रेत होते रिश्ते - भाग 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रेत होते रिश्ते - भाग 4



शाबान और अरमान के जाने के बाद पूरे चौबीस घंटे भी नहीं गुजरे कि एक समस्या सामने आ गयी। आरती मेरे पास ही ठहरी हुई थी और सुबह ही पूरे दो दिन के अन्तराल के बाद मैं अपने ऑफिस में आया था। शाम को लगभग चार बजे मेरे पास फोन आया कि मेरे एक परिचित मित्र मुझसे मिलने के लिए आ रहे हैं। फोन आने के लगभग आधा घंटे बाद बादामी रंग की एक मारुति कार आकर रुकी और उसमें से निकलकर कमाल मेरे पास आया। बोला—‘‘सर पूछ रहे हैं कि आप उनके साथ बाहर चलेंगे या यहीं बैठकर बात करेंगे। वे गाड़ी में ही हैं। वे चाहते हैं कि आप चलें।’’
मैं कमाल के साथ ही निकलकर बाहर आया। देखा तो राज्याध्यक्ष साहब स्वयं ही स्टियरिंग ह्वील पर थे। देखते ही बोले—‘‘तुम आ गये, यह अच्छा रहा। दरअसल मैं अपने दफ्तर में ही बैठना चाह रहा था क्योंकि मुझे कल तक के दो-तीन जरूरी काम भी निपटाने हैं और तुमसे भी डिस्कस करना है, इसी से मैं तुम्हें लेने आया हूँ।’’ मेरी चाय की पेशकश को भी राज्याध्यक्ष साहब टाल गये। पीछे से दरवाजा खोलकर मैं और कमाल भीतर बैठे और गाड़ी चल पड़ी। बैठते ही मुझे सहसा ध्यान आया कि मैंने आज फिर वही भूल कर दी थी, मैं राज्याध्यक्ष साहब के साथ आगे न बैठकर पीछे वाली सीट पर बैठ गया था, जहाँ कमाल मेरे साथ था। राज्याध्यक्ष साहब इस बात के लिए पहले भी एक बार मुझे टोक चुके थे कि मैं उनके साथ आगे क्यों नहीं बैठता। परन्तु यह शायद कमाल के स्वभाव का आकर्षण ही था कि मैं स्वत: ही आगे के स्थान पर पीछे का दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया। राज्याध्यक्ष साहब ने आज कुछ कहा नहीं था। शायद वह भी मन-ही-मन मेरी सुविधा से तालमेल कर बैठे थे।
राज्याध्यक्ष साहब बेहद गम्भीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वह बम्बई में कई कारोबार एक साथ सँभालते थे। उनका कार्य व समय का तालमेलपूर्ण संयोजन देखते ही बनता था। प्रत्येक दिन का पूरा इस्तेमाल उनकी आदत बन चुकी थी। फिर कई स्तरों पर अपना दिमाग चलाते हुए वह बम्बई की भीड़भरी सडक़ों पर गाड़ी भी अधिकांशत: स्वयं ही चलाते थे। कमाल को मैने बहुत कम ड्राइविंग करते हुए देखा था। प्राय: कमाल तभी गाड़ी चलाता था जब राज्याध्यक्ष साहब साथ में न हों। अधिकतर रात को मुझे छोडऩे जाते समय कमाल गाड़ी चलाता था।
मुझे बराबर इस बात की चिन्ता बनी रही कि राज्याध्यक्ष साहब के साथ डिस्कशन के लिए बैठने का मतलब था रात को काफी देर हो जाना और इस बीच आरती को अकेले ही घर में रहना होगा। वैसे आरती की मदद के लिए मेरा नौकर वहाँ था। मैंने उसे सुबह कह भी दिया था कि वह सारा दिन घर ही में रहे और जब तक आरती वहाँ है तब तक अकेले उसे न रहने दे। उसने भी मुझे कहा था कि वह अपने घर से सामान लेकर वहीं आ जायेगा और आरती के रहने तक चौबीसों घंटे मेरे घर ही रहेगा। उसका घर बम्बई से लगभग बीस किलोमीटर दूर एक गाँव में था, जहाँ से वह आता-जाता रहता था। इसलिए मुझे यह भरोसा था कि आरती बिलकुल अकेले घर में नहीं होगी। वह आ ही गया होगा।
लेकिन मेरी परेशानी तब शुरू हुई जब मलाड पर गाड़ी रोकते ही राज्याध्यक्ष साहब ने बताया कि आज रात हम सबको बम्बई से बाहर रहना होगा। शायद दो दिन भी लग जायें।
श्री जहाँगीर राज्याध्यक्ष ऐसे व्यक्ति थे जिनके निर्णय पूरे होने के लिए ही लिये जाते थे। वह बहुत कैलकुलेटिव थे। उनकी गणना ज्यादा-से-ज्यादा सम्भव कारकों को दृष्टि में रखकर की जाती थी लेकिन एक बार निर्णय ले लिये जाने के बाद उसमें फेरबदल की गुंजाइश नहीं के बराबर ही रहती थी। इसलिए जब उन्होंने कहा कि आज रात को वलसाड के लिए निकलना है तो मेरे लिए आरती के अकेले रहने की समस्या फिर दिमाग के दरवाजे पर आ खड़ी हुई।
