रेत होते रिश्ते - भाग 9 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रेत होते रिश्ते - भाग 9



ग्लोबवाला के साथी बूढ़े से मिलने की योजना बनाते समय मेरे दिमाग में यह बात आयी कि यदि उस लडक़े संजय को भी साथ में ले लिया जाये तो बेहतर होगा, जिसके कारण बूढ़े के क्रिया-कलापों की जानकारी मुझे मिली थी। मैंने संजय द्वारा मुझे दिये गये कार्ड पर उसका नम्बर देखकर फोन किया। संजय से तुरन्त बात हो गयी और वह उसी समय मेरे पास आने के लिए तैयार भी हो गया। मैंने उसे आने के लिए कह दिया और साथ ही यह हिदायत भी दे दी कि वह पूरे दिन का समय लेकर आये क्योंकि हमें उस बूढ़े के अड्डे पर जाना था जो शहर से काफी दूर था। फिर बूढ़े के मिलने की संभावना भी शाम को ही थी।
संजय लगभग एक बजे मेरे पास आ गया। उसके साथ उसका कोई साथी भी था; किन्तु वह दूसरा लडक़ा थोड़ी ही देर बाद रुखसत होकर वापस चला गया। मैं संजय से बूढ़े से उसकी मुलाकात और उस दिन के प्रकरण के बारे में विस्तार से बात करना चाहता था, जिसके बाद बूढ़े को उसने मारा था और हम लोगों से भी संयोगवश मारपीट करता हुआ वह दल टकरा गया था।
विस्तार से बातचीत का यह अवसर अच्छा था। मैं संजय को लेकर निकल लिया। समय काफी था इसलिए पहले बोरिवली में घर होते हुए हमने बूढ़े के पास जाने का प्लान बनाया। मैंने संजय को मलाड में जिमनेजियम से ही फोन किया था और उसे वहाँ बुलाया था। जब हम लोग जिम से निकले तब तक कमाल या अन्य कोई आदमी वहाँ पर आ नहीं पाया था, इसलिए कार्यालय को बन्द करके मैंने उसकी चाबी पड़ोस के फ्लैट में दी और बोरिवली की ओर चल पड़े हम लोग।
संजय ने जो कुछ मुझे बताया, उसके अनुसार बूढ़े और ग्लोबवाला के कई अनैतिक धंधे थे। वे लोग ब्लू-फिल्मों का निर्माण करते थे और पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी मॉडलिंग करवाते थे। उनके ज्यादातर ग्राहक विदेशी अथवा विदेशी प्रभाव के रंग में रंगे हुए नवधनाढ्य तथाकथित आधुनिक भारतीय होते थे। इस तरह के फोटो, फिल्म आदि बहुत ऊँचे दामों पर बेचे जाते थे। कई पत्र-पत्रिकाएँ इन्हें छापने के लिए लेती थीं। इन पर मॉडलों व चित्र खींचने वालों के नाम-पते नहीं दिये जाते थे। शहर की कई बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में किराये पर पत्र-पत्रिका या पुस्तकों को देने वाले लोग भी इस कारोबार का भरपूर लाभ उठाते थे। पढऩेवाले लडक़े-लड़कियाँ व अन्य कई लोग इन तसवीरों को किराये पर भी बहुत ऊँचे दाम देकर लेते थे। इस तरह की तसवीरें ज्यादातर गरीब वर्ग के युवकों या युवतियों को पैसे का लालच देकर या अन्य कई तरीकों से ब्लैक-मेल आदि करके खींची जाती थीं। शहर में बड़ी संख्या में रहने वाली वेश्याएँ भी इस कारोबार में सहभागी बनती थीं। इन चित्रों में चेहरे आदि छिपाकर मॉडलों की गोपनीयता को बनाये रखा जाता था।
दुनिया में पैदा होने वाले हर शख्स के पास शरीर होता है। फिर भी शरीरों के प्रति आकर्षण की यह विकृत मानसिकता इस भीड़भरे शहर में कैसा घिनौना खेल खेल रही थी, यह देखना बीभत्स था। शायद हमारी संस्कृति में ही वर्जनाओं के खर-पतवार इस तरह की मानसिकता उगाने के लिए जिम्मेदार हों। इन्सान अपने आप में एक अधूरी शै है। अकेला इन्सान मुकम्मल जिन्दगी नहीं जी पाता। उसे एक और शरीर की जरूरत होती है। विभिन्न सभ्यताओं के विभिन्न दौरों में इन्सान को शरीर उपलब्ध करवाने के भाँति-भाँति के बन्दोबस्त किये गये हैं। यह बन्दोबस्त वर्षों की परम्पराओं और रीति-रिवाओं से तय होते हैं। इन्सान सभ्य रहा या असभ्य रहा, जंगलों में रहा या महलों में, उसने किसी-न-किसी की तलाश में अपने को रखा है। यह तलाश जहाँ पूरी हो जाती है, आदमी या औरत चैन से एक गृहस्थी बसाकर, एक शांत दिखायी देता जीवन गुजारने लगते हैं। किन्तु जहाँ यह तलाश पूरी नहीं होती अथवा अन्य किसी ग्रन्थि या वर्जना के चलते इन्सान ‘तलाश’ से तृप्त नहीं हो पाता, तब इस तरह के कारोबार पनपते हैं। शरीर की तिजारत, यहाँ तक कि शरीर के अंगों की तिजारत पर उतर आते हैं लोग।
उस बूढ़े के साथ संजय की मुठभेड़ ऐसे ही हुई थी। सिनेमा हॉल से शो देखकर संजय अपने तीन-चार दोस्तों के साथ निकला था। वे लोग घूमते हुए हाईवे की ओर आ रहे थे। बाजार के समीप एक टूटी हुई खंडहरनुमा दीवार के पास संजय रुककर लघुशंका के लिए खड़ा हो गया। उसने ध्यान नहीं दिया कि दीवार के ऊपर की ओर थोड़ी दूर पर पैर नीचे लटकाये एक बूढ़ा बैठा है। संजय निवृत्त होकर घूमा और सडक़ पर धीमे-धीमे चलने लगा। उसके साथी लोग जरा आगे बढ़ गये थे और एक दुकान पर रुककर सिगरेट ले रहे थे। बूढ़े ने शायद संजय को अकेला समझा। वह उतरकर आया और धीमे-धीमे बिलकुल संजय के करीब चलने लगा। उसके करीब आकर बूढ़ा फुसफुसाया—‘‘यू आर वेरी हैण्डसम!’’
