हीरामंडी - द डायमंड मार्केट - फिल्म समीक्षा Neelam Kulshreshtha द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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हीरामंडी - द डायमंड मार्केट - फिल्म समीक्षा

नीलम कुलश्रेष्ठ

``जो समाज औरतों को जायदाद में से हक़ नहीं देता, वह तवायफ़ों की कुर्बानियों को तारीख़ में जगह क्या देगा ?

ये संवाद है `हीरामंडी ` वेब सीरीज़ के अंत में पार्श्व से बोला गया।

और लीजिये इस वाक्य ने उन लोगों के मुंह बंद कर दिए जो संजय लीला भंसाली पर आरोप लगा रहे थे कि तवायफ़ों के कोठों पर कुछ बिगड़े रईसज़ादे जाते थे लेकिन अब ये कोठे सारा हिन्दुस्तान आँखों से देखेगा।

इस वाक्य ने मेरे दिमाग़ की हिचक ख़त्म कर दी थी कि मैं इस वैब सीरीज़ पर कुछ लिखूँ .भंसाली  जी ने इसे न बनाया होता तो हम कैसे जान पाते कि पाकिस्तान के लाहौर शहर में एक कोने में हीरामंडी या अंग्रेज़ी में कहें तो डायमंड मार्केट है। जहां कभी किसी खूबसूरत मल्लिका जान का शाही महलनुमा कोठा हुआ करता था और जिस मंडी की तवायफों की आज़ादी पाने के लिए एक अहम भूमिका रही थी। ।

अगर में कहूँ `हीरामंडी `सेल्युलाइड पर लिखी मुग़लकालीन शौकीन रईसी  अनारकली कुर्तों, चूड़ीदार पायजामों, घेरदार नवाबी लहंगों व शाही गहनों से लिखी शान-ओ -शौकत, लियाकत, नज़ाकत, खुमार भरी शायरी है, जो राज कपूर के बाद के शो मैन संजय लीला भंसाली ने लिखी है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेखक मोईन बेग़ जिन्होंने बरसों पहले ये कहानी भंसाली जी को सौंपी थी। इस वैब सीरीज़ को देखकर उनका इतने वर्ष इंतज़ार करने का दुःख जाता रहा होगा क्योंकि कोई फिल्म दो ढाई घंटे में ख़त्म हो जाती है लेकिन एक एक घंटे वाले आठ एपीसोड्स वाली इस सीरीज़ के कारण इस कहानी को एक बड़ा फलकनुमा कैनवास मिल गया है जिसमें उस समय के लाहौर की नवाबी शान, तवाइफ़ों व नवाबज़ादियों की आन बान को ज़रदोसी की सुनहरी कढ़ाई की तरह महीन तारों जैसा बुना जा सका है।

मोईन बेग़ जब छोटे थे तो औरतों का फ़िल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। उस समय की फ़िल्म अभिनेत्रियों के लिए उनके घर में लोग कहते थे, ``ये लाहौर की हीरामंडी की तवाइफ़े हैं। ``

उन्हें बहुत उत्सुकता हुई कि आखिर हीरामंडी है क्या ? कहते हैं उन्होंने बड़े होकर वहां जाकर कुछ शोध किया तब ये दिलचस्प कहानी लिखी थी। हो सकता है उस समय को जीवित करने के लिए भंसाली जी ने कुछ पात्र जोड़े हों, कुछ घटनाएं भी।

इतिहास के अनुसार महाराजा रणजीत सिंह के बेटे हीरा सिंह जो उस समय उनके राज्य में प्रधान मंत्री थे, ने यहाँ अनाजमंडी बनाई थी। हीरा सिंह के नाम पर इसका नाम हीरामंडी रक्खा गया था। बाद में अलग अलग देशों से संगीत, नृत्य, कला, तहज़ीब से जुड़ीं औरतों को व विशेष रूप से शास्त्रीय नृत्य की जानकार तवाइफ़ों को यहाँ लाया जाता था।यहाँ परयु वा स्त्रियों को कत्थक नृत्य, मुजरा, ठुमरी, ग़ज़ल और दादरा सहित कलाओं में प्रशिक्षित किया जाता था। उस समय लाहौर में तवाइफ़ों के मुजरे उनकी महफ़िलों में आकर देखने आना एक बेहद शान की बात थी। मज़े की बात ये है कि इन्हें भी नवाबी परिवार अपने महलों के समारोह में बतौर मेहमान शामिल होने बुलाते थे। इनकी मित्रता बेग़म जान से भी हो सकती थी। कहतें हैं यहाँ के नवाबों के शहज़ादे तमीज़ व तहज़ीब सीखने आते थे।

