17. ऋण चुकाने का अवसर आ गया कान्य कुब्ज नरेश का विशाल सभा कक्ष। पंडित विद्याधर सहित मन्त्रिगण अपने आसन पर आ चुके। वनस्पर बंधु भी सभा में आकर महाराज की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कुछ क्षण में ही महाराज जयचन्द श्री हर्ष एवं कुँवर लक्ष्मण के साथ आकर अपना आसन ग्रहण करते हैं। महाराज जयचन्द अपने हाथ से आचार्य को ताम्बूल वीटक प्रदान करते हैं, यह सम्मान श्री हर्ष को ही प्राप्त है। आचार्य श्री हर्ष स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति हैं, वे किसी से दबते नहीं। महाराज से भी उचित अनुचित पर चर्चा करते और उचित का ही पक्ष लेते। जब भी वे सभा में होते, सभा की चर्चा का स्तर अपने आप उच्चतर स्थिति में पहुँच जाता। चर्चा करते समय सभी सतर्क रहते। पण्डित विद्याधर तो अभिभूत रहते। महाराज और आचार्य के आसन ग्रहण करते ही पण्डित विद्याधर ने दोनों की प्रशस्ति में श्लोक पाठ करते हुए महाराज से सभा संचालन की अनुमति माँगी। महाराज के संकेत करते ही उन्होंने ने कहा.......‘महाराज का नाम लेकर जनमानस सुख की नींद सोता है। महाराज की करुण , शालीनता एवं सहज आस्था चतुर्दिश बिम्बित हो रही है। पर कुछ करद राजाओं से वर्षों से कर नहीं उगाहा जा सका। महाराज की व्यस्तताओं के बीच अब ऐसा अवसर आया है कि इस समस्या का समाधान किया जाए। महाराज की सभा प्रतिभाशाली सेनापतियों एवं सामन्तों से सुशोभित है’ उन्होंने एक दृष्टि सभा पर डालते हुए पुनः कहना प्रारम्भ किया-
‘सैयद तालन, धन्वा, लला जैसे कुशल योद्धा थे ही, वनस्पर बन्धुओं के आने से कान्यकुब्ज की सभा का तेज द्विगुणित हो गया है। आज शुभ मुहूर्त है। महाराज की इच्छा है कि सभा का कोई सदस्य गाँजर क्षेत्र के नरेशों से कर उगाहने का दायित्व ले। किसी को निर्देशित करने की अपेक्षा यह उचित समझा गया कि स्वेच्छा से कोई इस काम को सम्पन्न करे। इस हेतु एक कलश पर काशी के विशिष्ट ताम्बूल का वीटक रखा गया है।’
सभी की दृष्टि कलश पर रखे ताम्बूल वीटक पर चली गई। ‘जिन्हे दायित्व सम्पन्न करने में रुचि हो, वे ताम्बूल वीटक ग्रहण कर सकते हैं।’ इतना कहकर पण्डित विद्याधर अपने आसन पर बैठ गए।
सभा में मौन छा गया। पर कुछ क्षण पश्चात् सभी अपने को आँकने तथा दायित्व की गम्भीरता को परखने के लिए आपस में अस्फुट स्वरों में विचार विनिमय करने लगे।
कुछ क्षण बीता। महाराज की दृष्टि जैसे उदयसिंह से मिली, वे खड़े हो गए। उन्होंने हाथ जोड़कर निवेदन किया, ‘महाराज मैं इस कार्य को सम्पन्न करने का दायित्व लेता हूँ।’ वे सहजता से कलश तक पहुँचे और ताम्बूल वीटक मुख में रख लिया। सभा तालियों से गूँज उठी। महाराज ने उदयसिंह के साहस एवं कौशल की सराहना करते हुए कहा कि कान्यकुब्ज का सैन्यबल उदयसिंह के नेतृत्व में इस कार्य में सहयोग करेगा। लक्ष्मण राणा उदयसिंह के इस कृत्य से अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने उनका समर्थन किया। सैयद तालन ने उठकर उदयसिंह की पीठ थपथपाई। उदय सिंह ने आचार्य श्री हर्ष को नमन किया। उन्होंने हाथ उठाकर कार्य सिद्धि का आशीष दिया। हर व्यक्ति उदयसिंह की ही चर्चा कर रहा था और उदयसिंह मुस्कराते हुए सभी की शुभ कामनाएँ ग्रहण कर रहे थे।
रिजगिरि में समाचार पहुँचते देर न लगी। उदयसिंह के आते ही पुष्पिका ने मुस्कराकर स्वागत किया। दोनों साथ ही उपाहार के लिए बैठे। ‘महाराज का ऋण चुकाने का अवसर आ गया,’ पुष्पिका ने कहा।
‘इसी उद्देश्य के लिए तो हमें यहाँ रखा गया था,’ उदयसिंह ने जोड़ा।
‘राजकुमार लक्ष्मण भी जाएंगे यह शुभ संकेत है।’
‘वे मुझे अनुज सदृश स्नेह देते हैं।’
‘आपको किसका स्नेह नहीं प्राप्त है?’
‘इसे खोजना पड़ेगा।’
‘वामाओं की भी एक अनी चाहिए आपके पास।’
‘क्या कह रही हो प्रिये? वामा अनी आपत्तिकाल में ही उपयुक्त होती है। कलिंग दुहिता ने पुरुषों के खप जाने पर ही वामा वाहिनी संगठित किया था। ऐसा अवसर यहाँ नहीं आएगा।’
‘हमारा उपयोग क्या केवल आपातकाल के लिए ही है?’
‘नही प्रिये, तुम्हारी उपयोगिता सर्वत्र है। शक्ति और करुणा का अजस्र स्रोत तुम्हीं हो। तुम्हारी एक स्मृति ही मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर देती है। तुम्हारा प्रसन्नतापूर्वक हमें रण भूमि के लिए भेजना कितना उत्साहवर्द्धक होता है इसका अनुमान केवल भोक्ता ही लगा सकता है।’
‘सहभागिनी हूँ मैं आपके सुख-दुख में पूरी तरह संयुक्त । इसीलिए इच्छा होती है कि जब भी श्रमसीकर आपके मुखमण्डल पर उभरें, मैं उन्हें अपने हाथों से पोंछ कर सुखाऊँ। पर ऐसा अवसर वामा अनी बिना कैसे मिलेगा?’ ‘तो इसीलिए वामा अनी की बात हो रही थी,’ कहते हुए उदयसिंह हँस पड़े। पुष्पिका ने भी उनका साथ दिया।