42. काश, वह बालक होती-
महाराज परमर्दिदेव का मन्त्रणा कक्ष। महारानी मल्हना, कुमार ब्रह्मजीत, मन्त्री देवधर, कंचुकी गदाधर, माण्डलिक आल्हा, उदयसिंह, देवा, कुँवर लक्ष्मण
राणा विचार विनिमय हेतु आ चुके हैं। कुछ ही क्षण में
आचार्य जगनायक भी आ गए। महामन्त्री देवधर ने महाराज की आज्ञा पाकर युद्ध की
तैयारियों का विवरण प्रस्तुत किया। उन्होंने उन सामन्तों एवं का नाम गिनाया जो चन्देलों की सहायता करने के
लिये प्रस्तुत थे। युद्ध की तैयारियों से सभी संतुष्ट दिखे।
‘कुँवर ब्रह्मजीत का गौना होना आवश्यक है।’ मल्हना ने कहा। ‘इसी के साथ गौने की भी तैयारी हो’, उदयसिंह ने बात
जोड़ी। ‘युद्ध तो आत्मरक्षार्थ है। कुँवर के गौने में वैसे भी पर्याप्त विलम्ब
हो चुका है।’
‘इस समय सुरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। गौने का कार्यक्रम कभी भी हो
सकता है’, कुँवर ब्रह्मजीत कह उठे।
‘नहीं, गौने का कार्यक्रम टालना ठीक नहीं है।’ आल्हा ने सुझाव दिया और महाराज ने
सहमति दे दी। इसी के साथ सभा विसर्जित हो गई। कुँवर ब्रह्मजीत के गौने की शुभ तिथि
का आकलन यद्यपि देवा ने कर दिया था पर पुरोहित को आमन्त्रित कर महारानी ने विधिवत
जानकारी प्राप्त की। पुरोहित भी दक्षिणा पाकर प्रसन्न हुए। यद्यपि गौने की तिथि
अभी दूर थी। पर राज परिवार एवं नगर की नारियों ने मंगल गान प्रारम्भ कर दिया।
उल्लास का एक अवसर हाथ लग गया था। जीवन की सरसता लहलहा उठी थी। चाहमान आक्रमण की चर्चा पीछे पड़ गई थी। कुमार ब्रह्मजीत का गौना हर किसी के मानस
में उमड़ रहा था। ब्रह्मजीत का विवाह चाहमान वंश में ही हुआ था। संयोग से उस बालिका के पिता का नाम भी पृथ्वीराज था।
बालिका का नाम था वेला, पुष्प की भाँति शुभ्र एवं धवल।
वेला महाराज पृथ्वीराज के सम्मुख
उपस्थित हुई। महाराज के दृष्टि उठाते ही वह बोल
पड़ी, ‘महाराज यह संयोग ही है कि आप महाराज हैं, मैं एक सामान्य बालिका। यदि बालिका न
होकर बालक होती तो सम्भवतः इस आसन पर मैं विराजमान होती। आप शासक हैं। आपको निर्णय लेने का अधिकार है। यह जानते हुए कि मेरा पाणिग्रहण
चन्देल राजकुमार ब्रह्मजीत से हुआ है आपने चन्देलों पर आक्रमण की योजना बनाई है। कृपया आदेश करें कि मुझे किस ओर रहना है।’ वेला के अंग-अंग फड़क रहे थे। उसकी
आँखें रक्त वर्ण हो चुकीं थीं। महाराज का चेहरा भी तमतमा उठा। पर उन्होंने सप्रयास
अपने को शान्त किया। ‘तुम्हारे शब्द ही तुम्हारी पक्षधरता स्पष्ट करते हैं। यह जानना चाहेगा कि तुमने नागार्जुन को प्रश्रय
दिया है?’
