रेत होते रिश्ते - भाग 2 Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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रेत होते रिश्ते - भाग 2

मैं सकपकाया। लेकिन तुरन्त ही संभलते हुए मैंने कहा—
‘‘वह मुझे निश्चित जगह पर मिलेगा सुबह।’’
‘‘आपको इस समय नहीं पता कि वह कहाँ है?’’
‘‘बिलकुल नहीं।’’
‘‘उसका फोन नम्बर भी नहीं है आपके पास?’’
‘‘मैंने कहा न, नहीं है। सुबह वह खुद हमसे मिलने वहाँ आयेगा और तब हम अपने ही साथ उसे ले आयेंगे।’’
‘‘लेकिन ऐसा हो कैसे सकता है, सारी शाम आप उसके साथ थे और आपने उससे पूछा तक नहीं कि रात को वह कहाँ रहेगा।’’
‘‘फिर वही बात!’’ अब मैं थोड़ा झल्लाने लगा था। बोला—
‘‘तुम बच्चों जैसी जिद क्यों पकड़े हुए हो? मुझ पर यकीन करो। जो कुछ हमने किया है वह वही था जो ‘जरूरी’ था। यदि इस स्थिति में हमारी जगह तुम भी होते तो वही करते जो हमने किया है।’’ मैंने अनजाने में ही ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का इस्तेमाल किया था और इस भूल का जो बिम्ब मुझे उसकी आँखों में दिखायी दिया वह बड़ा कँटीला था। उससे अनजाने ही रात के वे बारीक तन्तु कट गये जो रात को बीतने से रोके हुए थे।
वह कपड़े बदलकर, बत्ती बुझाकर मेरे पास आ लेटा और अँधेरे में मेरे दिमाग के उजाले और ज्यादा साफ हो गये। वह तो तुरन्त सो गया, लेकिन मुझे नींद नहीं आयी। मैं बहुत देर तक जागता रहा। सारी बात पर फिर से सोचता रहा। घटना के तालाब में अपनी परछाईं फिर से मैंने देखी।
शाबान को मेरे पास आये पन्द्रह दिन हो चुके थे। ये पन्द्रह दिन उसने किस तरह बिताये, यह मैं ही जानता था। मैं तो सवेरे नौ बजे घर से निकल जाता था। जब तक मैं निकलता तब तक वह बिस्तर में ही होता था और इस तरह होता था कि जैसे वह बस बिस्तर के लिए ही बना हो। मुझे लगता कि शाम को जब मैं घर वापस आऊँगा तब यह इसी तरह बिस्तर पर मिलेगा। लेकिन ऐसा होता नहीं था। जब मैं लौटता तो कमरे की काया-पलट मिलती। हर चीज़ साफ-सुथरी, करीने से रखी हुई। हल्के-फुल्के रंग-बिरंगे कपड़ों में मेरी मेज पर बैठा अपनी डायरी में कुछ लिखता हुआ शाबान। रसोई में चाय के बरतनों की खनक और ताजा खुले टी.वी. की आवाज। घर में मेरे घुसते ही वह फुर्ती से उठ खड़ा होता और पूछता—‘‘क्या हुआ? कोई खबर मिली?’’—‘‘नहीं।’’ मेरे कहते ही वह जैसे किसी संन्यासी-सा वीतरागी हो जाता। वापस टी.वी.के सामने जा बैठता और मेरे चाय के कप को मेरी ओर बढ़ाकर चाय पीने लग जाता। काफी देर तक हम दोनों के बीच चुप्पी रहती। फिर दिन की किसी घटना से मैं ही बात की शुरुआत करता। वह बातों में डूबता जरूर था लेकिन बीच-बीच में उसकी आँखों में ऐसा खालीपन उतर आता कि मैं अजीब-सी संवेदना से भर जाता। जैसे तालाब में तैरती-अठखेलियाँ करती बत्तख पानी को झटकारकर अपनी गरदन पानी से बाहर निकालती है और उसकी गरदन जब बाहर निकलती है तो वह बिलकुल सूखी होती है। ठीक उसी तरह शाबान भी मेरी बातों के बीच से कभी-कभी असंपृक्त-सा होकर आँखें ऊपर उठाता था। मैं परेशान हो जाता था। मैं स्वयं अखबारों या समाचारों की बातें करते समय खाड़ी युद्ध के किसी भी जिक्र से बचने की कोशिश करता किन्तु शाबान यह भी ताड़ जाता कि मैं क्या ‘न’ कहने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं उघड़ जाता।
