रेत होते रिश्ते - भाग 8 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रेत होते रिश्ते - भाग 8



हम लोग गेटवे ऑफ इंडिया वापस लौटे, तब तक हल्का-हल्का अँधेरा होने लगा था। शाबान काफी थक चुका था और आरती की इच्छा भी अब घर लौटने की थी। उन्हें मालूम था कि मुझे अब आर्मी क्लब जाना है। आरती के चेहरे पर थकान के चिह्न नहीं थे किन्तु संभवत: उसे यह अहसास था कि उन लोगों के कारण मेरे किसी जरूरी काम में खलल न पड़े। इसी से उसने भी शाबान के साथ घर लौट जाने की इच्छा व्यक्त की। मैं उनसे अलग होकर टैक्सी से कोलाबा के लिए चल पड़ा।
मैं जब तक वहाँ पहुँचा, राज्याध्यक्ष साहब आये नहीं थे। कमाल बाहर मुख्य गेट के पास ही मिल गया। उसी से पता चला कि केवल सात-आठ लोगों को ही यहाँ बुलाया गया है। कोलाबा की यह जगह शहर के बिलकुल एकांत किनारे पर होने के कारण बहुत ही शांत तथा हरी-भरी थी। क्लब समुद्र के किनारे पर कई एकड़ में फैले सुरम्य स्थान में अवस्थित था काफी दूरी पर आठ-दस लोग ही यहाँ यहाँ बैठे हुए शाम का स्वाद चख रहे थे। सूरज का डूबना धरती के हर कोण की तरह यहाँ भी सुहाना लग रहा था। इंसान स्वभाव से ही ईष्र्यालु होता है इसलिए किसी का भी डूबना उसे एक बेहद जालिम किस्म की खुशी से भर देता है।
विशाल, तरह-तरह के हरे-भरे पेड़ यहाँ-वहाँ छितराये हुए थे और उनकी छाया की नैसर्गिक गोद में यहाँ-वहाँ लोग विश्रामरत थे।
एक सिरे पर दो-तीन मेजों को एक साथ जोडक़र कमाल ने पहले से ही सब व्यवस्था करवा रखी थी। हम लोग जब भीतर घुसे तब वहाँ तीन-चार लोग आ चुके थे। कमाल ने आगे बढक़र सभी से हाथ मिलाया और मेरा भी संक्षेप में परिचय करवाया। प्राय: वे सभी फिल्म-पत्रिकाओं या स्थानीय अखबारों से जुड़े लोग थे। उनका परिचय पाने के बाद मुझे आज के कार्यक्रम की रूपरेखा और प्रयोजन थोड़े-थोड़े समझ में आने लगे। लेकिन यह कोई औपचारिक पार्टी नहीं थी। इसमें राज्याध्यक्ष साहब के परिचित या करीबी लोग ही निमंत्रित थे और शायद राज्याध्यक्ष साहब अब अपने प्रोजेक्ट को प्रेस के लिए उजागर करने का मूड बना चुके थे।
एक-एक करके और लोग भी आते जा रहे थे। थोड़ी ही देर में निर्धारित जगह भरने लगी। पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही मुख्य गेट के करीब की लॉबी से राज्याध्यक्ष साहब भी आते हुए दिखायी दिये। उनके साथ में तीन-चार लोग थे। उनके साथ में एक महिला भी थी, जिसकी ओर सबका ध्यान एक साथ आकर्षित हुआ। राज्याध्यक्ष साहब ने निकट आकर सभी से हाथ मिलाया।
महिला इस समय बिलकुल पहचान में नहीं आ रही थी। वह आकर्षक लिबास में जैसे किसी ब्यूटी-पार्लर से सीधी ही चली आ रही थी। उसकी उम्र भी वास्तविक उम्र से दो-चार साल कम लग रही थी। यह वही महिला थी जिसके घर मैं राज्याध्यक्ष साहब के साथ जा चुका था, मिलन सिनेमा के नजदीक की बस्ती में जिसका घर था। इस समय युवती, अब उसे युवती कहना उसके परिश्रम का सम्मान करना होगा, की चाल-ढाल और बातचीत में निम्न मध्यमवर्गीय मानसिकता का कोई लक्षण प्रकट नहीं हो रहा था। वह काफी बेतकल्लुफी से पेश आ रही थी और राज्याध्यक्ष साहब की हर बात पर आवश्यक-अनावश्यक प्रतिक्रियाएँ अपने चेहरे पर ला रही थी। कुछ ही पलों में खाने-पीने का दौर आरम्भ हुआ। कमाल ने बहुत शौक से लजीज व्यंजनों का चुनाव करके शाम के खाने की व्यवस्था की थी। सभी लोग खाने को पसन्द कर रहे थे। महिला बहुत कम खा रही थी और सम्भवत: एक वही ऐसी मेहमान थी जिसने पीने के लिए शराब नहीं ली थी। किसी ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया था। राज्याध्यक्ष साहब के एक बार पूछने पर उसके इनकार के साथ ही उसके लिए जूस मँगवा दिया गया था। वह बेहद नफासत से सभी का साथ दे रही थी।
