कंचन मृग - 7. यह क्या हो गया दीदी ? Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 7. यह क्या हो गया दीदी ?

7. यह क्या हो गया दीदी ?

दशपुरवा में आल्हा की बैठक में भारी भीड़ है। सभी अपने-अपने ढंग से सोच विचार में मग्न हैं। बहुत से लोग प्रतिक्रिया न व्यक्त कर आल्हा के निर्देश की प्रतीक्षा में हैं। रूपन ने पहुँच कर प्रणाम करते हुए निवेदन किया कि महाराज ने भेंट करने की अनुमति नहीं दी। उनकी इच्छा है कि तत्काल हम लोग यहाँ से कहते कहते रूपन की आँखों में अश्रु भर आए। बैठक में सभी के मुखमण्डल पर विभिन्न प्रकार के भाव आ-जा रहे थे। कुछ आक्रामक तेवर के साथ कुछ कहना चाहते थे आल्हा ने रोक दिया। उदयसिंह भी कुछ कहना चाहते थे पर आल्हा के संकेत पर चुप हो गए।
‘हमने इस धरती को माँ की तरह जाना है। इसकी गोद में पले। इसी का अन्न और जल ग्रहण किया। चन्देल महाराज परमर्दिदेव हमारे पिता तथा महारानी मत्न्हना हमारी माता हैं। यदि उन्होंने इच्छा व्यक्त की है कि हम महोत्सव छोड़ दें तो हमें उसका प्रसन्नता से पालन करना चाहिए।’
‘पर हमारे निष्कासन का कारण नहीं बताया गया’ कुछ स्वर उभरे।
‘यह आवश्यक नहीं है। राम ने महाराज दशरथ से वनवास का कारण नहीं पूछा था। दशरथ का निर्देश हुआ और राम चल पड़े। यह धरती त्याग एवं बलिदान चाहती है। पश्चिम से बार-बार भारत पर आक्रमण हो रहे हैं। अपनी शक्तियों को व्यर्थ ही नष्ट न किया जाए। अपना श्रम हमें कहीं न कहीं सेवा का अवसर प्रदान करेगा ही। अपने बाहुओं पर विश्वास रखो। हमें तत्काल यहाँ से चल देना चाहिए।’ माण्डलिक कहते रहे।
आकाश में बादल घिरे हुए थे। हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी। कुछ क्षण में बारिश तेज हो गई। बैठक में व्यवधान उपस्थित हो गया। थोड़ी देर में पानी की धार टूटी। निष्कासन की सूचना मिलते ही आसपास के लोग दौड़ पड़े। जनसमूह ने दशपुरवा पूरी तरह छाप लिया। सभी उद्विग्न किन्तु कुछ भी कहने में असमर्थ। एक ओर आल्हा-उदयसिंह का स्नेहपूर्ण व्यवहार, दूसरी ओर राजाज्ञा का दंश। दोनों भाई किसी भी अन्याय-अत्याचार का प्रतिकार करना अपना धर्म समझते थे किन्तु आज आल्हा ने समझाया, ‘प्रतिकार का अन्यथा अर्थ लिया जाएगा। षड्यन्त्रकारियों को और भी बहुत कुछ करने का अवसर मिल जायेगा। अतः इस आज्ञा को शिरोधार्य करना ही नैतिक है। माँ शारदा का निर्देश समझकर, हमें यहाँ से प्रस्थान करना चाहिए।’ जनसमूह को दोनों समझाकर शान्त करते रहे। बीच-बीच में करुण चीत्कार का उभार। परिवार के सभी सदस्यों को तैयार कराने का भार उदय सिंह को सौंपकर आल्हा जनसमूह को शान्त करने में लग गए।
नरवर नरेश की कन्या पुष्पिका का पाणिग्रहण उदय सिंह के साथ हुआ था। कुसुम कलिका सी वह सुकुमार किन्तु दृढ़ इच्छाशक्ति से परिपूर्ण थी। उसने अभी कुल पन्द्रह वसन्त ही देखे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, कोमल किन्तु मांसल गात अनुभवों की झकोर से परिपक्व नहीं हुए थे। उसकी हँसी लोगों को मुग्ध कर लेती थी। सौन्दर्य कलिका सी वह बाल सुलभ क्रीड़ाओं में अधिक रुचि लेती थी। आज उद्यान में अशोक के नीचे खड़े हो वह कोमल पदाघात से उसे पुष्पित देखना चाहती है। उसने सुन रखा था कि सुन्दरियों के पदाघात से अशोक पुष्पित हो उठता है। वह पदाघात दे रही थी कि सुवर्णा ने प्रवेश किया। पुष्पिका को पदाघात करते देख उसे हँसी आ गई। हँसी के स्वर से पुष्पिका चौंकी। सुवर्णा को देख वह उधर शीघ्रता से बढ़ी और आँचल का एक कोना पकड़कर उसका चरण स्पर्श किया। सुवर्णा ने उसे उठाकर गले लगाते हुए कहा,‘अशोक वसन्त में पुष्पित होता है। वास्तविकता और कवि समय में अन्तर करना सीखो’। इसी बीच उदय सिंह आ गए। उदय सिंह के आरक्त नयन, फरफराते ओठ, कुछ कहते इसके पूर्व ही सुवर्णा बोल पड़ी, ‘मैं जान चुकी हूँ देवर जी। प्रस्थान कब करना हैं?’
‘शीघ्र ही’।
‘आप सभी को तैयार करा लें। मैं तब तक लोगों को देखता हूँ।’ उदय सिंह की आँखें भर आई। सुवर्णा भी अपने को रोक न पाई।
‘ठीक है। मैं व्यवस्था कर रही हूँ’, उसने कहा ।
एक दृष्टि पुष्पिका पर डाल उदय सिंह लौट पडे़।
‘यह क्या हो गया दीदी ?’
‘वही जो ईश्वर करता है।’
‘क्या हम लोगों का कोई स्थान नहीं है ? जो कुछ है राजा का है?’
दोनों शीघ्रता से उद्यान पार करने लगीं। इसी बीच कुमार ईंदल भी आ गया। वह धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। अचानक दौड़ धूप से वह कुछ समझ नहीं पाया, सीधे माँ के पास आ गया।
‘माँ सभी उद्विग्न क्यों हैं? क्या कुछ अनुचित घट गया है माँ।’
माँ कुछ ठिठकी तो उसने पुष्पिका से पूछा,
‘छोटी माँ तुम्हीं बताओ न ?’
‘हम लोगों को यहाँ से बाहर जाना है बेटे।’
‘तब तो बहुत आनन्द आएगा माँ। आप उदास क्यों हैं ?’
‘क्या मैं खेलने जाऊँ ?’
‘वत्स, अब समय नहीं है।’ ईंदल भी दोनों के साथ चल पड़ा।
सुवर्णा नीति निपुण कुशल गृहिणी तो थी, युद्ध कला में भी निष्णात थी। घर से लेकर युद्ध क्षेत्र तक वह पति माण्डलिक का सहयोग करती । सुवर्णा और पुष्पिका दोनों का आपसी स्नेह अनुपम था। दुःख-सुख में दोनों मिलकर, आल्हा-उदयसिंह का भरपूर सहयोग करतीं। दोनों घुड़सवारी में निपुण थीं। यह कौशल उन्हें स्वयं को सुरक्षित रखने में सहायक ही नहीं होता बल्कि सैन्य संचालन में भी उपयोगी बनाता।