रेत होते रिश्ते - भाग 11 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रेत होते रिश्ते - भाग 11


शाबान को जब मैंने बताया कि कल सुबह राज्याध्यक्ष साहब के साथ लोनावला चलने का कार्यक्रम है तो वह खुश हो गया, क्योंकि वह पहले भी दो-एक बार वहाँ चलने की इच्छा जाहिर कर चुका था। आरती और अरमान भी चलने के लिए तैयार हो गये। हमने राज्याध्यक्ष साहब की कार के साथ-साथ एक और टैक्सी करने की व्यवस्था कमाल पर ही छोड़ दी।
लोनावला बम्बई और पुणे के रास्ते के बीचोंबीच एक सुन्दर पहाड़ी घाट पर बना हुआ छोटा-सा शहर था, जहाँ दूर-दूर पहाड़ी सौन्दर्य के बीच बने शांत और हवादार बंगलों में ठहरकर लोग ताजा हवा और शांति का नैसर्गिक आनन्द उठाते थे। राज्याध्यक्ष साहब यहाँ अकसर आया करते थे। बम्बई के फिल्म-निर्माताओं के लिए अपने कथानकों पर बातचीत करने, कलाकारों को कहानियाँ सुनाने आदि के लिए इस जगह का प्राय: इस्तेमाल होता था। फिल्मी परदे पर शराब और सिगरेट की खिलाफत करने वाले सैकड़ों नायकों ने यहाँ दिन-दिन भर शराब की बोतलें खाली करते हुए ढेरों कहानियाँ सुनी थीं। परदे पर अपनी अस्मत की रक्षा करते हुए जान की बाजी लगा जाने वाली ढेरों अभिनेत्रियों के किस्से यहाँ की फिजाओं में फैले हुए थे, कि किस तरह अपने नायकों, निर्माताओं और निर्देशकों के ही नहीं बल्कि उनके सहायकों, मित्रों या ड्राइवरों तक के बिस्तर गर्म कर-करके नामी-गिरामी लड़कियों ने अपने मौजूदा मुकाम हासिल किये थे। लेकिन इस सच्चाई का दूसरा पहलू यह भी था कि फिल्मों के परदे पर सिर्फ बलात्कार, मारपीट और गुण्डागर्दी करने वाले कई नायक-खलनायक यहाँ जब-तब अपने-अपने परिवारों के साथ आकर निहायत घरेलू और शरीफाना जिन्दगी बिताकर जाते थे। यही बात थी, जो यहाँ के होटलों, आरामगाहों के बटलर और वेटरों के किस्सों-कहानियों को सिर्फ किस्सागोई और अफसानाबयानी में ही तबदील करती थी। यहाँ आसानी से हर आदमी की हर बात पर विश्वास करना बुद्धिमानी भी नहीं कहा जा सकता था।
लोनावला पहुँचकर हमने राज्याध्यक्ष साहब के एक परिचित के मकान में शरण ली जो खाली पड़ा दिखायी देता था। कमाल अरमान, शाबान और आरती को लेकर नाश्ता करने के बाद ही घूमने निकल गया और मैं राज्याध्यक्ष साहब के साथ वहाँ ठहर गया। हमने कई पहलुओं पर विस्तार से बातचीत की। मेरे लिखे कई पृष्ठ राज्याध्यक्ष साहब ने इत्मीनान से पढ़े और बीच-बीच में कई मुद्दों पर हमारी बातचीत भी हुई।
बम्बई में जनसंख्या-वृद्धि की विस्फोटक स्थिति को दर्शाने के सन्दर्भ में राज्याध्यक्ष साहब एक बहुत बड़ा जोखिम उठाने जा रहे थे। यह आइडिया उन्होंने मेरी एक कहानी से पसन्द किया था जो पिछले दिनों बम्बई के एक मशहूर अखबार में छप चुकी थी। सीमित जगह में एक करोड़ लोगों के निवास ने बम्बई की झुग्गी बस्तियों की जिन्दगी को कैसा अमानवीय बना छोड़ा है, इसी का चित्रण इस कहानी में था।
इस कहानी में एक किशोर का जिक्र था जो कहीं नौकरी पर जाने के लालच में अपने माँ-बाप की मर्जी के खिलाफ बम्बई आ जाता है और उसे अपने एक चचेरे भाई-भाभी के साथ उनकी झुग्गी में ही रहने के लिए विवश होना पड़ता है। रात को ट्रेन से बम्बई में आया यह किशोर अगले सवेरे जब दैनिक कर्मों से निवृत्त होने के लिए अपने भाई के साथ झोंपड़ी से बाहर निकलकर कुछ दूर जाता है तो यह देखकर दंग रह जाता है कि बस्ती के कई छोटे-बड़े लोग शौच के लिए एक साथ इस तरह बैठे हैं कि उनके बीच किसी किस्म का कहीं कोई परदा नहीं है। युवा और वृद्ध तक एक-दूसरे के सामने निर्वस्त्र बैठे ऐसी सहजता से बातें करते हुए निवृत्त हो रहे हैं कि लड़के को पशुओं और इन्सानों में कोई विभेद नजर नहीं आता। वहाँ एक-एक, दो-दो फुट के फासले पर बच्चे भी हैं, किशोर भी, युवा भी और बड़े-बूढ़े-बुजुर्ग भी। और वहीं करीब से होकर मर्द-औरतें आ-जा रहे हैं। लड़के का मन यह देखकर और सोचकर विरक्त-सा हो जाता है कि रात को जिस भाई के ट्रेन से उतरते ही उसने पाँव छुए थे, वही बड़ा भाई आदमजात अवस्था में एक ही डिब्बे में पानी लिये उसके बिलकुल सामने बैठा उसे बम्बई की रंगीनियों के किस्से सुना रहा है, यहाँ के वैभव का बखान कर रहा है, यहाँ की मिलों की नौकरी देने में दरियादिली पर गौरवगाथा कह रहा है। लड़का बैठ नहीं पाता। तुरन्त उठकर खड़ा हो लेता है और मुँह फेरकर उस दृश्य को देखने लग जाता है जहाँ एक कॉलोनी के पिछवाड़े से बहकर आती हुई गन्दे पानी की नाली में से कीचड़ जैसा पानी उलीच-उलीचकर कई बच्चे और बड़े भी नहा रहे हैं। कई औरतें कपड़े धो रही हैं। लोग पानी भर-भरकर ले जा रहे हैं।