संजय को अजीब-सा लगा और बूढ़ा उसे रहस्यमय-सा लगा, फिर भी उसने सिर्फ इतना कहा—‘‘क्या मतलब है आपका!’’
बूढ़ा जरा-सा उत्साहित होकर उसके और करीब आया और बोला—‘‘एक मिनट। चलो सामने गार्डन में बात करते हैं।’’
संजय को क्रोध आया। फिर भी उसने जब्त करते हुए कहा—
‘‘चलो।’’
बूढ़ा लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ आगे-आगे चलने लगा। संजय उसके पीछे-पीछे चुपचाप जाने लगा। पार्क के एक अँधेरे से कोने के पास जाकर बूढ़ा टूटी हुई दीवार से भीतर दाखिल हो गया। संजय थोड़ा भयभीत-सा हुआ पर वह भी एक कसरती नौजवान था। बूढ़े के पीछे-पीछे दाखिल हो गया। इस सुनसान से हिस्से में आकर बूढ़ा एक बेंच पर बैठ गया और उसने संजय को भी बैठने का इशारा किया।
बूढ़े ने झटपट अपनी जेब से एक मैला-सा लिफाफा निकाला और उसमें से निकालकर तीन-चार फोटो संजय की ओर बढाये। यद्यपि पार्क के इस हिस्से में अँधेरा था, फिर भी थोड़ी दूर स्थित एक दुकान के पिछवाड़े लगा एक बल्ब यहाँ हल्का प्रकाश फेंक रहा था। संजय ने तुरन्त खड़े होकर फोटो जल्दी-जल्दी देखे तो भौंचक्का रह गया। दो फोटो किसी लडक़ी के थे, जिसका चेहरा फोटो में नहीं था। गर्दन तक का भाग ही कटा हुआ था। लडक़ी बिलकुल निर्वस्त्र थी। एक फोटो में लडक़ी जमीन पर पेट के बल लेटी हुई थी। उसके नितम्ब बिलकुल अनावृत थे और उनके ऊपर एक बड़ा गुलाब का फूल रखा हुआ था। चौथे फोटो में एक लडक़ा था जिसका केवल पैरों से कमर तक हिस्सा दिखायी देता था। उसकी दोनों टाँगों के बीच ऊपर की ओर मुँह किये एक लडक़ी थी जिसकी पीठ व बालों का हिस्सा ही दिखायी दे रहा था।
संजय ने बूढ़े की ओर देखा। बूढ़ा गौर से संजय के चेहरे पर आने-जाने वाले भावों को पढ़ रहा था। अब संजय ने अपने भय पर काबू पाकर थोड़ी नाटकीयता से काम लिया और बूढ़े से पूछा कि वह उससे क्या चाहता है।
बूढ़ा एकदम से खड़ा हो गया और टूटी-फूटी अँग्रेजी में उससे बोला कि उसे एक चित्र के पाँच सौ रुपये मिलेंगे। यदि वह दस मिनट की रील के लिए तैयार होगा तो दो-तीन हजार रुपये मिल जायेंगे।
‘‘रील किसके साथ करनी होगी?’’
‘‘छोकरी लोग हमारे पास है।’’
‘‘कौन है, कैसी है...’’
‘‘आप फिक्र मत करो। कोई जोखिम—बीमारी वाली नहीं। हम लोग के हाई-क्लास कॉन्टेक्ट हैं। आपको आपके मुताबिक। हम ये दो-दो रुपये वाली रंडियों के पीछे नहीं भागते। अभी देखो न, आपको कैसे ‘सलेक्ट’ किया।’’ बूढ़े ने खुश होकर कहा।
संजय आश्चर्य से उस बूढ़े को देखने लगा जो अब निर्भय होकर धाराप्रवाह बोले जा रहा था। अब तक बूढ़ा संजय की सहमति के प्रति आशान्वित हो चुका था, इसलिए बेरोक-टोक बोले जा रहा था।
संजय ने उससे पूछा—‘‘आखिर बिना पहचान या परिचय के आपने यह प्रस्ताव कैसे दे दिया?’’
बूढ़ा अब व्यावसायिक निपुणता अपनी आवाज में घोलता हुआ बोला—‘‘हम सब देख लेते हैं। लास्ट पन्द्रह वर्ष से ग्लोबबाला के साथ मैंने काम किया है। कोई-कोई लोग अपने जिस्म को लेकर बिन्दास होते हैं। शरीर को लेकर कोई झिझक या शर्म उन्हें नहीं होती। वे लोग जवानी में उसका खूब फायदा उठा सकते हैं। हमको सब पहचान है।’’ बूढ़ा उत्तेजना में बोला।
संजय झेंपता हुआ एकदम खड़ा हो गया। फिर बूढे से बोला—‘‘मैं आपको कहाँ मिलूँ?’’