मैंने संक्षेप में राज्याध्यक्ष साहब के सामने आरती का परिचय और वह स्थिति रख दी जिसमें मैं घिरा हुआ था। मैंने भरसक यह प्रयास किया था कि वे इसे किसी भी तरह मेरी न चल सकने की विवशता या कोई बहाना न समझें। मैं जानता था कि राज्याध्यक्ष साहब यदि मेरी कोई विवशता देखेंगे तो निश्चित रूप से उसे अपनी स्वयं की समस्या मानकर उस पर नये सिरे से सोचने लगेंगे। इसलिए मैंने तुरन्त ही स्वयं उनके सामने चलने की सहमति भी प्रकट कर दी और यह भी इशारा कर दिया कि केवल मैं जाने से पहले एक बार रात को घर जाना चाहूँगा, ताकि आरती को सारी बात समझाकर आ सकूँ और अपने नौकर की वहाँ उपस्थिति भी सुनिश्चित कर सकूँ। राज्याध्यक्ष साहब इत्मीनान से आश्वस्त हो गये। बोले—‘‘रात को गाड़ी से ही निकलेंगे। तुम जाने से पहले कमाल के साथ जाकर घर पर सब व्यवस्था कर आना।’’ मेरे पास घर पर फोन की कोई व्यवस्था नहीं थी इसी से हमने स्वयं जाने का निर्णय लिया।
मलाड में जहाँ हम आये थे, राज्याध्यक्ष साहब का एक दफ्तर था। वे रहते प्रभादेवी में थे। वहाँ भी उन्होंने अपने फ्लैट के एक कमरे में ही अपना एक कार्यालय बनाया हुआ था। यहाँ पर उनका एक जिमनेजियय था जिसके अहाते के एक ओर ही उन्होंने अपना यह निवासीय दफ्तर खोल रखा था। यहाँ पर जिम हॉल के पास ही एक कमरे के अटैच्ड बाथ वाले बेडरूम की व्यवस्था भी थी जिसमें प्राय: शाम के बाद हम लोग बैठा करते थे। कभी-कभी कमाल यहाँ रहता था और कभी-कभी कार्य के कारण स्वयं राज्याध्यक्ष साहब को भी वहीं ठहरना पड़ता था। राज्याध्यक्ष साहब भी उन लोगों में से थे जो दिन-रात का भेद बल्ब के आविष्कार के बाद भूल चुके हैं। जब उनके सामने काम होता था तो वह रात या दिन की परवाह किये बिना उसमें जुटे रहते थे। उनके साथ काम करने वाले लोगों को भी यह भेद भूलकर ही काम में जुटना पड़ता था।
कमाल उनका एक ऐसा ही सहायक था जो कई वर्षों तक उनके पास कार्य करते हुए अब लगभग उनका दाहिना हाथ ही बन चुका था। कमाल एक जिन्दादिल हँसमुख व्यक्तित्व वाला व्यक्ति था जिसकी आँखों में मुझे आरम्भ से ही अलग किस्म के सपने की लौ जली दिखायी देती थी। वह न जाने किस इन्तजार में हमेशा प्रतीत होता था। ऐसा लगता था कि जैसे वह किसी खास घड़ी या अप्रत्याशित घटना का इन्तजार कर रहा था। कमाल की बात करने की आदत और खुशमिजाज स्वभाव ने ही मुझे उसके इतना करीब किया था कि मैं उसे राज्याध्यक्ष साहब का कर्मचारी कभी नहीं मान पाता था। उसके साथ एक अलग स्तर पर मेरी मित्रता कायम थी। हम लोग आपस में आत्मीयता महसूस करते थे और साथ में बैठकर कभी-कभी शराब भी पीते थे। मेरा अनुभव यह था कि यदि शराब को जिन्दगी बरबाद करने वाली आदत न समझना हो तो उसे बहुत ही गिने-चुने व्यक्तियों के साथ बैठकर ही पीना चाहिए। मेरा यह निश्चित मत था कि शराब पीकर आदमी अपना आपा अवश्य खो देता है, चाहे वह होश में रहे। मैं जिन्दगी में हर किसी के सामने आपा खोने को किसी दृष्टि से उचित या आवश्यक नहीं मानता था। कमाल के साथ बैठना और बेतकल्लुफी से पेश आना मुझे अच्छा लगता था। यही कारण था कि मैं जहाँगीर राज्याध्यक्ष के साथ बराबरी के स्तर पर मिलने के साथ-साथ ही कमाल के साथ भी मित्रवत था। कमाल की अपनी जिन्दगी भी कम दिलचस्प नहीं थी। छोटी-सी उम्र में ही बड़े-बड़े अनुभव दिये थे उसे जिन्दगी ने। न जाने क्या चाहती थी जिन्दगी उससे।
खाना खाने के बाद वलसाड के लिए जब हम निकले तो चार लोग थे। नेशनल पार्क के हिल व्यू अपार्टमेंट के पास आकर हाईवे पर ही राज्याध्यक्ष साहब ने कार रुकवाई और उनसे मिलने आये व्यक्ति को साथ लेकर उतर पड़े। अपार्टमेंट की एक रोशन बालकनी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने मुझे बताया कि वह थोड़ी देर के लिए यहाँ रुकेंगे। उन्होंने सलाह दी कि मैं और कमाल बोरिवली जाकर मेरे घर पर आवश्यक सूचना दे आयें और वापस यहीं आ जायें। मुझे घर पर आरती को सूचना देने के साथ अगले एक-दो दिनों के लिए कपड़े और कुछेक आवश्यक सामान साथ में लेकर आना था।
गाड़ी लेकर हम लोग निकल पड़े।