जिस समय बेयरे गिलासों और खाली प्लेटों को समेटकर नयी प्लेटें लगाना शुरू कर रहे थे, उसी दौरान राज्याध्यक्ष साहब ने अपने करीब रखे हुए एक छोटे-से बैग की चैन खोलकर उसमें से कुछ कागज निकाले। छोटे-छोटे पाँच-सात लिफाफे उनके हाथ में थे जो उन्होंने सभी मेहमानों को बाँट दिये। लिफाफे में टाइप किया हुआ एक छोटा-सा विवरण था और दो-एक फोटो भी थे। लगभग सभी लोगों ने लिफाफे को खोलकर देखे बिना ही जेबों के हवाले कर लिया। एक व्यक्ति ने अपना लिफाफा मेज पर ही रख दिया। मैंने उसे उठाकर भीतर रखे फोटो देखे और उसी तरह वापस रख दिया। कागज में दिये गये विवरण में उनकी आगामी फिल्म से सम्बन्धित कुछ क्रेडिट्स थे और यह भी जानकारी थी कि शीघ्र ही उसका मुहूर्त होने वाला है। मुझे उम्मीद थी कि युवती का परिचय राज्याध्यक्ष साहब आज इसी पार्टी में करवाकर उसे अपनी फिल्म में लिये जाने की घोषणा करेंगे, किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। युवती केवल उनके साथ आयी थी और केवल अटकलें ही लगायी जा सकती थीं कि वह राज्याध्यक्ष साहब के साथ सम्भवत: काम कर रही है।
रात के ग्यारह बजे हम लोग वहाँ से निकल सके। आने वाले लोगों में दो-तीन ऐसे भी थे जिनके पास लौटने के लिए अपना साधन नहीं था। रात हो जाने के कारण अहाते में कोई टैक्सी भी नहीं दिखायी दे रही थी। राज्याध्यक्ष साहब ने कमाल से कहा कि वह कार से उन लोगों को बाहर तक छोड़ आये जहाँ से उन्हें टैक्सी अथवा कोई अन्य साधन मिल सके।
कमाल गाड़ी लेकर चला गया। मैं, राज्याध्यक्ष साहब और वह युवती पैदल ही मुख्य दरवाजे की ओर चल पड़े। यह इलाका काफी लम्बा-चौड़ा था और जगह-जगह पर बीच-बीच में इमारतें बनी हुई थीं। इस तरह की छावनियाँ या सैन्य क्षेत्र एक अनुशासित और सुरक्षित जीवन की गन्ध लिये होते हैं। इनमें विचरते समय हम बेहद आनन्द उठा सकते हैं। बशर्ते हम थोड़ी देर के लिए यह भूल सकें कि यह हमारे देश को उन अँग्रेजों की देन है जिन्होंने वर्षों हमें अपने चंगुल में रखकर हमारे भाल से आजादी का टीका पोंछ दिया था। मैं यही सब सोचता हुआ बढ़ा जा रहा था। राज्याध्यक्ष साहब भी चुपचाप चल रहे थे। सम्भवत: उनके मन-मस्तिष्क में भी इसी तरह कोई और विचार-शृंखला चल रही हो। युवती कुछ देर तक चुप रही, फिर एकाएक उसे याद आया कि मेरे पैर में उसके घर पर चोट लग गयी थी। वह बोल पड़ी—‘‘आपके पैर की चोट ठीक हो गयी?’’ उसके इस सवाल पर मैंने सिर झुकाकर पर की ओर देखा, जहाँ अब उस चोट का कोई निशान बाकी नहीं था।
मैंने कहा—‘‘इतनी छोटी-सी चोट इतने दिनों तक याद रही आपको?’’
‘‘मेरे घर लगी थी न, इसलिए।’’
‘‘लेकिन आपके कारण तो नहीं लगी। गलती तो मेरी ही थी जो बिना देखे प्याले को ठोकर मार दी।’’
‘‘आपने प्याले को कहाँ मार दिया, प्याले ने आपको मारा न, खून आपके निकला, प्याले के तो नहीं।’’
‘‘मेरी ठोकर इतनी मजबूत नहीं है कि प्याले को खून निकल आये।’’ मैंने कहा।
‘‘ठोकर से कुछ नहीं होता। प्याले के दिल होता, तो उसे खून भी निकल आता।’’
‘‘आप तो बेवजह मेरी तरफदारी कर रही हैं, दिल और खून में भला क्या सम्बन्ध?’’
