भारत रत्न रविशंकर ramgopal bhavuk द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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भारत रत्न रविशंकर

भारत रत्न पंडित रविशंकर

                    नव्यता के नायक पर शोधपूर्ण दृष्टि

                                                   रामगोपाल भावुक

 

भारतीय बांग्मय में शास्त्रीय संगीत एक धरोहर के रूप में रहा है। इसके बारे में सामान्य जनों को जानकारी कम ही रही है। इसे सुनना और सुनकर समझना जितना कठिन है, उतना ही इसके बारे में जानकारी इकत्रित करना तो बहुत ही दुस्तर कार्य है फिर इस पर कार्य करना तो और भी दुस्कर कार्य है। दिनेश पाठक जी को इस विषय पर कार्य करते समय कितना होमवर्क करना पड़ा होगा। इस बात का प्रमाण, इस कृति पर दृष्टि डालने से ही पता लग जाती है। दिनेश पाठक जी ने ‘भारत रत्न पंडित रविशंकर नव्यता के नायक’ के निमित्त शास्त्रीय संगीत के ऐसे साधकों से सम्पर्क साधा है जो भारत रत्न पंडित रविशंकर के सम्पर्क में रहे। उनके अनुभवों को  इसमें साझा करके एक शोधपूर्ण कृति की रचना कर डाली हैं।

               शाश्वत सितार में दिनेश पाठक जी लिखते हैं- पण्डित रविशंकर बेबाकी से यह स्वीकार करते थे कि उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत में काफी कुछ नया करने का प्रयास किया और वे कहते थे-‘हमें परिवर्तन से डरना नहीं चाहिए। संगीत में पिछली शताब्दी में हमारा संगीत तीव्र गति से विकसित हुआ है और परिवर्तन इसका एक अनिवार्य घटक रहा हैं निश्चित  रूप से मैं अपने समय के आगे जाकर विचार करता था।

       छन्द बद्ध रचना में काम करते समय उसके नियमों को तोड़ने का हम साहस नहीं जुटा पाते फिर शास्त्रीय संगीत में कुछ नये हाथ-पैर चलाना तो बहुत ही दुस्कर कार्य है। जिसे पण्डित रविशंकर ने कर दिखाया है।

       दरअसल नवीन विकास यदि शुद्ध शास्त्रीय संगीत की नींव पर आधारित होते हैं तो यह शीघ्र ही परम्परा के अंग बन जाते हैं, इसी वजह से हमारा संगीत आज तक जीवित है, जड़ नहीं हुआ जैसा कि बहुत कुछ पुरानी संस्कृतियों के साथ हुआ है।

      दिनेश पाठक जी ने इस कृति को दो तरह से विस्तार दिया है। एक पण्डित रविशंकर के शब्दों में जो आत्मकथ्य शैली के रूप में हमारे सामने हैं। दूसरा पण्डित रविशंकर के सहयोगियों एवं श्रोताओं के कथन के रूप में जो समीक्षात्मक रूप में है, इसे संक्षेप में पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया है जिससे हम सब प्रसिद्ध सितार वादक पण्डित रविशंकर जी  के जीवन से रू-ब-रू हो सकें।

        इस कृति का प्रारम्भ पाठक जी 3 जनवरी 1989 से करते हैं। इस दिन संगीत नगरी ग्वालियर में सूफी संत मोहम्मद गौस के मकबरे के निकट संगीत सम्राट तानसेन की समाधि पर सितार के जादूगर पण्डित रविशंकर कह रहे थे-‘ऐसे स्थानों का खुद-ब-खुद एक जादू होता है, जिससे प्रस्तुति देते समय रोमांच की अनुभूति होती है।’

                उनकी सुर लहरी ने दिनेश पाठक जी को इतना प्रभावित किया कि वे उसी दिन पण्डित रविशंकर से मुलाकात करने पहुँच गये। दोपहरे के खाने के बाद से ढलती साम तक वे अपने जीवन के तथ्यों से रू-ब-रू कराते रहे। उनके शब्दों को आत्मसात कर पण्डित जी के द्वारा सुनाई अपनी जिन्दगी की किताब के पृष्ठों को लेखक सजोने का काम करता रहा।

      पण्डित रविशंकर जी के पिताजी का नाम श्यामशंकर चौधरी था। वे उच्च शिक्षा प्राप्त वकील,दार्शनिक लेखक और शौकिया संगीतकार थे। उन्होंने रवि के जन्म के पहले एक अंग्रेज महिला से विवाह कर लिया था। वे उनके साथ लंदन चले गये। 

 