सिद्धहस्त अभिनेत्रयों के अभिनय ने इसमें चार चाँद लगा दिए हैं। ख़ासकर मल्लिका जान बनी मनीषा कोइराला के अभिनय व खुमार भरी आवाज़ में डायलॉग डिलीवरी ने. एक गीतों के रिकॉर्ड बनाने वाली कंपनी का अँग्रेज़ मालिक उनके महल में उनकी आवाज़ में एक गीत के रिकॉर्ड बनाने का प्रस्ताव लेकर आता है, मल्लिका का इंतज़ार करके परेशान हो जाता है तो उसे यहाँ लाने वाले उस्ताद जी कहते हैं, `न जाने कितने नवाब मल्लिका जान का इंतज़ार करते करते बर्बाद हो गए। `

ग़नीमत ये है कि मल्लिका जान जल्दी आ जातीं हैं लेकिन इस प्रस्ताव को सुनकर वे बहुत ठसक के साथ कहतीं हैं, ``हमारे शाहीमहल में आवाज़ के कद्रदान आतें हैं, न कि दुकानदार। हम लाहौर की रानियाँ हैं। ``लगता है शाही अंदाज़ में कोई ग़ुरुर भरी महारानी बोल है।

कभी मल्लिका जान की बड़ी बहिन जहां आपा ने उनकी पहली संतान बेटे को लेकर जो कहर ढाया था। ये पता लगते ही ये उन्हें किस तरह बर्बाद कर देतीं हैं, उनकी जान ही नहीं हवेली तक अपने नाम कर लेतीं हैं।

जहां आपा की बेटी फ़रीदन को किसी तरह बचाकर लाहौर से निकाल लिया जाता है। फ़रीदन युवा होकर घाट घाट का पानी पीकर क्यों मल्लिका जान से अपना हक़ व बदला लेने लाहौर लौटी थी और दोनों के बीच कैसे दांव पेच चलने लगते हैं. फ़रीदन बनी सोनक्षी सिन्हा की दिलफ़रेबी ने या कहिये अपने किरदार के दमदार व शानदार अभिनय ने चार चंद लगा दिए है। ये समय था जब लाहौर में जब ब्रिटिश उपनिवेशावाद नवाबों पर हावी होने लगा था।

अपनी आपा से इतना बड़ा धोखा खाकर ये मल्लिका अपनी बहिन व अपनी दो बेटियों के लिए कैसे मेहरबान हो सकती है ? बड़ी बिब्बो जान [अदिति हैदर राव] के आशिक हैं नवाब वली साहब [फ़रदीन], जो उसकी ख़्वाबगाह में पड़े रहते हैं। दूसरी बेटी आलमजान [शर्मिन सहगल]जो शायरी में डूबी किसी मुहब्ब्तका इंतज़ार करतीं रहतीं हैं, ``इक बार देख लीजिये, दीवाना बना दीजिये। ``

वे तवायफ़ बनकर न घुँघरू पहनना चाहतीं, न नथ उतरवाना चाहतीं।

मल्लिका जान की बहिन बनी संजीदा शेख के सपने कैसे कुचल दिए गए या किसी कोठेवाली का अपने आशिक से निकाह करने के सपने का क्या हश्र होता है? ये जानने के लिए इस वैब सीरीज़ को देखना पड़ेगा. और हाँ, इन सबके बीच ज़ोरदार नैटवर्किंग करने की जान हैं उस्ताद जी यानी इंद्रेश मलिक का शानदार अभिनय।

लाहौर आकर फ़रीदन नवाबों के साथ पार्टीज़ में अंग्रेज़ों को भी आमंत्रित करती थी। उन्हें लड़कियाँ भी परोसती है, जो तवाइफ़ संस्कृति के खिलाफ़ है।उधर मल्लिका जान उसकी हरकतों से नफ़रत करती थी। । बड़ी बेटी बिब्बोजान बनी अदिति हैदर राव क्रांतिकारी दृश्यों में कमाल करती रहीं है लेकिन महफ़िलों के नृत्य व अभिनय में लगता है उन्हें ज़बरदस्ती ये रोल दे दिया है बाद में मल्लिका जान से ये कहलवाया गया है कि उसकी दोनों बेटियां में कुछ दम नहीं है। असली तवाइफ़ तो फ़रीदन है क्योंकि वह जालसाज़ है, कपटी है, कुटनी, धोखेबाज़, षणयंत्र करना जानती है।

इसकी सबसे कमज़ोर कड़ी हैं आलमजान के केंद्रीय किरदार में शर्मिन सहगल। अभिनय व ख़ूबसूरती कहीं से भी इस रोल के करीब नहीं लगती लेकिन जैसे जैसे वैब सीरीज़ आगे बढ़ती है इनकी उम्र की, चेहरे की मासूमियत लुभाने लगती है। । सुना है ये भंसाली जी की भतीजी हैं व एक बहुत बड़े बिज़नेस मैन की पत्नी।