‘‘आप भी तो बेवजह मुझे ‘आप’ कह रहे हैं।’’
‘‘ओह! तो इतनी-सी बात है? तो मैं तुम कहना शुरू करता हूँ। पर मेरी शर्त इतनी है कि कल ‘तू’ कहने के लिए मत कहना।’’
‘‘आप कैसे संवाद-लेखक हैं। तू, तुम और आप भला कहने वाला खुद डिसाइड करता है क्या? यह तो सामने वाले को देखकर खुद ही मुँह से निकलता है।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘और क्या, जिसे अपने से दूर करना हो, उसे आप कहता है इंसान। नजदीक के लोगों को तुम ही कहा जाता है।’’
‘‘नजदीकी मापी कैसे जाय...’’ मेरी बात पर राज्याध्यक्ष साहब भी हँस पड़े जो हम लोगों को इस तरह बातचीत करते देखकर दो-तीन कदम आगे-आगे चलने लगे थे।
इससे पहले कि मेरी बात का कोई जवाब वह देती, सामने से एक कार की तेज लाइट चमकती दिखायी दी। कार की स्पीड से मैं भाँप गया कि कमाल लौट आया था। हम लोग झटपट गाड़ी में बैठे और गाड़ी सांताक्रूज की ओर दौड़ पड़ी। मैं और कमाल आगे बैठे थे और राज्याध्यक्ष साहब युवती के साथ पीछे की सीट पर थे।
मुझे इस बात का थोड़ा ताज्जुब था कि इस लडक़ी या युवती का नाम रमा कैसे है। मैं उसका घर देख चुका था। यह भी जान चुका था कि वह मुस्लिम परिवार से है। उसके घर के समीप जो टेलरिंग की दुकान थी, वह उसके सगे भाई की ही थी। लेकिन यह बात मेरे लिए पहेली थी कि मुस्लिम परिवार की इस लडक़ी का नाम रमा कैसे है। इस नाम का जिक्र एक बार तब आया था जब राज्याध्यक्ष साहब ने बताया था कि वह रमा का नाम बदल देंगे। स्वयं रमा भी यह बात जाहिर कर चुकी थी कि वह अपना नाम बदलने में ही रुचि रखती है। रमा का भाई फीरोज भी एक बार राज्याध्यक्ष साहब के दफ्तर में ही मुझसे मिला था। तब यह जिक्र आया था कि रमा का नाम बदला जाये। किन्तु उस समय यह बात परिहास में ही आयी गयी हो गयी।
न जाने क्यों, इस समय यह बात मेरे दिमाग में घूम रही थी। मुझे यह भी याद आ रहा था कि रमा का परिचय करवाते समय भी नाम को जाहिर नहीं किया गया था। ऐसे ही बात बना ली गयी थी। फिर खुशनुमा शाम को शराब के गिलास हाथ में लिये बैठे लोगों को किसी लडक़ी के नाम से सरोकार होता भी कहीं है। सब अपनी-अपनी निगाहों से अपनी-अपनी पसन्द के मुताबिक लडक़ी का परिचय पा लेते हैं। बिना नाम, गाँव या काम के बाबत पूछे, यह निस्बत इतनी कुदरती होती है कि बाद में हजारों की भीड़ में भी वह लडक़ी खड़ी हो तो उसे पहचान लेंगे लोग। सबका अपना-अपना पैमाना है। सब अपनी-अपनी सहूलियत से चीज़ें आँखों-ही-आँखों में नाप लेते हैं। मर्दों की आँखों के लेंस इतने पॉवरफुल होते हैं कि हर चीज़ का एक्स-रे निकल ही आता है। कुदरत के ये खटटे-मीठे फल चाहे सूती कपड़ों में छिपे हों या रेशमी कपड़ों में।
मैंने सामने की ओर टँगे शीशे में देखा तो राज्याध्यक्ष साहब की परछाईं दिखायी दी, जो सीट से आगे होकर दोनों हाथों को मेरे पीछे वाली टेक पर टिकाये हुए कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे। मैंने तुरन्त पलटकर देखा। राज्याध्यक्ष साहब मुझसे ही कह रहे थे। बोले—
‘‘रमा का असली नाम मालूम है तुम्हें?’’
मैंने नकार में सिर हिलाया।
राज्याध्यक्ष साहब एक पल रुककर बोले—‘‘नजारा! ‘नजारा’ था इसका बचपन का नाम। रमा तो अभी दो साल पहले...’’ कहते-कहते राज्याध्यक्ष साहब रुक गये।
मैंने देखा, रमा एक बार कनखियों से मेरी ओर देखकर फिर सिर घुमाकर बैठ गयी। वह तेजी से दौड़ती हुई कार की खिडक़ी से सटी बाहर की ओर देख रही थी। उसके बाल हवा में लहरा रहे थे और उसके गोलाई लिये चेहरे को और आकर्षक बनाने का प्रयास कर रहे थे। मेरा खयाल था कि रमा के चेहरे के आकर्षण में उसके तरतीबदार बालों का बड़ा हाथ है मगर अब जब बाल पीछे की ओर होकर लहरा रहे थे, चेहरा अपनी पूरी मासूमियत को जैसे मुट्ठी में थामे खड़ा था। किसी-किसी का चेहरा कभी-कभी बड़ा जिद्दी-सा होता है। वह अपने पाश्र्व से बेखबर रहकर अपने ही ढंग से चलता है। लेकिन रमा का चेहरा उस तरह का नहीं था। यह तो अपने पाश्र्व के रंग से अपना रंग भी बदलता था। अब जब कि उसके विषय में मैं काफी संवेदनशील होकर यह सोच रहा था कि एक युवा लडक़ी का नाम भला कोई क्यों बदल गया...कौन बदल गया...तब उसका चेहरा भी खासा मासूम दिखायी दे रहा था।
राज्याध्यक्ष साहब उसी तरह उसी मुद्रा में थोड़ी देर तक रुके रहे। वह निश्चय ही रमा के नाम पर मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं केवल इतना कह सका— ‘‘बड़ा खूबसूरत नाम है।’’ राज्याध्यक्ष साहब पीछे की ओर हो गये।
अब कार तेजी से राज्याध्यक्ष साहब के घर के समीप वाली गली में दाखिल हो रही थी। उन्हें वहाँ छोडक़र हम लोग—मैं, कमाल और रमा फिर से रवाना हो गये। राज्याध्यक्ष साहब ने जाते समय चश्मा हाथ में लेकर कमाल से कुछ गुफ्तगू की और फिर मेरे व रमा के अभिवादन का जवाब देकर अपने फ्लैट की ओर बढ़े, जहाँ दरवाजे पर वाचमैन सतर्क होकर दरवाजा खोले खड़ा था।
थोड़ी ही दूरी पर कमाल ने एक जगह कार रोकी। रमा को कार में ही छोडक़र हम लोग पान खाने की गरज से बाहर निकलकर एक दुकान तक आये। रात गहरा जाने के बावजूद चहल-पहल बदस्तूर सडक़ पर थी। कमाल ने दुकान पर बैठे आदमी से दो पान बनवाये और दस का नोट उसकी ओर बढ़ा दिया। मैंने खुल्ले पैसे देने की दृष्टि से दो का नोट उधर बढ़ाया पर दुकानदार ने बिना उस ओर देखे कुछ खुले पैसे कमाल को लौटा दिये। मैंने देखा कि कमाल के चेहरे पर एक खास किस्म की शरारत-सी तैर रही थी। उसने बिना गिने बाकी के पैसे एक जेब में डाले और दुकानदार का दिया हुआ दूसरा छोटा-सा पैकेट दूसरी जेब के हवाले कर लिया। वह पलटकर मेरी ओर देखते हुए चलने लगा।
मैंने पान खाते हुए कमाल से पूछा—‘‘ये ‘मस्ती’ तुम्हारे काम आयेगी क्या?’’