घर पहुँचे तो आरती को टी.वी. के सामने बैठे पाया। वह स्वयं तो शाम को नहाकर हल्का मेकअप किये सजी-सँवरी बैठी ही थी, उसने घर की भी काया-पलट कर दी थी। घर की अच्छी तरह सफाई की गयी थी। हर चीज़ करीने से रखी हुई थी। यहाँ तक कि चादरें आदि भी उसने बदलकर मैले कपड़े लॉण्ड्री में डलवा दिये थे। मेरा नौकर तुकाराम भी उत्साहित-सा कोने में एक कुर्सी लिये टी.वी. के सामने ही बैठा था। उसकी शक्ल से लग रहा था कि उसने मेमसाहब के साथ दिनभर अच्छी-खासी मशक्कत की है, और घर की सफाई का सारा काम करवाया है। वह खाना भी बना चुका था। और अब दोनों कमरे में बैठे हुए मेरे लौटने के इन्तजार में थे। आरती तुकाराम से मेरी आदतों, वापस लौटने के वक्त व दिनचर्या आदि के बारे में अच्छी-खासी जानकारी हासिल कर चुकी थी। तुकाराम अपने घर से अब बम्बई में ही रहने के लिए कहकर एक थैले में अपने कुछ कपड़े लेकर आ गया था और मुझे यह देखकर काफी तसल्ली हुई कि अब दो-तीन दिन मेरे न लौटने पर भी आरती को तकलीफ नहीं होगी।
आरती हम लोगों को देखते ही उठ खड़ी हुई और उसने तुकाराम को चाय का पानी चढ़ाने का आदेश दे दिया। फिर मैंने कमाल का परिचय उससे थोड़े में करवाया और राज्याध्यक्ष साहब के विषय में भी संक्षिप्त जानकारी दी और यह बताया कि इन लोगों के साथ मुझे दो-तीन दिन के लिए बम्बई से बाहर रहना होगा। आरती इस सूचना से एक पल के लिए शिक्षकी, लेकिन फिर वह सहज हो गयी। शायद तुकाराम के वहाँ आ जाने से उसे काफी भरोसा हो गया था। उसने सहमति दे दी। जितनी देर में चाय आयी, मैंने अपने ब्रीफकेस में कुछ कपड़े और दैनिक आवश्यकता की कुछ वस्तुएँ रखी और लगभग बीस मिनट में हम निकलने के लिए तैयार थे। मैंने तुकाराम को अलग बुलाकर सौ रुपये का नोट दिया और समझाया कि साग-सब्जी आदि के छोटे-मोटे खर्चे मेमसाहब को न करने दे। आरती से विदा लेकर हम वापस राज्याध्यक्ष साहब के पास आये, तब तक वह भी बातचीत से निवृत्तप्राय ही हो चुके थे और हमारी प्रतीक्षा में थे।
कुछ ही पलों में हमारी कार बोरिवली से वलसाड की दिशा में हाईवे पर दौड़ पड़ी। अब कार कमाल चला रहा था और राज्याध्यक्ष साहब पीछे की सीट पर टेक लगाये मेरे साथ बैठे थे। इस समय राज्याध्यक्ष साहब हमेशा जैसे खामोश नहीं थे क्योंकि एक तो मैं उनके साथ था और कार्य के विषय में उनके साथ होने वाली बातचीत को अन्तरंगता से इस अवसर का लाभ उठाकर निपटा लेना चाहता था, दूसरे बम्बई से बाहर निकल आने के कारण राज्याध्यक्ष साहब भी बाकी सब बातों से बेखबर होकर केवल उसी बात पर सोच पा रहे थे जिसके लिए हम लोग जा रहे थे।
दरअसल राज्याध्यक्ष साहब एक अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे और उनकी जो बात मुझे सबसे अधिक प्रभावित करती थी वह यह कि वह एक अत्यन्त साधारण बल्कि गरीब परिवार से उठे थे। बम्बई में उन्होंने वे दिन भी देखे थे कि जब घर में रोटी बनती हुई दिखने के बाद ही भरोसा होता था कि खाना मिल सकेगा। वे आज भी माहिम के उस इलाके के नजदीक से निकलते हुए बेहद खामोश हो जाते थे जहाँ एक टूटी हुई झोंपड़ी में दो-तीन परिवारों के साथ सम्मिलित रूप से अपनी जिन्दगी के सात-आठ साल उन्होंने बिताये थे। लगभग पशुवत् जीवन उन्हें वहाँ जीना पड़ा था। किन्तु उन्होंने अपने सपनों को कभी मरने नहीं दिया था और आज उनके पास तीन फ्लैट और दो कारें थीं। उनका अपना एक शानदार जिमनेजियम था। उनके पास गैस की एक एजेन्सी थी और इसके अलावा उन्होंने शेयर बाजार के नजदीक एक कार्यालय भी खोल लिया था जहाँ से वह शेयरों का कारोबार करते थे। उनके पास अब अभाव था तो बस सिर्फ एक चीज़ का, और वह था समय। एक वही उन्हें कंजूसी से बरतना पड़ता था, बाकी सब बातों में शाहखर्ची की सुविधा अब उन्हें मुहैया थी।
एक किस्सा उनके बचपन का, उनके मन पर गहरे अंकित था। उन्होंने मुझे एक दिन सुनाया था। यह तभी की बात थी जब वह धारावी के नजदीक वाले इलाके में रहते थे। उस समय उनके माता-पिता और दो बहनें भी उनके साथ थीं। पिता दिनभर अनिश्चय-भरी मजदूरी से गुजरते थे, माँ पास की बस्ती में घर के कामकाज के लिए चली जाती थी और दोनों बहनें छोटी ही उम्र में घर के कामकाज के लिए अपने खेलने-खाने के दिन झोंक रही थीं। ऐसे में उन दिनों का छोटा जहाँगीर यह तय नहीं कर पाता था कि वह अभी छोटा बच्चा है या जिन्दगी के यथार्थ की देहरी पर दस्तक देता हुआ कोई किशोर। शाम को माँ के घर लौट आने के बाद वह बच्चा बन जाता था और दिनभर घर में अपनी बहनों का रखवाला बने रहने के चक्कर में उसे युवा होते किशोर