बूढ़ा एकदम से आगे-आगे चलता हुआ पार्क के गेट की ओर बढ़ा। बोला— ‘‘मैं तुमको पॉइंट दिखाता हूँ। मैं कल शाम को टैक्सी लेकर तुमको उधर ही मिलूँगा। तुम आ जाना।’’
चलते-चलते बूढ़ा पार्क के गेट से बाहर निकलकर फुटपाथ पर आया। तभी यकायक बूढ़े के लिए एक अप्रत्याशित घटना घटी। उसके नितम्बों पर संजय की एक भरपूर लात पड़ी। सडक़ पर आते-जाते लोग रुक-रुककर तमाशा देखने लगे। बूढ़ा भौंचक्का होकर पलटा। लेकिन जब तक वह माजरा समझ पाता, संजय ने उसके मुँह पर घूँसों की बौछार कर दी। भीड़ देखकर संजय के साथी भी सामने वाली पान की दुकान से वहाँ आ गये, जो अब तक अचरज से वहाँ खड़े संजय की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने बार-बार संजय से पूछा, मगर संजय कुछ न बोला, बस बदहवास होकर बूढ़े को मारने लगा। संजय को देखकर उसके साथियों ने भी बिना देखे-जाने बूढ़े पर हाथ साफ करना शुरू कर दिया। बूढ़ा भागने लगा किन्तु लडक़ों ने उसका पीछा न छोड़ा। वह गिरता-पड़ता मार खाता रहा और हाईवे पर उस रात इसी अवस्था में हम लोगों की कार के सामने आ गया।
संजय से सारी जानकारी पाकर मैं एकाएक खामोश हो गया और सोचने लगा कि ऐसे दौर में जब पैसा अन्तिम सत्य हो गया है और जिन्दगी में खेले-खाये लोग पैसे की हवस में इन्सानी जिन्दगी में संखिया घोलते घूम रहे हैं, नयी नस्लों में संस्कारों की बुनियाद कितनी जरूरी है। मुझे संजय का चेहरा एक पवित्र पत्थर की भाँति मजबूत दिखायी देने लगा।
सामने दत्त मन्दिर के पास ही हमने टैक्सी को छोड़ दिया और वहाँ से पैदल ही घर की ओर चल पड़े। दोपहर का समय होने के कारण सडक़ पर ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। और जो थी, वह प्राय: उन गृहिणियों की थी जो इस समय सौदा-सुलफ के लिए बाहर निकली हुई थीं।
घर में घुसते ही टेप की तेज आवाज सुनायी पड़ी। मुझे भी आश्चर्य हुआ क्योंकि आमतौर पर इतनी तेज आवाज में संगीत न आरती सुनती थी और न ही शाबान—हाँ, मेरा नौकर तुकाराम जरूर जब अकेला रहता था तो बड़े तेज स्वर में रेडियो बजाता था, यह मैं पड़ोसियों से सुन चुका था। लेकिन इस समय तुकाराम अकेला नहीं था—आरती भी थी और शाबान भी।
पता चला कि शाबान पिछले एक घंटे से डाँस की प्रैक्टिस कर रहा है और यह उसी के कमरे से आने वाली आवाज है। आरती पानी के गिलास लेकर आयी तो संजय ने हाथ जोड़ दिये, और जब भीतर गयी तो पूछा—
‘‘भाभी जी हैं न...’’
मैं जरा सकपकाया, फिर उसे बताया—‘‘यह मेरे एक मित्र की पत्नी हैं। आजकल कुछ दिनों के लिए बम्बई आये हुए हैं ये लोग।’’
हमारी आहट पाकर शाबान ने भी अपने कमरे का दरवाजा खोला और टेप ऑफ करके बाहर आ गया। शाबान इस समय पसीने में नहाया हुआ था और उसने शर्ट उतारकर दीवार पर टाँगी हुई थी। वह शर्ट पहनकर बटन लगाता हुआ बाहर हम लोगों के बीच आ बैठा। आरती भी आ गयी।
जब तक अपने-अपने में अकेले-अकेले थे, तरह-तरह की आहटें-आवाजें आ रही थीं; पर चारों एक साथ होते ही वहाँ चुप्पी छा गयी।
मैंने ही परिचय से शुरुआत की—‘‘यह संजय है।’’ संजय और शाबान ने खड़े होकर एक-दूसरे से हाथ मिलाया। आरती को भी उसने दोबारा नमस्ते की।
उन लोगों को आपस में परिचित करवाकर मैं कपड़े बदलने के लिए भीतर चला गया। संजय और शाबान बातें करने लगे। आरती शायद चाय बनाने के लिए उठ गयी। वे लोग खाना खा चुके थे। मैंने संजय से एक बार खाने के लिए पूछा और उसके इनकार करने पर आरती ने मुझसे खाने के लिए पूछा। खाना खाने की विशेष इच्छा मेरी भी नहीं थी। मैंने खाने के लिए मना किया तो आरती कुछ नाश्ता तैयार करने लगी। संजय और शाबान में जल्दी ही घनिष्ठता हो गयी। वे बातें करने लगे।
मैं मुँह धो रहा था, तब शाबान एकाएक भीतर उठकर आया और मेरे पास खड़ा हो गया। वह शायद अकेले में मुझसे बात करना चाहता था। दरअसल, कुछ दिन पहले राज्याध्यक्ष साहब ने उससे डांस के लिए कोई कोचिंग ज्वॉइन करने को कहा था। वह दो-तीन स्कूलों के पते भी लाया था। और संभवत: आज, वहाँ जानकारी करने के उद्देश्य से जाने का उसका सुबह इरादा भी था। इसलिए मेरी भी यह जानने की उत्सुकता थी कि वहाँ क्या रहा, वह कहाँ-कहाँ जाकर आया और उसे मन के मुताबिक नजदीक में कोई जगह मिली अथवा नहीं?
