कंचन मृग - 44. वे स्वयं जाएँगे Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कंचन मृग - 44. वे स्वयं जाएँगे

44. वे स्वयं जाएँगे-

चन्द्रिका की मठिया में महारानी मल्हना और चन्द्रा ध्यानस्थ बैठी हैं। माहिल कुछ क्षण बाद वहीं पहुँच जाते हैं। महारानी से थोड़ा हटकर वे भी बैठते हैं। माँ चन्द्रिका से निवेदन करते हुए वे रो पड़े।, ‘माँ ऐसा क्या किया है मैंने कि मुझ पर कोई विश्वास नहीं करता? अविश्वसनीय व्यक्ति का जीवन क्या व्यर्थ नहीं हैं माँ? क्या आप चाहती हैं कि मै अपना जीवन समाप्त कर दूँ। मेरा अकेला पुत्र महोत्सव की रक्षा हेतु बलिदान हो गया। मेरे पास क्या बचा है माँ? वंश दीपक देकर भी हम अविश्वसनीय हो गए। माँ, मुझे आज्ञा दो।’ उनके आर्त स्वर को महारानी और चन्द्रा दोनों ने सुना । माहिल का तीर सटीक बैठा। दोनों माहिल की करुण चीत्कार से प्रभावित हुई। चन्द्रा बोल पड़ी, ‘‘मातुल इतने दुखी क्यों हो रहे हैं?’’
‘मेरे पास दुःख के अतिरिक्त और है ही क्या? अविश्वसनीय व्यक्ति जीवित होते हुए भी मृत होता है।’
‘अविश्वसनीय कैसे मानते हैं आप अपने को?’
‘मैं भी इस राज्य का मन्त्री हूँ। पर मेरी छाया से भी सूचनाएँ दूर भागती हैं और कर्मचारियों के लिए मैं अस्पृश्य हो गया हूँ। महाराज, महारानी, राजपरिवार किसी का भी विश्वास तो नहीं पा सका मैं।’’
‘‘राज परिवार ने कभी आप पर अविश्वास नहीं किया, मातुल। आपके परामर्श को अमान्य करना अविश्वास करना तो नहीं हुआ।’’
महारानी संवाद सूत्रों को पकड़ कर भी मौन थीं ,माहिल उद्विग्न। महारानी उठ पड़ीं, उन्हीं के साथ चन्द्रा भी। महारानी का मौन माहिल को अखर गया। पर वे हार मानने वाले जीव न थे। जब भी महारानी अर्चना के लिए मठिया में उपस्थित होतीं, वे भी आर्त स्वर में प्रार्थना करने पहुँच जाते। पर उनका उद्देश्य देवी को प्रसन्न करने की अपेक्षा महारानी को विश्वास में लेना अधिक था। बिना महारानी को विश्वास में लिए घात कैसे किया जा सकता है? उन्होंने कुँवर ब्रह्मजीत को भी साधने का यत्न किया। यद्यपि उन्हें वेला का पत्र दिखाया नहीं गया था पर वे पत्र की भाषा से परिचित थे। उन्हीं की सहमति से गुप्तचर ने पत्र बदलने का कार्य किया था। पर उस पत्र से जिस प्रतिक्रिया की अपेक्षा वे करते थे, अभी तक वैसा कुछ भी नहीं हुआ था। वे आखेट से लौटे कुमार के आवास में उपस्थित हुए। ‘महाराज कुमार से कुछ छिपा रहे हैं। राज पुत्री वेला का पत्र आया हुआ है पर अभी तक आपको भनक तक नहीं लगी।’ माहिल ने तीर छोड़ा।’ महाराज के नाम पत्र आया होगा। वे उपयुक्त समय पर निर्णय करेंगे।’ ब्रह्मजीत ने कह दिया।
‘नहीं कुमार, बात यह नहीं है। मैंने उड़ती हुई बात सुनी है कि पत्र आपके बारे में है। पत्र को मुझे भी दिखाया नहीं गया है। मैं तो अविश्वसनीय हो गया हूँ। अपने वंश का दीपक खोकर भी मैं राजवंश का विश्वास न पा सका। मुझे चिन्ता इस बात की है कि कुमार भी अविश्वसनीय कैसे हो गए?