      रवि की माँ हेमांगनी ने कुछ समय झालवाड़ रियासत द्वारा मिलने वाली पेंशन से गुजारा किया लेकिन बाद में वे अपने बेटों के साथ बनारस चली गईं।  ये पांच भाइयों में सबसे दुलारे थे। माँ को मिलने वाली पेंशन इन तक आते आते दो सौ रुपये के स्थान पर साठ रुपये रह जाती थी जिसमें इतने बड़े परिवार चलाना कठिन था।माँ ने घर चलाने के लिए एक सिलाई मशीन खरीद कर दूसरी महिलाओं के कपड़े सिलने का काम शुरू कर दिया था।      बांग्ला के लेखक और पत्रकार,शंकर लाल भट्टाचार्य ने अपनी पुस्तक स्मृति में पण्डित रविशंकर ने बातचीत के आधार पर बताया था- मेरे पिता जी एक बार योग साधना के लिए आबू पर्वत पर  गये थे। वहाँ दो वर्ष तक एक योगी के साथ रहे थे।

                इनका अध्ययन पांच वर्ष की उम्र में ही शुरू हो गया था। इन पर इनके बड़े भाई उदयशंकर का बहुत प्रभाव पड़ा। वे उनके साथ यूरोप जाने को तैयार हो गये।वे सिंगापुर पहुँच भी गये लेकिन उसी समय इनके बड़े  भाई उदयशंकर को इनके पिताजी के निधन का तार मिला तो इन्हें बापस लौटना पड़ा।

 

          पण्डित रविशंकर ने अपने गुरुदेव अलाउद्दीन खाँ के बारे में लिखा है-‘बाबा के भीतर भी छंद और लय का बोध बड़ा अचरज भरा था।.......किन्तु बाबा के भीतर जो लोकतत्व था,बचपन में वे यात्रादल में रह चुके थे,उसमें वे ढोल बजाते थे, ढाक बजाते थे। अनेक तरह से नाचते भी थे।

               लेखक लिखता है कि रवि यादों के दरिया में गहरे उतर गये थे-तीस के दशक और चालीस के आरंभिक कुछ वर्षों में बाहर की दुनियाँ में भारत के गांधी और टेगौर के बाद उदय शंकर ही सबसे जाने माने भारतीय थे।

      हमारा ग्रुप ‘उदयशंकर डांस ट्रूप’ दुनियाँ का सबसे नामी डांस ट्रूप था। दादा एक टॉप स्टार थे।

      लेखक ने स्वीकारा है-मध्य प्रदेश के उस छोटे से कस्बे मैहर में रविशंकर  ने अपने जीवन के सात महत्वपूर्ण वर्ष,बाबा के पुत्र अली अकबर और पुत्री अन्नपूर्णा के साथ संगीत सीखते हुए बिताये। सितार और सुरबहार पर स्वर साधना का कठिनतम अभ्यास करते हुए रविशंकर ने विभिन्न रागों और शैलियों पर महारत हासिल कर ली।

               इटावा घराने के वरिष्ठ सितार वादक पण्डित अरविन्द पारीख कुछ अलग बात बताते हैं-‘संगीत नाटक अकादमी की सेक्रेटरी         निर्मला जोशी ने हमें सूचित किया कि इन लोगों के साथ रविशंकर भी बजायेंगे। इस प्रकार उस दिन जुगलबन्दी के स्थान पर ट्रायो बजाया गया। सभी ने बहुत अच्छा बजाया,जीत हार जैसी कोई बात नहीं हुई।

               सुर सिंगार वादक एवं वाद्य विशेषज्ञ श्री सोमजीत गुप्त ने पण्डित रविशंकर जी द्वारा प्रयुक्त किये गये सितार के बारे में एक स्थान पर लिखा है-‘उनका जो पहला सितार था, वह प्रसिद्ध सितार निर्माता कन्हाईलाल के प्रारम्भिक सितारों में से है।’

               मैहर में बाबा अलाउद्दीन की पुत्री अन्नपूर्णा से इनकी नजदीकियाँ विवाह में परिणित हो गईं। अन्नपूर्णा ने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। आर्य समाज की पद्वति के अनुसार विवाह कर लिया। इनके पुत्र शुभो का जन्म हो गया। शुभो रात भर उन्हें सोने नहीं देता था। दिन में गुरुकुल की परम्परा के अनुसार दस दस घन्टे रियाज करना पड़ता था। इससे दोनों को चड़चिड़ा बना दिया। इसी बीच अन्नपूर्णा को पेट की कोई बीमारी हो गई। जिसका रवि ने दिल्ली में इलाज कराया। इलाज के बाद वे स्वस्थ्य हो गईं। इनका विवाह टूट गया लेकिन संगीत के कार्यक्रमों में अन्नपूर्णा इनके साथ जुगलबन्दी करतीं रहीं। इसके बाबजूद बाबा गुरुदेव अलाउद्दीन खाँ से इनका सम्बन्ध प्रेम पूर्ण बना रहा।

