रेत होते रिश्ते - भाग 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रेत होते रिश्ते - भाग 3



मैं नहा-धोकर जब कमरे में आया तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि शाबान इत्मीनान से बैठा हुआ अखबार पढ़ रहा है। मेरे आने के बाद भी वह उसी तरह बैठा रहा। न उठा और न कुछ बोला। मैंने झुंझलाकर घड़ी देखते हुए कहा—
‘‘शाबान, साढ़े आठ बजे हैं और आधा घंटे में हम निकलेंगे। तुम तैयार तो हो जाओ। देर हो जायेगी।’’
शाबान ने मेरी ओर देखा तक नहीं। वह बैठा हुआ उसी तरह अखबार पढ़ता रहा। फिर लापरवाही से बोला—‘‘आप जाइये, मैं नहीं जाऊँगा।’’
‘‘मगर क्यों?’’ मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने कहा—‘‘वहाँ अरमान तुम्हारी राह देख रहा होगा, तुम मिलोगे नहीं उससे?’’
‘‘नहीं, वह मेरी राह नहीं देख रहा होगा।’’
‘‘मैं जानता हूँ तुम उससे नाराज हो पर वह तुम्हारा छोटा भाई है। इतना गुस्सा अच्छा नहीं। हो सकता है उसकी कोई मजबूरी हो। और तुम तो बड़े भाई हो। तुम्हें तो हक ही नहीं है छोटे भाई पर नाराज होने का। चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ।’’ लेकिन शाबान नहीं उठा, वह भी जिद पर अड़ गया। उसने मुझसे साफ कह दिया कि वह अरमान का इन्तजार अब नहीं कर रहा है। वह घर में ही है, यदि अरमान को मिलना हो तो वह यहाँ आ जाये। मेरे बहुत समझाने पर भी शाबान राजी नहीं हुआ। भावुक लोगों की जिद भी तो ऐसी ही होती है। मैं सोचता हुआ अकेले ही निकलने के लिए विवश हुआ।
मुझे ऑफिस जाने से पहले अरमान के पास होटल आशियाना में जाना था। मैं जैसे ही वहाँ पहुँचा, अरमान बाहर नीचे ही मिल गया। वह शायद कोई फोन करने के लिए होटल के काउंटर पर आया हुआ था। मुझे एक असमंजस की स्थिति में मिला वह। उसके चेहरे पर यह जानने की उत्सुकता थी कि शाबान को उसके आने की खबर लगी या नहीं, शाबान अभी कहाँ है और कैसा है। मैंने उसे सारी जानकारी संक्षेप में दी और यह भी बताया कि मैं उसके आ जाने का राज शाबान से नहीं छिपा सका हूँ। इससे उसे बोड़ी मायूसी हुई। लेकिन अरमान के चेहरे पर मायूसी ही नहीं बल्कि उलझनों का जाल-सा दिखायी दे रहा था। वह बुझे से स्वर में बोला—
‘‘भैया, मुझे आपसे बात करती है।’’
‘‘अरे, ऐसी क्या बात है!’’ मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा और उसे साथ ही लेकर होटल की लॉबी में पड़े सोफे पर बैठ गया।
अरमान बहुत परेशान दिख रहा था। थोड़ा रुक-रुककर बोला—‘‘भैया, आरती नहीं गयी।’’
‘‘क्या? क्यों नहीं गयी?’’ मैं सारी बात समझकर आश्चर्य से बोला, यद्यपि मुझे यह पहली ही बार पता चला कि अरमान के साथ आयी उस युवती का नाम आरती है। मुझे लगा कि शायद इसी वजह से अरमान आरती को अपने घरवालों से मिलवाने में हिचकिचा रहा है कि एक हिन्दू युवती से इश्क कर बैठा है। और इश्क भी ऐसा कि तमाम हदें पार कर ली हैं। कहाँ ले जायेगा। जहाँ जाये, लोग बहू का मुँह बाद में, पहले पेट देखेंगे।
मैंने पूछा—‘‘क्या हुआ, गयी क्यों नहीं?’’
अरमान बोला—‘‘हमने रात को उसके घर हैदराबाद फोन किया था। उसके माता-पिता हैदराबाद में हैं ही नहीं। बाद में किसी और परिचित से खबर लगी कि वे लोग दक्षिण की यात्रा पर एक महीने के लिए घूमने गये हुए हैं। ऐसे में आरती ने हैदराबाद जाने से इनकार कर दिया। अब समस्या यह है कि इसे कहाँ रखें?’’
‘‘क्या मतलब?’’ मैंने थोड़ा बेरुखी से कहा—‘‘और कहाँ रखोगे, घर चलो। शाबान भाई इन्तजार में है। साथ में इसे गाँव लेकर जाना है। है कहाँ आरती?’’