‘राजकुल के लोगों को प्रश्रय देना पाप नहीं है, महाराज।’
‘यह जानते हुए कि नागार्जुन राजद्रोही है तुमने उसे प्रश्रय देकर
अक्षम्य अपराध किया है। यदि तुम बालिका न होती तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया
गया होता।’
‘बालिका होने के नाते कोई भेद करने की आवश्यक ता नहीं है महाराज, मैं प्रस्तुत हूँ।’
‘नागार्जुन कहाँ है?’
‘आज वह कहाँ है इसका पता मुझे नहीं है। आपके गुप्तचर अधिक अच्छी
जानकारी दे सकते हैं।’
‘देवभट्ट का क्या हुआ, यह तो जानती हो?’
‘अच्छी तरह। अजमेर के राज द्वार पर टँगा उसका सिर क्या कुछ नहीं कह
देता।’
‘तो ठीक है, जाओ। पर समझ लो, राजदंड अत्यन्त कठोर होता है।’
वेला चल पड़ी। सोचते विचारते कब वह
अपने आवास पर आ गई, इस का उसे भान ही न रहा। उसके आवास की चौकसी बढ़ा दी गई। चारों ओर
गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया। आतंकित होने की अपेक्षा वह साहस की पुत्तलिका सी
प्रदीप्त हो उठी। राज परम्पराओं से उसे चिढ़ होने लगी। सत्ता प्राप्ति के लिए
रक्तपात क्या चाहमान शासकों में कम हुआ? सत्ताधारी सत्ता में बने रहने के लिए
क्या-क्या नहीं करते? चाहमान सत्ता संघर्ष का बिम्ब उसके
सम्मुख उपस्थित हो गया। महाराज अजयराज जिन्होंने अजमेर की स्थापना की थी कि पट्टमहिषी
सोमलदेवी से उत्पन्न अर्णोराज राजा हुए। उनकी दो रानियों से चार पुत्र हुए, महारानी सुधवादेवी से जगद्देव , विग्रहराज और देवदत्त तथा कंचन देवी
से सोमेश्वर। कंचन देवी निरन्तर आतंकित रहतीं। इसीलिए वे सोमेश्वर को लेकर
अन्हिलवाड़ चलीं गईं, जहाँ कुमार पाल की देखरेख में सोमेश्वर का पालन पोषण हुआ। जगद्देव, विग्रहराज तथा देवदत्त में भी सत्ता
पाने की ललक पैदा हो गई। जगद्देव पिता अर्णोराज का वध कर शासक बन बैठा। पितृघाती होने के कारण जगद्देव को जन समर्थन नहीं मिला।
मन्त्रियों ने भी जन आकांक्षाओं को स्वर देना प्रारम्भ कर दिया। समय पाकर
विग्रहराज ने जगद्देव का वध कर, सत्ता हथिया ली जिन्हें विग्रहराज चतुर्थ के नाम से जाना गया।
एक दशक से अधिक वे सत्तासीन रहे। पश्चिमी आक्रमण कारियों से उन्हें निरन्तर संघर्ष करना पड़ा। पर आन्तरिक विद्रोह का स्वर कहीं न
कहीं उभर ही जाता। उनके बाद जैसे ही उनका पुत्र अमरगांगेय शासक हुआ, जगद्देव पुत्र पृथ्वीराज अवसर पाकर उनका वध करने में समर्थ हो गया। वह
शासक बना जिसे
पृथ्वीराज द्वितीय के नाम से अभिहित किया जाता है। वेला इसी पृथ्वीराज की दुहिता
थी। पृथ्वीराज के कोई पुत्र न होने के कारण उनकी मौत के बाद कंचन देवी पुत्र सोमेश्वर को
राज सत्ता मिली। सोमेश्वर के बाद उनके दो पुत्रों पृथ्वीराज, हरिराज में पृथ्वीराज सत्तासीन हुए। यह