      पंडित रविशंकर के जीवन में एक के बाद एक महिलायें आतीं रहीं। इनको कोई वाँध कर नहीं रख सका।जब इनके जीवन की बागडोर सुकन्या जी ने सम्हाली किन्तु ये पत्नी सुकन्या और पुत्री अनुष्का के लिये भी समय नहीं निकाल पाते थे, ये अपनी साधना में व्यवधान नहीं आने देते थे।

      स्वर कोकिला भारत रत्न लता मंगेशकर जी ने भी पण्डित रविशंकर जी के बारे में दिनेश जी से ढेर सारी यादें साझा करते हुए कहा-‘ पण्डित रविशंकर भारत रत्न तो थे ही लेकिन मैं ऐसा सोचती हूँ कि वे विश्व  रत्न थे।उन्होंने सारी दुनियाँ में भारत का नाम किया था।’

                संगीत के क्षेत्र में पण्डित रविशंकर  को आप किस स्थान पर रखना चाहेंगीं? यह बात लता मंगेशकर से पूछने पर कहतीं है-वे बहाँ ऊपर आसमान में तानसेन,बीथेवेन और मोजार्ट के साथ में हैं। वह सदा याद किये जायेंगे, जब कभी हम संगीत का नाम लेंगे उनका नाम उल्लेखित किया जायेगा।’

               पण्डित रविशंकर ने दो फिल्मों में संगीत दिया था, एक धरती के लाल और दूसरी चेतन आनन्द की नीचा नगर जो चली नहीं थी। आपने इसके बाद अनुराधा और गोदान फिल्मों में भी संगीत निर्देशन बहुत लोक प्रिय हुआ है।

     मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार वृंदा करंदीकर ने पण्डित रविशंकर के सितार वादन पर एक कविता भी लिखी है, ‘मछली एक स्वर चित्र’ जिसका हिन्दी में अनुवाद पुष्पा भारती जी ने किया है।

               जन चर्चा में सुनने में आया कि अन्नपूर्ण देवी ने बताया कि, जब पति और पत्नी का पेशा एक ही होता है तो ऐसा हो जाता है कि यह पुरुष का अहम् है। रविशंकर के मामले में अहम् कुछ ज्यादा था। वह बहुत महात्वाकांक्षी और आत्म केन्द्रित थे और किसी को अपने संसार पर राज करने की इजाजत नहीं दे सकते थे। यकीनन वह सूर्य थे और आसमान में अकेले ही चमकना चाहते थे।

               अप्रैल 1958 में रविशंकर ने एक सांसकृतिक शिष्ट मंडल के नेता के तौर पर जापान की यात्रा की और टोकियो, हिराशिमा,तोकुशिमा,ओसाका,कोबे जैसे अनेक नगरों का भ्रमण किया।

               रविशंकर ने बताया-सन् 1967 में जार्ज भारत आये। वे सितार बजाना सीखना चाहते थे। हम जहाँ रुकते वहाँ भीड़ इकट्ठा हो जाती थी तो कष्मीर की एक हाउस बोट में छह हफते तक उन्हें सिखाया।

               भारत में बहुत से आलोचक यह मानते हैं कि रविशंकर अमेरिकी दौलत का आकर्षण नहीं रोक पाये और उन्होंने अपने आप को बेच दिया। जबकि रविशंकर का कहना यह था कि मैं चाहता तो अरबपति हो सकता था, मुझे एक गेरुआ धारी स्वामी औा एक मिले- जुले रागरॉक संगीत का राजा बनने के पूरे अवसर मिल रहे थे लेकिन मैंने सदैव भारतीय संगीत को उसका उचित स्थान दिलाने का प्रयास ही किया।

               रविशंकर ने सन् 1974 में बनारस में एउक नया मकान बनबाया जिसका अपनी माँ की स्मृति में हेमांगन रखा। गृह प्रवेश के समय जार्ज हैरिसन आए थे।दोनों ने मिलकर यूरोप अबोर अमेरिका की लम्बी यात्रा की योजना बनाई जिसमें हरिप्रसाद चौरसिया, लक्ष्मीशंकर, शिवकुमार षर्मा और एल.सुब्रमण्यम के अलावा रवि के कुछ शिष्य भी शामिल थे।