‘कैसी बातें करते हो मातुल? महाराज मुझपर अविश्वास कैसे करेंगे?’
‘राजनीति का खेल इसी को कहते हैं। अपने विश्वसनीय सहायक को लगा दीजिए। वह पता लगा कर बता देगा कि चन्द्रा को सम्पूर्ण जानकारी है पर राजकुमार को नहीं। राज पुत्री कुमार से अधिक विश्वसनीय हो गई। वह गहन मन्त्रणा में भी उपस्थित रहती हैं जैसे राज्य की उत्तराधिकारी वही हो।’
‘चन्द्रा प्रबुद्ध है, उसकी रुचियाँ एवं विचार सुसंस्कृत हैं। कभी-कभी उसका परामर्श बहुत उपयोगी होता है। इसमें उत्तराधिकार का प्रश्न कहाँ पैदा हो गया?’
‘पैदा हुआ राजकुमार। छोटी-छोटी घटनाओं से पूर्वाभास मिलता है। चन्द्रा ने भुजरियाँ सिराने का हठ न किया होता तो अभयी और समरजीत......’कहते , कहते माहिल की आँखों में अश्रु निकल आए। स्वर भर्रा गया। ‘यह तो संयोग है मातुल। अस्थिरता के इस युग में कौन कब तक जीवित रहेगा यह कह पाना कितना कठिन है? उन्होंने रण-भूमि में वीर गति पाई। महोत्सव उन पर गर्व करता है।’ ‘तो चलता हूँ। आप भी मुझ अविश्वसनीय पर विश्वास कैसे करेंगे?’ कहते हुये माहिल उठ पड़े। कुमार भी मातुल के साथ कुछ डग चले। उन्हें विदा कर अपने कक्ष में लौट आए। माहिल संशय का बीज बो गए हैं। अब उसने उगना प्रारम्भ किया। ‘क्या सचमुच महाराज पूरी तरह विश्वास नहीं करते? पत्र यदि मेरे बारे में है तो मुझे उसकी जानकारी होनी चाहिए। क्या सचमुच मुझे उत्तराधिकार से वंचित करना चाहते हैं? नहीं, ऐसा नहीं है। दूसरा कोई उत्तराधिकारी भी तो नहीं है। पुत्र के रहते पुत्री को उत्तराधिकारी बनाने की प्रथा कहाँ है?’’ वे सोचते रहे।
‘‘मातुल फिर ऐसा क्यों कहते हैं? अब जब उनका पुत्र भी नहीं रहा तो उनका स्वार्थ क्या हो सकता है? पर चन्दन ने भी उस दिन मातुल की निष्ठा पर प्रश्न चिह्न लगा दिया था। क्या सचमुच मातुल का कोई इतर हित है? यह तो लक्षित हो ही जाता है कि वे वनस्पर बन्धुओं से द्वेष रखते हैं पर चन्द्रा और मेरे बीच संशय का बीज बोकर वे पाना क्या चाहते हैं?’ मन निरन्तर छलाँगें लगाता रहा। पर उन्हें सूचित नहीं किया गया। बार-बार इस वाक्य को वे दुहराते। जितना ही वे इस पर सोचते, उलझन बढ़ती ही जाती। देर तक वे अपने कक्ष में चहल कदमी करते रहे। उन्होंने महारानी से मिलने का निश्चय किया।
सायंकाल जब वे महारानी के प्रांगण में प्रविष्ट हुए, दीप जल चुके थे। पर महारानी प्रासाद में नहीं थीं। प्रतिहारी ने अभिवादन कर सूचित किया महारानी माँ चंद्रिका की मठिया में अर्चना हेतु गई हैं। कुमार लौट पड़े। अपने उपवन में आकर उन्हें थोड़ी शान्ति मिली। माली ने आकर कुमार के सम्मुख सुगान्धित पुष्प गुच्छ रखा। उसने आसन्दी लगा दी। कुमार बैठ गए। कुछ क्षण में चन्द्रमा उदित हुआ। उद्यान की सुगंध से वातावरण महक उठा। कुमार को वेला का स्मरण हो आया। उसका सौंदर्य, स्वर, संस्कार, सभी एक-एक कर याद आने लगे। विवाह के पूर्व उन्होंने वेला को देखा नहीं था। केवल उसकी चर्चा सुनी थी। चाहमान वंशीय वेला के पिता चाहमान सत्ता