शाबान जेद्दाह में काम कर रहे अपने छोटे भाई अरमान को लेकर चिन्तित था। अरमान दो-तीन साल पहले एक अस्पताल की नौकरी के लिए सऊदी अरब चला गया था। अरमान का करार शुरू में तीन साल के लिए था लेकिन वह शुरू से ही इस तबीयत का था कि उसकी इच्छा बाहर के किसी देश में बस जाने की थी वह बात करते समय ‘भारत’ का इस्तेमाल अपने देश की जगह ‘एक देश’ के रूप में ही किया करता था। लेकिन अरमान बहुत जिन्दादिल आदमी था। आदमी क्या, बल्कि आदमी बनने की प्रक्रिया में एक नवयुवक ही था, जिसके विचार कच्चे नहीं, बल्कि सौंधे थे। वह जब यहाँ आता तो वहाँ की बहुत-सी बातें मुझे बताता और जब चला जाता तो बहुत याद आता था। असल में वह इस तरह का लडक़ा था कि जिससे बातें करते समय आदमी के लिए विचारों का उतना महत्त्व नहीं रहता जितना स्नेह-सम्बन्धों का। ऐसा व्यक्ति यदि आपके सामने डकैत बनकर भी आये तो आप डरते-खीजते नहीं हैं बल्कि डकैत-जीवन की विडम्बनाएँ-संवेदनाएँ आपके सामने उजागर हो जाती हैं। आप उन विवशताओं पर सोचने लगते हैं जिनके चलते कोई व्यक्ति डकैत बन जाता है।
यही अरमान अब हिन्दुस्तान आने वाला था। आज से लगभग एक महीने पहले उसका फोन मेरे पास आया था कि वह अगले महीने भारत आ रहा है। पर आने की सही तारीख उसने सूचित नहीं की थी। कहा था कि वह फोन करके अपने आने की तारीख और जहाज का वक्त बाद में बतायेगा। यही खबर मैंने खत के जरिये शाबान को दी थी और उसे लिख दिया था कि अरमान को बम्बई में ही लेने के लिए वह यहाँ आ जाये। थोड़े दिन हम लोग साथ-साथ रहेंगे, फिर उसे लेकर वापस गाँव लौट जाने की बात थी।
शाबान पिछले पन्द्रह दिन से यहाँ था।
शाबान की खासियत यह थी कि वह जब जिस काम में होता था, तब बस उसी काम में होता था। यही कारण था कि पिछले दिनों वह केवल अरमान के इन्तजार में था। वह हर शाम जब अगली सुबह के लिए नाश्ता व साग-भाजी लेने जाता तो यही सोचकर सामान लाता था कि अगली सुबह अरमान भी हमारे साथ होगा। यहाँ तक कि पिछले इतवार को तो उसने अरमान के लिए खाना तक बनवाकर रख लिया था। वह खाना फिर शाम को मेरे नौकर के काम आया।
अरमान ने खत में लिख दिया था कि वह अपने आने की सूचना अपनी फ्लाइट तय होते ही अवश्य दे देगा। उसका फोन मेरे दफ्तर में ही आया था। सऊदी अरब से आने वाले उस फोन के बाबत मेरे साथी लोग भी जानते थे। इसी से बाहर से मेरे नाम पर आने वाले हर फोन को मुस्तैदी से सुनने के लिए उनमें भी उतावलापन होता था। खाड़ी युद्ध की हलचलों ने यहाँ भी सभी को उस शख्स से जोड़ दिया था जो ऐसे में स्वयं साक्षात सऊदी अरब से यहाँ आ रहा था। लेकिन न अरमान की खबर आती और न ही मैं घर लौटकर शाबान को खुश करने की अपनी कामना पूरी कर पाता। दिनभर के उसके इन्तजार पर शाम को पानी फेरते हुए मैं भी अजीब तरलता में सन जाता था। इसी से रोज कहीं-न-कहीं घूमने का हमारा इरादा हो जाता और हम शाम को घर से बाहर बम्बई के किसी इलाके में निरुद्देश्य भटकने के लिए निकल पड़ते।
अच्छी तरह घूम-भटककर हम लौटते, खाना खाते और दोनों ही इस बात पर चिन्ता करते रह जाते कि आखिर इस बार उसे आने में इतनी देर क्यों हो रही है, प्राय: वह समय की पाबन्दी और कार्यक्रमों की नियमितताओं का पालन किया करता था।
अकसर एक खास उम्र के बाद भाइयों या भाई-बहनों के बीच इस तरह का लगाव नहीं रह पाता। रह भी जाता हो तो वह दिखायी नहीं देता। दुनियादारी और रिश्तों की अन्य परतें उन्हें ढक लेती हैं। लेकिन यहाँ इस मामले में दो बातें थीं। एक तो यही कि अरमान अकेला परदेश में जा बसा था। दूसरी यह कि शाबान थोड़ा भावुक किस्म का भी था। उसकी निगाह में अरमान अभी भी उसका छोटा भाई ही था और शाबान मन से जब अपने को अभी तक बड़ा हुआ स्वीकार नहीं पाता था तो भला छोटे भाई को बड़ा हुआ कैसे मान लेता!