शाबान यह जानना चाहता था कि हम लोग कहीं जाने की जल्दी में हैं अथवा अब यहीं रुकेंगे? जब उसे पता चला कि मैं अभी वापस कहीं जाने के लिए निकलने वाला हूँ तो उसने अपनी बात संक्षेप में खतम कर दी। उसकी बातों से लगता था कि वह मुझे विस्तार से अपने अनुभव के बारे में बताना चाहता था और फिर मशविरा करके ही कोई फैसला करना चाहता था।
वैसे शाबान को स्वयं बहुत अच्छा नृत्य आता था। उसने कहीं सीखा नहीं था किन्तु शौक व घरेलू अभ्यास से ही वह अच्छा नाचने लगा था। फिर भी राज्याध्यक्ष साहब की सलाह पर वह नृत्य की व्यावहारिक बारीकियाँ जानने की गरज से किसी योग्य टीचर की कोचिंग ज्वॉइन करना चाहता था। मैंने भी उसे यही सलाह दी थी। मैंने तौलिये से मुँह पोंछते हुए उसे इस विषय में शाम को बात करने की राय देते६ हुए उससे पूछा कि वह भी चाहे तो इस समय हमारे साथ चले।
उसने कुछ अनमने भाव से पूछा—‘‘कहाँ जायेंगे आप लोग?’’
‘‘एलीफेंटा केव्स।’’ मैंने कहा।
‘‘बाप रे, वह तो बहुत दूर है। इस समय?’’
‘‘हाँ, इसी समय, हमें जरा वहाँ काम है।’’
‘‘फिर आप लोग ही हो आइये।’’ उसने पीछा छुड़ाने के अन्दाज में कहा। संजय भी उसके बात करने के ढंग पर हँस पड़ा। मैंने शाबान से कहा—‘‘हो सकता है हम लोगों को रात को वापस लौटने में थोड़ी देर भी हो जाये।’’
मेरी बात ट्रे हाथ में लेकर भीतर आती आरती ने भी सुन ली थी। वह एकदम से बोली—‘‘भैया, आप लोग खाना तो घर आकर ही खायेंगे न?’’
सम्भवत: उसने जान-बूझकर ‘आप लोग’ कहा था ताकि मेरे जवाब से यह जान सके कि क्या संजय भी खाना यहीं खायेगा। लड़कियों में यह कुशलता तो बड़ी खूबी से होती ही है कि सामान्य शिष्टाचार में ही कई बातें जान लें। प्रकृति ने आदमी के बाजुओं में ताकत डालते समय बैलेंस बराबर करने के लिए औरतों के खाँचे में जरा-सी कूटनीति डाली होगी। मुझे अपने ही सोच पर हँसी आ गयी और मुझे बेवजह हँसते पाकर संजय मेरी ओर देखने लगा। यह लडक़ा कहीं मेरी बे-बात की बात को अन्यथा न ले बैठे, इसी प्रयोजन से मैंने कहा—‘‘खाना तो हम लोग साथ ही खायेंगे पर शायद हम लोगों को लौटने में काफी देर हो जाये, इसलिए तुम लोग हमारा इन्तजार मत करना। हम कहीं बाहर ही खा लेंगे।’’
‘‘बाहर क्यों खायेंगे, हम यहीं बना लेंगे न!’’
‘‘यदि समय पर आ गये तो खा ही लेंगे, पर हमें रात को देर हो जाने की सम्भावना ही अधिक है।’’
संजय जो अब तक खाने को लेकर मेरी और आरती की बात को गौर से सुन रहा था, एकाएक बोल पड़ा—
‘‘भाभी जी, आप फिक्र मत कीजिये, ये भी मेरे साथ घर पर ही खाना खाकर आयेंगे। मेरा घर पास में ही गोरेगाँव में है।’’
संजय की इस बात पर मैं और शाबान एक साथ आरती की ओर देख रहे थे। ‘भाभी जी’ सम्बोधन सुनकर उसके चेहरे पर जो प्रतिक्रिया आ रही थी, वह मेरा और शाबान का चेहरा अनजाने ही सपाट किये दे रही थी। फिर भी आरती ने सहज ही बात को मजाक में निपटाने के विचार से कहा—‘‘इन अकेले को ले जाकर खिलायेंगे आप खाना?’’