के प्रतीक थे। संयोग से केवल चार वर्ष ही वे शासन कर सके। पुत्र था ही नहीं। पुत्री वेला छोटी थी। सोमेश्वर के सत्तासीन होते ही वेला का परिवार पार्श्व में चला गया। नागार्जुन जो वेला से कुछ ही बड़ा था विग्रहराज चतुर्थ का छोटा पुत्र था। सोमेश्वर के शासन में सुभवा देवी के वंशजों को महत्वपूर्ण पद तो नहीं दिए गए पर उन्हें आजीविका से वंचित नहीं किया गया। सोमेश्वर पद और अवस्था दोनों में बड़े थे। इसीलिए उन्हें पारिवारिक विरोध का अधिक सामना नहीं करना पड़ा। पर पृथ्वीराज तृतीय के सत्ता सम्भालते ही सुभवा देवी के वंशजों का विरोध मुखर हो गया। नागार्जुन ने पृथ्वीराज की सत्ता को चुनौती दी । दोनों में संघर्ष हुआ। नागार्जुन के जो भी सहयोगी पकड़े गए उनका वध कर दिया गया। कुछ के शीश काट कर टाँग दिए गए। पर नागार्जुन हाथ नहीं लग सका। जब तब वह विद्रोह का बिगुल बजा ही देता। वेला भी इसी वंश परम्परा में थी। महाराज पृथ्वीराज और नागार्जुन दोनों उसके चाचा लगते थे। एक सत्तासीन था, एक विद्रोही। पृथ्वीराज की माँ कर्पूरदेवी एक दक्ष महिला थीं। अवयस्क पृथ्वीराज के शासन की देखरेख उन्होंने ही सँभाली । पारिवारिक अन्तर्विरोधों को भी उन्होंने सहजता से हल करने का प्रयास किया। उन्हीं के परामर्श से वेला का विवाह राजकुमार ब्रह्मजीत से हो गया था। परिवार में ही दो वर्ग बन गए थे। एक पक्ष में था, एक विरोध में। पर राजमाता के हस्तक्षेप से विवाह सम्पन्न हो गया।ज्यों-ज्यों नागार्जुन का विद्रोह तीव्र होता गया वेला भी विपक्षी खेमे में समझी जाने लगी। नागार्जुन कभी-कभी वेला से सम्पर्क कर लेता था। यह बात महाराज से छिप न सकी। वेला पर चौकसी बढ़ा दी गई। नारी अवध्य न होती तो वेला का पता नहीं क्या होता? इधर जब महोत्सव पर आक्रमण करने की योजना बनी, वेला भी बराबर महाराज की दृष्टि में रहती। कहीं वह चाहमान सत्ता की गुप्त सूचनाएँ चन्देलों को सम्प्रेषित न कर दे। इसीलिए उसकी सम्पूर्ण गतिविधियों की गहरी छानबीन होती। गुप्तचर द्वारा वेला का पत्र बदल देना भी चामुण्डराय की योजना का एक अंग था।
एक बार नागार्जुन भी महोत्सव में आ गया था। उसे चन्देलों की सहायता तो न मिल सकी। पर उसका सम्पर्क करना ही महाराज पृथ्वीराज के लिए पर्याप्त था। नागार्जुन को भी सम्भवतः इसका आभास नहीं था कि उसके महोत्सव सम्पर्क करने से वेला पर संकट के बादल और घने हो जाएँगे। वेला का गौना अधर में लटक गया था। महाराज की इसमें कोई रुचि नहीं रह गई थी। वे परमर्दिदेव को पराजित करने का मन बना चुके थे। ऐसी स्थति में चाहमान बालिका वेला को राजकुमार ब्रह्मजीत के हाथ सौंपना उन्हें अटपटा लग रहा था। वेला किशोरावस्था पार कर रही थी। पर उसकी तीक्ष्ण बुद्धि स्थितियों का आकलन करने लगी थी। पक्ष विपक्ष का विश्लेषण करने पर महाराज पृथ्वीराज को वह विपक्ष में ही पाती। परिवार के अधिकांश सुविधाभोगी लोग महाराज का समर्थन कर रहे थे। जिन्होंने विद्रोह किया उनका क्या हुआ? यह वह देख