16. जौरा यमराज को भी कहते हैं सायंकाल महाराज जयचन्द ने मंत्रिपरिषद के सदस्यों से विचार-विमर्श प्रारम्भ किया। जयचन्द और परमर्दिदेव का सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण था। महाराज परमर्दिदेव द्वारा निष्कासित व्यक्ति को शरण देने का अर्थ महोत्सव से अपने सम्बन्धों को कटु बनाना था। पण्डित विद्याधर ने दोनों राजकुलों की महान परम्पराओं का उल्लेख करते हुए सुझाव दिया कि महाराज परमर्दिदेव से सम्बन्ध बनाए रखना ही उचित है। कुछ अन्य सदस्यों ने माण्डलिक की प्रशंसा की। उनकी कर्त्तव्यनिष्ठा एवं रण कौशल रेखांकित किया। यह भी कहा गया कि इन्हें शरण दे देने से कान्य कुब्ज का सैन्यबल अधिक सुदृढ़ हो जाएगा। महाराज को माहिल की बातचीत का स्मरण था। वे स्वयं असमंजस की स्थिति में थे। इसीलिए उन्होंने कहा कि निर्णय कल प्रातः की सभा में किया जाएगा। तब तक आप लोग हर दृष्टि से विचार कर लें। सभा विसर्जित हो गई पर सदस्यों में विचार-विमर्श चलता रहा। कुछ शरण देने के पक्ष में थे, कुछ विपक्ष में। सभी के अपने अपने तर्क थे। महाराज का मन भी तर्क-वितर्क करता रहा।
प्रातः पुनः महाराज कक्ष में बैठे। सदस्यगण अपने विचार रखते गए। महाराज ध्यान से सुनते रहे। पण्डित विद्याधर परमर्दिदेव से मधुर सम्बन्ध पर ही बल देते रहे। महोत्सव से प्रतिरोध उगाना उनकी दृष्टि में संगत नहीं था। इस सभा में वाराणसी के सैयद तालन भी उपस्थित थे। सायंकालीन सभा में नगर से बाहर होने के कारण वे सम्मिलित नहीं हो सके थे। माहिल का निषेध बार-बार महाराज को आन्दोलित कर जाता। सैयद तालन ने खड़े होकर महाराज से निवेदन किया,’ महाराज मैं दोनों वनस्पर भाइयों को जानता हूँ। उनके साथ रहकर मैंने लड़ाइयाँ लड़ी हैं। उन जैसा बात का पक्का, वफादार वीर मिलना मुश्किल है। उदय सिंह सिर्फ बारह वर्ष का था जब उसने माण्डव नरेश पर जीत हासिल की।’
‘पिता का बदला लेने के लिए पूरी शक्ति दाँव पर लगा देना कठिन नहीं है सैयद तालन’, विद्याधर का स्वर था।
‘कहीं उन्हें पीठ दिखाते नहीं देखा पण्डित जी। मैं समझता हूँ माण्डव नरेश पर आँख उठाने की हिम्मत बड़े-बड़े नरेश भी नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जगह देने से कान्य कुब्ज की ताकत बढ़ेगी।’
‘पर उन्हें रखने में जो व्यय होगा। उसकी पूर्ति कैसे की जाएगी? राजकोष यदि सामन्तों के लिए खोल दिया गया तो कोष समाप्त होते देर नहीं लगेगी’, पण्डित विद्याधर ने जोड़ा।
‘मैं अपनी तरफ से जो समझ पा रहा हूँ उसे आपके सामने रख रहा हूँ महाराज’, तालन से न रहा गया। ‘महाराज की आमद इतनी कम नहीं है कि कुछ नौकरों का पालन न हो सके।’
‘पर राजकोष के व्यय का कोई औचित्य होना चाहिए’, पण्डित विद्याधर ने तर्क रखा।
‘जरूर चाहिए। मैं समझता हूँ उनको शरण दे देने पर खजाने में बढ़ोत्तरी हो जाएगी।’
‘वह कैसे?’ महाराज ने प्रश्न किया।
‘महाराज आपके बहुत से सामन्तों ने सालों से कर नहीं दिया है। पूरा गाँजर क्षेत्र बागी बन गया है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उन्हें कर उगाहने का काम सौंप दिया जाए?’ तालन के इस तर्क से कई सदस्य सहमत होते दिखे। कुँवर लक्ष्मण ने भी तालन का समर्थन कर दिया।
‘पर बिना परीक्षा लिए किसी को महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन करना राजनियम के विरुद्ध है’ विद्याधर ने पक्ष रखा ।
‘ठीक है उनका इम्तहान लिया जाए, उसके बाद ही फैसला किया जाए’ तालन कह गए। निर्णय हुआ कि वनस्पर भाइयों का परीक्षण किया जाएगा। यदि वे परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं तो उन्हें रिजगिरि में रहने की अनुमति दी जाएगी।