कमाल ने शरारत से पान की पीक थूकी और बोला—‘‘सिर्फ मेरे नहीं, आप भी तो चल रहे हैं!’’
मैं कुछ नहीं बोला। नजदीक आते हुए कार की ओर देखने लगा जिसकी पीछे वाली खिडक़ी में किसी स्टिकर की भाँति टँगा चेहरा मुझे पाश्र्व की तर्ज पर फिर रंगत बदलता नजर आने लगा। शरारत कमाल ने की थी पर मेरी नजर में रमा का चेहरा भी धुँधला-सा होकर तैरने लगा।
कमाल में जैसे कोई फुर्ती का इन्जेक्शन लग गया था। गाड़ी एस.बी. रोड से निकलकर तेजी से वरसोवा वाले रास्ते पर दौडऩे लगी।
मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतनी रात हो जाने के बाद भी रमा वहाँ चलना पसन्द करेगी। किन्तु उसने कहीं कोई प्रतिवाद नहीं किया, बल्कि इस बारे में कमाल और रमा के बीच कुछ बात ही नहीं हुई; जैसे सब कुछ कमाल के ही ऊपर था। थोड़ी ही देर में हम लोग राज्याध्यक्ष साहब के वरसोवा वाले स्लैट की सीढिय़ाँ चढ़ रहे थे।
भीतर घुसते ही रमा गर्मी से बेहाल-सी होती, बाथरूम में चली गयी और भीतर से शॉवर की तेज आवाज आने लगी। मैं वाश-बेसिन पर हाथ-मुँह धोकर रूमाल से हाथ पोंकता हुआ बैठा ही था कि कमाल भीतर वाले कमरे से रम की बोतल उठा लाया। मेरे कुछ बोलने से पहले ही अपने आप कैफियत-सी देते हुए बोला—‘‘आज शाम को मैंने तो पी ही नहीं।’’
‘‘क्यों?’’
‘मौका कहाँ मिला! मेरा ध्यान तो साला अरेंजमेंट में था।’’
‘‘लेकिन....’’
‘‘हाँ, गिलास जरूर हाथ में था। लेकिन पीने का मजा कहाँ आया। ये साली चीज़ ही ऐसी है कि मजा लेकर पी जाये तब ही शराब है, नहीं तो पानी है।’’
मुझे कमाल आज कुछ ज्यादा ही उच्छंृखल-सा नजर आ रहा था। आज मुझे पहली बार महसूस हो रहा था कि कमाल ने बहुत कम उम्र में दुनिया को एक्सपोजर दे दिया है। हर बात में एक अजीब-सी मेच्योरिटी उसके चेहरे के भोलेपन को ढकने की कोशिश कर रही थी। उसके भीतर का युवक अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बोझल दुनिया जी रहा था।
लेकिन इस बात के लिए दुनिया की किस अदालत में दावा दायर किया जाये? कौन वादी बने, कौन प्रतिवादी बने? एक्सपोजर देने का अपराध कमाल ने किया या दुनिया ने ही कमाल को एक्सपोजर देने की घिनौनी हरकत की, इस बात का फैसला कौन करे। और मुझे तो फिलहाल कमाल के साथ होना था इसलिए मैंने तर्कशास्त्र की किताब के वही पन्ने अपने जेहन की लाइब्रेरी में बैठे-बैठे खोल लिये जो कमाल के हक में जाते थे। जिनमें धाराएँ जमाने पर लगती थीं, कमाल जैसे लडक़ों पर आरोप सिद्ध नहीं होते थे।
कमाल अलमारी से एक प्लेट में भुने हुए काजू निकाल लाया था। उसने कमीज उतारकर दीवार पर टाँग दी थी और पैंट व बनियान पहने हाथ में गिलास लेकर सामने आ बैठा।
रमा भी थोड़ी देर में हमारे पास आ बैठी। वह तरोताजा लग रही थी। मगर मुझे यह देखकर थोड़ा अजीब-सा लग रहा था कि अब रमा के हाथ में भी बिना किसी प्रतिवाद के रम का गिलास था। वह लगातार नीचे की ओर देख रही थी।
मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं होता यदि मैंने कुछ घंटों पहले आर्मी क्लब की बैठक में रमा को शराब के लिए मना करते न देखा होता। कुछ देर की निरंतर चुप्पी मैंने ही तोड़ी।
‘‘रमा जी, नजारा तो बेहद खूबसूरत नाम है।’’
रमा कुछ नहीं बोली। कमाल भी एक बार रमा की ओर देखता रह गया। मैं ही फिर बोला—
‘‘मुझे न तो यह समझ में आया कि आपने किन मजबूरियों में अपना नाम नजारा से बदलकर रमा कर लिया और न अब यह समझ में आ रहा है कि आप रमा नाम को क्यों छोडऩा चाहती हैं?’’