चुकी थी। सत्ता विपक्ष के प्रति कितना निर्मम हो सकती है, इसका अनुमान उसे भली भाँति हो चुका था। उसका भविष्य भी दाँव पर लगा था। कुमार ब्रह्मजीत कुछ बातों से तो परिचित थे, पर अनेक से अनभिज्ञ भी। चामुण्डराय ने एक बार महोत्सव घेर कर परमर्दिदेव को चुनौती दी थी। उन्हें यह आभास तो था कि महाराज पृथ्वीराज और वेला के परिवार में समरस सम्बन्ध नहीं है। जब पृथ्वीराज की योजना महोत्सव पर आक्रमण करने की हो, ऐसी स्थिति में वेला पर संकट के बादल मँडरा रहे होंगे, इसका भी वे अनुमान लगाते। पर स्थिति कितनी विस्फोटक होगी इसका अनुमान उन्हें नहीं था। अभी तक पत्र गोपनीय क्यों रखा जा रहा है। क्या मातुल की बात में सत्य का कोई अंश है? उनका मन पुनः मातुल की बातों में उलझ गया। वे अधीर हो उठे,। उद्यान के प्रफुल्लित परिवेश से उन्हें थोड़ी शान्ति मिली थी, पर पुनः वे वेचैन हो उठे। आसन्दी से उठकर वे प्रासाद की ओर बढ़ गए। प्रासाद की सज्जा भी आज उन्हें प्रसन्न नहीं कर पा रही थी। उन्होंने प्रातः महारानी से मिलने का निश्चय किया।
कुमार ब्रह्मजीत प्रातः महारानी से मिलने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि महाराज का दूत मन्त्रणा हेतु आहूत करने आ गया। कुमार सीधे मन्त्रणा कक्ष में पहुँच गए। वहाँ महाराज परमर्दिदेव , महारानी, चन्द्रा सहित उपस्थित थे। उन्होंने महाराज एवं महारानी को प्रणाम किया। चन्द्रा की पूर्व उपस्थिति कुमार को कुछ अखरी। उन्हें मातुल के शब्द स्मरण हो आए ।
‘छोटी छोटी घटनाओं से पूर्वाभास होता है।’ वे महाराज के निकट ही बैठ गए। पर मन में एक खिंचाव पैदा हो गया था।
‘विषम स्थिति पैदा हो गई है’, महाराज ने कहा।
‘कैसी विषम स्थिति ? क्या चाहमान आक्रमण की कोई सूचना है?’ कुमार ने पूछा।
‘नहीं, तुम्हारे गौने के बारे में वेला ने एक पत्र लिखा है। उसी के कारण विषम स्थिति पैदा हो गई है।’ महाराज ने पत्र कुमार की ओर बढ़ा दिया। कुमार ने पत्र पढ़ा दुबारा, तिबारा कई बार। पर वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके।
‘कुमार अकेले आकर गौना कराएँ। यदि वनस्पर बन्धु और कान्यकुन्ज कुँवर साथ आएँगे तो गौना नहीं हो सकेगा।’ वे बार-बार सोचते कि क्या वेला को ऐसा लिखना चाहिए। पर लिखा हुआ सामने था। पत्र चन्द्रा के नाम था जिससे चन्द्रा को पूर्व जानकारी होनी चाहिए। पर मातुल के शब्दों ने उन्हें उलझा दिया था। इसीलिए उनका ध्यान उधर गया ही नहीं।
‘क्या किया जाए?’ महाराज ने पूछा। कुमार से तुरन्त कोई उत्तर नहीं निकला।
‘महाराज पृथ्वीराज वेला को महोत्सव भेजना चाहेंगे, इसमें सन्देह है। सुना गया है कि उसे महाराज का प्रतिपक्षी माना जा रहा है। ऐसी स्थिति में बिना पूर्व सैनिक तैयारी के जाना क्या संगत होगा? चाहमान सत्ता से दो बार टकराव हो चुका है। निकट भविष्य में आक्रमण की सम्भावना देखते हुए हमें सजग रहना चाहिए। पर यह पत्र ...........’, महाराज मौन हो गए।’
‘क्या पत्र वाहक से पूछताछ की गई थी?’