               सन् 1972 में बाबा अलाउद्दीन खाँ की मृत्यु हो गई।मृत्यु से पहले कुछ बर्षों में वे अन्नपूर्णा ओर रवि के बिगड़े सम्बन्धों के कारण रविशंकर से खासे नाराज थे क्योंकि पूरी गलती रवि की मानते थे।

सितम्बर 1974 में इनके दादा उदय शंकर की कलकत्ता में मृत्यु हो गई। यह रवि के लिये बहुत बड़ा आधात था।

               शहनाई वादक दयाशंकर बताते हैं कि गंडा बंधन में वह षिष्यों से चांदी का केवल एक रुपया लेते थे और वे अपने षिष्यों को स्टाइपेंड़ भी देते थे। रविशंकर के शिष्य, सितार वादक गौरव मजूमदार बताते हैं-‘आपको जानकर हैरत होगी कि पण्डित रविशंकर ने अपने गुरु बाबा अलाउद्दीन खाँ साइब की तरह कभी भी किसी विद्यार्थी से शिक्षा देने के नाम पर कोई पैसा नहीं लिया।,बल्कि उनके घर पर रहना, खाना- पीना और सारा इंतजाम पण्डित जी स्वयम् वहन करते थे।

               पण्डित जी के प्रिय षिष्यों में एक सुप्रसिद्ध वीणा वादक पण्डित विश्व मोहन भट्ट का कहना है-‘वे मेरे लिए मात्र एक पाठ्यक्रम सिखाने वाले गुरु ही नहीं वरन जीवन की कइ्र बारीक चीजों को समझाने वाले मार्गदर्शक थे।

 

           संगीत संयोजक रोबिन पॉल काफी लम्बे समय तक पण्डित के सहयोगी रहे हैं उन्होंने बताया-‘संगीत के बाद उनके षौक में पहला नम्बर सिनेमा और साहित्य का था। वे बड़े शौक से सिनेमा देखते थे।हिन्दी सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी उनके पसन्द के निर्देशक थे और बाग्ला सिनेमा में सत्यजित रे उनके पसन्दीदा फिल्मकार थे।

           लेखक ने स्वीकार किया है कि पण्डित रविशंकर का यह मानना था कि अगर सारा संसार संगीत को ध्यान से सुनने लगे तो विश्व  षान्ति स्थापित हो सकती है।

            अशोक वाजपेयी जी ने पण्डित रविशंकर के बारे में लिखा है -‘वाद्य संगीत को एक अद्भुत लेकिन लोकप्रिय ऊँचाई तक पहुँचाया। उन्होंने सितार पर जो प्रयोग किया, उसको अत्याधिक प्रभावशाली बना दिया।’

               कुछ संगीत समीक्षकों का पण्डित रविशंकर के बारे में कहना था कि वे पष्चिम में कोई भी राग आधे घन्टे से अधिक नहीं बजाते हैं। पण्डित रविशंकर का कहना है कि संगीत में समय का विस्तार महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि हमारा संगीत लिखित नहीं होता।’

               अन्तर्राष्टीय ख्याति प्राप्त गायक पण्डित विधाधर व्यास ने लिख है- उनका रागों का चयन और वादन बहुत नपा-तुला था। लयकारी, तिहाईयाँ ओर सवाल- जवाब का भरपूर उपयोग उन्होंने किया और खूब तालियाँ बटोरीं।

वरिष्ठ संगीत समीक्षक और लेखक डॉ. मुकेष गर्ग का मानना है कि ऐसी बहुत सारी बातें हैं जो पण्डित रविशंकर के प्रगतिशील नजरिये को उजागर करती हैं। उदाहरण के लिये राग से किसी रस विशेष को जोड़ना भी, वे ठीक नहीं समझते थे।

 

               पण्डित रविशंकर के साथ कई वर्षों तक तबला संगति करने वाले मसहूर तबला बादक विक्रम घोष बताते हैं-‘ पण्डित  जी जहाँ भी जाते थे थोड़ा बहुत वहीं के हो जाते थे।

 

               विदेश में निरन्तर साथ रहने वाले तबला वादक बताते हैं-‘समयकी पाबन्दी कोई उनसे सीखे, कार्यक्रम में जितना समय निर्धारित उतना ही बजाना। निश्चित  समय पर सोना, जागना,ब्रेक फास्ट लंच डिनर और किसी से भी मुलाकात का समय निश्चित , इतना अनुशासित संगीतकार मैंने तो दूसरा कोई नहीं देखा।

