कंचन मृग - 1 अपराध हुआ रानी जू Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 1 अपराध हुआ रानी जू

1. अपराध हुआ रानी जू

‘चित्ररेखा’ ,
चित्ररेखा दौड़ती हुई चन्द्रावलि के सामने अपराधी की भाँति आकर खड़ी हो गई। उसकी खड़े होने की मुद्रा से चन्द्रा को हँसी आ गई। उसने पूछा ‘आज इतने श्रृंगार की आवश्यकता कैसे पड़ी, चित्रे?’
चित्रा की आँखें ऊपर न उठ सकीं। चित्रा चन्द्रा की मुँहबोली सेविका होने के साथ ही अभिन्न सहेली भी थी। चित्रा के मन की बातें चन्द्रा पढ़ लेती थी और चित्रा से भी चन्द्रा के अन्तर्मन की बात छिपती न थी। सावन का महीना लग चुका था। विवाहिताएं मैके आकर किलोल करने लगीं थीं। चित्रा के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। भाई- बहन भी कोई नहीं था। सावन का आनन्द लेने के लिए वह कहाँ जाए? एक तो छुट्टी का प्रश्न था दूसरे वह जाए तो कहाँ जाए? एक मुग्धा की भाँति अटारी पर चढ़ी ‘एक चना दो देउली माई साउन आए’ गुनगुनाती सूर्यास्त देख रही थी कि चन्दन ने पीछे से आकर अपने बाएं हाथ से उसकी आँखें मूँद लीं। उसके शरीर में जैसे विद्युतधारा दौड़ पडी़। शरीर के अवयव फड़कने लगे किन्तु ऊपर से उसने ऐसा अभिनय किया जैसे वह रुष्ट हो गई हो। चन्दन का हाथ छुड़ाकर उसने रोषपूर्ण दृष्टि से उसे देखा। चन्दन दो कदम पीछे हट कर खड़ा हो गया। उसे लगा कि उसने चित्रा को व्यर्थ ही रुष्ट कर दिया। वह उसकी मनुहार करने लगा। उसे डर था कि कहीं यह घटना चन्द्रा तक न पहुँच जाए। चित्रा ने डाँट कर कहा भी था कि रानी जू से कह देगी। चन्दन की दाईं मुटठी में कुछ बन्द था। चित्रा ने मुट्ठी खोलकर देखा तो आश्चर्य में पड़ गई। वह मुद्रिका थी। चन्दन भी कुछ उसे उपहार में दे सकता था, इसकी उसे कल्पना न थी। उसका रोष विलीन हो गया। मुस्करा कर उसने चन्दन का हाथ अपने हाथों में लेकर दबा दिया। चन्दन भी चन्द्रा की ही सेवा में था। आज दोनों आपस में खिलखिला कर बातें करते आ रहे थे। चित्रा प्रसन्न थी। उसने नए परिधान पहन लिए थे। चेहरे की चमक और उत्तम परिधान के बीच आज वह स्वप्न परी सी लग रही थी। चन्द्रा की दृष्टि उन पर पड़ी तो उसे लगा कि कुछ पक रहा है। चित्रा भी समझ रही थी कि रानी जू उसके अन्तर्मन की बात पढ़ चुकी हैं। इसीलिए चुपचाप खड़ी हो गई और चन्दन दूसरी ओर चला गया।
‘मैं समझती हूँ सावन लग गया है न’, चन्द्रा ने कहा, ‘पर अधिक ठिठोली ठीक नहीं।’
‘अपराध हुआ रानी जू’।
‘यह कोई अपराध नहीं है चित्रे, लोग कहते हैं कि प्रसन्नता व्यक्त करने में भी थोड़ा संयम रखना चहिए, पर मैं ही ऐसा कहाँ कर पाती हूँ? सावन की फुहार पड़ते ही मन भीग उठता है, अंग-अंग फड़कने लगते हैं। यह फुहार ही कुछ ऐसी है!’