‘‘ऊपर कमरे में ही है। चलिये, वहीं चलते हैं।’’ कहते हुए वह उठ गया। मैं भी साथ ही उठा।
अरमान की समस्या वास्तव में जटिल थी। आरती बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के उसके साथ भारत आयी थी। उसी की वजह से उन लोगों को आने में देर भी हुई थी और अनिश्चय की स्थिति भी इसी वजह से पैदा हुई। यही कारण था कि अरमान अपने सही कार्यक्रम की पूर्व सूचना देने के मामले में भी कश्मकश में रहा। अब शाबान की नाराजगी एक और थी, जिससे पार पाना था, पर उससे कहीं बड़ी समस्या थी कि आरती को कहाँ रखा जाये। मेरे इस सुझाव को अरमान मानने पर राजी नहीं हुआ कि उसे बेहिचक पर ले जाकर पापा से मिलवा दें और अपनी भूल या संयोग जो भी है, उसे जाहिर कर दे। लेकिन अरमान इस बारे में भी काफी परेशान था कि आरती के साथ उसके सम्बन्ध को लेकर जो भी वस्तुस्थिति हो, उसे आसानी से हजम करने के लिए सम्भवत: कोई तैयार नहीं होगा। मैं स्वयं भी इस बात को लेकर अरमान को आड़े हाथों लेने का मौका तलाश रहा था। यह मौका मुझे मिल गया, जब आरती को वहीं होटल में आराम करने के लिए छोड़ हम दोनों बाहर निकले। मैंने अब ऑफिस जाने का इरादा छोड़ दिया था और हम दोनों ने यही तय किया कि आरती को दोपहर का खाना खिलाकर हम शाबान के पास चलेंगे। आरती भी तीन साल के करार पर सऊदी अरब में उसी अस्पताल में काम करने के लिए गयी हुई थी जहाँ अरमान तकनीशियन की हैसियत से काम करता था। उसकी पहचान वहीं आरती के साथ हुई। आरती हैदराबाद की रहने वाली थी और जाहिर है कि आरम्भ में सिर्फ भारतीय होने का संयोग ही दोनों को एक-दूसरे के करीब लाया। बाद में अपने वतन से और अपने घर-परिवार से दूर होने का अहसास दोनों को अंतरंगता की ओर खींचता रहा। यहाँ तक कि शरीरों की आग भी रोकी न जा सकी और दोनों इस अंजाम तक पहुँच गये। अरमान से सारी बात जानकर भी इस बात का अचम्भा मुझे होता रहा कि नर्स होते हुए भी आरती ने शरीर के स्तर पर इस तरह का खतरा क्यों ओढ़ लिया। यह स्वीकार किया जा सकता है कि इस उम्र का तकाजा दो जवान शरीरों को नजदीक ला सकता है। अपने देश से बाहर रह रहे युवक के लिए यह कोई अनहोनी भी नहीं है कि क्यों उसने एक कँुवारी लडक़ी से शरीर के सम्बन्ध बना लिये। और अरमान जैसे सुदर्शन और स्मार्ट लडक़े के प्रेम में पडक़र आरती ने जो कुछ कर लिया उसके लिए उसे भी दोषी नहीं ठहरा रहा था मैं, लेकिन फिर भी यह सवाल तो था कि आखिर उन लोगों ने क्या सोचकर आरती के गर्भ में उस जीव को आने दिया, और संयोग से आ जाने पर क्यों उसे रहने दिया, और यदि रहने दिया तो फिर दुनिया के सामने इस सच को लाने में हिचकिचा क्यों रहे थे? आखिर उनके मन में क्या था? क्या अरमान आरती के शरीर के साथ बस उसे बहला-फुसलाकर खेल लिया था और अब किसी तरह उससे छुटकारा पाना चाहता था? क्या वह आरती को धोखा देने का इरादा रखता था? क्या आरती को अरमान की नीयत पर सन्देह हो गया था और इसी से उसने अपने गर्भ में जान-बूझकर जीव पलने दिया कि उसे आधार बनाकर बाद में अरमान को विवाह के लिए विवश कर सके?
