8. हर व्यक्ति चुप है- चन्द्रा मुँह ढाँप बिस्तर पर पड़ी है। चित्रा पंखा झल रही है। चित्रा चन्द्रा को प्रसन्न करना चाहती है पर उसे कोई युक्ति नहीं सूझती। उसने शक्ति भर प्रयास भी किया पर चन्द्रा के कष्ट को कम न कर सकी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? चन्द्रा की विकलता कम होने की अपेक्षा बढ़ती जा रही थी। चित्रा मन बहलाने के लिए कोई कथा या संवाद सुनाने का प्रयास करती पर इससे चन्द्रा की अशान्ति कम न होती। कभी-कभी मन और उद्विग्न हो उठता। चित्रा ने कहा कि लहुरे वीर से वह मिली थी। लहुरे वीर का नाम आते ही चन्द्रा उठकर बैठ गई, ‘क्या उन्होंने कुछ कहा था ?’ चित्रा ने बताया कि उनकी आँखों में नगर छोड़ने की पीड़ा लहरा रही थी। उन्होंने कहा, ‘बहन से कह देना, बहुत दुःखी न हो। महोत्सव की आन के लिए महारानी को प्राणदान दे चुका हूँ। जब तक उदय सिंह जीवित हैं, महोत्सव को कोई आँख उठाकर देख भी नहीं सकेगा।’ कहते -कहते उनकी आँखें भर आई थीं। चन्द्रा की आँखें भी नम हो गईं।
‘लोग कहते हैं सत्ता का मोह मनुष्य को कुछ भी करने के लिए बाध्य कर देता है। मैं माँ से कहूँगी कि राजाज्ञा असंगत है। लहुरा वीर प्रलोभनों से अपना मार्ग निर्धारित नहीं करता। पर एक औरस पुत्री को भी इतना अधिकार कहाँ कि वह राजाज्ञा में परिवर्तन करा सके। यह जानते हुए कि इस राजाज्ञा के पालन से महोत्सव का ही संकट बढ़ जाएगा, हर व्यक्ति चुप है। तात ब्रह्मजीत और समरजीत भी मौन हैं और माँ.....माँ को तो जैसे काठ मार गया है। चित्रे, महामन्त्री देवधर से मैं मिलना चाहती हूँ।’
चित्रा महामन्त्री आवास की ओर दौड़ जाती है। चन्द्रा टहलने लगती है। खिड़की से मातुल को सीढ़ियों पर चढ़ते देखकर थोड़ा पीछे हट जाती है। कुछ क्षण में मातुल माहिल बैठक में आ जाते हैं। चन्द्रा उन्हें प्रणाम करती हैं। आशीष देते हुए बोल पड़ते हैं ‘चन्द्रे, इस समय तू बहुत चिन्तित हो उठी है।’
‘हाँ मातुल , जब से दोनो भाइयों के निष्कासन का आदेश सुना है, मैं अत्यन्त व्यथित हूँ।’
‘क्यों’ ? परिवार के किसी सदस्य को महाराज ने निष्कासित नहीं किया है। यह निष्कासन कितना आवश्यक था इसे तुम सम्भवतः नहीं समझ सकोगी।’
‘क्योंकि राजदण्ड मेरे हाथ में नहीं है।’
‘नहीं राजदण्ड की बात नहीं है। किसी सामन्त के पंख जब बहुत बढ़ने लगें तब उसे काट देना आवश्यक होता है।’
‘किसलिए मातुल? किसलिए? कल आप कहेंगे कि यदि प्रजा अधिक संपत्तिशाली हो जाए तो उसकी सम्पत्ति भी छीन लेनी चाहिए।’
‘सच कहती हो बेटी,! इसे ही राजनीति कहते हैं। सत्ता में बने रहने के लिए अपने से अधिक सामर्थ्य अर्जित करने वाले को सामर्थ्यहीन बनाना ही पड़ता है।’
‘क्या दोनों भाइयों से चन्देल सत्ता डगमगा रही थी ?’
‘सम्भावना से कैसे अस्वीकार किया जा सकता है? सत्ता और शक्ति का अटूट सम्बन्ध ही नहीं है, सत्ता शक्ति पर ही आश्रित है।’
‘सत्ता नहीं मातुल, सत्ता के निकट रहने वालों का वर्चस्व नहीं स्थापित हो रहा था।’
‘मुझे लांछित करना चाहती हो?’
‘मैं किसी को लांछित नहीं करना चाहती, पर महोत्सव की सुरक्षा अवश्य चाहती हूँ। मातुल अपनी प्रतिहिंसा में पूरे राज्य को न जलाइए। मैं जानती हूँ दोनों भ्राताओं के सम्मान से आपको ठेस लगती हैं पर उपाय क्या है? उनके परिश्रम से ही महोत्सव निरन्तर प्रगति कर रहा है। पड़ोसी राज्य आँख उठाकर नहीं, सद्भावना से देखते हैं।’ ‘कितनी भोली है मेरी भागिनेयी?’ कहते हुए माहिल हँस पड़े। ‘राजनीति इतनी सरल नहीं है। पड़ोसी सद्भावना रखते हैं केवल इसलिए कि मैं निरन्तर उनसे सम्पर्क बनाए रखता हूँ, उनके सुखःदुःख में भागीदार होता हूँ। सम्पर्क करते-करते मेरी एड़ियाँ घिस गईं तब महोत्सव में सुख है, शान्ति है।’
‘क्या उन दोनों भ्राताओं का कोई योगदान नहीं?’