संयोग ही था कि पृथ्वीराज द्वितीय, एवं पृथ्वीराज तृतीय चचेरे भाई लगते थे।
वेला के मन में यह बात बराबर कौंधती
रही, काश! यह बालक होती। आज उसे राजद्रोही समझा जा रहा है। यदि यह सत्तासीन
होती तो आज का शासक राजद्रोही
होता। इसे भाग्य की विडम्बना कहें या और कुछ। राजदुहिता का बोध होते ही उसका शरीर तन जाता, अंग-अंग फड़क उठते। पर तभी उसे हँसी आ
जाती और राज सत्ता का मखौल करती वह चित्रशाला में धँस जाती। मन में उभरे बिम्बों
को पट्टिका पर उतारती
जाती। पर आज उसका मन अशान्त हो उठा। उसने पृथ्वी राज के विरुद्ध किसी भी में भाग ही नहीं लिया था। पर नागार्जुन कभी-कभी उससे सम्पर्क कर
लेता। वह चाहती तो नागार्जुन की सूचना महाराज को सम्प्रेषित कर देती। पर उसने ऐसा
नहीं किया। गुप्तचरों से यह बात कब तक छिपती। अमर गांगेय का भ्राता नागार्जुन अपने को का उत्तराधिकारी समझता रहा और यदाकदा विद्रोह का
शंख फूँकता रहा। पृथ्वीराज ने उसके सहयोगियों का निर्दयतापूर्वक दमन किया। उनके
सिर काटकर अजमेर दुर्ग के द्वार पर टाँग दिए गए जिससे दूसरा कोई राजद्रोह का साहस
न कर सके। पर क्रिया प्रतिक्रिया को जन्म देती है। उद्वेलित वेला ने तय कर लिया कि
चन्देल युद्ध में वह पति के साथ रहेगी। पर उसने अभी पति का घर ही कहाँ देखा था? यह असमंजस की स्थिति थी। पर वह
सोचती-विचारती एक कार्य योजना पर स्थिर हुई। अपने विश्वस्त सहायक को महोत्सव भेजने का निर्णय लिया। मार्ग में बाधाएँ अनेक थीं। पर उसने अपने निर्णय
को क्रियाविन्त करने का निश्चय कर लिया ।
चन्द्रा के नाम एक पत्र लिखा। उसका घर भी गुप्तचरी का अड्डा था। सेविकाओं में भी
महाराज के गुप्तचर विद्यमान थे।
सांयकाल मन्दिर के लिए वेला तैयार हुई। मन्दिर में अर्चना के
समय ही एक गौरांग तापस उपस्थित हुआ। वेला उसे देखकर मन ही मन प्रसन्न हुई। पत्र
लेकर तापस अन्धकार में विलीन हो गया। तपस्वियों को प्रायः लोग सम्मान की दृष्टि से देखते। भी उन्हें पर्याप्त आदर देता। इसीलिए गुप्तचर
प्रायः तापस वेश में घूमते और सूचनाएँ एकत्र करते। एक लँगड़ा याचक जैसा व्यक्ति
मन्दिर में बैठा था। उसकी दृष्टि तो अलग थी पर
कान वेला तापस की बातचीत पर लगे थे। उसने तापस को पत्र लेते देखा। राजकुमारी ने
मन्दिर में अर्चना की । वे याचक को प्रसाद देने के लिए आगे बढ़ीं पर उसका कहीं पता
न था।
तापस कला प्रिय के एक मन्दिर में आकर रुका।
पुजारी ने उसका स्वागत किया। पर थोड़ी देर में एक दूसरा तापस आ गया। उसने भी मन्दिर
में रात्रि निवास की इच्छा व्यक्त की। मन्दिर में दो प्रकोष्ठ थे। एक में पुजारी
स्वयं रहता था। दूसरे में पहला तापस अपना डेरा जमा चुका था। दूसरे तापस के लिए
पुजारी ने पहले तापस से बात की। पर उसने कहा, ‘रात्रि में वह