मैं बीच-बीच में न जाने क्या-क्या सोचता रह जाता और फिर जब अरमान मुझे खोया हुआ देखता तो वह भी गम्भीर हो जाता। शायद उसे लगता हो कि मैं उसके कारण परेशान हूँ और कोई युक्ति न सोच पाने पर चिन्तित हूँ। वातावरण को ज्यादा गम्भीर होने से बचाने के लिए ही अरमान ने जेब से कुछ कागज निकाले, और उन्हीं के बीच रखे हुए कुछ फोटो भी मुझे दिखाये। फोटो अरमान और उसके कुछ मित्रों के थे जो उन लोगों ने मक्का में कहीं घूमते हुए खींचे थे।
फिर हम बाजार की ओर निकल पड़े। अरमान के पास कुछ डॉलर्स थे जो उसे रुपयों में बदलवाने थे। मैं कालबादेवी के कुछ ऐसे व्यापारियों से परिचित था जो करेंसी बदलने का काम करते थे। हम लोग उसी ओर चल दिये।
मंगलदास मार्केट में मेरा एक मित्र था जिसकी कपड़े की दुकान थी। वह एम.बी.ए. पास युवक था परन्तु अपने पिता के साथ उनके कारोबार को सँभालने की गरज से ही दुकान पर बैठा करता था। उसने कभी कोई नौकरी नहीं की थी। मेरा परिचय उससे वर्षों पुराना था। बातों ही बातों में एक बार उसने मुझे बताया था कि उसके कुछ परिचित व्यापारी लोग अवैध रूप से करेंसी के लेन-देन का काम करते हैं। उन लोगों की मिलीभगत बम्बई के कुछ विदेशी बैंकों व स्थानीय बैंकों के लोगों से होती है जिनके कारण उन्हें रुपये के लेन-देन में भी अच्छा मुनाफा होता है। विदेश से आने वाले लोग प्राय: अपनी घोषित मुद्रा के अलावा भी डॉलर, पौंड या अन्य नोट छिपाकर ले आते थे और उसे यहाँ अवैध रूप से बदलवा लेने पर उन्हें भारी मुनाफा हो जाता था। नोटों को कपड़ों में या सामान में छिपाकर लाने में कोई विशेष असुविधा भी नहीं होती थी।
हमें दुकान में घुसता देखते ही नितिन खुश हो गया और आगे बढक़र उसने हाथ मिलाया। कई बार उसके पास आते-जाते रहने से उसके पिता भी मुझसे परिचित थे। अत: वह मेरे अभिवादन का जवाब देकर अपने काम में लग गये। नितिन ने हम लोगों से पूछे बिना ही दुकान के नौकर को पानी और साथ में ठंडा पेय लाने के लिए बाहर भेज दिया। फिर अरमान की ओर मुखातिब हुआ। मैंने अरमान से उसका परिचय करवाया। इशारों ही इशारों में नितिन हमारे आने का प्रयोजन समझ गया। उसने पास ही रखे फोन पर कोई नम्बर मिलाकर अस्पष्ट-सी बातचीत की। बातचीत किसी कूट भाषा में थी जिसे हम लोगों के लिए समझना सम्भव नहीं था। फिर भी हम नितिन के चेहरे पर आये उतार-चढ़ाव को गौर से देख रहे थे। पलभर में नितिन ने मेरी ओर देखा और हमें भीतर की ओर आने का इशारा किया। दुकान के भीतरी भाग में जाकर उसकी और अरमान की कोई संक्षिप्त-सी बातचीत हुई।
अरमान मेरे कान में कुछ बुदबुदाया। वह ज्यादा आश्वस्त-सा नहीं दिख रहा था। नितिन के किसी काम से बाहर जाते ही अरमान ने मुझे बताया कि नितिन डॉलर के बदले में जो रुपये देने की पेशकश कर रहा है, वे काफी कम हैं। मैंने अरमान से कहा कि हम लोग बाजार में जाकर पूछताछ कर सकते हैं और जरूरी नहीं कि हम नितिन से ही सौदा करें। नितिन तो मेरा दोस्त था, इसी से मैं उसके पास अरमान को ले गया था। ऐसे सौदे किसी परिचित व्यक्ति के साथ करना ही निरापद रहता था क्योंकि अजनबी लोगों से इस लेन-देन की बात करना खतरनाक भी था और जोखिम-भरा भी। बम्बई में एक तो पुलिस भी ऐसे लोगों की तलाश में रहती ही है, दूसरे कई गैरकानूनी काम करने वाले गिरोहों के लोग भी विदेश से आने वाले इन जोखिम उठाने वाले नागरिकों की हरकत का बेजा फायदा उठाते हैं।