इसके अलावा एक बात और थी। वह भी शाबान के लिए खासा महत्त्व रखती थी। पिछले दिनों शाबान के लिए बनारस की एक लडक़ी का रिश्ता आया था। लडक़ी के पिता बनारस में डॉक्टर थे। उनके तीन लड़कियाँ थीं, जिनमें से दो की शादी हो चुकी थी। यह लडक़ी सबसे छोटी थी। बी.ए. कर चुकी थी और अब घर में ही थी। लडक़ी बेहद खूबसूरत थी। शाबान ने एक बार उसका एक फोटो मुझे भी दिखाया था। लडक़ी वास्तव में बहुत ही सुन्दर थी। उसकी आँखें इस तरह की थीं कि उन्हें देखकर आप लडक़ी से कोई और बात न पूछ पायें और न बता पायें। तसवीर तक में एक अजब-सी कोमलता व्याप रही थी। लडक़ी की जैसे गन्ध तक तसवीर में उतर आयी हो।
लेकिन शाबान के मन में न जाने क्या था। अपने पिता को उसने इस बार भी वही जवाब दिया जो पिछले सभी मामलों में वह अब तक देता आ रहा था। इस बार तो मैंने भी शाबान को समझाया था कि इससे अच्छी लडक़ी फिर तुझे नहीं मिलेगी। लेकिन शाबान की नजर में न जाने लडक़ी की अच्छाई की क्या परिभाषा थी। वह तैयार नहीं था। यहाँ तक कि उसके पिता ने काफी कोशिश की उसे मनाने की। मुझे भी एक बार खत लिखा कि उसका मन टटोलकर देखा जाये। शाबान मेरा मित्र ही नहीं, बल्कि मेरे लिए भाई जैसा था। हर तरह की बातचीत करता था। हम काफी खुले तौर पर बातचीत करते थे। पर बस यहाँ, इसी मुद्दे पर हमारी राय अलग-अलग रह जाती थी। वह कहता था कि फिलहाल अभी वह शादी करने की स्थिति में नहीं है जबकि हालत यह थी कि उसके छोटे भाई अरमान तक के लिए रिश्ते आने शुरू हो गये थे।
बनारस का यह रिश्ता एक रिश्तेदार के माध्यम से ही आया था और इस बार किसी को भी ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता था कि इसे अस्वीकार किया जाये। लेकिन शाबान ने न जाने मन में क्या ठान रखी थी।
मैंने शाबान से एक बार पूछा था कि यदि उसे इस रिश्ते से इनकार ही है तो वह लडक़ी का फोटो साथ में लिये क्यों घूम रहा है। और तब शाबान ने सारी बात बतायी थी। लड़कियों के बारे में पत्थरों के ढेर सरीखे सख्त विचार रखने वाला शाबान भी यह मानता था कि इस लडक़ी को देखकर कोई भी लडक़ा शादी से इनकार नहीं कर सकता। लेकिन शाबान चाहता था कि इसका रिश्ता अरमान के लिए स्वीकार कर लिया जाये। उसने मन-ही-मन यह फैसला कर लिया था कि वह अरमान के आने के बाद उसे लेकर बनारस जायेगा।
मुझे उसकी बात सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ था और यही कारण था कि अब शाबान अरमान की प्रतीक्षा में कुछ ज्यादा ही बेसब्री से था। उसे इस बात का सन्तोष नहीं था कि वह अरमान के लिए कोई अच्छा रिश्ता ढँूढ़ लाया है बल्कि उसे अपने रास्ते में आये इस मौके से इस खूबसूरती से निजात पानी थी कि किसी का दिल भी न दुखे और बात भी रह जाये। इसी सबके चलते पिछले दस-पन्द्रह दिनों से उसकी जिन्दगी किसी हलचल के इन्तजार में थी।