लड़के को उबकाई-सी आने लगती है, वह यह दृश्य देख नहीं पाता और जब भाई के साथ झोंपड़ी में लौटता है तो उन व्यंजनों को खा नहीं पाता जो भाभी ने बड़े जतन से उसकी आवभगत में बनाये हैं। अपनी आवभगत से वह यह सोचकर कतरा रहा है कि खा लेने पर उसे उसी जलालत भरी जगह फिर जाना पड़ेगा, जहाँ वह जानवरों की भाँति निपट नंगे सैकड़ों इन्सानों को बैठे हुए वह देख आया है। लड़का तुरन्त अपने गाँव में माँ को चिट्ठी लिखने बैठ जाता है और अपनी हरे-भरे खेतों-क्यारियों को याद करते हुए वापस लौटने का निर्णय ले लेता है।
इस व्यापक दृश्य को राज्याध्यक्ष साहब ने पटकथा में डलवाया था और इसे जोखिमपूर्ण ढंग से फिल्माने का इरादा भी रखते थे।
यह स्पष्ट था कि राज्याध्यक्ष साहब के सामने इस दृश्य को फिल्माने के पीछे बम्बई की इस गजालत पर देशभर का ध्यान सनसनी भरे तरीके से खींचने का प्रयोजन ही काम कर रहा था, पर वह इस दृश्य की व्यावसायिक प्रचार की सम्भावनाओं को भी भुनाना चाहते थे। इसीलिए न केवल बड़े पैमाने पर यह दृश्य उन्होंने पटकथा में रखवा लिया था बल्कि वे ऐसे कलाकारों और जूनियर आर्टिस्टों की फौज को भी टटोल रहे थे जो बेहिचक अपने शरीर के छिपे अंगों की नुमाइश के लिए तैयार हो सकें। अमीरी और गरीबी की पराकाष्ठाओं वाले इस शहर में यह नामुमकिन भी नहीं था। कुछ की पैसों की विवशता, कुछ का शौक और कुछ की सनसनीपूर्ण अभिनय जीवन की शुरुआत की प्रबल इच्छा ऐसे पात्रों को राज्याध्यक्ष साहब के इर्द-गिर्द पहुँचाने भी लगी थी।
‘‘सर, इस चीज़ को इतना तूल देकर फिल्माने का कहीं उलटा असर तो नहीं हो जायेगा?’’ मैंने अपनी शंका राज्याध्यक्ष साहब के समक्ष प्रकट की।
‘‘उलटे असर से क्या मतलब..?’’
‘‘मेरा मतलब, एक तो सेंसर बोर्ड ही हमारे काम में रोड़ा अटका दे, और दूसरे कहीं यह दुष्प्रचार हो जाये कि हम अश्लीलता को दिखाकर पैसा कमाने की बात सोच रहे हैं।’’
राज्याध्यक्ष साहब एक पल को गम्भीर हो गये। किन्तु तुरन्त ही फिर बोले— ‘‘तुम क्या समझते हो, क्या यह जरूरी नहीं है? क्या यह बम्बई जैसे महानगरों की बेहद गम्भीर समस्या नहीं है? क्या यह हमारी सभ्यता के चरम पर पहुँचकर फिर असभ्यता की ओर प्रत्यावर्तित होने की संकेत-सीमा नहीं है? क्या देशभर के गाँवों व कस्बों के लोगों को यह बताना जरूरी नहीं है कि यदि वे लोग अपनी जमीन छोड़-छोड़कर शहर की गोद में आते चले जायेंगे तो इसका परिणाम क्या होगा? क्या लोगों को सचेत करना कोई गुनाह है?’’ राज्याध्यक्ष साहब थोड़ा आवेश में आकर कहते चले गये। उनके प्रश्नों की झड़ी से मेरे चेहरे पर यह अपराध-बोध आकर चिपक गया, मानो देश की हर समस्या के निदान में मैं ही आड़े आ रहा है। फिर भी मैंने कहा—‘‘मेरा मतलब सिर्फ इतना-सा था कि यदि सि$र्फ इसी दृश्य की बिना पर सेंसर बोर्ड ने हमारा सारा काम जनता के सामने आने से रोक दिया तो नुकसान तो हमारा ही होगा।’’
‘‘नहीं। हमारा कुछ नुकसान नहीं होगा। आखिर हमारी थीम की व्यापक पब्लिसिटी तो अखबारों-पत्रिकाओं में पहले ही हो जायेगी। हम सेंसर बोर्ड को कन्विन्स करेंगे कि यह दृश्य फिल्म में उठायी गयी समस्या के चित्रण से जुड़ा है। देखा नहीं, ‘जख्मी औरत’ में कैसे एक केन्द्रीय मन्त्री ने दिलचस्पी ली। वह क्या कम अश्लील बात थी? एक औरत पकड़-पकड़कर बलात्कारियों के लिंग काटे जा रही थी। लोगों ने कैसा पसन्द किया?’’
‘‘जी हाँ, पर वहीं कटते हुए शिश्न परदे पर दिखाये तो नहीं गये थे। प्रतीकात्मक रूप में दर्शकों को बताया गया था।’’
‘‘वहाँ सेक्स की बात थी।’’ सम्भोग’ की बात थी। हम सेक्स नहीं दिखा रहे। हम लोगों की बेबसी दिखा रहे हैं। हमारा प्रयोजन गुप्तांगों की नुमाइश करना नहीं है। हम तो यह दिखा रहे हैं कि शहर में जगह ही नहीं है कि लोग बिना एक-दूसरे के सामने नंगे हुए अपने दैनिक क्रियाकलाप निपटा सकें। यदि किसी के पास घर नहीं है, वह सड़क पर नंगा नहा रहा है तो यह हमारी अश्लीलता नहीं है। हम उसे देखते समय आह्लाद से नहीं, वितृष्णा से भरते हैं। हम उस दृश्य पर उत्तेजित नहीं होते हैं, नतमस्तक होते हैं विवशता के सामने। यह शौकिया सेक्स नहीं है। और इसे दिखाने से रोकना कायरता है। समस्या से मुँह मोडऩा है। असलियत पर मिट्टी डालना है।’’
‘‘पर सेंसर...’’