मैं इस तरह के किस्से भी दो-एक बार सुन चुका था कि व्यापारी लोग करेंसी के भुगतान के बाद सीधे-सादे लोगों को ब्लैकमेल करते हैं। उन्हें गैरकानूनी कारोबार की जानकारी लग जाने के बाद उनकी बात मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं रहता। मैंने इसी खयाल से अरमान को ज्यादा जोखिम न लेने के लिए कहा। पर वह आश्वस्त नहीं था, नितिन का प्रस्ताव उसे बहुत नुकसान वाला प्रतीत हो रहा था। अन्तत: विवश होकर मैंने उससे कह दिया कि वह चाहे तो हम बाजार में और जानकारी करने के लिए चलेंगे। नितिन से विदा लेकर, हाथ मिलाकर हम उसकी दुकान से बाहर निकल लिये। नितिन ने जाते-जाते हमसे फिर कहा कि यदि कोई दिक्कत हो या जरूरत पड़े तो हम उसे फोन कर लें। उसने मुझे अलग से जाकर धीरे से बताया था कि वह क्योंकि स्वयं यह कार्य नहीं करता, किसी दूसरे व्यापारी के माध्यम से करना पड़ता है इसलिए बीच में उसका भी मुनाफा होने के कारण वह ज्यादा दर नहीं दे पाता। उसने भी यही कहा कि हम बाजार में किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करें जो स्वयं ही यह लेन-देन करता हो।
बाजार में घूमते हुए हम आगे बढ़ चले। भीड़भरे इलाके की उन सटी हुई दुकानों के सामने से निकलते हुए एक दुकान के सामने अरमान पलभर को ठहरा। दुकान के सामने ही पटरी पर कुछ विदेशी आयातित सामान का ठेला लगाये हुए एक व्यक्ति से अरमान की बातचीत हुई और पलभर में वह आदमी जेबों में हाथ डालकर हमारे साथ चल पड़ा। उसने सामने गन्ने के रस की दुकान में बैठे एक लडक़े को अपने ठेले के पास आने का इशारा किया और हम लोगों को लेकर एक गली की ओर मुड़ गया। भीड़भरे इलाके में कुछ देर चलने के बाद वह एक तंग जीने में हम लोगों को ले गया। वहाँ कुछ सीढिय़ाँ चढक़र पलभर को वह रुका। अरमान की उसके साथ इशारों और अस्पष्ट-सी फारसी में कुछ बातचीत हुई। उसके बाद वह हम लोगों को वहीं छोडक़र चला गया। हम लोग अँधेरी तंग सीढिय़ों पर रूमाल बिछाकर बैठ गये। मुझे इस बात का भय था कि यह अनजान आदमी कहीं हमें किसी तरह धोखा न दे दे किन्तु न जाने क्यों, अरमान यहाँ ज्यादा निश्चिन्त और आश्वस्त था। शायद उस व्यक्ति की व्यावसायिकता भरी बातचीत से अरमान को यह भरोसा हो गया था कि यह उसका रोज का काम है। हम दस-पन्द्रह मिनट बैठे रहे।
कोई बीस मिनट के बाद एक लडक़ा वहाँ आया और सीढिय़ों पर चढ़ता हुआ ऊपर की ओर बढ़ा। हम उसके पीछे-पीछे साथ में बढ़े। यह वही लडक़ा था जिसे गन्ने के रस की दुकान से बुलाकर पहले वाले बादमी ने वहाँ बैठने का इशारा किया था। लडक़ा मिलिट्री रंग की खाकी-सी कमीज पहने हुए था और मैली-सी सफेद पैंट थी जो पाजामे की तरह दिखायी देती थी। लडक़े ने चार-पाँच सीढ़ी और ऊपर चढक़र झटपट अपने कपड़ों के भीतर से नोटों की सात गड्डियाँ निकालीं और अरमान की ओर बढ़ा दी। अरमान ने गड्डियों को एक पल के लिए उलट-पलटकर देखा और बिना गिने ही मेरे हाथ में पकड़ा दिया। मैंने सकपकाते हुए उन्हें हाथ में लिया। अगले ही क्षण अरमान ने अपनी बेल्ट खोलकर पैंट नीचे खिसकायी और अपने अण्डरवियर के भीतर गड्डियों को ठूँसने लगा। उधर लडक़ा भी अरमान के दिये हुए डॉलर के नोटों को मोडक़र अपनी कोरियन नायलॉन की चड्डी के भीतर रख रहा था। पलक झपकते ही दोनों अपने कपड़े ठीक करके सीढिय़ाँ उतर रहे थे। लडक़ा उछलता-कूदता नौ-दो ग्यारह हो गया। अरमान के चेहरे पर भी अजीब-सी चमक थी।
हम लोग पैदल ही टहलते हुए बाजार से वापस हो लिये।
मुख्य बाजार में आकर अरमान ने कुछ छोटा-मोटा सामान खरीदा और फिर होटल के लिए टैक्सी पकड़ ली। मैं खामोश था और सोच रहा था कि दौलत की इस खुली आमद का आकर्षण ही शायद हमारे देश के लोगों को विदेशी माहौल के लिए उकसाता है। हम अपनी मिट्टी, अपने लोगों को बिसराकर उस माहौल में जाने को उद्यत हो जाते हैं जहाँ न हमारी संस्कृति हमारे साथ होती है और न ही संस्कार। लेकिन तभी मुझे लगता कि शायद इन्सानियत और इन्सान की एक सार्वभौमिक व्याख्या गढऩे के लिए संस्कारों और संस्कृतियों का यह पलायन-प्रति पलायन भी तो आवश्यक है अन्यथा इन्सान केवल संकीर्ण कबीलों में बँटकर रह जाता है। फासीवाद जैसी अवधारणाएँ तभी तो जन्म लेती हैं जब हम एक कुएँ के मेंढकों की भाँति अपने प्रभामण्डल को ही सम्पूर्ण दुनिया समझने लगते हैं।