संजय इस बात पर एकाएक निरुत्तर हो गया। आरती ने आगे बढक़र चाय के कप हम सभी के हाथ में पकड़ाये।
चाय पीते हुए शाबान बोला—‘‘मैं आपके साथ चला चलता पर मुझे शाम को किसी से मिलने जाना है। आपको लौटने में देर होगी, इसलिए आप ही हो आइये।’’
‘‘वैसे भी आप वहाँ बोर ही होंगे हमारे साथ।’’ संजय ने हँसते हुए कहा।
मैंने संजय से चलने का इशारा किया और उठ खड़ा हुआ। मैंने उठते ही आदतन अपनी पीछे वाली जेब पर हाथ लगाकर देखा कि मेरी टेलीफोन नम्बरों की डायरी जेब में है या नहीं। ध्यान आया कि भीतर कपड़े बदलते समय मेरी वह डायरी दूसरी पैंट की जेब में ही रह गयी थी। मैं उसे लेने के लिए भीतर गया तो खड़ा-खड़ा संजय कोने में टी.वी. के ऊपर फ्रेम में लगी एक फोटो को देखता हुआ उसके नजदीक आ गया। एकदम से बोला—
‘‘आप इस लडक़े को कैसे जानते हैं? यह कहाँ का फोटो है? इसे तो मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। यह हमारे ही कॉलेज में पढ़ता था; बल्कि स्कूल में भी मैं इसके साथ ही था। यह मुझसे आगे था। मगर हम एक स्कूल में ही थे।’’ संजय खुशी और उत्तेजना के मिले-जुले स्वर में बोला।
‘‘मैं इसे नहीं जानता।’’ मैंने शांति से कहा। फिर मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ। मैंने सम्भलकर कहा—‘‘खैर, इसे तो बम्बई में कौन नहीं जानता, मगर इससे मेरा कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है।’’
संजय मेरी ओर आश्चर्य से प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगा। मैं उसका आशय समझ गया। तुरन्त बोल पड़ा—‘‘मेरा परिचय इससे नहीं है पर यह जिस जिम का फोटो है वहाँ के मालिक मेरे अच्छे मित्र हैं।’’ मैंने संजय को फोटो में राज्याध्यक्ष साहब का चेहरा इशारे से दिखाते हुए कहा। उस फोटो में राज्याध्यक्ष साहब, कमाल और चार-पाँच लडक़े उसी लडक़े को घेरकर खड़े थे जो बाद में एक सफल मॉडल बन गया था और प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचने के बाद उसके भाग्य का सितारा एकाएक पलटा खा गया था। पिछले दिनों उसकी काफी बदनामी होकर चुकी थी। उसके हाथों एक खून हो गया था।
मैंने संक्षेप में संजय को राज्याध्यक्ष साहब से अपनी मित्रता और अपने काम के बारे में बताया। संजय ने भी उस लडक़े की तसवीर को उठाकर एक बार देखा और फिर वहीं रख दिया।
जिस समय हम लोग गेटवे ऑफ इंडिया पहुँचे, दोपहर खत्म हो चुकी थी और शाम उतरने लगी थी। इस समय वहाँ केवल लौटने वाले लोगों की ही भीड़ थी। एलीफेंटा की ओर जाने वाले लगभग नगण्य थे। कई मोटरबोट उधर से आ-आकर यहाँ खाली हो रही थीं और खाली ही लौट-लौटकर जा रही थीं। तुरन्त टिकट लेकर हम ऐसी ही एक नाव में सवार हो गये।
समुद्र में इस समय भाटे की स्थिति थी। अर्थात् पानी उतार पर था। लहरें शांत थीं और पानी गहरे रंग का दिखायी दे रहा था। नाव में तीन-चार लोग ही सवार थे। उनमें से भी सम्भवत: एक-दो तो चालक या उसके सहायक—खलासीनुमा लोग थे। नाव में उस पार की दुकानों के लिए इधर से जाने वाला रोजमर्रा का सामान भी लदा हुआ था। साग-सब्जी, मछली आदि के टोकरे सामने फैले नजर आ रहे थे। भीड़ के विपरीत दिशा में जाने के कारण हम काफी इत्मीनान से सफर कर पा रहे थे।
इसी समय मेरे दिमाग में एक विचार बिजली की भाँति कौंधा। मुझे ध्यान आया कि ग्लोबवाला का वह साथी बूढ़ा संजय को तो देखकर तुरन्त पहचान लेगा। मुझे तो पहली बार सडक़ पर उसने मार खाते हुए बदहवासी की हालत में देखा था इसलिए पहचान नहीं पाया था किन्तु संजय को तो उसने बहुत अच्छी तरह से देखा था। उससे काफी बातचीत भी की थी। अत: संजय को तो वह देखते ही पहचान जायेगा और उसके बाद वह मुझे भी शक की निगाह से देखने लगेगा। बल्कि वह हमारे साथ सहयोग करने के स्थान पर हमें ही नुकसान पहुँचाने की सोच सकता था। हो सकता था कि वह उस दिन संजय से खायी मार का यहाँ बदला ही ले डाले। यह तो उसका ही इलाका था। यहाँ उसके साथ न जाने कितने और लोग होंगे। यह सब ध्यान आते ही मेरा मन यकायक बुझने-सा लगा।
मैंने यह बात संजय को बताई। वह भी सुनकर खामोश हो गया और कुछ सोचने लगा।
मैंने सोचा था कि यह बात बताते ही संजय वापस चलने की बात कहेगा या अकेले ही मुझे बूढ़े के पास जाने की सलाह देगा। यह जगह हमारे घरों से काफी दूर थी और यहाँ से लौटने का अर्थ था एक और दिन पूरा खराब करना। हम घर जाकर और कुछ सोचने का कोई लाभ नहीं देख रहे थे, क्योंकि इस बात का कोई इलाज नहीं था।
सहसा संजय ने मुझसे कहा—‘‘ऐसा करें, आप ही बूढ़े से बात कीजियेगा और मैं कहीं अलग ठहर जाऊँगा। और जब आपको मेरी जरूरत हो तो आप मुझे बुला लीजियेगा।’’
इस बात पर मैं सोच में पड़ गया।
मुझे चुप देखकर संजय बोला—‘‘लेकिन पहले मुझे यह बताइये कि आप उसके साथ बात क्या करने वाले हैं?’’ संजय की आवाज में पर्याप्त संशय था। मैंने उसके इस संशय का निराकरण करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘हम चाहें तो सीधे पुलिस में उसकी शिकायत कर सकते हैं। परन्तु हमारा प्रयोजन वह नहीं है।’’
‘‘फिर?’’ संजय ने पूछा।
‘‘पुलिस में शिकायत करने के बाद पुलिस अपने तरीके से कार्य करेगी। यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह कैसे सबूत ढूँढ़े और इन लोगों को पकडक़र यह धंधा बन्द करवाये। परन्तु मैं पहले स्वयं इस मामले की तह तक जाना चाहता हूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तुमको बताऊँगा, संजय!’’ मैंने कहा तो संजय का कौतूहल और बढ़ गया। मैं बोला—‘‘हम लोग अवश्य ही इस कार्य को रोकने का प्रयास करेंगे, लेकिन अभी नहीं।’’
संजय उसी तरह मेरी ओर देखता रहा, बोला कुछ नहीं। अब मैंने उसे अपने नजदीक खिसकने का इशारा करके धीरे-धीरे समझाने के अन्दाज में कहा—‘‘इस समय नाव में सवार लोगों में भी कोई-न-कोई उन लोगों के साथी हो सकते हैं इसलिए हम...’’