भंसाली जी ने बार बार ये प्रमाणित कर दिया है कि वे पीरिएड ड्रामा को पर्दे पर सजीव करने में सिद्धहस्त हैं। जब नवाब अपने बेटे ताजदार के ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़कर भारत वापिस आने पर एक पार्टी देते हैं तो उसमें मल्लिका जान को भी बुलाया जाता है. आलमजान उनकी बग्घी में छिपकर इसलिए आ जाती है कि एक बड़े शायर इस महफ़िल में अपना अपना कलाम पढ़ने वाले हैं। इसी महफ़िल में ताजदार की नज़र आलमजान पर पड़ती है। आलमजान भी उनकी एक झलक देखकर आकर्षित हो जाती है। इनकी दूसरी मुलाक़ात होती है एक किताबों की दुकान पर। बाद में दर्शकों पर ज़ाहिर होता है कि ये किताबों की दुकान दरअसल क्रांतिकारियों का अड्डा है। इस अड्डे पर बिब्बोजान किताबें देने के बहाने पिस्तौल लेकर आती रहती है। ताजदार के मन में भी ब्रिटिश हुकुम के ख़िलाफ एक क्रांतिकारी पल रहा है। उनके पिता नवाब उन्हें बार बार आगाह करते रहते हैं कि वे इस सबसे दूर रहें।

ताजदार व अलामजान की मुहब्बत को हवा देती है मल्लिका जान से बदला लेने के लिए फ़रीदन। उनके मिलने का बंदोबस्त करती रहती है। उधर वह बिब्बो के आशिक वली साहब को फंसा ही लेती है। ब्रिटिश ऑफ़िसर किस तरह क्रूरता से अपने अपमान का बदला इन तवायफों से लेते हैं --दिल दहलाने के दृश्य हैं।

एक दिन हद हो जाती है, जब फ़रीदन के किये फ़रेब से आलमजान अपनी हवेली छोड़ ताजदार के महल में आ जाती है। ताजदार उन्हें देखकर हैरान है, ठुकराकर दरवाज़ा बंद कर लेते हैं। जब वह उनके महल के सामने से रात में भी नहीं हटती तो मजबूरन उसे अपने महल में उसे दोस्त की बहिन बनाकर रखना पड़ता है. अपने अकेलेपन से घबराई ताजदार की दादी उसे बहुत प्यार करने लगतीं हैं लेकिन उनके अब्बूजान को शक हो जाता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है।

ऋचा शर्मा लज्जो के चरित्र में औसत हैं. वहीदा के रोल में उनके लिए ये बहुत बड़ा सदमा है कि उनका आशिक जोरावर मल्लिका का बेटा है जिसे मल्लिका की आपा ने एक बेऔलाद नवाब को गोद लेने के लिए बेच दिया था। फिर वे क्या कदम उठातीं हैं ? वहीदा के रोल में संजीदा शेख़ कुछ हाइपर हैं। वे भी अपनी सच्चे आशिक को पा नहीं पातीं वह शादी करने को तैयार है लेकिन इन कोठों की मल्लिका की तरह की खाला जान अपने दांव पेचों से किसी कोठे की लड़की की, चाहे वह अपनी बहिन ही क्यों न हो शादी होने दें तो उनका धंधा कैसे चलेगा ?

ये सीरीज़ बहुत दिलचस्प जानकारी देते है कि दूसरों के कोठों पर होने वाले मुजरों को फ़्लॉप करने के लिए तवायफें कैसे कैसे षणयंत्र करतीं हैं ? मसलन यदि कोई तवायफ़ अपने जीवन के आखिरी मुजरे में शहर के नवाबों को आमन्त्रित करती है तो एक एक नवाब रवायत [परम्परा]के अनुसार उसी के कोठे पर जाएगा। बाकी कोठे ख़ाली पड़े रहेंगे। इस रवायत का मल्लिकाजान कैसे उपयोग करती है ? देखने की बात है।

यदि कोई युवा नवाब है तो उसके लिए कोई कम उम्र लड़की उससे नथ उतरवाने के लिए ढूँढ़ी जाएगी। तवायफों के कोठों पर अधिकतर इन्हीं नवाबों की औलादें पैदा होतीं थीं । मज़े की बात है कभी बेटा गोद लेने के लिए नवाबों को इन्हीं कोठों पर आना पड़ता था। बदले नवाब से ये एक मोटी रकम या सिर्फ़ बड़ा पन्ना जड़ा हार लेकर एक माँ से उसका बेटा छीन लेतीं हैं व उसे बहला देतीं हैं कि उसे इन्होंने उसे दलाल, अफ़ीमची या तबलची बनने से बचा लिया।