‘हाँ, उससे जितनी जानकारी ली जा सकती थी, ली गई। पर राजनीति की गुत्थियाँ उससे नहीं सुलझ पा रहीं है। वनस्पर बन्धुओं को अलग करके गौने की तैयारी क्या उचित होगी?’ कुमार मौन रहे। महारानी भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं थीं। चन्द्रा को भी लग रहा था कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए। माण्डलिक, उदयसिंह , देवा और कुँवर लक्ष्मण महोत्सव में नहीं थे। विभिन्न विकल्पों का विचार होता रहा। कुमार यदि तैयार भी हों तो उनके साथ किसे भेजा जाए। आचार्य जगनायक का नाम महारानी ने सुझाया। आचार्य विवाद रहित चन्देल सत्ता के प्रति पूरी तरह निष्ठावान थे। संकट काल में हमेशा उन्होंने महाराज का सहयोग किया।
‘पर आचार्य से परामर्श तो करना ही होगा।’ चन्द्रा ने कहा।
‘पहले निश्चय हो जाए तभी आचार्य से बात करना उचित होगा।’ कुमार ने अपनी बात जोड़ी। पर निश्चय नहीं हो सका। महाराज ने सायंकाल फिर विमर्श करने के लिए कहा।
मातुल की गतिविधियाँ चलती रहीं। चाहमान गुप्तचर उनसे सम्पर्क करते रहते। पण्यशाला के एक स्वर्णकार से एक व्यक्ति ने कंकण क्रय किया। स्वर्णकार ने पूछा, ‘किसके लिए ले रहे हो?’
‘पत्नी के लिए, उसका गौना होना है।’
‘कब है?’
‘शीघ्र ही’
‘हमारे कुमार का भी गौना शीघ्र होना है।’
‘कुमार में इतनी शक्ति नहीं है कि गौना करा सकें।’
‘क्यों?’
‘क्या आपने सुना नहीं? राजकुमारी वेला ने पत्र लिख कर कुमार को आमन्त्रित किया है, पर कुमार हैं कि गौना कराने से भय खाते हैं।’
‘राजकुमार साहस के प्रतीक हैं। उनके सम्बन्ध में इस प्रकार की चर्चा……?’
‘पर उनका साहस वनस्पर बन्धुओं की छाया में ही अंकुरित होता है।’ दो व्यक्ति और आ गए। उन्होंने भी बातें सुनीं। कंकण लेने वाला व्यक्ति स्वर्णकार को काषार्पण देकर चला गया। बातों के पंख लग गए। कुमार के विश्वस्त परिचर ने भी सुना। मध्याह्न के पश्चात् जब कुमार विश्राम कर रहे थे, परिचर ने पण्यशाला की बात बताई। कुमार चिन्तित हो उठे। वेला के पत्र की बात पण्यशाला तक पहुँचाने वाला व्यक्ति कौन है? जब पत्र को अभी गुप्त रखा गया है, मन्त्रियों तक को इसकी जानकारी नहीं है, पत्र की बात का पण्यशाला तक जाना क्या किसी वृहत् षड्यन्त्र का अंग है? जब उनके साहस को चुनौती देने वाली चर्चा उनके कानों में पड़ी, उनके अंग फड़क उठे। वे वनस्पर बन्धुओं की कृपा पर जीवित नहीं हैं। वे राजकुमार हैं। उनमें साहस की कमी नहीं है।
‘तब वेला का गौना क्यों नहीं करा लेते?’ उनके मन में प्रश्न उठा।
‘यदि वे इस प्रकरण पर अधिक विचार- विमर्श करते हैं तो उन्हें कापुरुष ही समझा जाएगा और नारियाँ कापुरुषों से घृणा करती हैं।’ वे सोचने लगे।