मेरे इतना कहते ही संजय और नजदीक खिसक आया। मैंने उससे कहा—‘‘यदि हम ऐसे लोगों की रिपोर्ट करके छोड़ दें तो पहले तो यही निश्चित नहीं है कि सबूत के बिना कोई कार्रवाई हो सकेगी। फिर यदि सबूत के तौर पर हम तुम्हारी शिकायत दर्ज भी करवायें तो इन लोगों का होगा क्या? ये ले-देकर छूट जायेंगे और फिर यही कार्य शुरू कर देंगे। हो सकता है हमारे-तुम्हारे दुश्मन भी बन जायें ये लोग। हम दूसरे तरीके से काम लेंगे। इनके साथ मिलकर पहले इनकी काम करने की बारीकी को देखेंगे, फिर प्रयास करेंगे कि इनसे यह घिनौना कार्य कैसे छुड़वाया जाये। हम इस कार्य की बारीकियाँ जानकर लोगों के सामने इन्हें फाश करेंगे और उन कारणों को ढूँढ़ेंगे जिनकी वजह से ये यह सब कर रहे हैं।’’
‘‘कारण और क्या होगा—पैसा! पैसा कमा रहे हैं ये लोग।’’ संजय ने जरा उत्तेजित होते हुए कहा।
‘‘हाँ, यदि ऐसा भी है तो हम इनकी कार्यपद्धति की जानकारी लोगों को देंगे ताकि वे ऐसे घिनौने जाल में न आयें।’’
‘‘कैसे? हम लोगों को कैसे बतायेंगे?’’
‘‘अखबारों से, पत्र-पत्रिकाओं से...’’ अब मैं संजय के चेहरे के बदलते रंगों की देख रहा था। संजय आश्चर्य से मुझे देख रहा था। एकाएक बोला—‘‘मैं यही सोच रहा था। मैं आपके लिए यही सोच रहा था। आप जरूर ऐसा ही कुछ करेंगे। मुझे तो पहले दिन से ही ऐसा लग रहा था। इसीलिए तो मैं आपके साथ आया।’’
संजय से यह सब सुनकर बेहद तसल्ली हुई। फिर मैंने उसे यह भी बता दिया कि—‘‘हम लोग एक फिल्म पर भी काम कर रहे हैं जिसमें इस कार्य को हम चाहें तो पूरी तरह उजागर कर सकते हैं। लोग देखेंगे कि ऐसे रेकेट्स किस तरह अपना जाल बिछाकर पहले लोगों की नैसर्गिक कमजोरी का फायदा उठाते हैं, बाद में उन्हें ब्लैकमेल करके, अकारण उलझाकर किस तरह पैसा कमाते हैं।’’
‘‘यह तो बड़ा अच्छा सब्जेक्ट है। पर आप...मेरा मतलब है कि यह सब फिल्म में कैसे दिखाया जा सकेगा?’’ संजय ने बाल-सुलभ कौतुक से कहा। मुझे वह अब एक दूसरे आश्चर्य में डूबा दिखायी दे रहा था।
‘‘देखो, फिल्मों या साहित्य की भी कोई तो नैतिक जिम्मेदारी है न! यदि यह सब हम फिल्म के परदे पर या कहानियों में दिखा दें तो कुछ लोग तो सचेत होने की प्रेरणा लेंगे ही। हो सकता है ऐसा करने वाले भी अपनी करती सामने आयी देखकर कुछ सीख लें और उनका मन बदल जाये।’’
‘‘तो फिल्मों के लिए जो लिखा जाता है, क्या इसी तरह सब सचाई होती है?’’ संजय भोलेपन से पूछ रहा था।
‘‘देखो, ये तो आदमी-आदमी पर निर्भर करता है। कुछ लोग कमरों में बन्द होकर कुछ भी सोच लेते हैं, लिख देते हैं। कुछ लोग जिन्दगी की विसंगतियों को कबरे के ढेर के समान मानकर किसी मेहतर या सफाई वाले कर्मचारी की भाँति उस पर चढ़ जाते हैं ताकि कचरे का कारण पता लगाया जा सके, उसकी दुर्गन्ध समाज की बगिया से दूर हटायी जा सके। दोनों की ही अपनी-अपनी भूमिका है।’’
मैं बोले जा रहा था और संजय अपलक देखे जा रहा था। सागर का किनारा पल-पल नजदीक आता जा रहा था। धूप की तेजी भी कम होती जा रही थी। सामने के तट पर एलीफेंटा से लौटने वाली भीड़ नावों की प्रतीक्षा में खड़ी दिखायी दे रही थी। किनारे के पास इक्का-दुक्का मच्छीमार नौकाएँ भी तैर रही थीं। तट पर शाम की अगवानी की तैयारी थी।
संजय के चेहरे पर एक रहस्यमय ढंग की मुस्कान आयी और वह बोला—‘‘आपको बूढ़े ने पहचाना कैसे नहीं? आप भी बाद में तो कार में काफी दूर उसके साथ गये थे?’’