इस सारे कोठों, मुजरों के परिदृश्य के साथ साथ चल रही हैं क्रांतिकारियों की धधकती बातें, हाथ में पोस्टर लिए अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर करते सड़क पर निकलते जुलूस।किताबों की दुकान पर क्रांतिकारियों का गुप् चुप अड्डा। नवाब ताजदार का उनका साथ देना। ताजदार के नवाब पिता इस क्रांति व हीरामंडी की आलमजान से बेटे का पीछा छुड़ाना चाहते हैं। वे अंग्रेज़ों को बता देतें है की ताजदार ने आलमजन को कहाँ छिपाकर रक्खा है। जेल में बंद आमजन को छुड़ाने के लिए उसकी कर्कश, हृदयहीन माँ मल्लिका जान को ब्रिटिश पुलिस स्टेशन पर क्या कहर झेलना पड़ता है ? ताजदार को आलमजान की चिंता छोड़कर देश के लिए लड़ने वालों के लिए क्या कुर्बानी देनी पड़ती है ? ये सब दिल दहलाने वाले वाक़ये हैं। उस दौर में जिन पर ये तकलीफ़ें गुज़रीं थीं, वही जान सकते थे। और बिब्बो के ये संवाद—

``मुजरेवाली नहीं, कभी मुल्कवाली तो बनकर देखो। ``

- ``इश्क और इंकलाब के बीच कोई फ़र्क नहीं होता। ` `वाह `कह देने पर मजबूर कर देता है.

हीरामंडी के इस ग्लेमर से अलग एक और सच को इस वैब सीरीज़ से समझा जा सकता है। हीरामंडी पलती थी नवाबों के पैसे से और क्रांतिकारियों को हथियार मिलते थे हीरामंडी के रुपयों से। ब्रिटिश सरकार को ये बात पता लगती है तो वे नवाबों के सख़्ती से कोठों पर जाने पर बैन लगा देते हैं। इससे मल्लिका जान की चिंता बहुत बढ़ जाती है।

बिब्बो जान एक ब्रिटिश ऑफ़िसर को अपनी तवायफ़ी अदाओं, नाज़ नखरों से फंसाकर क्रांतिकारियों की सहायता करना चाहती है। यहाँ तक कि मुजरे के दौरान उसकी ह्त्या करने के अपराध में फांसी की सज़ा पा जाती है.

फांसी की सुबह कर्फ़्यू के दौरान मुंह अँधेरे बिना डरे हीरामंडी की तवायफ़ें हाथ में लैम्प  लिए लाहौर की सड़क पर सैकड़ों की तादाद में निकल पड़तीं हैं, गाते हुए, ``हमें देखनी है आज़ादी, हर हाल में हमें देखनी है आज़ादी । ``

बिब्बो फांसी से पहले जेल में नारा लगाती है, ``इंक़लाब ----.``

बाहर झुटपुट अँधेरे में हाथों में लेम्प लिए सैकड़ों खड़ी तवायफ़ों के लिए अपने लिए कहे जुमले जालसाज़, कपटी, कुटनी, धोखेबाज़, षणयंत्रकारी --एक तरफ़ हैं --

--दूसरी तरफ़ है सिर्फ़ देश और देश की आज़ादी --

वे फांसी चढ़ती बिब्बो को उत्तर देतीं हैं --``ज़िंदाबाद। ``

संजय लीला भंसाली जी की `बाजीराव मस्तानी `देखकर पता लग गया था कि पीरियड ड्रामा को प्रस्तुत करने में वे बेजोड़ हैं। उनकी तरह हीरामंडी को कोई और नहीं रच सकता था। यही बात इसके गीतों के संगीत देने की है--

--सैयां हटो जाओ, तुम बड़े वो हो। रात चढ़ जाए, इब घर जाने दो।

---चाँद ने शब को कहा, चाँद कोई ढलता है।

भंसाली जी की सूझबूझ है जो उन्होंने शास्त्रीय संगीत के साथ एक गीत में अरेबियन धुन का उपयोग किया है।

लक दक करती पोशाकों में अनेक अदाकारों को उसके पात्र में ढाल देना, लाहौर की हीरामंडी का सैट मुंबई में बनाकर शूटिंग करना -- अंग्रेज़ों के दांव पेच, तवायफ़ों के षणयंत्र, क्रांतिकारियों की छिपकर की गई कारगुज़ारियाँ --इन सबके बीच अविस्मरणीय कर्णप्रिय शास्त्रीय संगीत देना --हे भगवान इतना सारा टेलेंट कैसे भगवान ने संजय लीला भंसाली जी को दे दिया है ?

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com