कालवाची-प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(९) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कालवाची-प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(९)

वो उसके कक्ष की ओर गई और उसने कक्ष के वातायन से बाहर से ही देखा कि यशवर्धन गहरी निंद्रा में लीन है,इसलिए वो उसे ऐसे ही सोता हुआ छोड़कर वापस आ गई एवं पुनः अपने बिछौने पर आकर लेट गई,बिछौने पर लेटे लेटे उसने अपने भूतकाल में प्रवेश किया,वो उस समय में जा पहुँची जब वो व्यस्क हो चुकी थी और प्रेम क्या होता है ये उसे भलीभाँति ज्ञात हो चुका था,उसने अपना यौवन अपने होने वाले प्रेमी के लिए सम्भाल रखा था और वो उसकी प्रतीक्षा में थी कि कब उसका प्रेमी उससे आकर ये कहे कि वो उससे प्रेम करता है.....
और इधर यशवर्धन भी अपने हृदय की व्याकुलता को नहीं समझ पा रहा था,कदाचित वो चारुचित्रा से प्रेम करने लगा था,उसे ऐसा लग रहा था कि सब कुछ होते हुए भी उसके पास कुछ भी नहीं है, उसे अपना जीवन व्यर्थ सा प्रतीत हो रहा था, उसके मस्तिष्क में विचारों का आवागमन अत्यधिक तीव्र गति से हो रहा था, उसकी इन्द्रियांँ स्वयं उसके प्रश्नों का उत्तर चाहती थीं, परन्तु उन प्रश्नों का उत्तर पाने वो किसके समक्ष जाए,ये उसे समझ नहीं आ रहा था, उसका मस्तिष्क और हृदय उस समय दिशा विहीन थे....
ये उस समय की बात है जब यशवर्धन का परिवार एवं चारुचित्रा का परिवार ऋषि भूदेव के आश्रम पहुँचे,क्योंकि ऋषि भूदेव ने राजा अचलराज और राजा सारन्ध से भेंट करने की इच्छा जताई थी,दोनों परिवार कुछ दिवस ऋषि भूदेव के आश्रम में रुके और तभी यशवर्धन को चारुचित्रा के संग रहते हुए ऐसा प्रतीत होने लगा कि वो उससे प्रेम करने लगा है,
इसी प्रकार एक दिवस प्रात:काल का समय था, सूर्य की हल्की हल्की लालिमा धीरे धीरे चहुंँ ओर पसरने लगी थी, पंक्षियों ने भी अपने कोटर छोड़ दिए थे, मयूर नृत्य कर रहे थे,वन्य जीव-जन्तुओ की ध्वनियांँ सुनाई दे रहीं थीं, एकाएक सामने से चारुचित्रा अपना पीतल का कलश लेकर झरने की ओर निकली, उसके सुन्दर एवं घने केश खुले हुए थे,उसने अपने काँधे पर कुछ वस्त्र रखें हुए थे,कदाचित वो स्नान करने जा रही थी....
उसी समय यशवर्धन विचारमग्न सा आश्रम के आगे चिन्तित अवस्था में विचरण कर रहा था,वो सोच रहा था कि कैंसे अपने मन के भाव मैं चारुचित्रा के समक्ष प्रकट करूँ,तभी उसने चारुचित्रा को अपने सामने से गुजरते हुए देखा तो वो अपनी सुध-बुध खोकर उसे देखता ही रह गया, उसके खुले केश, पतली कमर, सुडौल बांँहें, उसका श्वेत वर्ण,कमनीय काया,मादक यौवन और चंचल-चितवन ने उसके हृदय में उठ रही लपटों को हवा दे दी, वो चारुचित्रा से प्रेम तो करता था परन्तु कभी उससे कह नहीं पाया था और उसका हृदय अब ये सब चारुचित्रा के समीप जाकर कहना चाहता था कि__
"प्रिऐ! मेरे प्रेम को स्वीकार करो, मेरे हृदय की अग्नि को तुम्हारे प्रेम की शीतलता ही शान्त कर सकती है, मैं इतने दिनों से मन की शान्ति खोज रहा था,परन्तु वो शान्ति मुझे अब तक प्राप्त ना हो सकी,तुम मेरे इतने निकट थी और मेरी दृष्टि के समक्ष थी किन्तु मैं ये देख नहीं पाया और इसका अभिप्राय मुझे अब समझ में आया कि ये तो मृगतृष्णा है जैसे कि मृग अपनी नाभि में रखी हुई कस्तूरी को इधर-उधर खोजता रहता है और उसे ये ज्ञात नहीं होता कि जिस सुगन्ध को वो खोज रहा है वो तो उसके बहुत ही समीप है, उसी प्रकार मैं तुम्हारी उपस्थिति को अपने समीप होकर भी समझ नहीं सका"
यशवर्धन मन में ये सोचता रहा और शाकंभरी आगे निकल गई, यशवर्धन के मस्तिष्क ने पूर्ण रुप से कार्य करना बंद कर दिया था ,अब उसकी आंँखों में केवल चारुचित्रा की ही छवि बस चुकी थी, वो उससे आज किसी भी दशा में अपने भाव प्रकट कर लेना चाहता था इसलिए वो चारुचित्रा के पीछे पीछे चल पड़ा,
चारुचित्रा झरने के समीप पहुंँची, उसने अपने काँधे से वस्त्र हटाकर टीले पर रख दिए, झरने के आस-पास का दृश्य अत्यधिक मनमोहक था, झर-झर की ध्वनि करता हुआ झरने का जल, सूर्य के प्रकाश में स्वर्ण की भाँति प्रतीत हो रहा था, सुंदर एवं रंग-बिरंगी तितलियांँ वातावरण में मंँडरा रही थी, लताओं और बेलों पर सुंदर पुष्प शोभायमान थे, तभी चारुचित्रा झरने में उतरकर स्नान करने लगी, उसकी गीली काया, जल पड़ने से कौशेय(रेशमी) दिखाई दे रही थी, उसके अंग-अंग से मधु टपक रहा था और ये सब यशवर्धन झाड़ियों के पीछे से छुपकर देख रहा था, उसके विचलित हृदय में प्रेम की तरंगें उठने लगी, धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो गया, अब उसकी श्वास ऊष्मा से परिपूर्ण हो चुकी थी एवं अब उसके लिए और अधिक समय तक वहाँ रुकना असहनीय हो रहा था....