        ओशो ने भी एक स्थान पर लिखा है कि रविशंकर अपने समकालीन संगीतज्ञों की तुलना में इसलिए अधिक सराहे गये क्योंकि वे सभी पूर्वाग्रहों को ताक में रखकर नव्यता के आग्रह को स्वीकार कर लेते थे।

       1अगस्त सन् 1971 को बाग्लादेश कें लिए मैडिसन स्क्वायर न्यूयार्क में पण्डित रविशंकर ने दुनियाँ का सबसे बड़ा राहत कोष जुटाने का कार्यक्रम किया था।

      अस्सी के दसक में महात्मा गांधी के जीवन पर आधारित फिल्म गांधी के निर्माण की जिम्मेदारी जब ब्रिटिस निर्माता निर्देशक सर रिचर्ड एटनबरो को सौपी गई तो फिल्म की भारतीय पृष्ठ भूमि के अनुरूप संगीत देने के लिये सबसे पहले पण्डित रविशंकर का नाम ही ध्यान में आया। इससे बात पण्डित रविशंकर को हर्ष का पारावार न रहा।

                अभिताभ बच्चन लिखते है कि मैं उनसे कई बार मिल चुका था, मेरे बाबूजी के वो बेहद अजीज थे।

                कवि संस्कृति मर्मज्ञ डॉ. कैलाश वाजपेयी जी ने लिख है कि मेरी पत्रकार मित्र ने पण्डित रविशंकर से प्रश्न किया-ऊँ शब्द है या... पण्डित जी उसे झट से समझारते हुए बोले- ऊँ नाद ब्रह्म का सर्वोच्च उदगान है।वहाँ न अ ठहरता है न उबस गोलाकार होकर होठ बन्द होते हैं ओर काकू से एक ध्वनि भर निकलती है ऊँ। वह भारतीय संस्कृति की एक निर्व्याख्या खोज है। ऊँ  ही नादों का नाद हैं सारा दिग्काल इसी से गुंजित हैं। संगीतकार, वीणा, वेणु, सितार आदि की अगाध गहराई में डूबा कलाकार नाद अनुसंधान करते करते अन्त में ऊँ में ही खो जाता हैं। ऊँ नाद की सिद्धि का ही नाम हैं।

          पण्डित रविशंकर के अनेक शिष्यों ने अपनी पहचान बनाई है, जैसे- विजय राघव राव अच्छे बांसुरी वादक हैं।गोपाल कृष्ण विचित्र वीणा बजाते हैं। सत्य देव पवार बेला बजाते हैं। लक्ष्मीशंकर गाने में हैं और जया विश्व , शुभेंदुराव तथा शमीम अहमद सितार बजाते हैं। विश्व  मोहन भट्ट गिटार बजाने में माहिर हैं।

 

               पण्डित जसराज ने पण्डित रविशंकर के अवसान पर कहा था-‘ पण्डित जी राष्टीय विरासत थे।उन्होंने संगीत और उसके भविष्य के लिये जो किया वही उनकी विरासत हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान, भारतीय संगीत को अन्तर्राष्टीय पटल पर ले जाना और स्थापित कर देना था।

               पण्डित रविशंकर ने अपनी फोटो को कापी राइट किया था। किसी भी प्रकार का प्रकाशन उनकी अनुमति से ही किया जा सकता था।

     हिन्दुस्तान टाइम्स की मासिक पत्रिका कादम्बनी में प्रकाशित लेखक दिनेश पाठक जी उनके इन्टरव्यू की प्रति लेकर उनसे मिलने पहुँचे तो इन्हें उनने बुला लिया और उत्सुकता से उसे देखते रहे।

               11दिसम्बर 2012 को प्रख्यात सितार वादक पण्डित रविशंकर का अमेरिका में निधन हो गया। उस समय वे 92 वर्ष के थे।

               पण्डित रविशंकर ने जीवन को भरपूर जिया। नौ दसक लम्बी जीवन सभा... सम्पूर्ण संसार में विस्तारित सभा... अविस्मरणीय सभा... इस संगीतमय जीवन सभा के मर्म में थी सितार सम्राट की स्वीकारोक्ति। इन्हीं शब्दों के साथ हम सब भी ऐसे महान सितार वादक को अपनी भावभीनी श्रद्धान्जिली अर्पित करते हैं।

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कृति का नाम- भारत रत्न पंडित रविशंकर

                    नव्यता के नायक

लेखक- दिनेश पाठक

वर्ष-2021

प्रकाशक-संचालक, संस्कृति संचालनालय

                 मध्यप्रदेश भोपाल                                      समीक्षक-   रामगोपाल भावुक

    Email- tiwariramgopal5@gmail.com

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