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कंचन मृग - 15. उद्विग्न नहीं, सन्नद्ध होने का समय है

15. उद्विग्न नहीं, सन्नद्ध होने का समय है

उदयसिंह का मन अब भी अशान्त था। शिविर के निकट ही एक कच्चे बाबा का आश्रम था। वे उस आश्रम की ओर बढ़ गए। आश्रम के निकट ही गंगा का निर्मल जल प्रवाहित हो रहा था। बाबा जिनकी अवस्था पचास से अधिक नहीं रही होगी, एक वट वृक्ष के नीचे कुशा की आसनी पर पद्मासन मुद्रा में बैठे थे। उनके पास कुछ जिज्ञासु मार्गदर्शन हेतु इकठ्ठा थे। उदयसिंह ने निकट जा कर प्रणाम किया। बाबा के संकेत करते ही उदयसिंह भी निकट ही एक आसनी पर बैठ गए। उदयसिंह की आँखों को पढ़ते हुए, बाबा ने अन्य लोगों को मुक्त कर दिया।
‘अन्दर कुछ घुमड़ रहा है वत्स?’ बाबा ने कहा।
‘मन अशान्त है बाबा,’ उदयसिंह का स्वर था।
‘शान्ति भीतर से ग्रहण करो, बाहर से नहीं। आश्रय मिलेगा उसकी चिन्ता न करो । राजपुरुषों का धैर्य उनका सम्बल है। धरती पर न्याय की व्यवस्था करो। तुम एक राजपुरुष हो। प्रजा का हित तुम्हारे लिए सर्वोपरि होना चाहिए। दस्युओं तथा पश्चिम की ओर से आने वाले आक्रमण कारियों से प्रजा का कष्ट बढ़ गया है।’
‘पर इस समय तो मैं आश्रयविहीन हूँ बाबा।’
‘तुम्हारे जैसे तेजस्वी व्यक्ति को आश्रय का अभाव नहीं होगा। उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारा तथा तुम्हारे अग्रज का पराक्रम सर्वविदित है। पर उसके दुरुप्रयोग से बचो। महाराज परमर्दिदेव ने भूल की है। उन्हें इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा। तुम्हें अपने कर्तव्य का ध्यान रखना होगा। वीर पुरुष जनहित में अपने पौरुष का उपयोग करें, यही उचित है।’
‘ऐसा ही होगा बाबा।’
‘तुमसे यही आशा थी। मन की उद्विग्नता समाप्त करो। यह उद्विग्न होने का नहीं सन्नद्ध होने का समय है। आक्रमण कारियों की निरन्तर लूट-पाट से भी राजपुरुष चैतन्य नहीं हो रहे हैं। उन्हें उनका अहं खा रहा है। स्वयं में अहंकार न पालना। राजपुरुष जब संस्कारहीन हो जाते हैं तो उनके निर्णय अधिक अनिष्टकारी हो उठते हैं। अपने सैनिकों को भी संस्कारहीन होने से बचाना।’
‘प्रयास यही रहेगा बाबा।’
बाबा उठ खड़े हुए, उन्हीं के साथ उदयसिंह भी। बाबा ने उदयसिंह का मस्तक अपने दाहिने हाथ के अँगूठे से स्पर्श किया। अँगूठे का स्पर्श होते ही उदय सिंह को लगा कि उनके शरीर में विद्युत्धारा दौड़ गई। उनकी अशान्ति नीरवता में बदल गई। उनमें एक नई स्फूर्ति का जन्म हुआ। ‘जाओ’ बाबा ने कहा और उदयसिंह शिविर की ओर लौट पड़े। बाबा कुछ क्षण तक उदय सिंह को जाते हुए देखते रहे।
उदयसिंह लौट कर शिविर के प्रबन्ध में व्यस्त हो गए। सम्पूर्ण व्यवस्था की समीक्षा की और आवश्यक निर्देश दिया। इसमें लगभग एक प्रहर का समय लग गया। दो प्रहर बीतने को हो रहा था। इसे ही लोग दोपहर कहते हैं। भगवान भास्कर की किरवों इस समय लम्बवत् हो अपनी प्रभा विखेरती हैं। उदय अपने शिविर में पहुँचे। सुवर्णा और पुष्पिका उनकी ही प्रतीक्षा कर रहीं थीं। उदयसिंह को प्रफुल्ल देख, दोनों को प्रसन्नता हुई। सुवर्णा का चरण स्पर्श कर उदय सिंह बैठ गए। पुष्पिका के नयन कोरक उल्लास से भर उठे। निकट ही एक महात्मा का आश्रम है। मै वहीं चला गया था। उनकी वाणी से मन की अशान्ति जाती रही।’
‘उत्तम हुआ। मैं तो तुम्हारी मनोदशा से चिन्तित हो उठी थी,’ सुवर्णा ने कहा। तीनों उठकर माँ देवल के पास चले गए।
माँ भी उदय सिंह को आश्वस्त देख प्रसन्न हुई। चारों प्रसन्नता पूर्वक भोजन करने बैठ गए। सुवर्णा ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर उदय सिंह के मुँह में डाल दिया। माँ देवल और पुष्पिका दोनों इस क्रिया को देख हँस पड़ी। उदयसिंह के चेहरे पर सलज्ज मुस्कान दौड़ गई। सुवर्णा उदयसिंह को स्नेह से खिलाती जैसे कोई माँ अपने बच्चे को खिलाती है।
भोजन के पष्चात, उदय सिंह पुष्पिका के साथ अपने शिविर प्रकोष्ठ में आ गए। उनकी अशान्ति तिरोहित होने के कारण पुष्पिका अत्यन्त प्रसन्न थी। वह उनके केशों को सहलाने लगी। उदयसिंह ने उसे खींच कर अपने पास बिठा लिया। उदय सिंह बाँसुरी से एक गीत का स्वर निकालने लगे। थोड़ी त्रुटि होने पर पुष्पिका के ओठों पर लगा दी। पुष्पिका ने अत्यन्त मोहक टेर भरी और गौरेया का एक जोड़ा प्रकोष्ठ के अन्दर आकर चिहुँक उठा।
तीसरे प्रहर का अन्त होते-होते माण्डलिक देवा के साथ कान्य कुब्ज से लौट आए थे। देवा तुरन्त उदयसिंह के पास आ गए। उन्होंने महाराज जयचन्द और माण्डलिक के बीच हुए संवाद का विवरण दिया ‘महाराज ने अभी कोई निर्णय नहीं लिया है। वे अपने निर्णय की सूचना देंगे।’ उदय सिंह और देवा दोनों माण्डलिक के शिविर में आ गए। माण्डलिक, सुवर्णा, उदय सिंह, देवा तथा बलाध्यक्ष ने विचार विनिमय किया। माण्डलिक ने कहा, ‘चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। माँ शारदा जो करेंगी उचित ही करेंगी। ’ माण्डलिक के आश्वस्त करने पर भी सभी का मन सशंकित था। यदि महाराज ने न कर दिया तो विकल्प खोजना ही पड़ेगा। ‘आश्रय मिलेगा।’ देवा ने विश्वासपूर्वक कहा।

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