कोमल की डायरी - 13 - घोंघे को गुस्सा आता है Dr. Suryapal Singh द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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कोमल की डायरी - 13 - घोंघे को गुस्सा आता है

बारह

घोंघे को गुस्सा आता है
                             शुक्रवार, सत्ताइस जनवरी 2006
 आज ठंड थोड़ी कम है। हवा बहुत धीमी या कहिए नहीं चल रही है। पेड़ों की पत्तियाँ धीरे-धीरे हिलतीं। पाकड़ के पेड़ में पुराने पत्ते सूखने की तैयारी में हैं। आम में कहीं कहीं बौर दिखने लगे। गुलमोहर भी रंग बदल रहा है। अशोक, मौलिसिरी के पेड़ निश्चिन्त हैं। मैं गाँधी पार्क दस बजे पहुँच गया। धूप कुछ कुछ जवान होने का अभिनय कर रही है। जिनके पास जाड़े के वस्त्र नहीं हैं, उन्हें थोड़ी राहत मिली, चेहरे पर प्रसन्नता का भाव। दो बच्चे टाउन हाल के पूर्वी बरामदे के सामने धूप सेंकते बैठे थे। दोनों एक एक बोरी लिए हुए, कूड़े से उपयोगी चीजें बीन कर रखने के लिए।
'तुझे कूड़ा छानते कितने दिन हो गए घोंघे?' 'मुझे घोंघा कहा गधे की दुम ?'
'दुम तो मक्खी भगाने के काम आती भी है पर तू तो घोंघा बसन्त । बताया नहीं कब से बीन रहा?'
'मैंने गिना थोड़े है?'
'कब तक बीनेगा?'
'तू कोई पुलिस है जो छानबीन कर रहा। तू ही बता कितने दिन से कूड़ा छान रहा।'
'मैं बता सकता हूँ।'
'तो बता न?' अपना सिर खुजाते हुए उसने कहा।
'सात महीना बाईस दिन ।'
'लगता है तू पढ़ा है भाई।'
'हाँ पढ़ा है सात तक और तू?'
'मेरा नाम भी प्राइमरी में लिखा है पर मैं जाता नहीं।'
'क्यों?'
'क्या बताऊँ। बस मन नहीं लगता। आटा भी तो खरीदना होता है।'
'तेरा बाप है?' 'हाँ है पर वह हमीं से कहता है कुछ कमाकर लाओ।'
'बहुत जालिम बाप है तेरा।'
'सभी बाप जालिम होते हैं।'
'सभी कैसे जालिम होते हैं?' कुछ अच्छे होते हैं। अपने बच्चों को कितने अच्छे कपड़े पहनाते हैं? स्कूल भेजते हैं।'
'भेजते होंगे। मेरा बाप तो नहीं करता। दिन भर दारू पिए दुन्न रहता है।'
'टुन्न रहने दे तू अपना काम कर।'
'मुझे गुस्सा आ जाता है। मन करता है बुगदा उठाऊँ काट कर रख दूँ।'
'किसको?'
'किसी को भी।'
'तू खुद जालिम है। किसी को क्यों काट कर रख देगा।'
'जब मैं किसी का आलीशान मकान देखता हूँ, किसी को सजा बजा देखता हूँ, तो मुझे गुस्सा आ जाता है।'
'कैसा है तू रे। आखिर तुझे क्यों गुस्सा आ जाता है?
'यह नहीं जानता मैं। पर गुस्सा आ जाता है। कभी कभी कबाड़ी मालिक पर
भी गुस्सा आ जाता है।
'क्यों?'
'चाहे जितना बीन कर ले जाओ वह दस-पन्द्रह रूपये से ज्यादा नहीं देता। सारा फायदा हजम कर लेता है।'
'तभी तो तोंद निकल आई उसके। चलने पर थुल थुल करता है।'
'इसीलिए मन करता है। बुगदा उसकी तोंद में घुसेड़ दूँ।'
'तू पागल हो रहा है।'
'तू ठीक कहता है। मैं पागल हो रहा हूँ।'
'इस पागलपन से काम न चलेगा। कहीं कूड़ा मालिक को पता लग गया तो
तुझे मरवा
देगा।' 
'उसके पहले मैं आतंकवादी बन जाऊँगा।'
'क्या?
'आतंकवादियों के ठाठ देखते हो टी.वी. में। लेकिन वे मारे जाते हैं या जेल में ठूंस दिया जाता है।'
'वहाँ भी वे शान से रहते हैं। मैं तो चाहता हूँ कोई मुझे आतंकवादियों से मिलवा दे। चौधरी बता रहा था आतंकवादियों को बहुत पैसा मिलता है। लाखों पा जाते हैं घर वाले और उसका नाम दुनिया भर में होता है।'
'तेरी माँ तुझे जाने नहीं देगी।'
'माँ से बातऊगाँ ही क्यों? चुपके से निकल जाऊँगा। तू भी चल। यहाँ कूड़ा बीनते ज़िन्दगी बीत जाएगी। वहाँ दोनो साथ रहेंगे।'
'मैं नहीं जा सकता। मुझे गुस्सा नहीं आता।'
'तू सचमुच गधे की पूँछ नहीं, पूरा गधा है। तुझे गुस्सा ही नहीं आता।'
'मैं माँ को छोड़कर नहीं जा सकता। कहती है तू ही मेरी सहारा है। मेरा बाप भी तो नहीं है।'
'अच्छा हुआ बाप नहीं है। होता तो बैठे बैठे हुकुम चलाता। जो कुछ तू कमाता सब ले लेता।'
'पता नहीं, अच्छा ही होता तो?'
'कौन जाने?'
'आज दिन ठीक है। घाम से मन अलसा रहा है। मन करता है यहीं सो जाएँ।'
'चल कूड़ा बीन। सोने का मौका कहाँ है? आज उस तोंदवाले से बीस रूपये लेने हैं। चल गधे की पूँछ।'
'चल घोंघे।' दोनो ने अपनी बोरियाँ कन्धे पर रखीं और चल पड़े। मैं इनकी बातें सुनकर सोचने लगा-बच्चों के साथ क्या घट रहा है? साढ़े दस बज गए थे। सुमित और जेन का पता नहीं। उनके मोबाइल पर फोन करके पता कर सकता हूँ पर मैंने फोन नहीं किया। गरीब, अनाथ बच्चों को जिधर चाहो ढकेल दो। मदरसों और सांग्वेद विद्यालयों में गरीब और अनाथ लड़के ही ज्यादा पढ़ते हैं।