‘‘नहीं पहचाना। रात का समय था। शायद उस समय वह ध्यान से मुझे न देख पाया हो। और फिर तुमसे मार खाने के बाद उसके होश ठिकाने भी कहाँ थे।’’
संजय हँस पड़ा। बोला—‘‘यदि मैं उसके पास जरा अलग तरह के कपड़ों में जाऊँ तो पहचानेगा क्या?’’
‘‘हो सकता है न पहचाने। पर इस समय हम यहाँ अलग तरह के कपड़े लायेंगे कहाँ से?’’
संजय ने शरारत से मुस्कराते हुए कहा—‘‘मैंने शाम को जिम में जाने के लिए भीतर टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहने हैं। उन्हें पहनकर चलूँ?’’
उसके इस प्रस्ताव पर मैं हँस पड़ा। परन्तु वह बोला—‘‘मजाक नहीं, सचमुच मैं शर्ट-पैंट लपेटकर कागज में रख लेता हूँ, उसका ध्यान नहीं जायेगा।’’
‘‘हो सकता है उसका ध्यान न भी जाये पर रिस्क तो है ही। बल्कि यह भी हो सकता है कि ध्यान और भी जल्दी चला जाये।’’ मैंने संजय की मजबूत मांसपेशियों की ओर देखते हुए कहा। संजय जरा-सा झेंप गया। पर तुरन्त ही बोला—‘‘ऐसे ही चलता हूँ। मैं कपड़े किसी कागज में लपेट लूँगा।’’ वह मेरी ओर सहमति पाने के लिए देखने लगा।
मैं कुछ देर सोचता रहा। मेरे दिमाग में कोई और उधेड़-बुन ही चल रही थी। मैंने संजय की बात का कोई जवाब नहीं दिया। किनारा आ गया था और नाव रुकने के लिए घुमायी जा रही थी। मैं ध्यान से पन्द्रह-सोलह साल के उस लडक़े को देख रहा था जो हमारी ही नाव में साग-भाजी की दो-तीन बड़ी टोकरियाँ लेकर आया था और अब जल्दी-जल्दी उन्हें उतारने की तैयारी कर रहा था। लडक़ा मैला-सा कुरता-पाजामा पहने हुए था। पाजामा सलवारनुमा काफी ढीला-ढाला था और लडक़े के बदन पर शायद कई दिनों से होने के कारण यहाँ-वहाँ से मैला हो रहा था। लडक़ा अच्छी कद-काठी का था।
नाव किनारे लग गयी। चढऩे वाली सवारियाँ जगह घेरने की जल्दी में नाव की ओर लपकीं। औरतें बड़े-बूढ़े- बच्चे सभी जैसे जगह पाने का उतावले थे, नाव चलाने वाले आदमी ने डाँटने के-से स्वर में पहले सवारियों को उतर जाने के लिए कहा और चढऩे वालों को वह लाइन से आने की हिदायत देने लगा। लोग सँभलकर लाइन में हो गये और एक-एक करके मोटरबोट में चढऩे लगे।
नाव से उतरकर हम लोग एक ओर खड़े हो गये। थोड़ी ही दूर पर पानी पीने के लिए एक स्थान बना हुआ था। संजय आगे बढक़र वहाँ चला गया। मैं उसी जगह खड़ा हुआ उस लडक़े को देख रहा था जिसने अपने तीनों टोकरे उतारकर रख लिये थे और अब इधर-उधर देखकर उन्हें किसी तरह गाँव में ले जाने की जुगत देख रहा था। लडक़ा रोजाना उस रास्ते से आने-जाने वाला दिखायी दे रहा था। उसके चेहरे पर अलमस्त किस्म की बेफिक्री थी। मैंने जरा एक ओर को होकर उस लडक़े की ओर इशारा किया और उसे अपने पास बुलाया।
लडक़ा तुरन्त आ गया और आश्चर्य से मुझे देखने लगा। मैंने बिना किसी लाग-लपेट के कहा, ‘‘क्या नाम है तेरा?’’
‘‘मलप्पा...’’
‘‘कहाँ रहता है?’’
‘‘उरण में।’’
‘‘उरण में या पास के गाँव में?’’
‘‘उरण के दायीं ओर तीन किलोमीटर गाँव है मेरा।’’
‘‘कैसे जायेगा यहाँ से?’’
‘‘चला जाऊँगा। कोई बोझ उठाने वाला मिल जायेगा तो साथ ले जाऊँगा; नहीं तो दुकान पर धरकर चला जाऊँगा।’’ लडक़ा बोला।
‘‘एक काम करेगा?’’
‘‘क्या?’’