‘यह भी हो सकता है कुछ दिन प्रतीक्षा करने के बाद बेला स्वयं कोई अप्रीतिकर निर्णय ले ले। बालिकाएँ साधारणतया गौनै के लिए पहल नहीं करती। अवश्य ही कोई असाधारण स्थिति है अन्यथा राजकुमारी को पत्र लिखने की आवश्यकता न होती। देर करना अब अप्रीतिकर निर्णय को निमंत्रण देना है।’ साहस को चुनौती देने का प्रश्न सर्वोपरि हो गया है। इस स्थिति में पत्र की बात के पण्यशाला तक ले जाने सम्बन्घी जाँच कौन करता? उसके लिए विवेकपूर्ण चिन्तन की आवश्यकता थी। पर बात फैलाने वाले ने निश्चित रूप से किसी योजना के अनुरूप बात फैलाई थी और उसका परिणाम आवेश पूर्ण निर्णय के रूप में आने वाला था। सम्भवतः यही उसका लक्ष्य भी रहा होगा। सायंकाल की मन्त्रणा सभा में कुमार ने घोषणा कर दी कि वे स्वयं गौना कराने जाएँगे। महाराज, महारानी तथा चन्द्रा को कुछ आश्चर्य हुआ। चिन्ता भी बढ़ी। यदि कुछ अप्रीतिकर घट गया तो क्या होगा? ‘परिस्थितियाँ असाधारण होंगी तभी राजकुमारी नें पत्र लिखा है अन्यथा बालिकाएं स्वयं पत्र लिखकर गौने की बात कहाँ करती हैं?
ऐसी स्थिति में विलम्ब श्रेयस्कर नहीं होगा,’ राजकुमार ने जोर देकर कहा। महाराज को स्वीकृति देनी पड़ी। पर आचार्य जगनायक को साथ भेजने का भी निर्णय हुआ। दूत भेज कर जगनायक को बुलाया गया। वे जानकारी प्राप्त कर चिन्तित हुए। पर राजकुमार के साथ जाने को तैयार हो गए। गौने हेतु सम्पूर्ण तैयारियाँ महारानी और चन्द्रा ने की। रात्रि में माहिल कुमार ब्रह्मजीत से मिले। उन्होंने कुमार के साहस की प्रशंसा की। यद्यपि वे कुमार के साथ जाना चाहते थे, पर कह नहीं सके। कुमार भी उन्हें ले जाने के पक्ष में नहीं थे। आचार्य जगनायक और कुमार ने योजना बनाई। कुमार पूर्ण आवेश में थे। उन्होंने प्रातः ही कूच करने के लिये बलाध्यक्ष को निर्देशित कर दिया। लम्बी यात्रा को देखते हुये ब्रह्म मुहूर्त में ही कुमार और जगनायक अपनी सेना के साथ निकल पड़े। महारानी और चन्द्रा कुमार का तिलक कर प्रसन्न थीं। वधुओं ने मंगलगान किया। माँ चन्द्रिका से आशीष की याचना की। महारानी और चन्द्रा भी चन्द्रिका की मठिया में अर्चना के लिए चली गईं। नगर में सूचनाएँ दौड़ने लगीं। जितने मुँह उतनी बातें।
माण्डलिक एक सप्ताह पूर्व ही कालिजंर गए थे। उनके साथ सन्धान विग्रह महासचिव देवधर भी थे। उन्होंने कालिजंर में रुक कर राजकर्मियों और जनता की समस्याओं का लेखा जोखा किया। निकटस्थ ग्राम पतियों की एक सभा की। उनकी समस्याओं का स्थल पर ही निरीक्षण कर समस्याओं का समाधान किया। तड़ागों और मन्दिरों के निर्माण का आकलन किया। कुछ क्षेंत्रों में वर्षा के अभाव में कृषकों के खेत सूखे पड़े थे। उनमें कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ था। ग्राम पतियों ने कृषकों की व्यथा निवेदित की। माण्डलिक और महासचिव देवधर ने विचार किया उन क्षेत्रों को भागकर से मुक्त कर दिया । एक तड़ाग को गहरा करने का भी आदेश दिया जिससे पीड़ित कृषक परिवार श्रम करके अपनी आजीविका चला सकें। कुछ नागरिकों ने दस्युओं के आतंक की सूचना दी। माण्डलिक एवं महासचिव ने एक सैन्य टुकड़ी को दस्यु पीड़ित क्षेत्रों की देखरेख के लिए नियुक्त किया। कुछ पीड़ित कृषकों ने अपने बच्चों को सेना में भरती कराने का आग्रह किया। उनकी परीक्षा के लिए सैन्य अधिकारियों का एक दल नियुक्त किया गया।