रमा बोली—‘‘यदि मैं अपनी मर्जी से अपने नाम बदलने के फैसले लेती तो आपकी इस बात का जवाब जरूर देती।’’
‘‘तो इसका मतलब यह रहा कि आपकी दिलचस्पी नाम बदलने में नहीं है।’’
‘‘दरअसल नाम अपने लिए नहीं होते, दुनिया के लिए होते हैं। इन्सान तो जनम से लेकर मरने तक वही रहता है पर दुनिया, उसकी आँखों के सामने की दुनिया, बार-बार रंग बदलती है और इसीलिए इन्सान के वक्त की तरह उसके नाम भी बदल जाते हैं।’’
कमाल इस बातचीत से जरा खिन्न-सा होता जा रहा था; क्योंकि उसे अन्देशा था कि इस माहौल का मूड कहीं इधर-उधर न हो जाये। मैं कमाल के मन की बात ताड़ गया। मैं फौरन बोल उठा—
‘‘यहाँ पर फोन रखा था न!’’
‘‘हाँ-हाँ’’, कहते हुए कमाल फौरन उठा और दूसरे कमरे से फोन लाकर तुरन्त उसने मेरे सामने स्टूल पर रख दिया। वह इस विषय-परिवर्तन से उत्साहित-सा दिखायी दे रहा था।
‘‘इस समय किसकी याद आ गयी?’’ कमाल बोला।
‘‘मुझे ध्यान आया, कल रंगभवन में मिलिंद मेरी गजल गाने वाला है। कल उसे कोई दिक्कत पेश आ रही थी। कह रहा था, एक शेर मीटर में नहीं है।’’ मैंने कहा।
कमाल और रमा कुछ नहीं बोले। गिलास को झटपट एक लम्बे-से सिप से खतम करते हुए कमाल ने स्टूल पर रखा और उठ खड़ा हुआ बोला—
‘‘आप फोन कीजिये..’’ कहकर वह दूसरे कमरे में चला गया। रमा भी दो-चार पल रुककर उठ गयी और भीतर चली गयी।
मैंने मिलिंद को फोन किया तो खुद ही फोन पर मिल गया। मेरी आवाज पहचानते ही खुशी से उछल पड़ा। बोला—‘‘भगवान ने मेरी सुन ली। मैं शाम से आपको ही याद कर रहा था। मुझे पता ही नहीं था कि आप कहाँ हैं वरना मैं खुद फोन कर लेता।’’ वह एक साँस में बोल गया मानो अरसे से मेरे फोन का ही इन्तजार कर रहा हो।
मैंने कहा—‘‘मुझे भी इस बात का इल्म था। शाम ही से मुझे तुमसे बात करने का मन हो रहा था, पर फोन करने का अवसर ही अब मिला।’’
‘‘कहाँ से बोल रहे हैं?’’
‘‘...यहाँ...इधर...वरसोवा से।’’
‘‘तब तो नजदीक ही हैं। यहाँ आ सकते हैं?’’
‘‘इस समय? जरूरी है क्या?’’ मैंने जोर देते हुए कहा। शायद इसी से मिलिन्द समझ गया कि आना मेरे लिए सुविधाजनक नहीं रहेगा। थोड़ा-सा रुककर वह बोला— ‘‘यदि आप बतायें तो मैं आपके पास आ जाऊँ।’’
‘‘पर...मैं यहाँ भी अधिक देर ठहरने वाला नहीं हूँ। थोड़ी ही देर में हम लोग निकलेंगे।’’ मैंने जान-बूझकर ‘हम’ लोग कहा ताकि मिलिन्द यह समझ जाये कि मेरे साथ और भी लोग हैं। तुम ऐसा करो प्रॉब्लम मुझे बता दो।’’
‘‘प्रॉब्लम कुछ नहीं है। मैं तो एक बार आपको कम्पोजिशन सुनाना चाह रहा था।’’
‘‘सुनने तो मैं आऊँगा ही। वह जो तुम बता रहे थे...‘‘तीसरे अन्तरे वाली लाइन... सही हो गयी?’’
‘‘मैंने कोशिश तो की है पर पूरी तसल्ली नहीं है। मैंने शब्द बदले नहीं हैं, जरा-सा मोड़ दिया है। सुनेंगे...?’’ उसने उत्साहित होकर कहा।
मिलिन्द ने फोन पर ही गुनगुनाकर मुझे मेरी उस गजल की कुछ पंक्तियाँ सुनायीं जो कल वह कार्यक्रम में गाने वाला था। वास्तव में उसकी बात सही थी। तीसरे अन्तरे में बात नहीं बनी थी। पंक्तियाँ थीं—
‘‘दूर सागर के तल में
बूँद-भर प्यास छिपी है
सभी की नजर बचाकर
वहाँ जाता है पानी...’’
इसी में आगे एक पंक्ति थी—‘‘दाग चुनरी का धोने में मैला हो जाता है पानी...’ इस पंक्ति में मिलिन्द को कठिनाई पेश आ रही थी। उसके हिसाब से यह पंक्ति मीटर में नहीं थी और इसमें एक अक्षर बढऩे से अपेक्षित प्रभाव नहीं आ पा रहा था। उसने संगीत के, पाश्र्व वाद्य यन्त्रों के प्रायोगिक प्रयोग से इस पंक्ति का समायोजन किया था पर न वह स्वयं सन्तुष्ट था और न ही मैं फोन पर उसे सुनकर सन्तुष्ट हो पाया। मैंने मिलिन्द से कहा—‘‘तुम ऐसा करो, इसे बदलना ही पड़ेगा, मैं पन्द्रह-बीस मिनट बाद फिर से तुम्हें फोन करता हूँ और नयी पंक्ति देता हूँ। थोड़ा इन्तजार करो...’’ मैंने कहा। मिलिन्द एकाएक प्रसन्न हो गया। बोला—
‘‘मैं इन्तजार करता हूँ आपके फोन का। मैं तो पिछले तीन घंटे से रियाज में ही था। अब खाना खाकर फिर बैठने वाला हूँ।’’
‘‘खाना नहीं खाया अभी?’’