‘‘हम फिल्म सेंसर बोर्ड के लिए नहीं बना रहे। लोगों के लिए बना रहे हैं।’’
‘‘लेकिन अखबार-पत्रिकाओं में यह जिक्र तो होने लगेगा कि हम विकृत और घिनौने प्रतीकों से अपनी बात कह रहे हैं। हम सभ्यता और शिष्टाचार से परे जा रहे हैं।’’
‘‘कौन कहेगा ये सब? और जो कहेगा वह इस समस्या को हल करके दिखा दे। लोगों के पेट भर दे। उनके तन ढक दे। उनके शालीन निवास की व्यवस्था कर दे, जहाँ वे अपनी बहू-बेटियों के साथ इज्जत से बसर कर सकें। फिर हम नहीं उठायेंगे ऐसी समस्याएँ। हम भी वर्षों पुरानी रामायण और महाभारतों को ही बार-बार दिखाकर अपनी तिजोरियाँ भरने लगेंगे। मनोरंजन के नाम पर नौटंकियों जैसा नाच-कूद दिखाते रहेंगे।’’ राज्याध्यक्ष साहब फिर बोले—‘‘अरे, सेंसर बोर्ड अन्धा है क्या? आज की सैकड़ों फिल्मों में उसे आपत्तिजनक कुछ नहीं दिखता? स्कूल-कॉलेजों को लडक़ों की एयाशी का अड्डा दिखाया जाता है। पुलिस को जनखों की फौज में तबदील हुआ दिखाया जाता है। कानून के कान हर ऐरा-गैरा नत्थू खैरा मरोड़ रहा है। और सेंसर बोर्ड कुछ नहीं कर पा रहा। केवल समस्याओं पर ध्यान खींचने के लिए यदि हम कुछ बेबाकी दिखा देंगे तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ेगा। अँग्रेजी फिल्मों को देखो, दो-दो मिनट के चुंबन और सम्भोग दृश्य खुलेआम पास किये जा रहे हैं; क्योंकि वे हमारे आकाओं के हैं। वे उन अँग्रेजों के हैं जो हमारे मालिक रहे हैं, तो ...
‘‘आप गलत समझ रहे हैं। मैं आपके विचार से असहमत नहीं हूँ।’’ मैंने राज्याध्यक्ष साहब को उत्तेजित होने से रोकने के लिए पटाक्षेप किया।
दोपहर को लगभग चार बजे के आसपास कमाल की गाड़ी लौटकर आयी। हम सभी लोगों ने साथ में खाना खाया। थोड़ी बहुत देर इधर-उधर की बातचीत हुई। फिर अरमान, शाबान और आरती थोड़ा पैदल घूमने की गरज से वापस बाहर निकल गये। हम लोगों का इरादा एक रात लोनावला में ही ठहरने का था। अगली सुबह हम लोग वापस बम्बई जाने वाले थे।
कमाल ने उन लोगों को कार से अच्छी-खासी सैर करवायी थी। लगभग सारा शहर चक्कर लगाकर दिखा दिया था। अब वे लोग थोड़ी खरीददारी करने की गरज से बाजारों में पैदल ही चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े।
शाबान, अरमान व आरती के बीच का पारस्परिक तनाव अब काफी कम होता हुआ दिखायी देने लगा था। वे तीनों लोनावला के प्रवास का भरपूर आनन्द उठाने में लगे हुए थे। यह मेरे लिए काफी सन्तोष की बात थी। राज्याध्यक्ष साहब व कमाल अभी तक सिर्फ इतना ही जानते थे कि आरती अरमान की मंगेतर है जो विदेश से उसके साथ आयी हुई है। इससे अधिक परिचय की कहीं कोई जरूर ही नहीं पड़ी थी।
अगली सुबह नहा-धोकर जल्दी ही हम लोग बम्बई के लिए चल पड़े। राज्याध्यक्ष साहब व कमाल हमें घर छोड़कर तुरन्त ही वापस चले गये।
मैंने घर के बाहर लगे लेटर बॉक्स की चाबी लगाकर जब डाक टटोली तो वहाँ एक पत्र के साथ-साथ एक छोटी-सी स्लिप भी पड़ी मिली, जो संजय के हाथ की लिखी हुई थी। संजय ने मेरे लिए सन्देश छोड़ा था कि वह आज शाम को मुझसे मिलने के लिए आयेगा।
संजय और मैं जोसफ नादिर से मिल चुके थे। बड़ी ही नाटकीय परिस्थितियों में हमारी बातचीत हुई थी। वह संजय को भी पहचान नहीं पाया था। उससे मिलकर और थोड़ी खोज-खबर करने के बाद हमें पता चल गया था कि ग्लोबवाला नामक उस आदमी का मुख्य धन्धा समुद्री तट पर आने वाली मच्छीमार नौकाओं के जरिये तस्करी का माल इधर-उधर करना ही था। पोर्ट पर आये बेशुमार सामान में से वे लोग चोरी से भी काफी माल अगवा करवाके अथवा जबरन खरीदकर ले लेते थे और उसे तटीय रास्तों के जरिये देश के अन्य भागों में बेचने के लिए पहुँचाया जाता था। साथ ही ग्लोबवाला नादिर की मदद से गैरकानूनी फिल्में व फोटो उतरवाने का काम भी करता था। हम इस कार्य की जानकारी एक ग्राहक की हैसियत से कर चुके थे और हमें उनकी कार्यप्रणाली का भी पूरा ज्ञान हो गया था। यह देखकर आश्चर्य होता था कि उन लोगों ने सड़क पर रहकर तन बेचने वाली लड़कियों के कैसे-कैसे ग्लैमरस फोटो उतारकर बेचे थे। उनकी खींची हुई नेगेटिव फिल्में भी ऊँचे दामों पर बिकती थीं। फिलहाल हमने उनके धन्धे पर न कोई रिपोर्ट तैयार की थी और न ही कोई शिकायत आदि की योजना बनायी थी; बल्कि राज्याध्यक्ष साहब को इस कारोबार की जानकारी दी थी और वह संजीदगी से सब सुनकर रह गये थे।