और आज शाम को चार बजे जब मैं अपने ऑफिस में बैठा हुआ शाम की डाक से आयी एक चिट्ठी पढ़ रहा था तब अचानक फोन आया। फोन उठाते ही अरमान की आवाज मैं पहचान गया। लेकिन आश्चर्य हुआ कि अरमान का फोन सऊदी अरब से नहीं, बल्कि यहीं बम्बई से आया था। वह बम्बई आ पहँुचा था। उसने बताया कि उसे अचानक प्लेन का टिकट मिला और उसे फोन कर पाने का मौका ही नहीं मिला। वह एयरपोर्ट से ही बोल रहा था।
मुझे अरमान के आने की जितनी खुशी हुई थी, उससे कहीं ज्यादा इस कल्पना में आनन्द आ रहा था कि आज घर लौटकर मुझे शाबान को मायूस नहीं करना पड़ेगा। आज ही सुबह शाबान ने घर से चलते वक्त मुझसे कहा था—‘‘आज अरमान अवश्य आ जायेगा, क्योंकि अब परसों ईद है और इससे पहले वह किसी भी सूरत में घर पहुँचना ही चाहेगा।’’
और अरमान आ गया था। मैंने फोन पर अरमान से कहा—
‘‘मैं एयरपोर्ट पहुँच रहा हूँ।’’ लेकिन मेरी जल्दबाजी से शायद अरमान को थोड़ी हिचकिचाहट हुई। वह एकाएक बोला—
‘‘भैया, आप एयरपोर्ट मत आइये। आप अपना दफ्तर पूरा कर लीजिये। मैं शाम को आपको मिलता हूँ।’’
‘‘क्यों, अभी क्या कर रहे हो तुम? एयरपोर्ट पर इतनी देर क्या करोगे?’’ मैंने कहा।
भैया, मेरे साथ दो-एक दोस्त भी हैं। इनकी रात को फ्लाइट है। इन्हें छोडऩा है। हम पास ही एक होटल में जा रहे हैं।’’
‘‘कौन-सा होटल, मुझे बताओ, मैं वहीं आ जाता हूँ?’’
‘‘आप...आप...अच्छा, मेट्रो के पास आशियाना में आ जाइये।’’
‘‘लेकिन मेट्रो तो एयरपोर्ट से काफी दूर है। वहाँ क्यों जा रहे हो?’’
‘‘मेरे दोस्तों को वहाँ कुछ काम है। इसी से उधर जा रहे हैं।’’
‘‘ठीक है, मैं आधा घंटे में पहुँचता हूँ।’’ मैंने उतावली और अपनेपन के मिले-जुले स्वर में कहा।
‘‘नहीं, भैया। अभी हमें यहाँ सहार पर थोड़ी देर लगेगी। दो-एक काम हैं। हम आठ बजे तक वहाँ पहुँचेंगे। आप आराम से ऑफिस के बाद ही वहाँ आ जाइये।’’
‘‘लेकिन...लेकिन...’’ मैं असमंजस में था।
‘‘हाँ, मैं मिलने पर आपको सब बताऊँगा। आप आठ बजे...’’
‘‘पर शाबान...’’
‘‘क्या शाबान भाई आपके साथ हैं अभी?’’ उसे आश्चर्य हुआ।
‘‘नहीं, वह घर पर ही इन्तजार कर रहा है तुम्हारा। शाम को वह राह देखेगा।’’
यह सुनते ही उसे जैसे इत्मीनान हुआ कि शाबान अभी यहाँ नहीं है। वह बोला—‘‘भैया, मैं आपको बाद में बताता हूँ। आप पहले होटल में मिलिये।’’
‘‘अच्छा, ठीक है, मैं शाम को आठ बजे के आसपास पहुँचता हूँ। सब खैरियत तो है न?’’
