीक किया धन्था छोड़ दिया।'

'ठीक ही समझो काका'

'बिल्कुल ठीक किया बेटा। यह भी कोई धन्धा है।'

'वह चन्दर है न? जुगाड़ लगी तो कोशिश कर देना।'

'देखूँगा काका।' कहते हुए एक टुकड़ा गुड़ और लोटे में पानी लाया। काका प्यासे थे। पूरा लोटा पी गए।

'अच्छा, देखना बेटा।' कहकर वे उठे। कुदाल कंधे पर रखी और चले गए। हमारी कौम के कुछ लोग सांसद, विधायक, नायब तहसीलदार आदि भी हुए पर गाँव के बहुत से लोग अब भी अधिक विकास नहीं कर पाए। थोड़ी खेती से केवल जीविका ही चल पाती। अन्य खर्चों के लिए भागना ही पड़ता। आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई अनिवार्य है न? गाँव अच्छी शिक्षा से जितने दूर, उतने ही पिछड़ते हुए। गाँव में अखबार न मिलता, पत्र पत्रिकाएँ भी नहीं। सुबह अखबार पढ़ने का चस्का जोर मारता। रेडियों से खबरे मिल जातीं पर अखबार और पत्रिकाओं का मज़ा ही और है।

आखिर वह दिन आ ही गया जिसका इन्तज़ार था। बापू घर पर ही थे। माता जी ने पूड़ी, गुलबरिया बनाकर बाँध दिया। चलने लगा तो गाँव के और लोग भी आ गए अधिकतर महिलाएँ और बच्चे। गाँव के डाँड़ तक सभी लोग साथ-साथ। मेरे पास एक झोला था उसे दूसरे बच्चे लिए हुए थे। डाँड़ पर मैं रुका। कहा, 'आप लोग लौट जाएँ'। बड़ों के पाँव लगा। बापू के पाँव छुआ तो वे विह्वल हो गए, कहा, 'चिट्ठी पत्री देते रहना।' गाँव वालों को छोड़ मैं आगे बढ़ गया, गाँव के स्मृतियों की पोटली दबाए हुए।

बाँद्रा पर उतरा तो बहादुर से मिलने चल पड़ा। उसके अड्डे तक गया पर वह न मिला। लोगों ने बताया कि बहुत दिन हो गए अब वह फलों की रेड़ी नहीं लगाता। मैं लौट आया पर सेठ जी के यहाँ नहीं गया। मेरी छुट्टी एक दिन बाकी थी। सोचा बहादुर का पता लगा ही लूँ। उसकी खोली तक गया। पता चला वह और उसकी पत्नी दोनो गाँव चले गए हैं। अब किसी और से मिलना था नहीं। सेठ जी की कोठी की राह पकड़ी। एक दिन पहले आ जाने पर सेठ जी को सुखद आश्चर्य हुआ, 'तुम बात के पक्के निकले। तुम्हारे चेहरे का रंग कुछ बदल गया है?'

'दौड़ धूप में कुछ फर्क तो पड़ता ही है।' मैं कह गया। जेठ की धूप का अनुभव मुझे था, सेठ जी को क्या पता? अपनी कोठरी खोलकर बैठा तो सोचने लगा, 'पिंजरे की ओर पंछी दौड़ा क्यों चला आया है? गाएँ शाम तक खूँटे में बंधने क्यों चली आती हैं? मैं भी पिंजरे में कैद होने आखिर चला ही आया। क्या रोटी और सुरक्षा दोनों के लिए पिंजरा ही विकल्प है?'  



चौदह 

  साथ होने का एहसास

                                  शुक्रवार, दस मार्च 2006

जमीन हड़पने वालों के विरुद्ध हम लोगों का अभियान धीरे ही सही गति पकड़ रहा है। कुछ वकीलों, भुक्तभोगियों के साथ हम लोग जिला अधिकारी महोदय से भी मिले। उन्हें स्थिति से अवगत कराया। उन्होंने राजस्व कर्मियों को सख्त हिदायत दी पर अदालत का काम तो निश्चित ढर्रे पर चलता है। ज़मीन हड़पने वाले थोड़े सशंकित हो उठे हैं। विधायक, सांसद और बड़े नेता अच्छी बड़ी जमीनों, बंगलों पर हाथ मार रहे हैं। उनके कार्य व्यापार का एक हिस्सा बन चुका है यह। सामान्य लोगों की जो लोग ज़मीन हड़प रहे हैं वे अधिकतर गरीब, बेसहारा या गाँव से बाहर रहने वाले हैं। वही बेसहारा लोग समूह में ताकत का अनुभव करने लगे हैं। एक ने तो यहाँ तक कहा, 'ज़मीन मिले या न मिले पर साथ होने का एहसास ही ताकत देता है।' 'मृतक संघ' के बैनर तले पहले तहसील फिर जनपद स्तर पर रैली करने की योजना बनी है। हम सभी लोग इसी काम में लगे हैं। सुबह मैं गाँधी पार्क जाता हूँ, वही आपस में मिलने का अड्डा है। उसके बाद किसी क्षेत्र में निकलना होता है। सरयू और घाघरा नदियों के क्षेत्र में काम गति पकड़ रहा है। आज माझा क्षेत्र में गया था। मृतक संघ के पाँच लोग साथ थे। बहादुर देर से पहुँचे पर अन्त तक साथ ही रहे। लोग खड़े होने का साहस जुटा रहे हैं। सभी दलों, संस्थाओं से सहयोग की अपील की जा रही है। कुछ दलों ने सहयोग करना शुरू कर दिया है। यह कार्यक्रम ज़मीनी समस्या पर केन्द्रित है। समस्या का तात्कालिक निदान जो भी संभव हो, किया जाए। दुर्बल, समूह का बल पाकर खड़े हो रहे हैं। वे समस्या का हल चाहते हैं। दूरस्थ उद्देश्यों के प्रति एक जुट करने में अभी समय लगेगा। सुमित और जेन भी इस कार्यक्रम में सहयोग करने के लिए प्रस्तुत थे। कल एक बच्चे के हाथ में सामान्य ज्ञान परीक्षा सम्बन्धी एक पुस्तिका देखी थी। उसमें राधेरमन प्रबन्ध निदेशक और जयन्ती का नाम निदेशक के रूप में छपा देखकर मन में शंका उठी। अखबारों में आज उनका विज्ञापन भी देखा। संभवतः जयन्ती ने निदेशक होना स्वीकार कर लिया। 'प्रबन्धक घाघ निकला' सुमित की उक्ति चरितार्थ हो गई। अपने भविष्य को तिलांजलि देकर समाज के लिए खड़ा होना कठिन कार्य है। बिना स्वहित का बलिदान किए सामाजिक हित के लिए लड़ा नहीं जा सकता। बुद्ध ने यहाँ अहिंसक आन्दोलन किया था। विरोधी भी क्या कम थे? कठिनाइयाँ भी कम न थीं। भूमि शयन, पैदल चलना, मच्छर भी तंग करते ही थे। सब कुछ सहते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते गये अविचलित, निर्विकार। हम सब जो सामाजिक बदलाव के लिए काम करना चाहते हैं, सुविधा भोगी होंगे तब तो हो चुका। रैली की तैयारी के साथ ही जमीन हड़पने वालो की पहचान भी की जा रही है। ऐसे प्रकरण सामने आ रहे हैं कि देखकर दंग रह जाना पड़ता है। जिसे समझा था हीरा वह भसाकू निकला।