शाम को संजय मुझे मिला। मैं, संजय और शाबान बातें कर ही रहे थे कि बातों-बातों में कहीं राज्याध्यक्ष साहब की फिल्म का जिक्र आ गया। और संजय को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि शाबान स्वयं उनकी फिल्म के लिए कोई काम करने की इच्छा रखता है। यहीं नहीं, बल्कि संजय ने राज्याध्यक्ष साहब के जिम से निकलकर प्रख्यात मॉडल बने उस लड़के के बारे में भी हमें ऐसी जानकारी दी कि हम चकित रह गये। संजय उससे भली-भाँति परिचित था और वह उसकी तसवीर देखकर पहले ही उसे पहचान चुका था।
संजय ने हमें बताया कि उस लड़के ने बड़ी जल्दी बहुत तरक्की की थी। वह देखते-ही-देखते सफल मॉडल बन गया था परन्तु बदनसीबी से उसके कॅरियर का अंत भी उतनी ही जल्दी हो गया जितनी जल्दी उसे ख्याति मिली। यह बात तो सही नहीं थी कि उसने किसी का खून किया था मगर उस पर खून का आरोप लगा जरूर था। संजय आरम्भ में शाबान के सामने थोड़ा हिचका था पर मेरे आश्वस्त करने पर उसने शाबान की उपस्थिति में ही अपने उस कॉलेज मित्र की कहानी सुना डाली थी।
मैं क्योंकि राज्याध्यक्ष साहब के लिए काम कर रहा था इसलिए उन बातों को जरा गंभीरता से लेता था जो राज्याध्यक्ष साहब के जीवन में घटी थीं। निश्चित रूप से राज्याध्यक्ष साहब एक बेहद संवेदनशील इंसान थे और अपने जीवन के लम्हे-लम्हे से प्रभावित थे। वह पलों-पलों के साथ जुड़े थे, वह दिनों-दिनों के साथ वाबस्ता थे। और जब वह अपनी फिल्म के कैनवस पर अपनी जिन्दगी के कुछ अछूते अनुभवों को उतारना चाहते थे तो यह मेरे लिए जरूरी हो जाता था कि उन सभी बातों की गहराई में जाने की कोशिश करूँ जिन बातों ने उन्हें प्रभावित किया हो।
संजय के अनुसार ‘मिस्टर बम्बई’ चुना जाने वाला वह मॉडल एक अनोखे सेक्स स्कैण्डल का ही शिकार हुआ था। इसी हादसे के कारण वह अपनी मंगेतर अभिनेत्री की नजरों से भी गिर गया था और उसका कॅरियर भी उसकी बदनामी के चंगुल में आकर भेंट चढ़ गया था। दरअसल उस लड़के ने अपनी ख्याति के दिनों में एक फिल्म भी साइन कर ली थी और वह उसकी शूटिंग की शुरुआत होने से पहले आवश्यक तैयारियाँ कर रहा था। लड़का पर्याप्त खुबसूरत और बलिष्ठ था और इन दिनों अभिनय के गुर सीखने के लिए एक अभिनय के प्रशिक्षण केन्द्र में जा रहा था। यहीं उसे जानकारी मिली एक ऐसी महिला के बारे में, जिसने गोरेगाँव में ही अपना नृत्य स्कूल खोला हुआ था। महिला पेशे से डॉक्टर थी मगर शाम को उसके क्लीनिक के ऊपर ही एक फ्लैट में डांस स्कूल चलता था। वहाँ पर तीस-चालीस बच्चे व युवा नृत्य सीखने के लिए आते थे। अलग-अलग तरह का डांस सिखाने के लिए उसने कुछ और युवतियों को भी रखा हुआ था।
शाबान भी संजय की यह बातचीत बड़े गौर से सुन रहा था और मैंने देखा कि इस डांस स्कूल का जिक्र आते ही वह चौंककर संजय को देखने लगा।
मुझे बाद में पता चला कि शाबान भी उस डांस स्कूल में जाकर आ चुका था और उसे भी एक इसी तरह का अनुभव हुआ था जिसकी जानकारी उस मॉडल लड़के के संदर्भ में संजय ने दी थी। यह उसी दिन की बात थी जब अरमान आया था और शाबान को स्टेशन पर मिलकर उसके साथ ही घर आया था। असल में शाबान इसी कारण काफी अपसेट था और वह घर आकर किसी से कुछ नहीं बोला था। वह इस संदर्भ में उसी दिन मुझे बताना चाहता था परन्तु अरमान के भी आ जाने से इस बारे में कभी बात नहीं हो पायी और बाद में यह बात उसके दिमाग से उतर गयी।