की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता था। उस बेहद गन्दी और तंगहाल बस्ती के बच्चों के साथ खेलते हुए वह जो कुछ सुनता और देखता था, वह सब उसे बहनों के लिए घर के आसपास ही बने रहकर सतर्कता बरतने को उकसाता था। उस गलीज बस्ती का कोई घर ऐसा नहीं था जहाँ के लोगों की नंगई किसी से छिपी रह सकी हो। बाद में बेहद तंगहाली के दिनों में जहाँगीर के पिता अपने परिवार को साथ लेकर गाँव वापस लौट गये थे। लेकिन केवल जहाँगीर ही अपनी जिद से वहाँ एक रिश्तेदार के पास रह गया था। नागपुर जिले के अपने छोटे-से गाँव में लौटते हुए पिता को भी उम्मीद की एक किरण दिखायी दी थी कि शायद जहाँगीर यहाँ बम्बई में रहकर कुछ बन जाये। और वही आज हो गया था। आज जहाँगीर राज्याध्यक्ष ने अपने परिवार को शान-शौकत से वापस अपने पास बुला लिया था। बहनों की अच्छे घरों में शादियाँ कर दी गयी थीं। स्वयं राज्याध्यक्ष साहब के घर भी अब्दुल रहमान स्ट्रीट की एक नामी दुकान के मालिक की बेटी बहू बनकर आ चुकी थी।
इन्हीं राज्याध्यक्ष साहब के मन पर बचपन की वह घटना ज्यों की त्यों दर्ज थी। एक बार वह अपने मोहल्ले में बाल कटवाने के लिए एक नाई के पास गये थे। नाई की दुकान नहीं थी। वह पटरी पर एक पेड़ के नीचे बैठकर ही अपनी दुकान चलाता था। तेरह-चौदह वर्षीय जहाँगीर के सिर के एक ओर के थोड़े से बाल काटने के बाद नाई के भीतर का सौदागर एकाएक जाग उठा था। उसे अचानक लगा कि मैली-सी छोटी, फटी हुई कमीज और जाँघिये में बैठे इस लडक़े के पास बाल कटाने की मजदूरी के पैसे भी हैं या नहीं। और जब उसे पता चला कि जहाँगीर की जेब में कुल आठ आने की पँूजी भी नहीं है तो उसने तत्काल अपना हाथ रोक लिया था और जहाँगीर को दुत्कार दिया था कि पहले पूरे पैसे लेकर आने पर ही हजामत बनेगी। जहाँगीर ने उसकी लाख मिन्नत की कि शाम को बाबूजी के आने पर वह पैसे लाकर दे देगा। पर नाई नहीं पसीजा। जहाँगीर ने इशारे से थोड़ी दूर पर नाई को अपनी झोंपड़ी भी दिखायी थी पर तब तक नाई अनसुनी करके दूसरे ग्राहक के सिर को हाथों में लेकर बैठ चुका था। जहाँगीर रुआँसा हो गया। उसे बाल न कट पाने से ज्यादा खौफ इस बात का था कि उसके सिर के आधे कटे बालों को देखकर वहाँ मैदान में खेलने वाले लडक़े उसका मजाक बनायेंगे और उसका जीना हराम कर देंगे। किसी तरह छिपते-बचते जहाँगीर अपनी झोंपड़ी में पहुँच गया जहाँ पर इस समय उसकी बहनों के अलावा कोई नहीं था। बहनों ने भी देखते ही उस पर हँसना शुरू कर दिया। उसने घर पर इधर-उधर ढूँढ़ा कि शायद उसे कहीं पड़े हुए आठ आने मिल जायें पर उसका ढूँढऩा व्यर्थ गया। सारे घर के लोग जहाँ दिनभर मेहनत-मशक्कत करते हलकान होते थे वहाँ उसे आठ तो क्या, चार आने की पूँजी भी कहीं पड़ी नहीं मिली। वह उदास हो गया और बिना कुछ बोले घर से बाहर निकल गया। दो-चार घरों के आगे जाकर ही उसकी माँ की एक सहेली का घर था जिसे वह मौसी कहता था। उन्हीं मौसी की लडक़ी झोंपड़ी के बाहर एक नाली के किनारे बैठी बरतन धो रही थी। जहाँगीर जब वहाँ से निकला तो उसने न जाने क्या सोचकर लडक़ी से पूछ लिया—‘‘मौसी हैं?’’
‘‘नहीं, मी तो काम पर गयी है। बोल!’’ कहकर लडक़ी के हाथ थम गये। वह जहाँगीर की ओर सवालिया निगाह से देखने लगी। जहाँगीर ने हिम्मत बटोरकर उससे कह दिया—‘‘मेरे को एक रुपया चाहिए। शाम को बाबूजी आयेंगे तो लौटा दूँगा।’’ लडक़ी का ध्यान शायद अब तक जहाँगीर के बालों की ओर नहीं गया था क्योंकि वह हँसी नहीं थीं। धीरे से उठी। गीले हाथों को अपनी सलवार से ही पोंछती हुई वह झोंपड़ी के भीतर घुसी। जहाँगीर को केवल ‘आ’ की आवाज सुनायी दी। जहाँगीर उसके पीछे-पीछे अन्दर चला गया। अन्दर भी कोई नहीं था। एक आले केअन्दर रखे हुए छोटे-से टिन के डिब्बे के नीचे से लडक़ी ने एक रुपये का सिक्का उठाया और जहाँगीर की ओर बढ़ी। जहाँगीर की आँखों में चमक आ गयी। लेकिन यह क्या, लडक़ी ने सिक्का जहाँगीर की हथेली पर न रखकर अपने कुरते की जेब में डाल लिया। जहाँगीर जैसे मुरझा गया। लडक़ी चुपचाप जहाँगीर के नजदीक आयी और उसके कन्धों पर हाथ रखकर बोली—‘‘एक काम करेगा?’’
‘‘क्या?’’ जहाँगीर ने कहा।
‘‘किसी से कहेगा तो नहीं?’’
‘‘नहीं!’’