मेरी रुचि अब यह जानने में थी कि समाजों-सरकारों के कायदों और बन्धनों को धन-दौलत के लिए जोखिम उठाकर तोडऩे वाला अरमान रिश्तों के बन्धनों पर किस बेबाकी से काम लेता है। आखिर क्या फैसला करता है वह अपनी मित्र आरती के भविष्य के लिए।
हम जब होटल में पहुँचे तो आरती वीडियो पर कोई फिल्म देख रही थी। देर भी काफी हो गयी थी। हमने कमरे में ही मँगवाकर खाना खाया और इत्मीनान से बैठ गये।
आरती अब तक काफी सहज हो चुकी थी और शायद अरमान के चेहरे पर आयी चमक और तसल्ली उसने भी पढ़ ली थी। स्त्री कुदरतन ही यह खूबी रखती है कि वह अपने इर्द-गिर्द रहने वाले पुरुष, चाहे वह पिता हो, पति हो, मित्र हो, पुत्र हो या कोई और, उसके मनोभावों को बड़ी सहजता से ताड़ लेती है। पुरुष का दु:ख स्त्री के कलेजे में परछाईं बनकर दिख जाता है तो उसका सुख भी समीपवर्ती स्त्री की आँखों में तसल्ली के तन्तु उगा देता है। यह गुण भी उन असंख्य गुणों में से एक है जो प्रकृति ने पुरुष की नजर बचाकर स्त्री को दिये हैं।
कुछ देर के बाद मुझे यह स्पष्ट हो गया कि अरमान के मन में आरती को लेकर जो भी उधेड़-बुन है, वह एक निहायत ही अलग किस्म की है। उसकी उलझी-उलझी बातों से जो तसवीर मेरे दिमाग में बनी थी, वह यह थी कि आरती को लेकर अरमान की परेशानी केवल सामयिक ही नहीं है बल्कि और भी गुत्थियाँ हैं जो अरमान फुरसत से सुलझाना चाहता है और इसके लिए उसे मेरी मदद की जरूरत भी है। वह पहले ही कह चुका था कि वह शाबान की तुलना में मुझसे ज्यादा समझदारी की अपेक्षा रखता है और उसे उम्मीद थी कि मेरी ओर से उसे केवल सलाह ही नहीं— अपेक्षित सहयोग भी मिलेगा। शाबान उसका जान से भी प्यारा भाई था परन्तु वह बेहद भावुक था और वह किसी भी निर्णय में भावुकता घोलकर अरमान के लिए मुश्किल पैदा कर सकता था। मेरे और अरमान के रिश्ते दोस्ताना थे और वह मुझसे खुलकर पाता था, ऐसा उसे लगता था। मैं नहीं जानता था कि यह मेरी कमजोरी थी या मजबूती। क्योंकि आखिर यदि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे लोग अपनी-अपनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल कर सके तो यह कोई बहुत अच्छी बात तो नहीं कही जा सकती—दुनियादारी की दृष्टि से तो बिलकुल ही नहीं। अपराधी का किसी भी स्थिति में साथ देने वाले अपराधी ही माने जाते हैं। मगर अपराधशास्त्र के जानकार यह भी तो मानते हैं कि अपने दायरे में खरे और खोटे लोग होते ही हैं और इसीलिए इन्सान अपनी कारगुजारी की छाया में उसी पल देखा जाना चाहिए जब वह कारगुजारी के उस दौर में हो, वरना उससे पहले और उसके बाद तो वह भी अलग हो सकता है। और अपराध कैसा? बीस साल की एक अविवाहित लडक़ी को विश्वास में लेकर शारीरिक संसर्ग करना और नैसर्गिक रूप से उसे गर्भवती बना देना, इतना ही न?
इसे अपराध कौन-से व्याकरण से कहा जाये, इस पर मतभेद की काफी गुंजाइश थी। अगर प्रकृति ने कभी औरत और पुरुष के संसर्ग को अनैतिक माना होता तो यह सृष्टि ही न होती। नैतिक और अनैतिक तो हमारे रचे वे परदे हैं जिनसे अपना जीवन-मंत्र हम सजाते हैं, वक्त का दरिया बहता हुआ दिखाने के लिए।
यह तय करना था कि शाबान के पास चलने के लिए आरती को साथ लिया जाये या नहीं। आरती दिनभर होटल में बोर होती रही थी। यद्यपि शरीर से वह आराम की ही दरकार रखती थी पर न जाने क्यों उसकी इच्छा थी कि वह भी साथ चले। मैं भी इसी पक्ष में था कि उसे यहाँ घर होते हुए होटल में रखने की क्या तुक थी। मगर अरमान की इच्छा नहीं थी उसे साथ ले जाने की।
थोड़ी जद्दोजहद के बाद मैं, अरमान और आरती—तीनों बोरिवली की ओर जाने वाली टैक्सी में थे। दोपहर का समय था इसलिए सडक़ों पर भीड़ का आलम उतना नागवार नहीं था जितना प्राय: सुबह-शाम हुआ करता था। हम हाईवे से होते हुए लगभग एक घंटे में बोरिवली पहुँच गये।