उस मॉडल लड़के का स्कैण्डल इसी डांस स्कूल में काम करने वाली एक युवती के साथ हुआ था। वह लड़का जब यहाँ डाँस सीखने आया और स्कूल की मालिक डॉक्टर साहिबा को यह जानकारी मिली कि वह एक फिल्म के लिए चुन लिया गया है तो उसे विशेष प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गयी। वह युवती जो डांस सिखाती थी, उस मॉडल लड़के को अलग से समय देने लगी। एक दिन रात को पन्द्रह-बीस लड़के-लड़कियों को सामूहिक नृत्य का अभ्यास करवाने के बाद वह लड़की फ्लैट में जब अकेली थी, वही लड़का आया।
संजय ने जैसी जानकारी दी, उसके अनुसार उस युवती ने ही मॉडल लड़के के साथ अकेलेपन का फायदा उठाना चाहा और वहीं उन दोनों के बीच कुछ ऐसा हुआ कि लड़के ने उस नृत्य सिखाने वाली युवती का गला घोंटने की कोशिश की। डॉक्टर साहिबा किसी जगह से वापस लौटते समय फ्लैट पर चक्कर लगाने आ गयीं और आकस्मिक रूप से दोनों के बीच जो कुछ हुआ वह उनके देखने में आ गया। डॉक्टर की पहल पर यह हत्या के प्रयास का मामला बन गया और बात क्योंकि एक मॉडल से संबंधित थी, अखबारों की सुर्खियाँ बन गयी। इसी मामले के बाद मैं राज्याध्यक्ष साहब के कहने पर उस लड़के से मिला था किन्तु मानसिक रूप से विक्षिप्त-सा हो चुका यह लड़का उस समय इस विषय की और कोई जानकारी नहीं दे पाया था कि आखिर उसके व युवती के बीच ऐसा क्या हुआ कि उसे युवती का गला घोंटने जैसी हरकत पर उतर आना पड़ा।
संजय ने इसे पूरी तरह युवती की पहल पर हुआ सेक्स स्कैण्डल बताया। वैसे इस विषय में कई पत्रिकाओं में अलग-अलग तरह की बातें छप चुकी थीं। संजय के चले जाने के बाद इस विषय में शाबान से मेरी काफी देर तक बात होती रही और तभी शाबान ने भी अपने स्वयं के साथ घटा वह अनुभव मुझे सुनाया।
शाबान ने गोरेगाँव के उस डांस स्कूल में प्रवेश लेने के इरादे से जाना शुरू किया था। वहाँ नृत्य की कक्षा का संचालन करने वाली एक युवती ने उससे बातचीत की और युवती ने उसे कुछ समय बाद आने के लिए कहा। शाबान उससे उसके बताये समयानुसार मिला और युवती ने उसका छोटा इंटरव्यू लिया। यह जानने के बाद कि शाबान फिल्मों में प्रवेश के उद्देश्य से नृत्य सीखना चाहता है, उसने उसमें विशेष रुचि लेनी आरम्भ की और लगभग पन्द्रह-बीस मिनट के दौरान ही शाबान ने यह भाँप लिया कि युवती के इरादे नेक नहीं हैं। उसने नर्तक के शरीर का समूचा अंग विन्यास देखने की दृष्टि से परखना आरम्भ कर दिया और थोड़ी ही देर में यह संकेत भी दे दिया कि यह केन्द्र केवल नृत्य स्कूल नहीं है। आश्चर्य की बात यह थी कि इसी विद्यालय में लड़कियाँ भी नृत्य शिक्षा ले रही थीं। और नृत्य, विशेषकर फिल्मी नृत्यों के बहाने लडक़ों व लड़कियों को खुलेपन और शरीर सम्पर्क की पूरी छूट दी जाती थी। यहाँ तक कि शाबान को उस युवती ने ‘सूट’ करने वाले स्टेप्स सिखाने के बहाने एकांत में निर्वस्त्र तक कर दिया।
शाबान की इस जानकारी के बाद सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि उस मशहूर मॉडल के साथ क्या हुआ होगा। क्यों वह उत्तेजित होकर युवती की हत्या करने पर उतारू हो गया? आखिर वह भी शरीर-सौष्ठव की प्रतियोगिता जीतकर आया एक मशहूर मॉडल था, जो शरीर-प्रदर्शन को ही अपना व्यवसाय भी बना चुका था। उसके व्यक्तित्व के उसे भरपूर दाम मिल रहे थे। आखिर वजह क्या थी कि नृत्य विद्यालय में वह इतना आवेश में आ गया? और सबसे ज्यादा ताज्जुब की बात थी कि नृत्य विद्यालय की गतिविधियों या उस युवती की ओर न शाबान की ओर से अँगुली उठायी गयी और न ही इतना बदनाम हो जाने के बाद भी उस मशहूर मॉडल ने ही कुछ कहा। इन दोनों सुदर्शन व्यक्तित्व वाले महत्त्वाकांक्षी युवकों को आखिर कौन-सी बात ने चुप रहने पर विवश किया? यदि वे नृत्य विद्यालय में हुई इन हरकतों को सहज मानते थे तो नाराज होकर इन स्थितियों में क्यों पहुँचे कि एक ने प्रशिक्षण देने वाली युवती का गला दबा दिया और दूसरा वहाँ से नाराजगी लिये लौट आया?