एकान्त साधना करता है अतः प्रकोष्ठ में दूसरे तापस को स्थान देना सम्भव न होगा।’ पुजारी ने अपने प्रकोष्ठ में दूसरे
तापस को शरण दे दी। पुजारी एक निर्लिप्त साधु थे। उन्हें शिव की आराधना में प्रायः निमग्न देखा जाता। राजनीतिक घटनाओं से प्रायः
वे उदासीन रहते । पर दूसरा तापस उनसे प्रायः राजनीति की ही चर्चा करता। वे ‘हाँ’ ‘हूँ’ कर बात समाप्त कर देते।
मध्य रात्रि से एक प्रहर बाद ही पहला
तापस उठा। शौच के लिए जल पात्र लिया और जंगल की ओर चला गया। इसी बीच दूसरा तापस भी
उठ गया। पुजारी अभी सो रहे थे। उसने दूसरे प्रकोष्ठ का कपाट् धीरे से खोला और पहले
तापस की पोटली खोलकर पत्र को निकाला। उसके बदले दूसरा पत्र रखा और पोटली बाँध दी।
प्रकोष्ठ से बाहर आकर कपाट बन्द किया और मन्दिर के बाहर हो गया। बाहर अब भी अँधेरा
था। पर दूसरा तापस तीव्रगति से जा रहा था। पहला तापस निकट के सरोवर में स्नान कर आ
गया। प्रकोष्ठ में जाकर उसने अपनी पोटली सँभाली, शिवार्चना की, उपाहार ले जल पिया। अर्चना के स्वर से
पुजारी भी जग गए थे। तापस ने उनसे आज्ञा ली और गन्तव्य की ओर चल पड़ा।
तापस महोत्सव में घूमता रहा। चन्द्रा
से मिलने के लिए उसने चित्रा से सम्पर्क साधा। चित्रा ने चन्द्रा से बात की। तापस
ने चन्द्रा से मिल कर वेला का पत्र दिया। चन्द्रिका की मठिया में तापस के निवास की
व्यवस्था हुई। चन्द्रा ने पत्र को कई बार पढ़ा पर हर बार उसकी उलझन बढ़ती ही गई।
गौने में वनस्पर बन्धुओं को न लाने की बात पर उसे आश्चर्य हो रहा था। राजदुहिताओं
पर अनेक राजकुमारों की कुदृष्टि रहती है। ऐसी
स्थिति में अकेले कुमार
ब्रह्मजीत का ही गौने के लिए जाना उस स्थिति में जब चाहमान नरेश महोत्सव को ध्वस्त करने की
योजना बना रहे हों, कितना संगत है? उसने राजमाता मल्हना को पत्र दिखाया। उन्हें भी आश्चर्य हुआ। तापस को
प्रातःराजमहल में पुनः बुलाया गया। उसने यही दुहराया कि राजकुमारी वेला ने उन्हें
यह पत्र दिया है। महारानी ने महाराज से सम्पर्क किया। उन्हें भी पत्र असामान्य
लगा। पर अन्ततः यही निर्णय लिया गया कि
चन्द्रा गौने का पत्र देकर तापस को विदा कर दे। तापस को उपहार में वस्त्र एवं
स्वर्ण मुद्राएं दी गई। वह पत्र का उत्तर लेकर लौट गया। महाराज, महारानी, चन्द्रा तीनो मन्थन करते रहे। पर वे
किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कुमार ब्रह्मजीत आखेट के लिए गए थे, इसीलिए वे मन्त्रणा में उपस्थित नहीं
हो सके थे। इसीबीच मातुल माहिल आ गए। जितना ही लोग उन्हें मन्त्रणा से अलग रखना
चाहते उतना ही वे और चिपकने का यत्न करते। वे मुस्कराते हुए सबका अभिवादन स्वीकार
करते। सबके हित पर चर्चा करते। चैंकन्ने रहते, देखते कि उनका दाँव सफल हो रहा है या
नहीं।