‘‘हाँ, सब ठीक है भैया, आप किसी तरह की चिन्ता मत कीजिये।’’
मुझे लगा कि अरमान किसी उलझन में है। तभी शायद उसने यह भी नहीं सोचा कि शाम को दफ्तर से छूटने के बाद आठ बजे तक यहाँ क्या करूँगा, घर यहाँ से इतनी दूर था कि मैं न तो घर जाकर ही होटल पहुँच सकता था और न शाबान को किसी तरह खबर कर सकता था। वह बेचारा शाम होते ही वहाँ राह देखता बैठा रहेगा और मैं आठ बजे अरमान के पास पहँुचँूगा तो घर पहुँचने में दस बजेंगे। मुझे ताज्जुब था कि अरमान ने इतनी देर से आने के लिए कहा और यह भी आग्रह नहीं किया कि मैं शाबान को लेकर आऊँ या किसी तरह उसे खबर कर दूँ; बल्कि उसने तो मुझसे यह पूछकर उल्टे इत्मीनान किया कि शाबान कहीं मेरे साथ तो नहीं है।
अरमान ने रात को आठ बजे मिलने के लिए कहा था पर मैं लगभग साढ़े छ: बजे ही दफ्तर से निकल लिया। शाबान तो घर पर बोरिवली में था। उसे खबर नहीं दी जा सकती थी। अत: जल्दी अरमान के होटल में पहुँचने की कोशिश में मैं मेट्रो की ओर चल पड़ा। मरीन ड्राइव पर पैदल ही कुछ देर टाइम पास करने के बाद मैंने एक जगह चाय पी और पैदल ही मेट्रो की ओर चल पड़ा।
मेट्रो सिनेमा के सामने मस्जिद के नजदीक आया तो सहसा आशियाना होटल के बोर्ड पर निगाह पड़ी। इस समय तक केवल साढ़े सात बजे थे। यद्यपि अरमान ने कहा था कि वह आठ बजे तक होटल में पहँुचेगा, फिर भी मैं होटल में दाखिल हो गया। काउंटर पर जाकर पूछा तो एक आदमी ने कमरा नम्बर 204 की ओर इशारा कर दिया। अरमान कमरे में ही है, यह जानकर मैं आश्वस्त हुआ और उस तरफ बढ़ गया। हल्की-सी दस्तक देते ही कमरा खुल गया।
कमरा अरमान ने ही खोला। सहसा वह मुझे देखते ही थोड़ा हड़बड़ाया किन्तु फिर सहज होकर मेरी ओर बढ़ा और ‘आइये भैया’ कहता हुआ एक ओर को हट गया।
मैं भीतर दाखिल हो गया और एक पल में ही सारा माजरा भाँप गया। थोड़ा संकोच भी हुआ। अरमान के साथ कमरे में एक युवती भी थी और वे दोनों होटल के कमरे में एक ही बिस्तर पर लेटे आराम कर रहे थे। लडक़ी गर्भवती थी, जो मुझे देखते ही उठने की कोशिश में बिस्तर पर जरा अधलेटी हुई। लडक़ी के हिलने पर भी उसके नजदीक चादर की वह गोलाई उसी तरह से बनी हुई थी जहाँ से अरमान अभी-अभी उठा था। लडक़ी के चेहरे पर झेंप के चिह्न थे। उसने गले तक चादर खींच ली। अरमान का ध्यान भी अपने कपड़ों पर गया। उसे एक छोटी-सी सफेद ब्रीफ में पूरे खुले बदन एक ही बिस्तर में लडक़ी के साथ देखकर सोचने के लिए ज्यादा कुछ रह नहीं गया था। मैं नजरें झुकाये अपराधी-सा बैठा रहा।
लडक़ी उठी और बाथरूम में चली गयी। अरमान ने भी खँूटी पर टँगा गाउन उतारकर लपेटा और फोन पर तीन कॉफी का आर्डर होटल के कैफेटेरिया में देकर सहजता से मेरे समीप आ बैठा।
‘‘कैसे हैं, भैया?’’ कहकर उसने स्वयं ही अपनी यात्रा की परेशानी और अनिश्चय की स्थिति पर बोलना शुरू कर दिया। क्यों वह पहले आने की सूचना न दे सका, क्यों वह एयरपोर्ट से यहाँ आया, आदि वह अपने हिसाब से जल्दी-जल्दी बताता रहा। पर मेरा ध्यान इस बात में था कि लडक़ी अभी तक बाथरूम से बाहर नहीं आयी थी। शायद वह शावर-बाथ ले रही थी। इस बीच अरमान और मुझे बातचीत का काफी अवसर मिल गया। एकांत देखकर अरमान ने मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया और जल्दी-जल्दी बोला—
‘‘बहुत चुपचाप हैं, भैया....’’