शाबान से उसके इस सब अनुभव को जानने के बाद मुझे सहसा अरमान से शाबान के विषय में हुई बातचीत याद आने लगी। तो क्या अरमान का सोचना या कहना वास्तव में सही था? क्या शाबान का व्यक्तित्व किसी बड़ी नैसर्गिक कमजोरी का शिकार है अथवा उसके व्यक्तित्व में कोई अन्य पेचीदगी है, यह बात काफी समय तक मेरे सोच का केन्द्र रही।
दो दिन बाद अचानक अरमान व शाबान के पिता का फोन आया। वे दोनों भाइयों को तुरन्त गाँव वापस बुलाने पर जोर दे रहे थे। न जाने शाबान ने उनसे फोन पर क्या बात की और उन लोगों के बीच क्या कार्यक्रम तय हुआ, किन्तु उसी रात को एक वृद्ध-सा व्यक्ति हाथ में थैला लिये घर पर आ पहुँचा।
अरमान और शाबान ने उस व्यक्ति का बड़े उबाऊ ढंग से स्वागत किया और उसके परिचय के नाम पर मुझे इतना बताया कि यह गाँव में उनके पिता की डिस्पेंसरी का पुराना और निजी कम्पाउण्डर है और उनके पिता द्वारा भेजा गया है। मुझे बड़ा अजीब-सा लगा जब शाबान ने मेरी मौजूदगी में ही लगभग डाँटते हुए उसे कहा कि उसे यहाँ नहीं आना चाहिए था। मैंने शाबान को शिष्टाचारवश ऐसा करने से रोका और अनमने ढंग से उस बूढ़े व्यक्ति के ठहरने और भोजन का प्रबन्ध देखने में जुट गया।
वह व्यक्ति बहुत सीधा-सादा व उम्रदराज था। बातचीत होने पर उसने बताया कि शाबान के पिता बनारस से आये हुए उस रिश्ते के लिए शाबान की प्रतीक्षा में हैं जिस लड़की का फोटो कुछ समय पूर्व शाबान ने मुझे दिखाया था। उस वृद्ध ने बताया कि बनारस से लड़की के पिता कई बार शाबान के पिता से मिलने आ चुके हैं और शाबान के माता-पिता शाबान का रिश्ता वहाँ जोडऩे के लिए लालायित हैं। वस्तुत: जिस लड़की का फोटो शाबान ने मुझे दिखाया था, वह कोई सम्पन्न घराने की बेहद खूबसूरत लड़की प्रतीत होती थी; पर आश्चर्य की बात यह थी कि शाबान ने उस लड़की को अपने छोटे भाई अरमान के लिए पसन्द किया था। दिलचस्प बात यह भी थी कि आरती को अरमान अपने साथ विदेश से लाया था और चाहता था कि उससे शाबान का विवाह हो जाये। एक-दूसरे के लिए दोनों भाइयों का चुनाव न केवल उनके बीच दोस्ताना सम्बन्धों को प्रकट करने वाला ही था बल्कि एक जुनून की हद तक एक-दूसरे के निर्णयों में दखलअन्दाजी वाला भी था।
शाबान के गाँव से आये बूढ़े कम्पाउण्डर से मेरी काफी देर बातचीत हुई और शाम का खाना खा लेने के बाद जब सभी लोग घूमने के इरादे से बाहर निकलने लगे तो मैं बूढ़े से अकेले में बात करने की दृष्टि से घर पर ही ठहर गया। शाबान, आरती व अरमान तीनों बाहर चले गये। मैं इत्मीनान से कम्पाउण्डर के पास आ बैठा।
वह अगले दिन सुबह वापस लौटने का इरादा रखता था और विशेष रूप से दोनों भाइयों को साथ में ले जाने के लिए ही उनके पिता द्वारा भेजा गया था। वह बहुत पुराना आदमी था और शाबान के पिता के पास शुरू से ही काम करते रहने के कारण घरेलू सदस्य जैसा बन गया था। वह शाबान के जन्म से भी पहले से उनके परिवार के साथ काम कर रहा था और अब बेहद आत्मीयता से मुझे शाबान और अरमान के बचपन की कई बातें सुना रहा था। उसके रिश्ते अब उस परिवार से इस कदर जुड़ गये थे कि वह उन भाइयों के लिए पिता समान व्यवहार ही करता था। यद्यपि उन दोनों भाइयों की ओर से पर्याप्त आदर उसे मिलता मैंने अब तक न देखा था। कम्पाउण्डर का नाम अब्बास अली था।
अब्बास अली ने मुझे विस्तार से बताया कि डॉक्टर साहब अब इसी वर्ष दोनों बच्चों की शादियाँ कर देना चाहते हैं। उसने यह भी बताया कि शाबान के लिए जो रिश्ता आया है, वे लोग फिर से काफी जोर डाल रहे हैं।
अब्बास अली ने थोड़ी देर की आत्मीयता भरी बातों के बाद यकायक मुझे बड़े रहस्यमय ढंग से जानकारी दी कि शाबान शुरू से ही शादी से कतराता है। और अब्बास अली क्योंकि उसे बचपन में गोद खिला चुका है, वह उसके सभी रहस्यों से वाकिफ है। उसने बताया कि शाबान की पीठ व जाँघों पर दो-तीन सफेद बड़े-बड़े दाग हैं जिनके लिए उसे यह शुबहा है कि यह कहीं कोढ़ जैसी भयानक बीमारी के लक्षण तो नहीं हैं।
इसीलिए वह शादी से कतराता है और उसके मन में लाख समझाने के बावजूद यह एक शक बैठा हुआ है कि यह बीमारी लाइलाज है। वह बीमारी को लेकर हीन भावना का शिकार है।
मेरी समझ में एकाएक कई बातों के रहस्य खुलते हुए नजर आने लगे। लेकिन साथ ही मुझे इस बात पर आश्चर्य था कि शाबान का बचपन का ही मित्र होने पर भी मैं उसकी इस उलझन से अब तक नावाकिफ था। मैं यह तो कई बार देख चुका था कि शाबान बेहद संकोची स्वभाव का लड़का है और कपड़े पहनने-ओढऩे में हमेशा एक सलीका बरतता है। मैं इसे उसकी सुरुचि ही समझा करता था और सोचता था कि अपने बदन को लेकर, कपड़ों के प्रति सचेत रहना उसके शौक का एक हिस्सा है। वह हमेशा अच्छा पहनने-ओढऩे में विश्वास करता था और प्राय: टिप-टॉप रहता था। संभवत: वर्षों तक साथ रहने के बाद भी मैं उसके इस कष्ट या बीमारी के विषय में नहीं जान पाया।
