कालवाची-प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(१८) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कालवाची-प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(१८)

विराटज्योति के जाते ही चारुचित्रा वहीं धरती पर बैठकर फूट फूटकर रोने लगी एवं उसे आत्मग्लानि का अनुभव हो रहा था,वो सोच रही थी कि वो विराटज्योति को क्या समझ रही थी और वो क्या निकला,जिस यशवर्धन को वो आज तक बुरा व्यक्ति समझती आ रही थी,वास्तविकता में वो तो कभी ऐसा था ही नहीं ,उससे कितनी बड़ी भूल हो गई,उसने स्वयं ही अपने जीवन को जटिल बना लिया एवं कुछ समय पश्चात् जब वो जी भरकर रो चुकी तो वो धरती से उठकर अपने बिछौने पर आकर लेट गई,वो दिनभर अपने कक्ष से बाहर नहीं निकली और ना ही दिनभर उसने कुछ खाया,सायंकाल भी होने को आई थी परन्तु चारुचित्रा अब तक अपने कक्ष से बाहर ना निकली थी....
जब अर्द्धरात्रि हो गई तो मनोज्ञा उसके कक्ष के समीप आकर बोली....
"रानी चारुचित्रा! क्या मैं आपके कक्ष में आ सकती हूँ",
चारुचित्रा का मन तो नहीं था किसी से बात करने का किन्तु उसने मनोज्ञा से कह दिया...
"हाँ! आ जाओ"
और तब मनोज्ञा ने चारुचित्रा के कक्ष में प्रवेश किया तो उसके हाथों में चारुचित्रा के लिए भोजन का थाल था और वो भोजन का थाल उसने समीप रखी चौकी पर रखते हुए कहा...
"मैं आपके लिए भोजन लाई हूँ",
"तुम्हें इतना कष्ट उठाने की कोई आवश्यकता नहीं थी",चारुचित्रा क्रोधित होकर बोली...
"मुझे कष्ट तो आपको भूखा देखकर हो रहा है,दिनभर से आपने कुछ खाया नहीं है, लीजिए शीघ्रतापूर्वक भोजन कर लीजिए",मनोज्ञा बोली...
"कहीं इस भोजन में तुमने विष तो नहीं मिला दिया,ताकि तुम्हारे मार्ग की बाँधा समाप्त हो जाए", चारुचित्रा बोला...
"आपको ऐसा लगता है कि मैं ऐसा कुछ कर सकती हूँ,इतना साहस नहीं है मुझ में रानी चारुचित्रा!", मनोज्ञा ने कहा...
"हाँ! तुम कुछ भी कर सकती हो"चारुचित्रा बोली...
"मैं ऐसा कर तो सकती हूँ,किन्तु ऐसा करूँगीं नहीं",मनोज्ञा बोली....
"तुम ऐसा क्यों नहीं करना चाहती", चारुचित्रा ने पूछा...
"क्योंकि आप ही तो माध्यम हैं,मेरे उस लक्ष्य तक पहुँचने का",मनोज्ञा बोली....
"कौन सा लक्ष्य...कैसा लक्ष्य",चारुचित्रा ने पूछा...
"वो अभी मैं आपको नहीं बता सकती",मनोज्ञा बोली...
"ठीक है! तुम मुझे अपना लक्ष्य नहीं बता सकती किन्तु मुझे ये तो बता सकती हो ना कि तुम्हें मंदिर में कुछ हुआ क्यों नहीं",चारुचित्रा बोली....
"क्योंकि मैं आप दोनों के साथ मंदिर गई ही नहीं थी",मनोज्ञा बोली...
"यदि तुम हम दोनों के साथ मंदिर नहीं गई थी तो वो कौन थी जो हम दोनों के संग मंदिर गई थी",चारुचित्रा ने पूछा...
"वो तो दासी रुपवती थी,जो मेरा रुप धरकर आप दोनों के संग गई थी",मनोज्ञा बोला...
"उसने तुम्हारा रुप कैंसे धरा,मुझे तनिक बताओगी ",चारुचित्रा क्रोधित होकर बोली...
"अभी आपको ज्ञात ही नहीं है कि मेरे पास कौन कौन सी मायावी शक्तियांँ हैं,उन्हीं मायावी शक्तियों द्वारा मैंने दासी रुपवती को अपना रुप दे दिया,मैंने उससे कहा था कि यदि उसने मेरा रुप नहीं धरा तो मैं उसकी हत्या कर दूँगीं,इसलिए भयभीत होकर उसने मेरी बात मान ली",मनोज्ञा बोली....
"तो दासी रुपवती जानती है कि तुम्हारे पास कौन कौन सी शक्तियांँ हैं",चारुचित्रा ने पूछा...
"जानती थी...किन्तु अब नहीं जानती",मनोज्ञा बोली...
"तुम्हारे कहने का तात्पर्य क्या है",चारुचित्रा ने प्रश्न किया...
"यदि आपको इसका तात्पर्य जानना है तो इसके लिए आपको मेरे संग चलना होगा",मनोज्ञा ने कहा....
"कहाँ चलना होगा?",चारुचित्रा ने पूछा....
"अब आप कोई भी प्रश्न मत कीजिए,बस मेरे साथ चलिए",मनोज्ञा बोली...
"हाँ! चलो",चारुचित्रा बोली...
"ऐसे नहीं,पहले आप भोजन कर लीजिए,इसके पश्चात् आप जो कहेगीं,मैं वो करूँगीं",मनोज्ञा बोली...
"मेरी इतनी चिन्ता क्यों है तुम्हें",चारुचित्रा ने पूछा....