‘‘नहीं, दो-तीन यार-दोस्त घर से आये हुए हैं। वे अभी घूमकर लौटे ही नहीं हैं। उन्हीं का इन्तजार कर रहे हैं।’’
‘‘बेटा सो गया?’’
‘‘जबरन सुलाया है। तभी तो काम हो पा रहा है, वरना कौन करने देता।’’ वह बोला।
‘‘अच्छा, ठीक है। मैं फिर फोन करूँगा।’’ कहकर मैंने फोन का रिसीवर रख दिया और अलमारी से एक कागज उठाकर जेब से पैन लेकर बैठ गया। लगभग चार-पाँच महीने पहले लिखी गयी अपनी ही गजल फिर से मेरे मन में तैरने लगी। मैं सोफे पर अधलेटा-सा हो गया। और पलकें मँूद लीं। बीच-बीच में आँखें खोलकर मैं कागज पर कुछ लिखता और फिर काट देता। एक पल गुनगुनाकर फिर आँखें बन्द कर लेता। न जाने कितनी ही लाइनें लिख-लिखकर काटीं। कागज पूरा रंग गया था।
एकाएक जरा-सी आहट पाकर मैंने पलकें खोलीं तो कमरे में कमाल को खड़े पाया। वह दीवार पर टँगी अपनी कमीज की जेब में कुछ टटोल रहा था। इस समय उसके बाल बिखरे हुए थे और माथे पर पसीने को बूँदें थीं। कपड़े भी उतारकर भीतर वाले कमरे में टाँग चुका था और कमर पर एक छोटा-सा कपड़ा, जो शायद भीतर के कमरे में रखे किसी स्टूल का कवर रहा होगा, अपनी कमर पर लपेटे हुए था। उस लापरवाही से लपेटे गये कपड़े से उसकी उत्तेजना छिप नहीं पा रही थी। जेब से टटोलकर उसने रास्ते में खरीदा गया पैकेट निकाला और उसे खोलता हुआ ही भीतर जाने लगा। जाते-जाते उसने आँख दबाकर एक अश्लील-सा इशारा किया और पलटकर शरारत से मुस्कराता हुआ चला गया।
मैं फिर से अपने कागज की ओर झुक गया। पैन मेरी अँगुलियों में सरकने लगा। ऐसा बहुत कम होता था। मैं इतनी देर में एक पंक्ति दुरुस्त नहीं कर पा रहा था। रात आधी बीत चुकी थी। पड़ोस के कमरे में शांति थी किन्तु तरह-तरह की हल्की आहटें सुनायी दे जाती थीं। लगभग बीस मिनट तक मैं अपने पैन से खिलवाड़ करता रहा। तब कहीं जाकर मेरे संतोषलायक पंक्ति बन पायी। उस कागज को फाडक़र मैंने जेब से एक बीस रुपये का नोट निकाला और उस पर यह पंक्ति फिर से लिख डाली—‘‘दाग चुनरी का धोने में, डूब जाता है पानी।’’
मैंने फौरन उठकर मिलिन्द को फोन मिलाया और फोन पर ही उसे नयी पंक्ति नोट करवाई। वह खुशी से किलकारी-सी भरते हुए बोला—‘‘अब बनेगी बात।’’
मैंने मिलिन्द से बात करके फोन रखा ही था कि कमाल आकर सामने बैठ गया। उसके पीछे-पीछे ही रमा आयी और सीधी बाथरूम में चली गयी।
मैंने कमाल की ओर देखते हुए कहा—‘‘मेरा काम भी हो गया।’’ कमाल झेंप गया। फिर जरा-सा ठहरकर बोला—‘‘आपका कहाँ हुआ अभी...’’ अब मैं निरुत्तर होकर बाहर की ओर देखने लगा। हवा से खिडक़ी का काँच थोड़ा और खुल गया था और बम्बई शहर अँधेरे की योद में खोया खड़ा था। मैंने खिडक़ी की ओर देखते हुए धीमी मगर संयत आवाज में कहा—‘‘मैं तो गरीब आदमी हूँ, पगडण्डियों पर चलकर भी मंजिल तक पहुँच सकता हूँ। मुझे राजमार्ग पर तुम्हारी गाड़ी दौड़ाना कहाँ आता है।’’
कमाल अजीब-सी प्रतिक्रिया चेहरे पर लाकर बोला—‘‘सम्वादों की आपके पास क्या कमी? यह तो आपका काम है।’’
‘‘शुक्र है तुमने धन्धा नहीं कहा।’’
कमाल जोर से हँसने लगा। मैंने वातावरण को और हल्का बनाते हुए उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा—‘‘आज क्या रतजगे का इरादा है?’’