शायद नृत्य विद्यालय की युवती द्वारा उसे शरीर प्रदर्शन करने को विवश करने पर उसकी उत्तेजना या क्रोध की भी यही वजह रही होगी कि शाबान ने पलटकर उस ओर रुख नहीं किया।
अब्बास अली ने इस बात की ओर इशारा भी किया कि शाबान अपने छोटे भाई अरमान को बेहद चाहता है और उसे लेकर ठीक उसी प्रकार चिन्तित रहता है जैसे कोई माँ अपने नवजात शिशु के लिए होती है। साथ ही वह बहुत भावुक और संवेदनशील लड़का भी है। अब्बास अली ने मुझ से भी लगभग विनती भरे स्वर में आग्रह किया कि मैं दोनों भाइयों को जल्दी ही गाँव भेज दूँ और शाबान को इस रिश्ते के लिए समझाने का भी प्रयास करूँ। क्योंकि उनके अनुसार शाबान का विवाह हो जाने के बाद ही अरमान के विवाह के लिए सोचा जा सकता था। बातों ही बातों में अब्बास अली ने यह भी जिक्र किया कि अरमान तो शादी के लिए तैयार है। वह पिछले दो-तीन सालों से अपनी सहमति का संकेत दे चुका है पर उनके पिता गाँव में मकान के पूरा हो जाने के बाद ही अरमान का विवाह करने के इच्छुक थे। अब्बास अली ने स्पष्ट किया कि उनके मकान में काफी पैसा लगा है और शाबान के पिता मकान पर आने वाले खर्च के बड़े भाग के लिए अरमान पर ही आश्रित थे, जो समय-समय पर बड़ी-बड़ी रकमें सऊदी अरब से भेज रहा था।
अब्बास अली ने जब इस तर्क की व्यावहारिकता भी मुझे समझाने की चेष्टा की तो मुझे बलात बात बदलनी पड़ी क्योंकि मैं शाबान के पिता के प्रति पर्याप्त आदर और श्रद्धा रखता था।
अब्बास अली अगले दिन वापस लौट गये। मैंने उन्हें यथासम्भव आश्वस्त किया कि मैं शाबान की इस हीन ग्रंथि को निकालकर उसे समझाने का प्रयास करूँगा। अब्बास अली की बातों से मुझे यह भी पता चल गया था कि शाबान के पिता या परिवार के किसी अन्य सदस्य को आरती के बारे में अभी कोई जानकारी नहीं है। अरमान ने भी वहाँ किसी को अब तक कुछ नहीं बताया था।
मेरे दिमाग में अब्बास अली की बात घर कर गयी और मैंने पहले यह टोह लेने का निश्चय किया कि शादी के लिए शाबान की अनिच्छा क्या वास्तव में उसके शरीर की वही बीमारी है अथवा अन्य कोई कारण? संयोग से ऐसा अवसर भी मुझे दो-तीन दिन में ही मिल गया जब मैं शाबान से कुछ पूछे बिना इस बारे में जान सकूँ।
हम लोग शाम को कमाल के साथ राज्याध्यक्ष साहब के दफ्तर से वापस आ रहे थे। शाम के लगभग पाँच बजे का समय था। आरती तो घर में ही थी। मैं, शाबान, अरमान और कमाल ही आ रहे थे। रास्ते में थोड़ी देर बीच में जुहू पर ठहरने का कार्यक्रम बन गया। कमाल ने गाड़ी ‘सन एण्ड सैंड’ के पीछे वाली लेन में लगा ली और हम लोग उतरकर पैदल ही समुद्र के किनारे-किनारे रेत पर चलने लगे। शाम का समय होने से जुहू पर भीड़ बढऩे लगी थी। खाने-पीने की दुकानें ग्राहकों से आबाद होने लगी थीं। भीड़ से बचने की गरज से हम लोग अँधेरी की ओर बीच पर बढ़ते चले गये। इस समय समुद्र ज्वार की स्थिति में था और फेनिल पानी किनारों पर बड़ी-बड़ी लहरें फेंक रहा था। दूर जगह-जगह पर लोग पानी में नहाने का आनन्द ले रहे थे।
मैंने भी साफ-सा किनारा देखकर थोड़ी देर समुद्र में नहाने की इच्छा जाहिर कर दी। अरमान भी तुरन्त तैयार हो गया। हमें देखकर थोड़ी-बहुत ना-नुकुर करने के बाद कमाल भी तैयार हो गया। परन्तु शाबान ने साफ मना कर दिया।
हम तीनों ने झटपट अपने कपड़े उतारे और समुद्र की लहरों की ओर बढ़ गये। हम तीनों ने ही शाबान पर बहुत जोर डाला पर वह नहाने के लिए तैयार नहीं हुआ। अरमान मजाक में बोला—‘‘भाईजान, कपड़े उतारने में शरम आ रही है तो ऐसे ही आ जाओ। तेज हवा चल रही है, अभी सूख जायेंगे।’’
मैंने सोचा, कहीं अरमान की बात पर शाबान नाराज न हो जाये, इसी से मैं भी बोल पड़ा—‘‘शरम क्यों आयेगी! बीच पर ढेरों लड़कियाँ तक नहा रही हैं।’’
‘‘इसीलिए तो शरमा रहे हैं।’’
‘‘नहीं-नहीं, तुम लोग नहाकर आओ। मैं यहाँ तुम्हारे कपड़ों की रखवाली कर रहा हूँ।’’ अब शाबान झेंप मिटाते हुए बोला।
शाबान वहीं बैठने लगा। एक बार कमाल ने भी जोर डाला—‘‘कपड़े कोई नहीं ले जाता। यहाँ आओ, जरा फ्रेशनेस आ जायेगी।’’
‘‘नहीं, आप लोग जाइये।’’ कहकर शाबान वहीं ठहर गया।
हम लोग लहरों में तैर-तैरकर नहाते रहे। बार-बार उतरते पानी में रेत में बदन लिपटता, फिर लहर आकर धो देती। खारे पानी में नहाने से बदन चिपचिपा और नमकीन-सा हो गया था, फिर भी शाम के समय यहाँ नहाना बहुत भला लग रहा था। लगभग बीस मिनट नहाकर हम लोग वापस आये। हम नहाने की तैयारी से नहीं गये थे इसलिए हमारे पास कपड़े, तौलिये आदि भी नहीं थे। इसलिए वहाँ तेज हवा में थोड़ी देर बैठकर बदन ऐसे ही सुखाना पड़ा और फिर गीले जाँधियों पर ही पैंट-कमीज चढ़ा-चढ़ाकर हम लोग वापस लौटे।
स्टियरिंग पर बैठते ही कमाल ने कनखियों से बगल में बैठे शाबान की ओर देखते हुए कहा—‘‘आप नहीं नहाये?’’