जब माण्डलिक और महासचिव कालिंजर से लौटे, कुमार को प्रस्थान किए दो दिवस बीत चुके थे। आते ही उन्हें सूचना मिली। दोनों महाराज से मिले। महाराज ने बताया कि राजकुमारी का सन्देश आ गया था जिससे राजकुमार को प्रस्थान करना पड़ा। पर इससे माण्डलिक और महासचिव दोनों में से किसी का भी समाधान न हो सका। महाराज ने राजकुमार की सुरक्षा के लिए भी माण्डलिक एवं महासचिव को प्रस्थान करने के लिए नहीं कहा। इससे भी उन्हें आश्चर्य हुआ । राज परिवार वनस्पर बन्धुओं को न लाने की बात छिपाना चाहता था इसीलिए महाराज ने मौन साध लिया।
यह संयोग था या नियोजन, चामुण्डराय की सेना ने उसी समय महोत्सव के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में राजकुमार ब्रह्मजीत की सेना को चामुण्डराय ने घेर लिया। आचार्य जगनायक को शंका हुई। वे समझ गए कि हम व्यूह में फँस गए हैं। परम्परानुसार रणभूमि में प्राण देना श्रेयस्कर था, पीछे हटना महापाप। कुमार और आचार्य ने विमर्श कर चामुण्डराय के पास सन्देश भेजा कि हम राजकुमारी वेला के द्विरागमन हेतु जा रहे हैं। यदि युद्ध करने की इच्छा हो तो गौने के पश्चात् इसी क्षेत्र में हम युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हैं। तब तक प्रतीक्षा करें। पर चामुण्डराय वेला-ब्रह्मजीत के संयोग में संकट का अनुभव कर रहा था। उसे लगता था कि यदि वेला ब्रह्मजीत के साथ मिल गई तो उन्हें गुप्त जानकारियाँ देकर सबलता प्रदान करेगी। चामुण्डराय अब किसी अवसर को खोना नहीं चाहता था। सायंकाल दूत लौटा । उसने चामुण्डराय का युद्ध का सन्देश दिया। आचार्य जगनायक और कुमार ने रात्रि में ही व्यूह रचना की। चामुण्डराय भी क्षण क्षण की जानकारी रख रहा था। उसने अपनी सेना को व्यूहबद्ध किया।
प्रातः होते ही दोनों सेनाएँ भिड़ गई। चामुण्डराय और ताहर घूम-घूम कर अपनी सेना का मनोबल बढ़ाते। आचार्य जगनायक और कुमार भी अपने अश्वों को नचाते, सेना को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते। आचार्य वाणी और साँग दोनों का उपयोग कर लोगों को चकित कर देते। कुमार ब्रह्मजीत का हरनागर कुमार के संकेतों पर नाच उठता। जहाँ कहीं सैनिक हतोत्साहित होते कुमार के पहुँचते ही उनमें उत्साह भर जाता। वे पूरी शक्ति से चाहमान सेना पर टूट पड़ते। सायंकाल होते ही युद्ध बन्द हुआ। रणक्षेत्र नरमुण्डों, लोथों तथा रक्त से पट गया। दोनों पक्षों के लोग घायलों को उठाकर शिविर में ले गए। वैद्य उनके उपचार में लग गए। घायलों के चिकित्सा की व्यवस्था कर दोनों दल अगले दिन की कार्य योजना पर जुट गए।