‘‘जी नहीं...’’ कमाल ने कहा ही था कि रमा भी आकर सामने खड़ी हो गयी।’’ बैठो।’’ ‘‘बैठो।’’ मैंने कहा तो रमा बिलकुल मेरे करीब ही सोफे पर बैठ गयी। इतना ही नहीं बल्कि उसने अपना हाथ मेरे घुटने पर रख लिया। हम तीनों इसी तरह बैठे रहे। मैं ही बोला—‘‘चलो, मिलिन्द से बात हो गयी, यह भी अच्छा रहा।’’
सहसा रमा को ध्यान आया, बोली—‘‘कल सुबह फोटो सेशन है न, आप आयेंगे?’’
‘‘आयेंगे?’’ मैंने आश्चर्य से कहा तो कमाल मेरा इशारा समझ गया। पर रमा नहीं समझी। वह आश्चर्य से देखती रही। मैंने ही फिर कहा—
‘‘अरे, आयेंगे तो तब, जब जायेंगे।’’
रमा जोर से हँस पड़ी, फिर कमाल की ओर देखती हुई बोली—‘‘लेकिन मैं अब आधे घंटे से ज्यादा नहीं रुक सकती।’’ वह मेज से बीस के नोट को उठाकर उस पर लिखी हुई पंक्ति पढऩे लगी।
कमाल मेरी ओर रहस्यमय ढंग से देखने लगा। मैं उसका इशारा समझ गया पर आँखों-ही-आँखों में मैंने उसे जता दिया कि मेरी इच्छा अब यहाँ से उठने की है। कमाल या रमा ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, परन्तु उठते-उठते रमा ने मेरे घुटने पर रखे हुए हाथ को एक बार जोर से दबा दिया। कमाल उठकर शीशे के सामने खड़ा हो गया।
थोड़ी ही देर में हम लोग कार में बैठे हुए फिर अँधेरी स्टेशन के नजदीक थे। रमा को सांताक्रूज स्टेशन के नजदीक छोडऩा था।
रात काफी जा चुकी थी। शहर नीरवता में ऊँघ रहा था। यह वही समय था जब इस शहर की छाती पर दिन-रात धड़धड़ाती लोकल गाडिय़ाँ रात के सिर्फ दो घंटे के लिए विश्राम पाती हैं। इसी से आने-जाने वालों का ताँता इन दो घंटों के लिए थम जाता है। सुबह चार बजे से ही गाडिय़ाँ फिर शुरू हो जाती हैं और बम्बई शहर बरामदे में कच्ची नींद सोये किसी दुकान के अस्थायी नौकर की भाँति झटके से उठ जाता है और सवेरे की हलचलें किसी बुनकर के करघे पर बँधी डोर की भाँति शहर के सीने पर फैल जाती हैं। चौड़ी सडक़ों का चौड़ा-चकला सीना इसी पहर दिखाई देता है। विराट इमारतों की चौखट इसी दम फुरसत पाती है। अनन्त-अपार दूरियों तक फैला-पसरा समुद्र इसी समय इन्सानों से छिप-छिपकर किये जाने वाले कारज कर पाता है। मोटरगाडिय़ाँ जगह-जगह पर सुस्ताती खड़ी रहती हैं। महल-हवेलियों में सोये या सडक़-फुटपाथों पर आदमी चैन से निढाल पड़े रहते हैं।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस दम सबकी किस्मत में चैन लिख जाता है। अपने नसीब के मारे ऐसे भी हैं जो ठीहे पर अलाव जैसा चूल्हा जला पाने की मुहिम में इस घड़ी भी हलकान रहते हैं। सवेरे-सवेरे चार बजे की गाडिय़ों में चढक़र रोटी के लिए दूर-दराज जाने वालों का दिन तो तीन बजे से शुरू हो ही जाता है। कहीं टेंट में बाँध ले जाने के लिए रोटियाँ ठिकनी शुरू हो जाती हैं, कहीं पीने के पानी की किल्लत से बचने के लिए नल-नालों पर बरतन खडख़ड़ाने शुरू हो जाते हैं। कहीं नहाने-धोने के सिलसिले शुरू हो जाते हैं तो कहीं सवेरे के लिए सडक़ों पर उतरने से पहले वाहनों की धुलाई-पुंछाई शुरू हो जाती है। कहीं हड्डियाँ तुड़वाकर-मसकवाकर लौटे बदन नोट गिनकर बिछौने टटोलने लग जाते हैं। रात बूढ़ी हो तो कराहती भी है, खाँसती भी है। हर समय मौन नहीं रहता।
ऐसे ही पहर में बम्बई राह चलतों से घड़ी-दो घड़ी बात कर सकती है।
रमा के घर के नजदीक हमारी गाड़ी पहुँची तो आवाज सुनते ही नीचे वाले कमरे में सोये दोनों लडक़े जाग गये। देखते-देखते कमरे की बत्ती जल गयी। एक लडक़े ने भीतर से चाबी लेकर लोहे की सीढिय़ों पर जड़े दरवाजे में लटका छोटा-सा क्लिक का ताला खोला और दूसरा आगे बढक़र कार का गेट खोलने लगा। रमा बाहर निकलकर एक पल के लिए वापस मुड़ी और फिर हाथ हिलाती हुई जीने की ओर बढ़ गयी। दोनों लडक़े उनींदे-से उसे हम लोगों की ओर हाथ हिलाते हुए देखते रहे। फिर बत्ती बन्द करके वापस अपने बिछोने के नाम पर बिछी हुई दरियों पर लेट गये। कार तेजी से घूमती हुई गली से निकलकर मुख्य सडक़ पर आ गयी।
कमाल ने मुझसे वापस वरसोवा ही चलने के लिए कहा, लेकिन अब मेरी इच्छा घर जाने की थी। फिर समय इतना हो चुका था कि हम लोग वरसोवा जाते भी तो केवल दो-एक घंटे ही वहाँ आराम कर पाने का वक्त निकाल पाते क्योंकि कमाल को सुबह सात बजे ही मलाड वाले जिमनेजियम को भी खोलना था। मैं सोना चाहता था, इसलिए मैंने उससे बोरिवली चलने के लिए ही कहा। कमाल को भी यही सुविधाजनक लगा कि वह बोरिवली से ही सुबह मलाड आ जाये।
आज ही सवेरे कुछ देर के बाद एक विशेष फोटो-सेशन के लिए राज्याध्यक्ष साहब को आउटडोर पर जाना था लेकिन रात की इतनी भागदौड़ के बाद मैं और कमाल दोनों ही थकान महसूस कर रहे थे, इसलिए हम लोग बोरिवली में मेरे घर की ओर चल दिये।
काफी देर की खामोशी के बाद एकाएक कमाल ने मुझसे तपाक से पूछ ही लिया—‘‘क्या आज आपको हम लोगों का रमा के साथ वहाँ जाना अच्छा नहीं लगा?’’