‘‘खा मेरी कसम।’’
जहाँगीर चुप रहा। लेकिन लडक़ी ने शायद इस ओर ध्यान नहीं दिया कि जहाँगीर ने कसम नहीं खायी है। वह वापस मुड़ी और उसी आले से एक मुड़ा-तुड़ा कागज निकालकर जहाँगीर को देती हुई बोली—‘‘यह कागज नुक्कड़ के पास सलीम को दे आ, वह गल्ले पर बैठा होगा।’’
जहाँगीर ने कागज ले लिया। लडक़ी ने झट से जेब से हाथ निकालकर सिक्का भी जहाँगीर को दे दिया। जहाँगीर झटपट मुड़ा और बाहर की ओर दौड़ा। पलटते-पलटते लडक़ी ने जहाँगीर की दोनों टाँगों के बीच जोर से चिकोटी काटी और हाथ वहीं मसलती हुई चिल्लायी—‘‘किसी से कहना मत, जा।’’
जहाँगीर आनन-फानन में पहले सलीम के पास गया और फिर उसी नाई के पास लौट लिया, अपनी अधूरी हजामत पूरी करवाने के लिए।
बचपन को विदा देते दिनों की यह घटना राज्याध्यक्ष साहब ने ज्यों की त्यों मुझे सुनायी थी और उसके बाद यह भी मैं स्वयं अपनी आँखों से देख चुका था कि राज्याध्यक्ष साहब लिंकिंग रोड, बांद्रा के ‘फ्रेंच ग्लोरी’ सैलून में जब भी जाते थे, कभी अपने हाथ से वहाँ भुगतान नहीं करते थे। वह जेब से अपना पर्स निकालकर पहले ही ड्रेसिंग स्लॅब पर रख देते थे और शेव, कटिंग या मसाज हो जाने के बाद हमेशा सैलून के कर्मचारी से पैसे पर्स में से अपने आप निकालने के लिए कहते थे। और उनके पर्स में सौ से छोटा नोट शायद ही कभी रहता था, खुल्ले पैसे जेब में अलग से पड़े रहते हों तो रहते हों। सैलून के लोग उनकी इस आदत से वाकिफ थे, और वह तत्परता से या तो सौ का नोट लेकर छुट्टा देते थे या कह देते थे—‘‘कोई बात नहीं, फिर आ जायेंगे, और राज्याध्यक्ष साहब के पर्स को हाथ भी नहीं लगाते थे।’’
जिन्दगी के यही धुँधले चटख रंग जब-तब राज्याध्यक्ष साहब के चेहरे पर मैं देखा करता था। उनका चेहरा एक केनवास था जिस पर अतीत के दृश्य भी अंकित थे और भविष्य के सपने भी।
राज्याध्यक्ष साहब के साथ होने वाला ‘डिस्कशन’ मेरे लिए एक दिलचस्प अनुभव था जिस पर वलसाड और सूरत में अगले एक-दो दिनों में अन्तिम रूप से काम शुरू करने के लिए ही फैसला होना था। सूरत के एक व्यापारी जो स्थायी रूप से वलसाड में रहते थे, विज्ञापन जगत् से जुड़े हुए थे। बम्बई में भी उनकी एक फर्म थी। उनका फोटोग्राफी और एडवरटाइजिंग का मुख्य व्यवसाय था। उनके दो स्टूडियो थे और जब से उनका एक लडक़ा फोटोग्राफी की एडवान्स्ड ट्रेनिंग लेकर फ्रांस से लौटा था, उन्होंने अपना कारोबार बड़े पैमाने पर फैला लिया था। वह राज्याध्यक्ष साहब के अन्तरंग मित्र थे। मैं भी दो-तीन बार उनसे राज्याध्यक्ष साहब के साथ ही मिल चुका था। और संयोगों के सहारे ही बातों-बातों में उन दोनों के बीच एक परियोजना पर काम शुरू हो गया। काम दोनों की ही महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप था। यह योजना जिस तरह से बनी थी उससे यह स्पष्ट हो गया था कि आज की तेज व्यावसायिक दुनिया में जिजीविषा के साथ-साथ संयोगों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। जो कार्य होने होते हैं उनके लिए सम परिस्थितियों का ध्रुवीकरण स्वत: ही अदृश्य रूपों से होता चला जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं, कि जीवट की महत्ता कम हुई हो। जीवट और संयोग दोनों मिलकर ही अपेक्षित रंग घुलते हैं।
पेण्ट्राज कम्पनी के लिए एक छोटी विज्ञापन फिल्म तैयार करने के दौरान ही वह सूरत से जब राज्याध्यक्ष साहब के पास आये हुए थे, उसी दिन राज्याध्यक्ष साहब ने एक छोटी-सी अनौपचारिक पार्टी दी थी। उस दिन उनके साथ उनका वह लडक़ा भी आया हुआ था जो फ्रांस से उन्हीं दिनों लौटा था। पार्टी के दौरान बातचीत में मुझे वे लोग बहुत प्रतिभाशाली लगे थे—विशेषत: उनका लडक़ा काफी महत्त्वाकांक्षी प्रतीत होता था और उसने आने के बाद अपने पिता के कारोबार का लगभग कायाकल्प करने का बीड़ा उठा लिया था। यह न जाने क्यों हमारी नियति बन चुकी है कि हमारी प्रतिभाएँ जब बाहर के किसी भी मुल्क में हो आती हैं, तभी यहाँ लोग उनकी बात सुनने को तैयार होते हैं अन्यथा कोई किसी के सपने को गम्भीरता से नहीं लेता। कुछ करने की तमन्ना या साध (साथ) रखने वाले लोग यहाँ बेहद अकेले पड़ जाते हैं।