‘योगदान होता तो उन्हें निष्कासित किया जाता? सच तो यह है कि उन्होंने चारो ओर प्रतिरोध ही उगाया है और उनकी दृष्टि महोत्सव पर ‘कहते-कहते माहिल रुक गए।
‘कहो मातुल, यह भी कहो कि वे चन्देल सत्ता हड़प लेना चाहते थे।’
‘उत्तम चन्देल कुल में वनस्परों की ओछी जाति का कोई औचित्य नहीं बनता चन्द्रे’, माहिल ने बात की दिशा मोड़ दी।
‘कुल और जाति तो बनते-बिगड़ते रहे हैं मातुल ! सत्ता पाते ही कुल की श्रेष्ठता के प्रमाण जुट जाते हैं। अब तक कितने कुल, कितनी जातियाँ ऊपर नीचे हुई आप जानते ही होंगे। कुल की उत्तमता का बिगुल बजाकर दूसरों को हीन करना क्या संगत है मातुल?’
‘श्रेष्ठ कुल ही सत्ता के अधिकारी होते हैं इसे आप क्यों भूल रही हैं?’
‘आप विग्रह बढ़ाना चाहते हैं तो बढ़ाइए मातुल, पर मुझे भी विचार करने दीजिए।’ माहिल चन्द्रा का संकेत समझ गए। धीरे-धीरे वे सीढ़ियों से उतर गए।
महाराज परमर्दिदेव अन्तः पुर में मल्हना के साथ बैठे हैं। उनके मुख मण्डल पर दुःख
एवं चिन्ता के भाव स्पष्ट हैं। महारानी चुप हैं। इसी बीच चन्द्रा भी आकर बैठ जाती है। राजकुमार ब्रह्मजीत और समरजीत भी आ जाते हैं।
‘क्या तुम सभी सोचते हो कि मैंने अनुचित किया है ?’
‘हाँ’, ब्रह्मजीत बोल पड़े, ‘हम लोगों को माण्डलिक का निष्कासन अनुचित प्रतीत होता है।’
महाराज के संकेत करते ही एक बन्दी उपस्थित किया गया। उसके दोनों हाथ बँधे हुए थे।
‘तुम्हें किसने शिशिरगढ़ भेजा था?’ महाराज ने पूछा।
‘कुँवर उदय सिंह जी ने’ बन्दी उत्तर देते थरथरा उठा।
‘कोई सन्देश ?’
‘शिशिरगढ़ में मन्त्रिवर पुरुषोत्तम को पत्र देना था।’ कहते हुए बन्दी रो उठा। महाराज ने संकेत किया और बन्दी को पुनःनियत स्थान पर भेज दिया गया। महाराज ने पत्र निकाला और ब्रह्मजीत को दे दिया। पत्र पढ़ते ही ब्रह्मजीत के नथुने फड़क उठे। उस पत्र को समरजीत और चित्रा ने भी देखा। दोनों को जैसे काठ मार गया हो। महाराज ने पूछा ‘अब!’
किसी के मुख से शब्द नहीं फूटे, चन्द्रा जैसे जड़ हो गई।
‘यह पत्र प्रामाणिक है?’ समरजीत ने पूछा।
‘इस पर माण्डलिक की मुद्रा अंकित है।’
‘इसे कैसे बन्दी बनाया गया ?’
‘यह तो तुम्हारे मातुल की सावधानी से बन्दी हुआ।’
‘इस पत्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में माण्डलिक से सम्पर्क करना चाहिए’, ब्रह्मजीत ने सुझाव दिया। इसी बीच मन्त्रिवर माहिल भी आ गए थे। बैठते हुए बोल पड़े
‘माण्डलिक क्यों स्वीकार करेंगे कि यह पत्र उनका है? इसका निर्णय तो हमें करना है, आपको करना है। कोई षड्यन्त्रकारी कब कहेगा कि उसने षड्यन्त्र किया है ?’
‘दोनों भ्राताओं ने हमें इतना स्नेह दिया है कि हम इस घटना को अंगीकार नहीं कर पा रहे हैं’, चन्द्रा से नहीं रहा गया।
‘यही धरती का सच है’ माहिल बोल पड़े। ‘इसीलिए महाराज को कठोर निर्णय लेना पड़ा । यह निर्णय आप सबके हित में है’ कहते हुए माहिल मुस्करा उठे। महाराज परमर्दिदेव उठ पड़े और उन्हीं के साथ अन्य लोग भी।