‘‘ऐसा तुमसे किसने कहा?’’
‘‘नहीं, आप पूरे समय उखड़े-उखड़े-से रहे।’’
‘‘तुम गलत सोच रहे हो, कमाल! मेरा ध्यान आज मिलिन्द की समस्या पर था। और वह मिलिन्द की ही नहीं, मेरी भी समस्या थी। मेरी वह गजल इसी महीने ‘प्रिया’ पत्रिका में छप चुकी है और उसे मिलिन्द को आज एक कार्यक्रम में गाना भी था। इसलिए मेरा ध्यान उधर था।’’
‘‘यदि ऐसा न होता तो आप भी साथ में आते?’’ मानो अपने भीतर पनप रहे किसी अपराध-बोध को कम करने की कोशिश में कमाल ने यह सवाल किया हो।
मैंने भी उसी तरह उसे समझाने और अपने प्रति किसी प्रकार की ग्रन्थि न बनने देने की कोशिश में कहा—
‘‘कमाल, मैं जिन लोगों को पसन्द करता हूँ, उनसे किसी तरह का परहेज नहीं रखता। उनके साथ तन-मन से रहता हूँ। तुम ऐसा मत सोचो कि मैंने तुम लोगों के व्यवहार को गलत मानकर तुम्हारा साथ नहीं दिया।’’
‘‘मैं तो नहीं भी सोचूँगा, पर रमा तो ऐसा ही सोचती होगी न?’’ उसने किसी भोले बच्चे की तरह पूछा।
‘‘यदि आज सोचती भी होगी तो कुछ दिनों के बाद नहीं सोचेगी।’’ मैंने एक रहस्य के-से अन्दाज में कहा।
कमाल आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगा और मैं देखने लगा उसके स्टियरिंग ह्वील पर रखे हुए हाथों की ओर, जो मेरी ओर नजर होने पर भी सिद्धहस्त चालक की भाँति विश्वास से गाड़ी की कमान थामे हुए थे। सडक़ पर वाहन भी अपेक्षाकृत कम थे, किन्तु अब सवेरे का ट्रैफिक थोड़ा-थोड़ा शुरू होने लगा था। रातभर चलने वाला लम्बी दूरी के ट्रकों का ट्रैफिक अब कम होता जा रहा था।
वैसे जिमनेजियम पर एक कोच सुबह के समय आ जाता था और वह कमाल या राज्याध्यक्ष साहब की अनुपस्थिति में सुबह की शिफ्ट को सँभाल भी लेता था परन्तु पिछले दिनों वह दो-तीन दिन की छुट्टी गया था और इसी कारण जिम की चाबी कमाल के पास ही थी। यह जरूरी था कि सुबह जल्दी ही जाकर कमाल एक बार जिम खुलवाने की व्यवस्था देखे।
इसलिए मेरे घर पहुँचकर भी कमाल ज्यादा देर ठहरा नहीं। घर पहुँचते ही हमने चाय पी। यद्यपि चाय की इच्छा हम दोनों की ही नहीं थी मगर आरती के आग्रह पर इनकार हम दोनों में से कोई भी न कर सका।
चाय पीकर मैं सोने के लिए अपने कमरे में चला गया और कमाल भी वापस लौटने लगा। किन्तु कुछ सोचकर कमाल एक पल रुका और बोला—‘‘मैं यहीं नहाकर जाऊँगा।’’
उसने स्वयं कमरे के भीतर आकर मेरी अलमारी से कपड़े निकाले और नहाने के लिए बाथरूम में चला गया। आरती हम लोगों से कुछ पूछे बिना ही किचन में चली गयी।
मैं सुबह साढ़े सात बजे के बाद सोकर उठा था। तब तक शाबान और आरती एक बार चाय पी भी चुके थे। मेज पर बरतन पड़े थे जिनसे मुझे पता चला कि कमाल नहा-धोकर, नाश्ता करके, आधा घंटे बाद चला गया था। शाबान अखबार पढ़ रहा था और आरती उसके पास ही बैठी हुई थी। उन दोनों के चेहरों पर भी एक-दूसरे के लिए वह पहले वाला तनाव-खिचाव शनै:-शनै: कम होता दिखायी देने लगा था; क्योंकि अब उन दोनों के बीच नपी-तुली बातचीत भी यदा-कदा होती सुनायी देती थी।
चाय पीकर मैं रात की थकान उतारने के लिए इत्मीनान से बाथरूम की ओर चल दिया।