वह एक बहुत शालीन, आत्मीय और उपजाऊ पार्टी थी। उसमें हम लोग केवल शराब नहीं पी रहे थे, उसमें हम लोग केवल गोआ की मशहूर मछली का सलाद नहीं खा रहे थे, उसमें हम लोग केवल मिस्टर इंडिया एण्टरप्राइजेज की उस ताजातरीन फिल्म के सेंसर द्वारा काटे गये अंशों की ही बातें नहीं कर रहे थे जिनके द्वारा बम्बई में ब्लू फिल्मों का निर्माण करने वाले एक बड़े गिरोह का पर्दा हुआ था। उस पार्टी में मैंने राज्याध्यक्ष साहब के रूप में सोफे पर एक संस्था रखी देखी थी। उस पार्टी में मैंने कमाल के नक्शे में संगमरमर के एक और कमाल को ढूँढ़ा था। उस पार्टी में मैंने फ्रांस से लायी गयी वह खाद देखी थी जिसे भारत की मिट्टी में डालकर यहाँ के बिरवे हरियाले बनाये जाने थे और सबसे बड़ी बात यह कि इस काम का आगाज भी वहीं हुआ जिसे अन्जाम देने के लिए राज्याध्यक्ष साहब, कमाल और मैं रात के पौने दो बजे बम्बई से सूरत जाने वाली सडक़ पर हवाओं को चीरते चले जा रहे थे। चलते-चलते काफी देर हो चुकी थी। अब यह तबीयत हो रही थी कि यदि कोई साफ-सुथरी-सी जगह मिले तो बैठकर एक कप चाय पी जाये। कमाल भी गाड़ी चलाता-चलाता शायद थोड़े आराम की जरूरत महसूस कर रहा था; क्योंकि वह जल्दी-जल्दी सिगरेट पीने लगा था। राज्याध्यक्ष साहब भी शायद लघुशंका के लिए रुकना चाहते थे। उस भीड़-भरे हाईवे पर ऐसी जगह मिलना कोई मुश्किल काम नहीं था। जल्दी ही हम एक ऐसे होटल में थे जो दो-तीन डीलक्स बसों में आये हुए दक्षिण भारतीय पर्यटकों से आबाद था। न तो यात्रियों पर और न ही होटल के कर्मचारियों पर रात के कहीं कोई लक्षण थे। सब कुछ ऐसा चल रहा था मानो चढ़ती शाम की कोई वेला हो। होटल भी रोशनी से गुलजार था। जरा देर के विश्राम के बाद तरोताजा होकर हम लोग फिर चल पड़े।
वलसाड में हम लोग एक गेस्ट हाउस में ठहरे। हमारा रहने का शानदार प्रबन्ध उन्हीं सज्जन ने किया था जिनसे मिलने हम लोग गये थे। पास-पास दो कमरे थे। कमरे ज्यादा बड़े नहीं थे लेकिन सरकारी गेस्ट हाउसों की भाँति सजे-सँवरे थे। यहाँ फिर वही हुआ। मैं और कमाल एक कमरे में चले गये। जब राज्याध्यक्ष साहब ने आवाज लगाकर हमें बुलाया, तब तक हम दोनों ही कमरे में रखे डबलबेड के नजदीक अपने जूते उतार चुके थे। अपना सामान हमने एक ओर रख दिया। बगल के कमरे में राज्याध्यक्ष साहब की आवाज आते ही हम लोग उनके कमरे की ओर चल पड़े। मेरे पास चप्पल नहीं थीं और मैं जूते उतार चुका था। कमाल ने अपने पैर में पडऩी चपल मेरी ओर बढ़ाई और स्वयं नंगे पाँव ही चल पड़ा। राज्याध्यक्ष साहब ने करीने से एक बिस्तर के गिर्द अपना सामान रख लिया था और दूसरा निस्संदेह मेरे खयाल से खाली छोड़ दिया। जब उन्होंने मुझे और कमाल को नंगे पाँव व चप्पलों में आते देखा तो शायद वह समझ गये कि हम बगल वाला कमरा घेर चुके हैं। उन्होंने एक बार धीरे से कहा भी कि यदि वहाँ कोई तकलीफ हो तो यहाँ आ जाओ। लेकिन उन्होंने इस पर कोई जोर नहीं दिया था।
थोड़ी ही देर में चाय आ गयी। मैंने सोचा था कि चाय पीकर राज्याध्यक्ष साहब थोड़ी देर सोना चाहेंगे पर उन्होंने चाय खतम करते ही अपने ब्रीफकेस से एक पतली-सी फाइल निकाल ली और चश्मा उठाकर हाथ में ले लिया। मैं उनका इशारा समझ गया। उन्होंने चश्मा लगाया और कमाल से कहा कि वह चाहे तो आराम कर ले। कमाल चला गया। राज्याध्यक्ष साहब और मैं वहीं रुक गये। उन्होंने फाइल खोलकर सामने रख ली।
वैसे जो कुछ राज्याध्यक्ष साहब बताना चाहते थे उससे सम्बन्धित काफी बातें मैं कमाल से पहले ही जान चुका था पर अन्तिम रूप से स्वयं उन्हीं से उनका प्रस्ताव सुनना चाहता था।
राज्याध्यक्ष साहब एक फिल्म बनाना चाहते थे। उनके पास फिल्म के लिए एक प्लॉट भी था जिसे वह मुझसे लिखवाना चाहते थे। उनका यह प्रोजेक्ट कुछ अर्थों में एक सामान्य-सा प्रोजेक्ट था परन्तु कुछ बातों में यह काफी विशिष्ट था। इसका कारण यह था कि राज्याध्यक्ष साहब अपने प्रोजेक्ट से भावनात्मक रूप से भी जुड़े हुए थे। वह पहले एक पूरी तरह गैर-व्यावसायिक तरीके की फिल्म बनाने का इरादा रखते थे मगर बाद में वह उसे व्यावसायिक रूप से तैयार करके रिलीज करने का मन बना चुके थे।
राज्याध्यक्ष साहब का देखा यह सपना आसमान से चमकी किसी उल्का की भाँति उनके मन में यकायक नहीं कौंधा था बल्कि एक खास घड़ी में एक कोमल जमीन पर एक नन्हा-सा बिरवा उगा था जिसने खाद-पानी और धूप में परवान चढक़र उनके जमीर पर छाया की थी। यही बालिश्त भर का सपना मुझे सौंपकर वह मुझसे एक कहानी चाहते थे।