‘‘मुझे थोड़ी झिझक लगती है ऐसे में।’’
‘‘अरे, ऐसी बात थी तो कपड़े पहनकर नहा लेते।’’ कमाल ने कहा।
रास्ते में एक जगह सिगरेट की डिब्बी लेने के लिए कमाल ने गाड़ी रोकी। मैं और अरमान पीछे की सीट पर थे। अरमान सिगरेट लेने के लिए दरवाजा खोलकर बाहर निकल लिया। वह सड़क पार करके सामने बनी छोटी-सी दुकान की ओर बढ़ गया। मौका देखकर कमाल ने शाबान से कहा—
‘‘राज्याध्यक्ष साहब के सामने मत झिझकना कभी।’’
शाबान मेरी ओर देखने लगा। उसे अचरज-सा हुआ, जैसे वह बात का आशय समझ न पाया हो। फिर कमाल ने ही खुलासा किया—
‘‘हाँ, राज्याध्यक्ष साहब तो इन्टरव्यू के समय लड़कियों तक से कपड़े उतरवा लेते हैं, कभी-कभी।’’
शाबान कुछ नहीं बोला। मौका देखकर मैंने भी कमाल का पक्ष लिया। मैं बोला— ‘‘हाँ, एक दिन तो मेरे सामने ही राज्याध्यक्ष साहब ने एक लड़की से एकदम सवाल कर दिया था—ब्रॉ कौन-सी पहनती हो। लड़की एक पल को सकपकाई थी मगर तुरन्त ही सँभलकर उसने जवाब दिया था। लड़की का चेहरा शर्म से लाल हो गया था।’’
‘‘उन्होंने तो कपड़े तक उतरवा लिये हैं।’’ कमाल ने जोड़ा।
शाबान अचरज से हम लोगों को देखता रहा, बीना कुछ नहीं। ट्रिपल फाइव के दो पैकेट हाथ में लिये अरमान पलटकर आया तो गाड़ी चल पड़ी।
अगले दिन सुबह आरती की डॉक्टर के पास जाना था। अरमान उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गया। मैं भी पास के एस.टी.डी. बूथ से एक-दो फोन करने के इरादे से उन लोगों के साथ ही निकल गया। हम लोग शाबान से एक घंटे में लौटने की बात कहकर गये। तुकाराम भी पास की चक्की पर आटा पिसवाने के लिए गया हुआ था। शाबान घर में अकेला रह गया।
हम लोग पैदल चलते हुए कुछ दूर गये कि एक ऑटो रिक्शा मिल गया। आरती और अरमान उसमें बैठकर निकल गये। मैंने जेब में हाथ डाला तो देखा कि मैं टेलीफोन डायरी घर पर ही भूल आया हूँ। मैं पलटकर घर लौट लिया। घर के बाहर आते ही न जाने मुझे क्या सूझा कि मैंने कॉलबेल नहीं दबाई; बल्कि जेब में पड़ी फ्लैट की दूसरी चाबी से बाहर से लैच खोल लिया। दरवाजा ठेलकर मैं भीतर आया तो कमरे के दरवाजे पर भीतर की ओर शाबान को खड़े पाया और मुझे वह अवसर मिल गया कि मैं शाबान की बीमारी के विषय में जान सकूँ। दरअसल, शाबान सामने केवल एक छोटी-सी लंगोट पहने हुए खड़ा था और उसके हाथ में एक चौड़े मुँह की शीशी थी जिसमें कोई काला-सा गाढ़ा द्रव भरा हुआ था। शाबान के दूसरे हाथ में नायलॉन का एक ब्रश था जिससे वह गाढ़ा द्रव शाबान अपनी जाँघों पर लगा रहा था। मुझे देखते ही शाबान बुरी तरह चौंक पड़ा। उसके हाथ से ब्रश छूटकर नीचे गिर गया और फर्श पर दो-तीन काले धब्बे से बन गये।
‘अरे!’ मैंने भी चौंकते हुए शाबान को इस अवस्था में खड़े देखकर आश्चर्य प्रकट किया। मैंने कहा—‘‘ये क्या हो गया तुम्हें?’’
शाबान हड़बड़ा गया और उसकी समझ में एकाएक न आया कि क्या करे। वह बैठकर अखवार के एक फटे टुकड़े से फर्श को रगडऩे लगा। मैं सहज होकर उसके समीप गया और उसकी जाँघ पर बने सफेद और कहीं-कहीं से लाल पड़े चकत्तों को देखने लगा। शाबान कुछ न बोला, उसी तरह चुपचाप खड़ा रहा।
‘‘क्या दवा लगा रहे थे?’’ मैंने भरसक सहज होते हुए पूछा। मैंने जरा भी यह प्रकट नहीं किया कि मैं उसके घावों को देखकर कोई घृणा या अचरज कर रहा हूँ। निहायत ही सहजता से मैंने उसके हाथ से शीशी लेते हुए कहा—‘‘लाओ, मैं लगा दूँ।’’
‘‘यह दवा नहीं है।’’ शाबान बोला।
‘‘फिर?’’
‘‘यह रंग है। स्किन का। मैं इसे पेण्ट करता हूँ।’’ शाबान ने सपाट आवाज में कहा। फिर बोला—‘‘दवा तो रात को लगाता हूँ।’’
‘‘मगर पेण्ट क्यों?’’
‘‘हाँ, इससे दिखायी नहीं देते।’’
‘‘इनमें तुम्हें दर्द होता है?’’ कहते हुए मैंने उसकी जाँघ पर थोड़ा-सा दबाया। वह अविचलित खड़ा रहा।
‘‘दर्द तो नहीं होता, कभी-कभी खारिश-सी होती है। कहते हुए शाबान बेबस-सा मेरी ओर देखने लगा।
मैं हल्के हाथ से उसके शरीर पर वह पेण्ट लगाता रहा। दो-तीन दाग पीठ की ओर भी थे। आगे जाँघ वाला काफी फैला हुआ था। उन पर रंग लगाने से वे काफी हद तक छिप गये थे। शाबान कपड़े को हटाकर धीरे-धीरे घाव को सहलाता रहा।