3. उड़ि जा रे कागा
रूपन को घर छोड़े पूरे बारह महीने बीत गए। पुनिका प्रायः आकर रूपन की माँ को ढाढ़स बँधाती, पत्तल बनाने में उसकी सहायता करती । रूपन को दम मारने की फुर्सत नहीं थी। वह उदयसिंह का विश्वास पात्र सैनिक था। उदयसिंह हर कहीं उसे साथ रखते। रूपन भी अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ‘न’ करना उसने सीखा नहीं था। संकटपूर्ण स्थितियों का सामना करने में वह दक्ष हो गया था। पर घर छूट गया था। माँ घर पर थी। कुछ ड्रम्म और संदेशा मिल जाता पर उसके मन की साध धरी की धरी रह जाती।
पुनिका की माँ अचानक बीमार पड़ी। जब तक कुछ औशधि आदि का प्रबन्ध होता वह चल बसी। रूपन की माँ को सूचना मिली। वह भागती हुई पुनिका के घर पहुँची। माँ का दाह संस्कार पुनिका के पट्टीदारी के चाचा ने किया। क्रिया कर्म तक वहीं रुक गई। पुनिका की दो बकरियों को चाचा को दे दिया। पुनिका को साथ ले घर आ गई। रूपन का कोई सन्देश महीनों से नहीं आया था। माँ चिन्तित हो उठी। पुनिका उदास होती तो रूपन की माँ समझाती । पर समय बीतने के साथ माँ की चिन्ता बढ़ने लगी। पुनिका ने घर का काम सँभाल लिया था। वह पत्ते तोड़कर लाती। पत्तल बनाती। रूपन की माँ और पुनिका दोनों को सहारा मिल गया था। पुनिका रूपन के बारे में सोचती, उसी ने उसे सैनिक बनने के लिए भेजा, पर अब आँसुओं से उसकी आँखें भीग जातीं। क्या हो गया रूपन को? क्या वह उसे भूल गया है? नहीं, वह भूल नहीं सकता। उसका रूपन ऐसा नहीं है। उसका मन उससे मिलने-बात करने के लिए उमगता पर वह इतनी दूर था कि सन्देश भेजना भी कठिन लगता।
एक दिन वह सोकर उठी। अभी दिन नहीं निकला था। भोर की ताजी हवा शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी। एक कौआ घर की मुँडेर पर आकर बैठ गया। बोला-काँव.....काँव....काँव। पुनिका ने उसे देखा। उसका मुखमण्डल दमक उठा। शायद रूपन का कोई सन्देश मिले। वह मग्न हो उठी, ‘उड़ि जा रे कागा.....
संयोग ऐसा बना कि सायंकाल रूपन अश्व पर सवार हो गाँव आ गया। छोरे-छोरियाँ जो गाँव के बाहर खेल रहे थे, अश्वारोही को देखकर अपने-अपने घरों की ओर दुबक गए। दस्यु भी अश्वों पर सवार हो आते और गाँव में लूटपाट करते। रूपन ने बच्चों को भागते देखा, दो एक को पुकारा भी पर कोई भी रुका नहीं। गाँव के समीप आने पर ग्राम वासियों ने पहचाना। अश्वारोही होने पर गाँव में उसका सम्मान बढ़ गया था। वह सीधे अपने घर पहुँचा। घोड़े को खूँटे से बाँधा । माँ उसे देखकर हड़बड़ा उठी। प्रसन्नता से उमगते हुए उसने रूपन को अंक में भर लिया पर पुनिका डयोढ़ी से बाहर न निकली। रूपन ने माँ से पूछा ‘पुन्ने’ ?’ माँ ने मीठी झिड़की देते हुए कहा, ‘बारह मास बीत गा। कबउ सुधि न लिहव। इत्तै दिन मा दुनिया बदल गइ। कचनार ठूँठ ह्वइ गा। और तैं पूछत ‘पुन्ने’। छोरी कै सुधि नहिं लियो। माई मर गइ पै त्वहिं काऽ। मइ कबै तक देखिहों।’
‘ माई सैनिकन का छुट्टी न बनीं। बरियार समय हउ, कैसउ जुगुत कीन्ह हउँ। कुँवर जी कइ दिन-दिन अभियान चलइ। मोहिका उनके साथइ रहइ क परत हइ। कइयो दिन घ्वारन की पीठि पै....अब मैं का करउँ माई।’
माई माई ही होती है उसका हृदय नवनीत की भाँति पिघल गया। बोल पड़ी, ‘पुन्ने देख रूपन आयउ हइ। वा काउ करइ जब छुट्टी ना मिलइ।’ सलज्ज मुस्कान विखेरती पुनिका निकली। आकर रूपन के आगे खड़ी हो गई जैसे उसने आँखों से ही नमन किया हो। रूपन उसे लेकर आँगन में आ गया। पुनिका का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसने कहा, ‘सैनिक धरम कठिन हइ पुन्ने। मैं आ न सकउँ तउँ को कष्ट…....‘कहते हुए उसकी आँखें भर आई। ‘आज आयउ हइ इत्तै बहुत हइ’ पुनिका ने कहा ‘मोहिका पता न रहेउ कि छुट्टी ना मिलइ नई तो पुटकिया न बँधतिउँ। पर अब गयउ हइ तौ लाज रखिहव।’ ‘भोले शंकर लाज रखिहँइ’, रूपन की वाणी में पीड़ा लहरा उठी। उसका किशोर मन अपनी उपलब्धियाँ गिनाने में लग गया। कैसे-कैसे कार्य उसे करने पड़े और उसे सफलता मिली। माँ भी आ गई। दोनों सुनती रहीं। कुछ क्षण बीत गया तो माँ का ध्यान गया। अभी तो उसे पानी तक नहीं दिया गया है। माँ ने पुनिका से पानी लाने के लिए कहा। रूपन ने अपनी पोटली खोली। वह महोत्सव से मोदक लेकर चला था। पुनिका और माँ के लिए वस्त्र थे। पुनिका एक गेंणुई में पानी ले आई। रूपन ने गेणुई लेकर हाथ मुँह धोया। माँ अपने हाथ से उसे मोदक खिलाने लगी। वह हँस पड़ा। पुनिका भी मुस्करा उठी। रूपन ने पानी पिया। माँ ने मोदक और वस्त्र पुनिका को दिए। वह अन्दर रख आई। तब तक द्वार पर कुछ ग्रामवासी आ गए थे। रूपन और उसकी माँ बाहर आ गए। सभी से राम-राम हुआ। माँ मोदक लाकर सभी में बाँटती रही और रूपन के क्रियाकलापों की चर्चा करती रही। माँ एक मौनी में मोदक ले गाँव के घरों में बाँटने चली गई। रूपन को थोड़ा समय मिला। वह पुनिका के पास आकर बैठ गया।
‘थके हव न’ पुनिका ने कहा।
‘त्वहिंका देखतइ थकान कपूर अस उड़ि गइ।’
‘मैं चीरा से कागा उड़ावत रहिउ।’
‘दिन रात काम के बिचे तोरी सुधि आवत आँखीं भरि आवति। सोचतेंउ काइसेउ पुन्ने से भेंट होइहँय?’
रूपन ने पुनिका को खींचकर अपने पास बिठा लिया। दोनों निःशब्द केवल निकटता का अनुभव करते रहे।
माँ मोदक बाँट कर लौट आई। उसके आते ही पुनिका उठ पड़ी ‘घ्वार’ का खइहय?’ माँ ने पूछा। ‘घास हइ, पात हइ, चना हइ,मैं लगावति हउँ’, पुनिका जल्दी-जल्दी घोड़े के लिए चारा काटने लगी। माँ रूपन के पास बैठ गई। वह रूपन के चेहरे को निहारती रही। रूपन भी असमंजस में था। वह केवल एक रात के लिए गाँव आया था। पर माँ से अभी बताकर वह उसे उदास नहीं करना चाहता था। उसके चेहरे को स्पर्श कर माँ आनन्द का अनुभव कर रही थी। गाँव के वरिष्ठजन भी रूपन का हाल-चाल जानने के लिए आ गए। रूपन अपने अनुभवों को सुनाता रहा। लोग उत्सुक हो सुनते रहे। कुछ ने अपने बच्चों को सेना में भर्ती करने की बात कही।
रूपन ने कुँवर से बात करने की बात कही।
शाम हुई। गाँव के लोग भी धीरे-धीरे अपने घरों को चले गए। पुनिका रोटियाँ सेंकने की व्यवस्था में जुट गई। चने की भिगोई दाल पीसने लगी। माँ रूपन के पास आनन्द मग्न थी। पुनिका की माँ जब स्वर्ग सिधारी उसने रूपन को सन्देश भेजने का प्रयास किया था पर सन्देश देर से मिला, रूपन आ भी न सका। अपनी कोठरी में बैठकर खूब रोया था वह। माँ पुनिका को अपने घर ले आई है यह जानकर उसे सन्तोष हुआ था।
‘माई सकारें म्वहिंका जाइ क हइ।’उसने माँ से कहा। माँ को जैसे छौंका लग गया। ‘तैं चला जइहइ तव पुन्ने?’
‘पुन्ने तेरे पास रहिअ।’
‘म्वहिंका तू अम्मर समझेउ हइन?’
पुनिका चने की दाल पीसती रही पर उसके कान माँ-बेटे की बातों में ही लगे थे। ‘माई चाकरी करन कठिन है छोरन आउर कठिन । अब तउ कुँवर कइ साथ रहनि हइ।’
माँ उठी और दौड़कर गाँव की स्त्रियों को बुला आई। बैठकर विचार किया। ग्रामपति भी आ गए। तय हुआ कि आज ही पुन्ने को रूपन की डोर से बाँध दिया जाए। एक बालिका पुन्ने के पास गई। वह स्वयं दाल पीसने लगी। पुन्ने से घर में बैठने के लिए कहा। रूपन नए वस्त्र लाया ही था। वधुओं ने चौका का काम सँभाल लिया। पुनिका को सहेलियाँ सजाने लगीं। उसे स्नान कराया। नये वस्त्र पहनाए। महावर लगाई। गीत गाए जाने लगे। रूपन चाहता था कि दूसरी बार आए तब धूम-धाम से पुनिका का वरण करे पर माँ ने एक न सुनी । बाँस और केले के पत्ते से छोटा सा मण्डप बना। नापित और पुरोहित आ गए। घर में ही विवाह होना था। जो घराती थे वही बराती। उत्साह और उमंग के बीच रूपन को नहलाया गया। वस्त्र में हल्दी लगाकर पहनाया गया। पुरोहित ने अग्नि को साक्षी बना कर विवाह सम्पन्न कराया।