जनेंद्रवास एक्सप्रेस: एक रहस्यमयी सफर
सर्दियों की हल्की ठंड और घने कोहरे के बीच जनेंद्रवास स्टेशन अपनी रोज़मर्रा की धीमी गति से चल रहा था। स्टेशन के चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था, जैसे कोई अनजाना रहस्य यहाँ की दीवारों में छिपा हो। स्टेशन के नाम से ही अजीब सी रहस्यमयी हवा महसूस होती थी—"जनेंद्रवास"। यहां की पुरानी इमारतें और धुंध में खोए प्लेटफार्म इस बात का इशारा करते थे कि इस जगह के अतीत में कुछ ऐसा है जिसे कोई नहीं जानता।
प्लेटफार्म पर दो दोस्त, दीपक और बल्लू, जनेंद्रवास एक्सप्रेस का इंतजार कर रहे थे। बल्लू एक चंचल स्वभाव की लड़की थी, जिसका हर बात में मजाक खोज लेना उसका खास गुण था। वहीं, दीपक हमेशा गंभीर और सोच में डूबा रहने वाला व्यक्ति था।
बल्लू ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा, "यार दीपक, ये स्टेशन कुछ अजीब सा नहीं लग रहा? इस जगह पर अजीब सी ठंडक और सन्नाटा है।"
दीपक ने उसकी बात को हल्के में लिया, "अरे बल्लू, तुम हमेशा हर चीज़ में रोमांच खोज लेती हो। ये बस एक पुराना स्टेशन है, कुछ खास नहीं।"
लेकिन बल्लू को स्टेशन की खामोशी अंदर तक चुभ रही थी। हर बार जब वह इधर-उधर देखती, उसे लगता कोई दूर से उसे घूर रहा हो। उसकी बेचैनी बढ़ने लगी, तभी ट्रेन के आने की घोषणा हुई। "जनेंद्रवास एक्सप्रेस" धीमी गति से स्टेशन पर आ रही थी।
दोनों ने अपने बैग उठाए और ट्रेन में चढ़ गए। ट्रेन में बहुत कम लोग थे, और ट्रेन की खिड़कियों से बाहर का कोहरा प्लेटफार्म की तरह ही रहस्यमयी लग रहा था। ट्रेन के अंदर एक अजीब सी शांति थी, जो दीपक को भी असहज करने लगी।
ट्रेन चल पड़ी, और बल्लू खिड़की के पास बैठते ही बोली, "दीपक, तुम्हें लग रहा है जैसे कुछ गड़बड़ है? ये ट्रेन और इसका माहौल कुछ अजीब है।"
दीपक ने बल्लू की बात को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा, "तुम बेवजह डर रही हो। ये बस हमारी कल्पना है।"
बल्लू ने खिड़की से बाहर देखा, और तभी उसकी नज़र ट्रेन की आखिरी बोगी पर पड़ी। अजीब बात ये थी कि वो बोगी बिल्कुल खाली थी, फिर भी वहां एक धुंधली सी आकृति खड़ी दिखाई दे रही थी। उसका चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा था, लेकिन उसकी आँखें सीधे बल्लू की ओर देख रही थीं।
"दीपक... मुझे कुछ सही नहीं लग रहा। वहां देखो!" बल्लू ने घबराते हुए इशारा किया।
दीपक ने खिड़की से बाहर देखा, लेकिन उसे कुछ नज़र नहीं आया। "तुम्हें भ्रम हो रहा है बल्लू, वहां कोई नहीं है।"
बल्लू चुप हो गई, लेकिन उसकी बेचैनी कम नहीं हुई। ट्रेन की गड़गड़ाहट के बीच उसे बार-बार ऐसा लग रहा था कि कोई उन्हें देख रहा है। तभी अचानक ट्रेन की बत्तियाँ कुछ देर के लिए झपकने लगीं और एक ज़ोरदार झटका लगा। ट्रेन रुक गई, लेकिन वो स्टेशन नहीं था। चारों तरफ अंधेरा और घना कोहरा था।
तभी एक अनजान आवाज़ ने ट्रेन के सन्नाटे को तोड़ा। "यहाँ कोई है?"
दीपक और बल्लू ने मुड़कर देखा। ट्रेन के पिछले हिस्से से एक आदमी उनकी ओर आ रहा था। उसकी चाल धीमी और भारी थी। बल्लू ने धीरे से पूछा, "तुम कौन हो?"
आदमी ने अपनी टोपी उठाई और हँसते हुए बोला, "मैं डीडी हूँ, इस ट्रेन का यात्री। आप लोग यहाँ कैसे?"
दीपक ने राहत की सांस ली और कहा, "हम भी इस ट्रेन के यात्री हैं, लेकिन ये ट्रेन कहाँ रुक गई?"
डीडी ने एक अजीब सा हंसकर कहा, "ये जनेंद्रवास एक्सप्रेस है। यह ट्रेन कभी किसी तय स्टेशन पर नहीं रुकती, बल्कि वहां रुकती है जहाँ यात्रियों को कुछ सीखना होता है।"
दीपक और बल्लू की सांसें तेज हो गईं। बल्लू ने कहा, "क्या मतलब? ये ट्रेन हमें कहाँ ले जा रही है?"
डीडी ने एक ठंडी नजर से देखते हुए कहा, "यह ट्रेन उन यात्रियों के लिए है जो अपने अंदर के डर से भाग नहीं सकते।"
इतने में ट्रेन की बत्तियाँ फिर से झपकीं और एक झटके के साथ ट्रेन चल पड़ी। दीपक और बल्लू ने एक-दूसरे की ओर देखा, अब उनके मन में डर बस चुका था। बल्लू ने खिड़की के बाहर फिर से उस धुंधली आकृति को देखा, जो अब और साफ़ दिख रही थी—वह आकृति सीधी उनके पास आ रही थी, मानो ट्रेन के साथ ही उड़ रही हो।
डीडी ने आखिरी बार गहरी आवाज़ में कहा, "अब यह ट्रेन तुम्हें तुम्हारे डर के सबसे गहरे हिस्से में ले जाएगी। तैयार हो जाओ!"
ट्रेन की गति बढ़ गई, और एक बार फिर से चारों ओर घना अंधेरा छा गया। अब दीपक और बल्लू को समझ में आ चुका था कि यह साधारण ट्रेन यात्रा नहीं है।