बम्बई में ही राज्याध्यक्ष साहब के मित्रों में एक मशहूर डॉक्टर भी थे। यह डॉक्टर बहुत ख्याति प्राप्त होने के साथ-साथ काबिल भी थे। इनका बम्बई के प्रतिष्ठित अस्पतालों के साथ तो ताल्लुक था ही, इनका अपना एक विशाल क्लीनिक भी दादर के नजदीक एक मुख्य सडक़ पर अवस्थित था। यह डॉक्टर साहब बहुत अनुभवी थे और कई देशों का भ्रमण व्यावसायिक व निजी यात्राओं द्वारा कर चुके थे। यह डॉक्टर बम्बई के एक मशहूर पत्रिका प्रतिष्ठान से भी जुड़े थे। इसी की एक मशहूर हिन्दी पत्रिका के लिए भी परामर्श सेवाएँ दे चुके थे। वह एक नियमित मनोवैज्ञानिक कॉलम भी लिखते थे और पाठकों के मनोवैज्ञानिक सवालों का जवाब भी देते थे। उनका यह स्तम्भ बहुत ही लोकप्रिय था तथा उसमें काफी प्रामाणिक तरीके से वह बेहद निजी समस्याओं पर भी अपनी निवारक राय दिया करते थे।
इन्हीं डॉक्टर साहब के पास एक बार राज्याध्यक्ष साहब ने एक फाइल देखी थी जिसमें डॉक्टर साहब ने अपने जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण समस्यामूलक पत्रों का संग्रह किया था। कुछ ऐसे खास पत्र जिनमें दर्शायी गयी कठिनाइयाँ या उलझनें वास्तव में चौंकाने वाली थीं। डॉक्टर साहब ने पूरी गोपनीयता बरतते हुए उन पत्रों से पात्रों के नाम-पते हटाकर उन्हें अलग से एकत्रित किया था और उन पर अपनी दी गयी राय का भी एक संकलन किया था। यही फाइल उलटते हुए राज्याध्यक्ष साहब न जाने अपने जीवन के किन अनुभवों या भावनाओं के वशीभूत बेहद तरल हो गये और यह फाइल पढऩे के लिए अपने साथ ले आये। इसी के दो-तीन पत्रों को पढक़र राज्याध्यक्ष साहब के जेहन में एक-दो सवाल उठे।
मैं नहीं जानता था कि सवालों से राज्याध्यक्ष साहब किस रूप में जुड़े थे। वह केवल उनके खोजी और जिज्ञासु मस्तिष्क को मथने वाले सवाल थे या उनकी और किसी उनके अन्तरंग की दुखती रग थे। पर सवाल दिलचस्प थे। असंख्य लोगों के हित-अहित से जुड़े थे। हमारी संस्कृति या सभ्यता के कुछ बुनियादी रिवाजों से जुड़े थे। बाद में एक दिन राज्याध्यक्ष साहब ने वह फाइल मुझे भी पढऩे के लिए दी थी। परन्तु उस वक्त तक मैं उनके प्रयोजन के बारे में स्पष्टत: जान नहीं पाया था।
इस फिल्म की योजना इन्हीं सज्जन की पहल पर बनी थी जिनके आमंत्रण और आग्रह पर हम लोग फिलहाल वलसाड में आये थे। सवेरे जल्दी ही उनके साथ हमारी बातचीत तय थी और बाकी मसलों पर विचार-विमर्श होना था।
फिर दो-एक संयोग और हुए कि राज्याध्यक्ष साहब का विचार दिलचस्प मोड़ लेता हुआ और पुख्ता होता चला गया।
राज्याध्यक्ष साहब के जिमनेजियम से कई बहुत अच्छे और नामी लोगों ने भी शरीर-सौष्ठव का प्रशिक्षण पाया था। वैसे भी व्यावसायिक दृष्टि से उनका जिम बहुत लोकप्रिय था। कई वर्षों के सफल संचालन के बाद आज उसे बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त थी। शहर में जिमनेजियम की सुविधाओं की आज कमी नहीं थी, लेकिन फिर भी उनके जिम का रुतबा दूर-दूर तक था। एक बहुत ही लोकप्रिय फिल्मी सितारे द्वारा उद्घाटन बाद इन दिनों भी उनके जिम के दो-तीन लडक़े बहुत सफल हुए थे। हाल ही में एक फिल्म अभिनेता के रूप में चमका अलंकार सिंह भी उनके जिम में वर्षों अभ्यास के लिए आता रहा था।
यहीं का एक उन्नीस वर्षीय लडक़ा पिछले दिनों बम्बई में एक बहुत सफल मॉडल बन गया था। यह लडक़ा जब राज्याध्यक्ष साहब के पास आया था तो वह एक स्वस्थ व सुन्दर किन्तु सामान्य लडक़ा था। लेकिन राज्याध्यक्ष साहब के यहाँ की तालीम के बाद उसका शरीर बहुत आश्चर्यजनक रूप से तराश पा गया था। यह उन दिनों की बात थी जब स्वयं कमाल भी वहाँ वर्जिश व बॉडी बिल्डिंग किया करता था। मॉडलिंग में उस लडक़े को मिली ख्याति की शुरुआत भी राज्याध्यक्ष साहब के जिम से ही हुई। एक दिन एक विज्ञापन एजेन्सी वाला यूनिट एक मिनट के छोटे-से विज्ञापन के लिए उस लडक़े को वहीं से चुनकर ले गया। दरअसल, विज्ञापन कम्पनी को एक साबुन के विज्ञापन के लिए एक खूबसूरत बलिष्ठ से लडक़े की जरूरत थी जो विज्ञापन में लडक़ी के साथ दिखाया जा सके। जिस समय यूनिट के निदेशक राज्याध्यक्ष साहब के पास आये, कमाल लडक़े के मेजरमेंट्स ले रहा था। आदमकद आइने के सामने खड़े उस युवक के शरीर में इतना जबरदस्त आकर्षण था कि निदेशक महोदय राज्याध्यक्ष साहब के साथ-साथ बात करते हुए भीतर ही चले आये। उनकी उपस्थिति में कमाल ने जब लडक़े के बायसेप्स नापे तो दोनों ने दाँतों तले अँगुली दबा ली। सोलह इंच के बाँहों के