दरवाजा शाबान ने खोला। अरमान अपराध, संकोच और स्नेह के मिले-जुले आवेग से शाबान से गले मिला। आरती ने बड़ी भावपूर्ण आँखों से, बेहद मासूमियत से शाबान की ओर हाथ जोड़े और बदले में शाबान ने बर्फ का बना ठंडा चेहरा हल्का-सा तिरछा करके जवाब दिया। बर्फ के बने इस मुखड़े पर धूप की तीखी किरण-सी पड़ी थी। आरती की आँखें और चौंध अरमान की आँखों में पढ़ी जा सकती थीं। बर्फ के इस ठंडे चेहरे में दबी दो सुनहरी मछलियाँ मुझे आहत कर गयीं। मैं उठकर भीतर गया और वही पाया जो सोच रहा था। बेडरूम में रम की बोतल आधी से ज्यादा खाली थी, एक गिलास भी करीब रखा हुआ था, जिस पर बर्फ के चेहरे के निशान यहाँ-वहाँ चिपके हुए थे।
शाबान ने खाना नहीं खाया था पर शराब बहुत पी थी। बिस्तर पर शाबान की डायरी उलटी पड़ी थी और उसके पन्ने फडफ़ड़ा रहे थे। पैन भी करीब ही खुला पड़ा था। मैंने डायरी को उठाया लेकिन बिना देखे ही बन्द करके अलमारी में रख दिया। बिस्तर को ठीक-ठाक किया और बाहर आ बैठा। तीनों चुप थे, कोई विशेष बातचीत उनमें नहीं हुई थी। अरमान ही बार-बार संक्षिप्त-सी जानकारी बोलों में बाँध-बाँधकर उछाल रहा था पर बर्फ का चेहरा सख्ती से जमा हुआ अहसास लेकर बेहद सुन्न भी था। शाबान की आवाज न मैंने सुनी और न ही आरती ने। शाबान के खोल में इतनी जमी बर्फ मैंने पहली बार देखी थी। आरती पर न जाने क्या प्रभाव हुआ क्योंकि थोड़ी ही देर बाद उसने बातचीत से बेपरवाह होकर सामने मेज पर पड़ी एक पत्रिका उठा ली और उसमें अपना चेहरा छिपा लिया। शाबान अब आरती के उभरे पेट की ओर ज्यादा सुविधा से देख सकता था। उसने कनखियों से ऐसा किया भी। आरती का पेट किसी संगमरमर के पाट-सा जामुनी साड़ी के वरक में लिपटा था। उसकी नाभि साफ दिखायी दे रही थी। जैसे किसी ने पनीर में अँगुली गढ़ाकर अँधेरा गड्ढा कर दिया हो। यह सब सोचना अश्लील था, लेकिन सोचने से कौन किसको रोक सकता है।
मुझे चाय के लिए आरती से ही अनुरोध करने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि तभी सामने से उढक़े हुए किवाड़ से परदा हटाकर मेरे नौकर ने कमरे में पैर रखा था। वह बिना कुछ कहे सीधा रसोई में चला गया और वहाँ से बरतनों की खनखनाहट सुनायी देने लगी। शायद उसने बरतनों के ढक्कन उठा-उठाकर यह भी देखा था कि शाबान ने खाना नहीं खाया है। सब कुछ वैसा ही रखा हुआ था।
शाम को लगभग साढ़े चार बजे हम चारों ने खाना साथ-साथ खाया। हम लोग खा चुके थे पर शाबान को खिलाने के लिए सभी ने साथ दिया। फिर आरती तो दूसरे कमरे में जाकर सो गयी और शाबान व अरमान बातें करते-करते आसपास से बेखबर हो गये। अरमान ने अपनी जिन्दादिली से बर्फ काट दी थी और अपने मासूम चेहरे से तराशकर शाबान को बर्फ के भीतर से निकाल लिया था। मैं उसकी इस सफलता पर बेहद खुश था और देख रहा था कि दोनों भाई अपने पुराने रंग में लौट रहे थे। अरमान ने मुझे तसवीरों का एक एलबम थमा दिया था। मैं उसमें व्यस्त था और शाबान और वह सिर जोडक़र बैठे हुए थे।
रात का खाना हम लोगों ने बाहर ही खाया। आरती का दिल भी हल्का हो गया था। रात को काफी देर तक हम लोग बाहर घूमते रहे।
लौटने पर अरमान ने उन तमाम चीज़ों का ढेर बिस्तर पर लगा दिया जो वह यहाँ सभी के लिए खरीदकर लाया था। वह तबीयत से खुद रंगीन मिजाज था पर साथ ही हरेक के लिए कुछ-न-कुछ लाना नहीं भूलता था। उसकी लायी हुई विदेशी कमीज पहनकर मैंने अपनी उम्र पाँच साल कम महसूस की थी।
आरती रात को भी जल्दी ही सो गयी। हम तीनों घर की छत पर जाकर देर तक बैठे रहे। इधर-उधर की बातें होती रहीं और अरमान युद्ध के खतरे से वहाँ के माहौल में आये बदलाव की बातें चाव से सुनाता रहा। शाबान भी लगभग सहज हो गया था। अब हम लोगों को यह तय करना था कि आगे का कार्यक्रम किस तरह बनाया जाये। शाबान इस सम्बन्ध में कोई राय नहीं दे रहा था। वह केवल अरमान और मेरी बात सुनता था पर आरती को लेकर कोई भी विशेष राय या सलाह उसके पास भी नहीं थी। उसकी तटस्थता, अरमान को विचलित कर रही थी पर उसे जैसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि हम लोग क्या फैसला कर रहे हैं।