‘‘चुपचाप मैं हूँ? हम तो कब से तुम्हारी राह देख रहे हैं। तुम मिले भी तो इस तरह नंगे कि गले भी ठीक से नहीं मिल सके।’’ मैंने जरा व्यंग्य से कहा।
‘‘भैया, आप तो मेरे भाई भी हैं और दोस्त भी...लेकिन शाबान भाई सिर्फ भाई हैं...वह मुझे नहीं समझेंगे।’’
मेरे मन में आया कि इसे इसी वक्त यँू ही छोडक़र चला जाऊँ। लेकिन यह सम्भव नहीं था। मैं देखता रहा कि वह किस तरह सफाई से बड़ी-बड़ी बातें बोलना सीख गया है। यह वही अरमान था जिसने कभी अपने चेहरे की पहली शेव मेरे शेविंग बॉक्स से, मुझसे निर्देश ले-लेकर बनायी थी।
कॉफी आ गयी थी। अरमान ने एक प्याला मेरी ओर बढ़ाया और दूसरा उसी की प्लेट लेकर उससे ढक दिया। तीसरा अपने हाथ में लेकर धीरे-धीरे पीने लगा।
‘‘लेकिन अरमान, तुम अभी घर नहीं चलोगे तो सोचो, मैं शाबान को क्या जवाब दँूगा। वह बेचारा दो सप्ताह से एक-एक दिन तुम्हारे इन्तजार में काट रहा है।’’
‘‘भैया प्लीज! आज आप कैसे भी उन्हें बहला लेना। कल सुबह मैं आ जाऊँगा। सुबह छ: बजे हैदराबाद की फ्लाइट से इसे छोडऩा है, फिर मैं घर ही चलूँगा।’’
‘‘मगर तुम इन्हें भी पर क्यों नहीं ले चलते?’’ यह कहते हुए मुझे अपनी बात में थोड़ा आत्मीयता भरा शिष्टाचार घोलना पड़ा क्योंकि इसी बीच बाथरूम का दरवाजा खोलकर वह भी बाहर आ गयी थी और अब गीले बालों को तौलिए में लपेटते मेरे करीब कॉफी का कप लेकर आ बैठी थी। उसने अब सहज हो जाने के बाद एक बार फिर अभिवादन किया था मुझे, और मुझे उसका चेहरा किसी ताजा नागपुरी सन्तरे की तरह रस-भरा लगा।
चेहरे पर अपरिचय या विस्मय के भावों ने अब अपनेपन का रूप अख्तियार कर लिया था और वह भी बातों ही बातों में मुझसे घुल-मिल गयी थी। अरमान ने उसे मेरा परिचय भी बड़े भाई और दोस्त ही कहकर दिया था। इससे लडक़ी उत्साहित होकर बेहद अपनत्व से बात कर रही थी। शायद भारत की जमीन पर अरमान के पहले परिचित या मित्र के रूप में मुझे पाकर वह अपना सारा संचित स्नेह मेरे सामने ही उड़ेल रही थी। मेरा ऐसा-वैसा सोचना सब छिन्न-भिन्न होकर तिरोहित हो गया था। मैं भी मुग्ध-सा उसकी बातों में रस लेने लगा था। वह बातों ही बातों में रास्ते के सफर की थकान और परेशानियों का जिक्र ठीक उसी तरह कर रही थी जैसे रिश्तेदारों से मिलने पर बताया जाता है।
अरमान बीच-बीच में दो-चार शब्द बोलकर उसकी बातों को पूरा कर रहा था। दोनों मुझे बेहद भोले और पवित्र-से लगे।
और यही कारण था कि सिर्फ एक शाम के लिए मैं शाबान को भी धोखा देने के लिए तैयार हो गया था और अरमान के कहने पर मैंने आज उसके आ जाने की बात गुप्त ही रखने की स्वीकृति दे दी। दो दिन बाद ही ईद होने के कारण शायद अरमान अपने भाई या परिवारवालों का मूड खराब नहीं करना चाहता था इसी से उसने इस बात को छिपाने का निर्णय किया होगा।
कॉफी पीकर, उन दोनों की जरूरत-दिक्कत पूछकर मैं वहाँ से निकल लिया। तय हुआ कि सुबह आठ बजे शाबान को लेकर एयरपोर्ट पर मिलूँ और तभी अरमान के आने की बात जाहिर की जाये।
लगभग पौने नौ बजे मैं होटल से निकला तो मन में अजीब विचार आ-जा रहे थे। घर पहुँचा तो दस बज चुके थे। नौकर खाना बनाकर व काम निबटाकर जा चुका था। शाबान दरवाजे पर कुर्सी डाले बैठा हुआ था और ट्रांजिस्टर पर गाने सुन रहा था। मेरे पहुँचते ही उसने मेरे चेहरे पर कुछ ढँूढऩे की कोशिश की और उसके बाद इस तरह खाना परोसने में लग गया जैसे कुछ हुआ ही न हो। मुझे बेहद दु:ख हो रहा था पर मैं उसे कुछ बता नहीं सकता था क्योंकि मैं अरमान को आश्वस्त कर आया था।