‘‘यार, हमें एक जोड़ी कपड़े चाहिए। ऐसे, जैसे तू पहन रहा है।’’ मैंने लडक़े से अपनापन जताने के लिए ‘यार’ का सम्बोधन दिया था, इससे लडक़ा वास्तव में मेरी बात के प्रति गम्भीर हो गया। बोला—
‘‘कपड़े? कपड़े यहाँ कहाँ मिलेंगे?’’
‘‘तू अपने दे दे।’’
‘‘फिर मैं?’’ लडक़े ने शरमाते हुए कहा। वह अपने कपड़ों की ओर देखने लगा।
‘‘तुझे हम दूसरे कपड़े दे देते हैं, साथ में पैसे भी देंगे।’’ मैंने फौरन सौ रुपये का एक नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाया।
‘‘क्या करोगे?’’ कहकर लडक़े ने नोट की ओर देखा, फिर जरा-सी हील-हुज्जत के बाद तैयार हो गया।
इतने में ही पानी पीकर रूमाल से मुँह पोंछता हुआ संजय आ गया। वह मुझे लडक़े से बात करते देखकर वही चला आया। लडक़ा उसकी ओर देखने लगा। मैंने संजय से कहा—‘‘तुम अपनी टी-शर्ट और शॉर्ट्स इसे दे दो।’’
संजय चकित होकर देखने लगा, फिर बिना पलभर देर किये पास की एक झाड़ी के नजदीक खिसककर शर्ट उतारने लगा। लडक़े ने भी इधर-उधर देखकर झटपट अपना कुरता-पाजामा उतार दिया और संजय का दिया सफेद हाफपैंट चढ़ाने लगा। लडक़ा कपड़े पहनकर फूला नहीं समा रहा था। वह टी-शर्ट के बटन लगाता हुआ अपने टोकरों के पास चला गया। वह बार-बार हमारी ओर कृतज्ञता से देखता था। सौ का नोट हाफपैंट की जेब में ही घुसा लिया। कपड़े जरा ढीले थे पर लडक़े के बदन का नक्शा पलट गये थे। वह खुश हो गया।
संजय ने लडक़े के जाते ही मेरी ओर देखकर जोर से पैर फटकारा और हँसने लगा। उसने लडक़े का पाजामा पैरों पर चढ़ा लिया था और उसका नाड़ा बाँधते-बाँधते अपने पैरों की ओर इशारा करके हँस रहा था। वास्तव में उसके मैले-कुचले पाजामे-कुरते के साथ उसके पैरों में पड़े ‘लोटो’ के शानदार जूते बड़े बेमेल लग रहे थे। मेरा ध्यान तुरन्त अपने पैरों में पढ़े सैडिलों पर गया। मैंने संजय को अपने सैंडिल दे दिये और उसके जूते खुद पहन लिये। संजय ने अपनी पैंट और कमीज को लपेटकर कन्धे पर डाल लिया और मेरी ओर बिजयी मुद्रा में देखने लगा। नजदीक की एक हैण्डीक्राफ्ट्स की दुकान में जाकर हमने एक थैली ली और उसमें संजय ने अपने कपड़े रख लिये।
भाजी-तरकारी वाला लडक़ा अब अपने एक टोकरे को उठाता हुआ उसी दुकान के सामने से निकल रहा था और संजय को देखकर मुस्करा रहा था। वह रह-रहकर स्वयं अपने पहने हुए कपड़ों को देखता था, मानो अब तक उसे इस बात का विश्वास न हो पा रहा हो कि उसके बदन पर मैले कुरता-पाजामा के स्थान पर शानदार टी-शर्ट और हाफपैंट आ गये हैं। वह कुछ ही देर में आँखों से ओझल हो गया।
मैं और संजय भी चाय पीने की गरज से एक छोटी-सी दुकान में घुसने लगे। संजय का ध्यान रह-रहकर कपड़ों पर जाता था।
शाम हो जाने से अब यहाँ की गहमा-गहमी कम होने लगी थी। सीढिय़ों पर खुले में सामान फैलाकर बेचने के लिए बैठे लोग अब अपनी दिनभर की कमाई सँभालकर सामान समेटने की तैयारी करने लगे थे। दूर-दूर तक फैले जंगलनुमा टापू से चर-चरकर गधे और दूसरे मवेशी लौटते हुए दिखायी दे रहे थे। गधों को ये लोग सामान लादकर लाने के लिए साथ लाते थे, फिर दिनभर चरने के लिए जंगल में छोड़ देते थे। मछुआरे भी दूर-दराज से लौटने लगे थे और कहीं-कहीं छोटी-छोटी नावों से मछलियों व दूसरी चीज़ों के ढेर उतारे जा रहे थे। बस्ती से थोड़ी दूर किनारों पर बनी कच्ची शराब की दुकानों पर गहमा-गहमी शुरू हो गयी थी। इधर-उधर बैठकर फालतू टाइम पास करने वाले लोग या छोटा-मोटा बोझ उठाने का काम करने वाले उस दुकान के गिर्द जमा होने शुरू हो गये थे जहाँ की चहल-पहल अब कम होने की जगह बढऩे लगी थी। दुकान के बाहर मेजें निकालकर बिछायी जा रही थीं और मदिरालय में ताड़ी, ठर्रा और विदेशी दारू की बोतलों की मिली-जुली खनखनाहट शुरू हो गयी थी। होटलों-ढाबों में भी पर्यटकों की आखिरी खेप निपट रही थी।
ग्लोवाला का साथी वह बूढ़ा हमें आसानी से मिल गया। बूढ़ा खुश हुआ हमें देखकर, और हमें अपने साथ बस्ती में ले गया।