इस बात के लिए अरमान के साथ-साथ शाबान भी तैयार नहीं था कि आरती को वे लोग अपने साथ घर ले जायें। मेरे समझाने पर अरमान ने अकेले में मुझे बताया कि यह मामला उतना सीधा-सरल नहीं है जितना मैं समझ रहा था। और इसीलिए अरमान के जोर देने पर मैं भी इस बात के लिए तैयार हो गया कि कुछ दिन के लिए आरती बम्बई में रहे। यह जिम्मेदारी पूरी तरह से मेरे ऊपर ही आ पड़ी कि आरती के रहने की व्यवस्था क्या और कैसे की जाये।
आरती आम धारणा की भाँति भावुक स्त्री नहीं थी। वह न तो अपने इस नौसिखिया प्रेमी से किसी बात की जिद करती थी और न ही किसी बात में अपनी कोई राय जाहिर करती थी। वह किसी जिरह या परामर्श में प्रत्यक्षत: शामिल भी नहीं होती थी और जब बोलती थी तो निर्णायक ही बोलती थी। वह केवल फैसलों में ही विश्वास रखती थी। वह एक बहुत अच्छी लडक़ी थी। मैं अरमान का ऐसा दोस्त था जो अनुभव और उम्र में भी उससे बड़ा था इसलिए मेरे आरती को अच्छी लडक़ी मानने में उसके रंग-रूप या गोलाइयों का कतई हाथ नहीं था। वह स्वभाव से मुझे एक बेहद संतुलित व समझदार लडक़ी लगती थी। यदि हम अपने समाज-रिवाज और संस्कारों से परे सोच पाने में समर्थ हों तो आरती जैसी लड़कियों को बेहद आदर्श और स्वावलम्बी पायेंगे, ऐसी धारणा मेरी बनती जा रही थी। वह एक समर्थ लडक़ी थी। मुझे दो दिन में ही यह विश्वास हो गया था कि आरती मेरे लिए किसी प्रकार परेशानी या मुसीबत का कारण नहीं बनेगी। वैसे भी आर्थिक रूप से हम सभी एक-दूसरे पर आश्रित नहीं थे, बस केवल एक व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा का सवाल था जिस पर सोचना था। यहाँ तक कि स्वयं आरती भी अरमान पर आश्रित नहीं थी। वह स्वयं अच्छे वेतन पर काम कर रही थी और अपने साथ अच्छी-खासी रकम लेकर स्वदेश लौटी थी।
ईद का त्योहार अगले ही दिन होने के कारण शाबान और अरमान ने उसी दिन शाम को घर लौटने का फैसला किया। यह भी बताया कि कुछ दिनों में ही अरमान वापस बम्बई आयेगा। यह बताने के पीछे अरमान का उद्देश्य शायद मुझे यह आश्वासन देना था कि आरती का बोझ ज्यादा समय तक मुझ पर नहीं रहेगा; यद्यपि आरती को किसी भी तरह बोझ मानने का कोई कारण नहीं था। शाम को एयरपोर्ट पर हम चारों ही आये। और बहुत ही संक्षिप्त-सी आपसी परिचय की गमक के बाद मैं और आरती दोनों भाइयों को दृष्टि-परे करके एयरपोर्ट से वापस लौटे। वापस आते-आते हम लोगों को रात के ग्यारह बज गये थे इसलिए किसी तरह और कुछ सोचने की गुंजाइश ही नहीं थी। आरती का सामान होटल से पहले ही लाया जा चुका था। हम निश्चिन्त होकर घर आ गये।
शाबान और अरमान के चले जाने के बाद घर में चुप्पी कुछ ज्यादा आसानी से फैल गयी। चारों थे तो कोई-न-कोई किसी-न-किसी बात पर किसी-न-किसी से कुछ-न-कुछ कहता रहा था पर अब मैं और आरती शायद एक-सी उलझन में थे। दोनों में से कोई कुछ बोल नहीं रहा था। जल्दी-जल्दी कपड़े बदलने के बाद मैंने आरती के सोने की व्यवस्था की और स्वयं पढऩे के लिए सूर्यबाला का एक उपन्यास लेकर दूसरे कमरे में आ गया। थोड़ी देर तक दूसरे कमरे से तरह-तरह की आहटें आती रहीं। शायद आरती अपना इधर-उधर फैला-बिखरा सामान और कपड़े यथास्थान रख रही थी। दो बड़े-बड़े ब्रीफकेस उसके साथ थे जो कभी बन्द होते, कभी फिर खुलते। थोड़ी देर के बाद आहटें आनी बन्द हो गयीं। लेकिन आरती के कमरे की लाइट अभी जल रही थी। या तो आरती लाइट जलाकर ही सोने की अभ्यस्त थी या फिर वह भी मेरी तरह कोई किताब या पत्रिका ही पढ़ रही थी। मैं सोच रहा था