महाराज ने धावक को भेजकर माण्डलिक को तीसरे प्रहर आमन्त्रित किया। माण्डलिक अपने शिविर में मन्त्रणा कर रहे थे कि महाराज का धावक सन्देश लेकर पहुँचा। उन्होंने धावक को पुरस्कार दे विदा किया। रूपन सैयद तालन से मिलने गया था। वह सन्देश लाया कि दोनों भाइयों को आना चाहिए। महाराज इम्तहान लेकर निर्णय करेंगे। परीक्षा की बात पर उदय सिंह हँस पड़े। उनके जीवन का क्षण-क्षण परीक्षण में ही बीता है। परीक्षण का रूप क्या हो सकता है? इसका अनुमान लगाते सभा विसर्जित हो गई।
तीसरे प्रहर आल्हा ने उदयसिंह , देवा रूपन तथा कुछ चुने हुए योद्धाओं के साथ कान्यकुब्ज में प्रवेश किया। छोटे से सैन्यदल को जो भी देखता मुग्ध हो जाता। आल्हा पंचशब्द तथा अन्य लोग अश्वों पर सवार थे। उदयसिंह का गठा शरीर, किशोर वय, दाढ़ी-मूँछ जैसे उगने का प्रयास कर रहे हों, सभी को आकृष्ट कर लेता। नर-नारी एक क्षण खड़े होकर बेंदुल को नचाते उदयसिंह को देखते और अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते। राजद्वार पर सैयद तालन ने माण्डलिक के दल का आत्मीयता से स्वागत किया। महाराज सभा में आ चुके थे। आल्हा, उदय सिंह , देवा , रूपन तथा अन्य सैनिकों ने महाराज को प्रणाम किया। महाराज ने प्रसन्न मुद्रा में प्रणाम स्वीकार किया तथा आसन ग्रहण करने के लिए इंगित किया। सैयद तालन भी महाराज को प्रणाम कर नियत स्थान पर बैठ गए।
सभी के आसन ग्रहण करने पर पंडित विद्याधर ने खड़े होकर कहा, ‘महाधिराज कान्य कुब्जेश्वर ने आपके निवेदन पर विचार करते समय परीक्षा लेने का निर्णय लिया है।परिसर में इसीलिए हाथी जौरा लाया गया है, आपको इन्हें आमने-सामने युद्ध में परास्त करना है। जौरा यमराज को भी कहते हैं, आपको ज्ञात ही होगा।’ पंडित विद्याधर का कथन समाप्त होते ही उदयसिंह खड़े हो गए। देवा भी उठ रहे थे पर उदय सिंह ने उनका हाथ पकड़ कर बिठा दिया। हाथी उन्मुक्त कर दिया गया। महाराज को एक बार पुनः प्रणाम कर उदय सिंह जौरा की तरफ लपके। राज परिसर के लोग कौतूहलपूर्ण क्रीड़ा देखने के लिए इकठ्ठे हो गए। अटारियों के किवाड़ खुल गए। कुँवर लक्ष्मण भी आ गए थे। जौरा की ओर उदयसिंह जैसे ही लपके, उसने अपनी सूड में इन्हें लपेट लिया। लगा कि उदय सिंह को उछाल कर धरती पर पटक देगा किन्तु वे शीघ्रता से उछलकर दोनों दाँतों पर बैठ मुस्करा रहे थे। लोगों की तालियाँ बज उठीं। जौरा ने भयंकर चिंघाड़ करते हुए दौड़ लगाई। जैसे ही उदयसिंह को सूड़ से बाँधने का प्रयास किया उन्होंने सूड़ को पकड़ कर पूरी शक्ति से खींचा। जौरा का पूरा शरीर कसमसा उठा। एक क्षण में उदयसिंह सूड की लपेट में आ गए और जौरा ने उन्हें
एक पैर से दबाकर सूड़ से खींचने का प्रयास किया। सभी स्तब्ध हो देख रहे थे कि उदयसिंह झपट कर दोनों दाँतों पर खड़े हो गए। हाथी ने जैसे ही सूड़ उठाई पकड़ कर खींच लिया। हाथी बैठ गया और उदयसिंह उसकी पीठ पर जा पहुँचे। एक बार पुनः तालियाँ बज उठीं। पर जौरा ने भी पराजय स्वीकार नहीं की। चिंघाड़ते हुए एक बार फिर उठा और उदयसिंह को एक पेड़ और अपने बीच दबाने का प्रयास किया। पर उदयसिंह का कौशल उन्हें फिर बचा ले गया। एक बार पुनः तालियाँ बज उठीं। उदयसिंह ने जौरा की पूँछ पकड़कर खींचना प्रारम्भ किया। पहले तो लगा कि उदयसिंह स्वयं खिंच जाएँगे पर कुछ क्षण पश्चात उदयसिंह भारी पड़ने लगे। उदयसिंह हाथी को खींचते जा रहे थे, शरीर से स्वेद जल की धार बह रही थी और हाथी पराजय की मुद्रा में डगमगाने लगा था। हर्षध्वनि के बीच पंडित विद्याधर ने उदयसिंह की पीठ थपथपाई और उदयसिंह ने महाराज के सम्मुख जाकर शीश झुका प्रणाम किया। प्रमुदित आल्हा मुस्करा रहे थे। देवा, रूपन तथा दल के सैनिक खिल उठे थे। कुँवर लक्ष्मण ने उन्हें गले लगा लिया। माण्डलिक को रिजगिरि में रहने की आज्ञा प्रदान कर महाराज ने सभा विसर्जित कर दी।