घेरे वाले इस लडक़े के चेहरे पर बेहद मासूमियत थी। कद-काठी बेहद प्रभावशाली, रंग गोरा और चेहरे के भाव भी मासूम। साथ ही बालों का भी एक तरतीबवार सलीका। निदेशक की आँखों ने जैसे राज्याध्यक्ष साहब के कुछ बोलने से पहले ही कुछ फैसला कर डाला था। और फिर देखते-ही-देखते उस लडक़े को लेकर विज्ञापन फिल्म का काम शुरू हो गया। लडक़ी भी कोई बेहद खूबसूरत उभरती हुई फिल्म तारिका ही थी। उसके साथ साबुन के विज्ञापन में झरने की तेज धार में उस लडक़ी के अंगरक्षक के रूप में लडक़े का सौष्ठव फिल्माया गया था। यह विज्ञापन अत्यन्त सफल रहा और देखते-ही-देखते उसे एक के बाद एक कई प्रस्ताव मिलते चले गये। वह साबुन, टूथपेस्ट, ब्लेड, मोजे, साइकिल व कपड़ों के विज्ञापनों में दिखायी देने लगा। दूरदर्शन के अलावा उसका चेहरा सिनेमा स्लाइडों में भी लोकप्रिय हो गया। पत्र-पत्रिकाओं में भी उसके रंगीन विज्ञापन दिखायी देने लगे।
लडक़ा देखते-ही-देखते बम्बई का एक व्यस्त व्यावसायिक मॉडल बन गया। लेकिन अपने शागिर्द की इस मायावी सफलता का गौरव अपने सीने पर चिपकाये राज्याध्यक्ष साहब ज्यादा दिन नहीं घूम पाये। एक हादसा हुआ और जब घूमते हुए उस हादसे की दुर्गन्ध राज्याध्यक्ष साहब के पास भी पहँुची तो वह विचलित हो गये। राज्याध्यक्ष साहब को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि उस भोले-से लडक़े के हाथों किसी का खून भी हो सकता है और वह भी एक लडक़ी का। वह स्वयं उस लडक़े से मिलने गये। लडक़ा बड़ा स्टार अवश्य बन चुका था परन्तु उनके लिए वह शिष्यवत् ही था। लडक़ा उनसे मिला और राज्याध्यक्ष साहब ने सुनी-सुनायी बातों के शीशे से जमी हुई पानी की बँूदों को लडक़े की आँखों के ताप से मिटाने की कोशिश की। वैसे मशहूर मॉडल बन जाने के कारण लडक़े से सम्बन्धित तमाम किस्सा शहर के सभी अखबारों-पत्रिकाओं में छपा। उनका शिष्य एक बार इस तरह भी अखबारों की सुर्खियाँ बना। आज तक विभिन्न प्रचार-माध्यमों पर वह छाया रहा था इसलिए उन ऊँचाइयों के बाद स्वाभाविक ही था कि गिरने पर चोट भी भयानक ही आती।
राज्याध्यक्ष साहब ने सारी बात जानने के बाद इस सब पर एक बार फिर काफी सोचा। यहाँ तक कि एक बार उन्होंने फोन करके मुझसे भी उस लडक़े के पास जाने का आग्रह किया। यद्यपि वह इन दिनों अखबारों से काफी कट-सा चुका था और हिरासत में था, फिर भी दिनोंदिन उस पर प्रेस में कुछ-न-कुछ छप ही रहा था। मैं राज्याध्यक्ष साहब के आग्रह व उन सब बातों पर उसका स्वयं का खुलासा जानने के प्रयोजन से एक बार उससे मिला भी था। काफी दोस्ताना तरीके से बातचीत हुई थी। लेकिन उस समय तक मैं यह नहीं जानता था कि इसके पास भेजकर उससे अन्तरंग बातचीत मेरे साथ करवाने के पीछे राज्याध्यक्ष साहब का क्या मकसद सकता है। मैं केवल राज्याध्यक्ष साहब के जिम से निकले लोकप्रिय मॉडल से मिलने गया था लेकिन मुझे अच्छा लगा कि मुझे उसका इतना सहयोग मिला; जब कि मैंने उसके साथ किसी पत्रिका के लिए औपचारिक बातचीत नहीं की थी। उसे न जेल का खौफ था, न अपने किये पर कोई पश्चाताप।
उन्नीस साल की उम्र में पहली बार विज्ञापन माध्यमों में कलात्मक रूप से कदम रखने वाला वह सुदर्शन लडक़ा अगले ही वर्ष बम्बई की राज्यस्तरीय शरीर-सौष्ठव प्रतियोगिता में ‘बम्बईश्री’ चुना गया था और लगभग छ: माह बाद ही एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री से उसके प्रेम-सम्बन्धों को लेकर काफी चर्चे यहाँ-वहाँ होने लगे थे। यहाँ तक कि अभिनेत्री के साथ उसके विवाह की बात भी कुछ पत्रिकाओं ने छाप दी थी। और अब, अन्त में राज्याध्यक्ष साहब को यह भी सुनने को मिला कि लडक़े के साथ विवाह का खंडन उस तथाकथित अभिनेत्री ने किया था और इतना ही नहीं, बल्कि उस पर अभिनेत्री के खून का इल्जाम भी लगा था।
जिसने भी उस लडक़े को एक बार भी देखा था, उसे भारतीय प्रेस पर इन सब खबरों के लिए गुस्सा ही आया था। लेकिन जब तक अदालत में लडक़े का जुर्म कसौटी के लिए टँगा था, आखिर और कहा भी क्या जा सकता था। फिर लडक़े ने भी तो समाचारपत्रों में इस इल्जाम का खंडन नहीं किया था।
बम्बई से दूर, आधी रात को, राज्याध्यक्ष साहब के साथ गेस्ट हाउस ठहरा मैं पहली बार यह जान पाया कि राज्याध्यक्ष साहब के दिमाग में इसी लडक़े की कहानी मुख्य थीम के रूप में है। अब मुझे सारी बात सिलसिलेवार तरीके से समझ में आने लगी।