‘और फिर यहाँ का सावन’, चित्रा बोल पड़ी।
‘यहाँ का सावन तेज और श्रृंगार का संगम है रे। देखती नहीं, बालक बालिकाएँ उत्सव की तैयारी में मग्न हैं। यहाँ सावन जल नहीं, रस बरसाता है। कीर्तिसागर पर होने वाला यह महोत्सव सब को उन्मत्त कर देता है चित्रे, इसीलिए नगर का महोत्सव नाम सार्थक लगता है।’
‘आप ठीक कहती हैं रानी जू। इतना रस, इतना उल्लास मैंने कहीं नहीं देखा।’
‘अभी तेरी अवस्था ही कितनी है चित्रे? लगता है तेरा हाथ बहुत जल्दी पीला करना पड़ेगा।’
चित्रा का चेहरा लज्जा से आरक्त हो उठा, ‘अभी इतनी शीघ्रता क्या है रानी जू ?’
‘तेरे बाल सुलभ किलोल में अवरोध पैदा हो जाएगा न ?’
चित्रा रानी जू की ओर बढ़कर, उनके केश सँवारनें लगी। वह इस कला में पटु है। उसकी बनाई हुई सुन्दर चिकुर राशि देखकर ही चन्द्रा ने उसे अपने पास रखा था। केशों से खेलना जैसे उसका स्वभाव हो। चन्द्रा ने आँखें बन्द कर लीं और चित्रा केश के विभिन्न रूप बनाने लगी । केश सँवारती और धीरे-धीरे गुनगुनाती रही-
‘केश: संयमिनः श्रुतेरपि परंपारगते लोचने।’
‘भर्तृहरि की ये पंक्तियाँ कहाँ से सीखी चित्रे?’
‘आप ही से रानी जू’।
‘मुझसे!’
‘हाँ आप ही के श्रीमुख से सुनकर’।
‘तू अत्यन्त प्रवीण है रे।’
‘आप की कृपा है रानी जू, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।’
चन्द्रा की केश राशि को सजाते चित्रा पूछ बैठी,
‘रानी जू, आप ने खर्जूरवाहक के मन्दिरों को देखा है ?’
‘कई बार, बड़े भव्य मन्दिर हैं वैसे अन्यत्र दुर्लभ हैं।’
‘सुना है केलिरत शंकर-पार्वती का भव्य चित्रण है उन मन्दिरों में।’
‘केवल शंकर-पार्वती का ही नहीं, अन्य देवी-देवताओं तथा सामान्य जन की भी काम-क्रीड़ाओं का बड़ा उदात्त चित्रण है। काम जीवन का अंग है। लोगों ने उसे साधना-द्वार तक कहा है। बहुतों के लिए खर्जूरवाहक के मन्दिर एक पहेली हैं पर उन मूर्तियों के मुख मंडल पर जो भाव अंकित हैं वे अपनी कथा स्वयं कहते हैं चित्रे। काम पर विजय पाना या उससे भागना सम्भव नहीं है। अनेक ऋषियों के प्रयास केवल मृग-तृष्णा ही सिद्ध हुए। काम का उदात्तीकरण एक नई दिशा प्रदान करता है।’
‘तू चुप क्यों हो गई चित्रे ?’
‘यह सब मेरी समझ से परे है रानी जू।’
‘पर सब समझेगी। अभी तो अठखेलियों की अवस्था है न। खजुराहो की गर्भ-गृह की पूजार्थ स्थापित मूर्तियाँ अधिकांश स्थानक मुद्रा में हैं। मुख्य देवता के पार्श्व में बनी मूर्तियाँ शिव-पार्वती, राम-सीता, बलराम-रेवती, गण-विघ्नेश्वरी, काम-रति आदि, कन्दरिया महादेव की सप्त मातृकाएँ- अधिकांशतः आलिंगन मुद्रा में हैं तथा सम्मुख दर्शन सिद्धान्त पर बनी हैं। अप्सराओं, सुर-सुंदरियों की मूर्तियाँ ऐन्द्रिय आह्लाद के स्रोत तथा परम मोहिनी महामाया की संदेश वाहिका हैं। विभिन्न काम दृश्यों में भी उन के मुख मंडल पर आश्चर्यजनक शान्ति है। उनमें कौल एवं कापालिक साधकों की अभिचार क्रियाएं भी प्रदर्शित हैं। सामान्य जीवन की मूर्तियों में भी मिथुन युगल अधिक हैं। पशुओं की भी पर्याप्त मूर्तियाँ अंकित हैं।’
‘अब कभी आप चलेंगी रानी जू तो मैं भी सेवा करने के लिए चलूँगी।’
‘अवश्य चलना।’