कंचन मृग - 43. पर सिद्धि योग नहीं है Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 43. पर सिद्धि योग नहीं है

43. पर सिद्धि योग नहीं है-

उदयसिंह, देवा और कुँवर लक्ष्मण राणा तापस वेष में सुमुखी की खोज में चलते रहे। चर्मण्वती की वादियों में घूमते हुए एक पहाड़ी पर रात्रि निवास किया। पहाड़ी बहुत ऊँची नहीं थीं। पहाड़ी के ऊपर एक कुंड था। उसका जल निर्मल था। उसी में सायंकाल स्नान कर सन्ध्या वन्दन किया। उदयसिंह ने देवा से ज्योतिषीय गणना करने के लिए कहा। थोड़ी देर तक गणना करने के पश्चात् उन्होंने कहा,’ सुमुखी कहीं निकट ही होनी चाहिए।’’
‘‘यहीं निकट ही?’
‘हाँ’’
‘तो शीघ्र ही उधर प्रस्थान करना चाहिए।’’ कुँवर लक्ष्मण राणा ने कहा।
‘पर सिद्धियोग नहीं हैं।’ देवा बोल पड़े।
‘आप की यह वाणी हम में कोई उत्साह नहीं पैदा करती।’’ लक्ष्मण राणा का स्वर तिक्त हो उठा था।
‘ क्या करूँ शास्त्र विचार जो अनुमति देता है, वही कहता हूँ।’’ देवा ने शान्त भाव से उत्तर दिया।
‘हमें प्रयत्न करना चाहिए। परिणाम हम माँ शारदा पर छोड़ दें।’’ उदयसिंह तैयार होने लगे।
‘थोड़ा उपाहार साथ में है, उसका पान कर लिया जाए।’’
देवा ने प्रस्ताव किया। तीनों ने उपाहार लिया। कुंड से जल निकाल कर पिया ‘‘आज यदि अश्व होते तो हमें सुविधा होती।’ कुँवर ने कहा।
‘अश्व तो शिशिरगढ़ के पास ही छोड़ आए हैं, यहाँ से दूरी भी अधिक है। उदयसिंह ने शीश सहलाते हुए कहा। तीनों चल पड़े। रात अँधेरी थी। बीहड़ का क्षेत्र, काफी सँभल-सँभल कर पग उठाना पड़ता। कुछ दूर निकल जाने पर उन्हें प्रकाश दिखाई पड़ा। वे उधर ही बढ़ते रहे। निकट पहुँचने पर देखा कि वह प्रकाश अलाव का था। काष्ठ के बीच कोई सुगन्धित पदार्थ भी डाला गया था जिससे सम्पूर्ण वातावरण महमहा रहा था। पर वहाँ कोई व्यक्ति नहीं था। देवा को लगा कि अधिक देर तक यदि यहाँ रहा गया तो सभी अचेत हो सकते हैं। ‘यहाँ रुकना उचित नहीं है।’ देवा के संकेत को समझ कर तीनों आगे बढ़ गए। पर यहाँ अलाव किसने जलाया? यह प्रश्न मन में बना ही रहा। वे वहाँ से हट तो गए पर कुछ दूर जाकर ठिठक गए। एक टीले पर बैठ कर अलाव की ओर देखते रहे। धीरे-धीरे अलाव का प्रकाश कम होने लगा। जब प्रकाश काफी कम हो गया तो कुछ लोग एक ओर से आए। उनके कटि प्रदेश पर नाम मात्र का वस्त्र था। केश खुले थे। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि वे सभी नर ही हैं या उनमें नारियाँ भी हैं? वे जोड़े बनाकर बैठ गए। बीच में कुछ पात्र रखे गए। वे पात्र उठाकर मुँह में लगाते और दो घूँट पीकर फिर दूसरे के मुँह में लगा देते। वह भी दो घूँट पीकर तीसरे के मुँह में लगा देता। यही क्रम कई बार चला। कुछ बुदबुदाहट के स्वर से लग रहा था कि वे किसी मन्त्र का उच्चारण कर रहे हैं। लगभग एक प्रहर तक यही क्रम चलता रहा। स्वर कभी धीमा हो जाता कभी अधिक तीव्र, उन्मत्तता का आवरण लिए हुए। धीरे-धीरे जोड़े अधिक चंचल होने लगे।
तीनों की आँखें इन्हीं लोगों पर लगी थीं। जोड़े आलिंगन बद्ध हो गए। तीनों को खर्जूरवाहक के मन्दिरों का स्मरण हो आया। रात्रि का पिछला प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। पक्षी यदा-कदा कोई स्वर निकाल चुप हो जाते। उलूक और शृंगाल भी चुप हो गए थे। अचानक तीन अश्वारोही तीव्र गति से अलाव के निकट पहुँचे। उन्होंने कड़े स्वर में डाँट कर लोगों को खड़ा किया। जोड़े अब भी उन्मत्तता से उबर नहीं पाए थे।
एक अश्वारोही ने तलवार की नोक पर उन्हें पंक्ति बद्ध कराया। जोड़ों में से एक-एक को खींच कर दूसरी पंक्ति में खड़ा किया। अग्नि में काष्ठ दंड डालकर उसे प्रज्ज्वलित कर दिया। दूर से भी सम्पूर्ण दृश्य साफ दिखने लगा।
‘‘ अश्वारोही इन लोागों का वध कर देंगे, शीघ्रता करो’’
यह कह कर उदयसिंह टीले पर से नीचे भागे। देवा और कुँवर लक्ष्मण राणा भी दौड़े। दो अश्वारोहियों ने एक-एक कर एक पंक्ति के पाँचों लोगों का वध कर दिया। दूसरी पंक्ति में वामाएँ थीं। उन्हें उठाकर घोड़ों की पीठ पर डाल दिया। वे स्वयं कूद कर चढ़ने ही जा रहे थे कि उदयसिंह, देवा और कुँवर लक्ष्मण राणा ने दूर से ललकारा। तीनों को पैदल देखकर आश्वारोहियों ने इन्हें सामान्य तापस ही समझा। वे एक क्षण ठिठके। फिर कूद कर अश्वों पर बैठे और एड़ लगा दी। तीनों जब तक स्थल पर पहुँचे, अश्वरोही निकल गए थे। रक्त से लथपथ पाँच पुरुष सिर और उनके धड़ वहीं पड़े थे। आज अश्व साथ न होने का दुःख तीनों को कचोट गया। यदि धनुष और तीर साथ होता तो वे अश्वारोहियों को जाने न देते। उषा का आलोक फैलने लगा था। तीनों ने अश्वारोहियों का पीछा करने का निर्णय लिया।