"आपके प्रश्न का उत्तर तो मैं भी नहीं जानती,किन्तु कभी कभी अपने शत्रु से प्रेम होना भी स्वाभाविक प्रकृति होती है,कदाचित मेरे साथ भी यही हो रहा है",मनोज्ञा बोली....
"तो तुम ये मानती हो कि मैं तुम्हारी शत्रु हूँ",चारुचित्रा बोली...
"मित्र भी तो नहीं कह सकती इसलिए शत्रु ही सही",मनोज्ञा बोली...
"हाँ! ये सम्बन्ध मुझे भी स्वीकार है,क्योंकि मेरी दृष्टि में तुम भी मेरी शत्रु हो",चारुचित्रा बोली....
"वार्तालाप तो बाद में होता रहेगा रानी चारुचित्रा!,पहले आप भोजन कर लीजिए",मनोज्ञा बोली...
इसके पश्चात् मनोज्ञा के कहने पर चारुचित्रा ने भोजन किया,तत्पश्चात मनोज्ञा रानी चारुचित्रा को लेकर उस स्थान पर गई,जहाँ पर दासी रुपवती का क्षत-विक्षत शव पड़ा था,मनोज्ञा ने उस शव की ओर संकेत करते हुए कहा...
"रानी चारुचित्रा! ये रही रुपवती,मैंने इसका हृदय निकालकर ग्रहण कर लिया है",
ये सुनकर चारुचित्रा कुछ समय के लिए मौन हो गई और कुछ समय के पश्चात् स्वयं को सन्तुलित करते हुए बोली....
"तो मानवों का हृदय ही तुम्हारा आहार है"
"नहीं! मैं आपकी भाँति साधारण भोजन भी ग्रहण करती हूँ",मनोज्ञा बोली....
"यदि तुम हम प्राणियों की भाँति साधारण भोजन ग्रहण कर सकती हो तो तुम्हें मानवों का हृदय ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है",चारुचित्रा ने प्रश्न किया...
"मेरे सुन्दर एवं युवा दिखने का यही रहस्य है,यदि मैं मानव हृदय आहार स्वरूप ग्रहण नहीं करूँगी तो मैं शीघ्र ही वृद्ध एवं शक्तिविहीन हो जाऊँगी",मनोज्ञा बोली...
"तुम्हारा ये रुप देखकर मैं विचलित हूँ मनोज्ञा!,मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या कहूँ,तुम ये राज्य छोड़कर कहीं और क्यों नहीं चली जाती", चारुचित्रा बोली....
"मैं कहीं और नहीं जा सकती रानी चारुचित्रा!",मनोज्ञा बोली...
"क्यों नहीं जा सकती,तुम्हें वहाँ भी तो अपना आहार प्राप्त हो जाएगा",चारुचित्रा बोली...
"यहाँ से ना जाने का कारण मेरा आहार नहीं,कुछ और ही है",मनोज्ञा बोली...
"क्या कारण है ? जो तुम यहाँ से नहीं जाना चाहती",चारुचित्रा ने पूछा....
"महाराज....महाराज विराटज्योति हैं वो कारण",मनोज्ञा बोली...
"महाराज हैं कारण,वो भला कैंसे?",चारुचित्रा ने पूछा...
"क्योंकि मैं उनसे प्रेम करने लगी हूँ",मनोज्ञा बोली....
मनोज्ञा का उत्तर सुनकर चारुचित्रा क्रोधित होकर बोली...
" तुम्हारा ऐसा साहस,मैं अभी महाराज से जाकर सब कह दूँगीं",चारुचित्रा बोली...
"आप ऐसा कुछ भी नहीं करेगीं रानी चारुचित्रा!",मनोज्ञा भी आवेश में आकर बोली....
"मैं ऐसा ही करूँगीं",चारुचित्रा बोली...
"ऐसा करके आप महाराज के प्राण संकट में डाल रहीं हैं",मनोज्ञा बोली...
मनोज्ञा का वाक्य सुनकर अब चारुचित्रा मौन थी,क्योंकि उसे अब समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें,कुछ समय तक वो यूँ ही खड़ी रही तत्पश्चात बोली...
"यदि तुम उनसे प्रेम करती हो तो उनके प्राणों पर संकट की बात क्यों कर रही हो,इसका तात्पर्य है कि तुम्हारा प्रेम सच्चा नहीं है"चारुचित्रा बोली...
"मेरा प्रेम कैसा भी हो परन्तु आपका उनके प्रति तो प्रेम सच्चा है ना! इसलिए मुझे विश्वास है कि आप उनके प्राण बचाने हेतु कुछ भी कर सकतीं हैं,यदि आपने मेरे विषय में उनसे कुछ भी कहा तो उस यशवर्धन और महाराज दोनों के ही प्राण संकट में पड़ जाऐगें और मुझे ज्ञात है कि आप ऐसा कुछ भी नहीं होने देगीं",मनोज्ञा बोली....
"तुम ये ठीक नहीं कर रही हो मनोज्ञा!",चारुचित्रा बोली...
"उचित और अनुचित आप मुझे मत सिखाइए रानी चारुचित्रा! क्योंकि जो महाराज ने किया था वो भी उचित नहीं था",मनोज्ञा बोली....
"ऐसा क्या अनुचित किया था उन्होंने",चारुचित्रा ने पूछा...
"मैंने आपके और महाराज के मध्य हो रहे वार्तालाप को सुन लिया था",
मनोज्ञा के वाक्य सुनकर चारुचित्रा कुछ ना बोल सकी...

क्रमशः...
सरोज वर्मा...