हम दोनों ने खाना खाया और सडक़ पर टहलने के लिए निकल पड़े। रास्ते में इधर-उधर की बातें करते रहे। अरमान की बात जान-बूझकर न मैंने की, न उसने ही जिक्र छेड़ा। फिर भी न जाने कैसा तनाव था कि उसका ध्यान भी उसी ओर था जिधर मेरा। उसने पूछा जरूर था कि आज इतनी देर कहाँ हुई, पर मैं भी ऐसे ही टाल गया। मैंने भरसक कोशिश की कि मुझे झूठ न बोलना पड़े और इसीलिए मैं इधर-उधर की बातें ही करता रहा, ऐसे किसी जिक्र से बचता रहा कि अरमान की बात बीच में आये।
काफी देर तक टहलने के बाद हम वापस आये। आज शाम को लौटने में देर हो जाने के कारण मैं तो ज्यादा घूमने के पक्ष में नहीं था लेकिन शाबान ने शायद मेरे इंतजार में सारी शाम बोर होते हुए ही बितायी थी इसलिए उसका जल्दी लौटने का मन नहीं था। उसके आग्रह पर ही हम चहलकदमी करते रहे। घर लौटकर थोड़ी-बहुत देर वह गाने सुनता रहा, फिर हम कपड़े बदलकर बिस्तर पर आ गये।
लेटते ही शाबान के मुँह से शायद वही निकला जो सुबह से जबरन उसने जब्त किया हुआ था। वह बोला—
‘‘आपको क्या कारण लगता है, अरमान क्यों नहीं आ पा रहा है?’’
मैं चुप रहा, लेकिन बेचैन हो गया। वह फिर बोला—
‘‘फ्लाइट्स तो वहाँ से बराबर आ रही हैं। यह भी नहीं हो सकता कि उसे पन्द्रह दिन तक टिकट ही न मिले; बल्कि बीच में तो कई एक्स्ट्रा फ्लाइट्स वहाँ से आयी हैं। अखबारों में आया था कि वापस भारत लौटन के इच्छुक लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है इसलिए दूतावास ने लड़ाई छिडऩे से पहले ही लोगों को भारत पहुँचाने के लिए अतिरिक्त बन्दोबस्त किये हैं।’’
मैं फिर भी चुप रहा। अनमने-से होकर शाबान ने एक पत्रिका मेज से उठा ली और उसके पन्ने पलटने लगा। मैं भी खामोशी से लेटा रहा। थोड़ी देर बाद ही शाबान फिर बोला—
‘‘वैसे लड़ाई की हलचलें अब तक जेद्दाह में तो नहीं पहँुची है। वहाँ से थोड़ी दूर बॉर्डर का एक इलाका है, वहाँ जरूर हड़बड़ी मची है। बाकी उस इलाके में तो अभी पूरी तरह ‘पीस’ है जहाँ अरमान रहता है...अरमान ने लिखा था। आपको भी लिखा होगा?’’
मैं चुप रहा। शाबान ही बोला—
‘‘वहाँ वैसे एयरपोर्ट पर अरमान का एक मित्र है। इंडियन ही है। उसके कारण उसे टिकट मिलने में बहुत सहूलियत रहती है। घर से फोन करने पर ही वह फ्लाइट का टिकट बुक कर देता है। हो सकता है इस समय एमरजेंसी हो। या...वह भी इंडिया आया हुआ हो। टिकट मिलने में तो कोई परेशानी नहीं होती पर हो सकता है आजकल ‘वार’ के कारण कोई दिक्कत हो।’’
मैं कुछ नहीं बोला। लेकिन मैं बेहद असहज हो गया था। यह सब बातें ऐसी तो नहीं थीं कि जिन्हें चुपचाप सुना जा सके। कहीं शाबान यह तो नहीं सोचने लगा हो कि खून का रिश्ता न होने के कारण मेरे मन में उसके भाई को लेकर कोई अहसास नहीं है; जबकि मेरे मन में क्या था, यह मैं ही जानता था। जब्ती की यह हद थी। फिर भी मैं लेटा रह गया। बात बदलने और कुछ-न-कुछ कहने की गरज से मैंने कहना चाहा, मुझे लगता है कि यदि ईद की वजह से वहाँ पैसेंजर्स वेटिंग में ज्यादा भी हैं तो कल तक कोई-न-कोई व्यवस्था अवश्य की जायेगी, और कल अरमान आ जायेगा।
लेकिन यह बात मैं केवल सोच पाया, बोला नहीं। मेरी स्थिति अजीब-सी थी। मैं किसी भी स्तर पर अरमान के हक में शाबान के सामने झूठा भी नहीं पडऩा चाहता था। मैंने कहा—
‘‘तुम क्या आज दिन में बहुत सो लिये हो?’’