कि मैंने आरती से शिष्टाचारवश चाय-कॉफी अथवा पानी के लिए भी नहीं पूछा है और यदि वह इसकी अभ्यस्त होगी तो संकोचवश कुछ नहीं कहेगी और असुविधा में रहेगी। मैं स्वयं इस तरह की असुविधा का आदी नहीं था। मुझे संकोच तो नहीं, लेकिन हाँ, इस तरह की बातों से बड़ी असुविधा होती थी जिनका मैं अभ्यस्त नहीं होता था। कभी आपको प्यास लग रही हो और आप किसी पराये घर में हों, तो पानी माँगने के स्थान पर काफी देर तक प्यास सहना ही ज्यादा निरापद लगता है। और कई बार पानी पीने से मिली ताजगी और पानी माँगने में व्यय हुई मानसिक ऊर्जा बराबर ही हो जाने का अन्देशा भी बना रहता है। लेकिन ऐसा प्राय: तभी होता है जब आप रिश्तों के इस अटपटे स्तर पर पराये घर में हों। चाहे आरती ऐसा महसूस न भी कर रही हो, पर मुझे यह संकोच महसूस हो रहा था। लेकिन थोड़ी ही देर में मुझे सुखद आमचर्य हुआ, जब मैंने अपने कमरे के दरवाजे पर आरती को खड़े पाया।
‘‘कॉफी पियेंगे, भैया!’’ वह पूछ रही थी।
मेरे ‘हाँ’ कहते ही वह पलटकर रसोई में चली गयी। मैंने देखा, आरती अब तरोताजा लग रही थी। उसने अपने बाल खोलकर कंधे पर फैला लिये थे और विदेश से लाया हुआ शानदार गाउन उसके बदन पर था। थोड़ी ही देर में करीने से ट्रे में पानी के गिलास के साथ कॉफी के दो प्याले लिये आरती मेरे सामने थी। इस बीच मैंने स्वयं उठकर कुर्सी पलंग के पास खींच दी थी और एक स्टूल बीच में रख दिया था। मैं भी किताब को रखकर बिस्तर पर बैठ गया।’’ आओ, बैठो!’’ मैंने कहा।
आरती सामने कुर्सी पर बैठकर कॉफी पीने लगी।
कुछ देर की चुप्पी के बाद आरती ने ही मौन तोड़ा। बोली—
‘‘कौन-सी किताब पढ़ रहे हैं?’’
‘‘ऐसे ही, एक उपन्यास है—‘यामिनी कथा...’
‘‘भैया, ये उपन्यास हकीकत होते हैं या मनोरंजन के लिए लिखी गयी कहानियाँ?’’
मैं चकित रह गया आरती के इस सवाल पर। यह सवाल आरती ने अपनी किसी उलझन के सन्दर्भ में गूढ़ बातचीत की आधारशिला के रूप में पूछा था या अरमान से मेरे विषय में काफी कुछ सुन चुकने के बाद मेरे पेशे पर कुछ बातचीत करने की गरज से, यह मैं नहीं जानता, लेकिन उसके इस बुनियादी सवाल ने मुझे चौंका अवश्य दिया। मैंने कहा—
‘‘साहित्य में सभी कुछ मनोरंजन तो नहीं होता। मनोमंथन भी बहुत होता है। बहुत-सी पढ़ी हुई बातें हमें रुला भी देती हैं। कभी-कभी हम परेशान भी होते हैं कहानियों से।’’
‘‘फिर हम पढ़ते ही क्यों हैं?’’
‘‘यही तुम्हारे सवाल का पहला भाग है। हम वस्तुत: धुली-पुंछी हकीकतें ही पढ़ते हैं। किसी एक की हकीकत दूसरे का मनोरंजन भी हो जाती है। किसी की त्रासदी दूसरे के लिए कठिनाइयों से जूझने का पूर्वाभ्यास भी हो जाती है। किसी का पश्चात्ताप दूसरे के पाप का वजन कम करने वाला भी बन जाता है। और कुल मिलाकर यह सारी प्रक्रिया हमारी सामाजिकता का एक ऐसा जाल भी बन जाती है जिसमें उलझकर हम अपने-अपने आत्मिक अन्तरिक्ष में स्थिर होते हैं। हम सब ‘होते’ हैं, इसमें इस सबका बराबर का हाथ है कि हमने दूसरों को कैसा होते देखा-पढ़ा है।’’
कॉफी बहुत अच्छी थी और यही बात कहने के लिए मैंने आरती की ओर देखा तो वह जैसे कुछ सोच रही थी। मैंने खड़े होकर अपना और उसका प्याला उठाया और सिंक में रखने के लिए भीतर चला गया। वह एक पल के लिए हिचकी लेकिन फिर सहज हो बैठ गयी। मैं वापस लौटा तो मुझे वातावरण थोड़ा बोझिल-सा लगा। मुझे पल-पल यह आशंका लगने लगी कि आरती शायद अब कोई स्वयं से सम्बन्धित बातचीत छेड़ेगी, अरमान से अपने सम्बन्ध या अपने भविष्य के बारे में कोई वार्तालाप शुरू करेगी। क्योंकि कभी-कभी बातों की केवल चर्चा भी हमें बातों के प्रति अपार शक्तिशाली बनाती है। हम सहने की कुव्वत पा जाते हैं। इसी आशंका से त्रस्त मैंने स्वयं ही आरती से कहा कि अब वह आराम करे।
मैंने सोने के लिए अपने कमरे की बत्ती बुझाई, तब तक आरती भी सो चुकी थी।