‘‘नहीं तो, मैं तो दोपहर में मारवे पर घूमने चला गया था।’’
‘‘तो फिर नींद नहीं आ रही तुम्हें! चलो, अब सोते हैं।’’
शाबान बोला—‘‘हाँ! आपको तो नींद आ रही होगी, मैं बत्ती बुझाता हूँ।’’ उसने ‘आप’ पर ऐसा जोर देकर कहा कि मैं भीतर से परेशान हो गया। जाहिर था कि नींद न उसे आ रही थी और न मुझे। फिर भी मैं अपनी उलझन से बचने के लिए अँधेरा चाहता था, और चाहता था पटाक्षेप शाबान की उलझन का।
शाबान ने बत्ती बुझा दी और मेरे पास ही आ लेटा। अँधेरे में भी कनखियों से मैं महसूस कर रहा था कि उसकी दो कोडिय़ों जैसी बड़ी आँखों में जड़े काले मोती अपलक छत को निहार रहे हैं। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने धीरे से शाबान का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा—
‘‘शाबान, तुम परेशान मत हो, सो जाओ, अरमान आ गया है।’’
शाबान को जैसे करेंट-सा लगा।
वह झटके से उठ बैठा। उसने दोनों कंधों से पकडक़र मुझे झिंझोड़ डाला। मेरे कुछ बोलने से पहले ही उसने लाइट जला दी। अविश्वास से मेरी ओर देखता हुआ मेरे सामने आ बैठा।
‘‘आ गया है? यह कैसे हो सकता है? वह कहीं जायेगा! आपने मुझे बताया क्यों नहीं? हो ही नहीं सकता। आप ऐसे ही मेरा मन रखने के लिए कह रहे हैं।’’
‘‘मेरा यकीन करो। वह आ गया है। तुम आराम से सोओ—सुबह वह हम लोगों से मिलेगा।’’
‘‘मैं नहीं मानता।’’ वह बच्चों जैसी जिद कर बैठा।
‘‘इसीलिए तो तुम्हें बता नहीं रहा था कि तुम यकीन नहीं करोगे। पर अब तुम्हारी हालत देखकर बता रहा हूँ तो तुम मान नहीं रहे।’’
‘‘हो ही नहीं सकता। मैं उसे पिछले बीस सालों से जानता हूँ। जन्म से उसे देख रहा हूँ। इंडिया पहुँचकर वह मुझसे मिले बिना एक मिनट नहीं रह सकता।’’
‘‘बीस सालों तक जो न हुआ हो, जरूरी तो नहीं कि वह कभी नहीं होगा। जिन्दगी में बहुत कुछ ऐसा होता है जो पहले कभी नहीं हुआ होता, हम पहली बार बहुत से काम करते हैं।’’ मैंने कहा।
शाबान ने मुझे कंधे से पकडक़र झिंझोड़ डाला बोला—
‘‘नहीं। यह मुमकिन ही नहीं। ऐसा मैं मान ही नहीं सकता। और आप तो उसे मुझसे भी ज्यादा चाहते हैं, यदि आपसे वह मिलता तो आप उसे लिये बिना घर कैसे आते...?’’
‘‘शाबान, इन बातों का इस समय मेरे पास कोई जवाब नहीं है। तुम सो जाओ।’’
‘‘वह अभी कहाँ है?’’
‘‘एयरपोर्ट पर। होटल में।’’
‘‘कौन-से होटल में? चलिये, हम अभी वहाँ चलेंगे।’’
‘‘मुझे मालूम नहीं कौन-से होटल में है।’’
‘‘यह कैसे हो सकता है?’’
‘‘उसने मुझे फोन पर बताया था, वह होटल में है।’’
‘‘यह नहीं हो सकता। खाइये मेरी कसम!’’
‘‘तुम्हारी...ऽऽ...कसम, शाबान!’’
शाबान फिर कुछ नहीं बोला। लेकिन बस अब उसका मुँह ही बन्द था, बाकी जर्रे-जर्रे से वह बोल रहा था। भाई के लिए भाई के इन जज्बातों को ज्यादा देर नहीं देख पाया मैं, क्योंकि शाबान ने एकाएक कमरे की बत्ती बुझा दी और झट से चादर में मुँह ढाँपकर लेट गया। मैं भी सोने की कोशिश करने लगा। शाबान ने न जाने कैसा दम साधा था, कोई आहट तक नहीं आ रही थी। न जाने कब मेरी भी आँख लग गयी।