चारुचित्रा का स्नान पूर्ण हो चुका तो वो कलश में स्वच्छ जल भरकर झरने से बाहर आ गई, भरे हुए कलश को भूमि पर रखकर जैसे ही उसने अपने सूखे वस्त्र उठाने का प्रयास किया तो उसी समय यशवर्धन ने चारुचित्रा की कलाई पकड़ी और कमर में अपना हाथ डालकर उसे अपने समीप खींचकर,उसके होंठों का प्रगाढ़ चुम्बन ले लिया,इसके पश्चात् चारुचित्रा ने स्वयं को यशवर्धन से छुड़ाया और क्रोधवश उसने जोर का थप्पड़ उस के गाल पर दे दिया ,अन्ततः वो अपना कलश और सूखे वस्त्र उठाकर रोते हुए आश्रम में वापस आ गई....
उधर यशवर्धन भी एक क्षण को पाषाण सा हो गया कि एकाएक ये क्या हो गया,वो भावों में ऐसे कैंसे बह गया, इतने आवेश में कैसे आ गया, वो उस समय स्वयं पर संयम क्यों ना रख सका,क्या हो गया था उसे उस क्षण चारुचित्रा को देखकर,यदि ये प्रेम था तो इस प्रकार प्रेम प्रकट करने की ये विधि अच्छी नहीं है,ऐसा करने पर कोई भी क्रोधित हो जाएगा, उसे अब अनुभव हो रहा था कि कुछ तो चूक हो गई है उससे, भावावेश में बहकर और अब उसे अपने इस घृणित कार्य हेतु अत्यधिक पछतावा हो रहा था....
अब चारुचित्रा ने आश्रम से बाहर निकलना ही बंद कर दिया, उस दिन की घटना को तो वो किसी से ना कह पाई परन्तु अब उसे किसी पर भी विश्वास नहीं रह गया था, उसे लगने लगा था कि पुरुष होते ही ऐसे हैं, उनके हृदय में प्रेम नहीं, काम और वासना ही वास करते हैं, उनकी प्रवृत्ति ही ऐसी होती है,यशवर्धन भी चारुचित्रा से उस दिन वाले व्यवहार के लिए क्षमा चाहता था,परन्तु उसे चारुचित्रा कहीं दिखाई ना देती थी, कदापि दिख भी जाती तो वो यशवर्धन को देख मुख मोड़कर दूसरी दिशा में चली जाती, चारुचित्रा के ऐसे व्यवहार से यशवर्धन की आत्मा को अत्यधिक कष्ट होता,
एक दिवस संध्या समय,चारुचित्रा आश्रम की गौशाला में गायों के निकट जाकर घास डाल रही थी, तभी यशवर्धन ने जाकर उसके चरणों पर अपना शीश नवा दिया और उससे बोला..
"चारुचित्रा! मुझे क्षमा कर दो, मुझ निर्बुद्धि ने बहुत बड़ा अपराध किया, चाहे तो जो भी दण्ड दो ,परन्तु क्षमा कर दो, उस दिन के बाद से मैं हर क्षण मर-मर कर जीता आया हूंँ, तुम जो कहोगी मैं वैसा ही प्रायश्चित करने के लिए तत्पर हूंँ"
तब चारुचित्रा यशवर्धन से बोली,
"ये क्या कर रहे हो, कोई देख लेगा"
"पहले कहो कि क्षमा किया तभी तुम्हारे चरणों से उठूँगा",यशवर्धन ने कहा...
"मुझे सब ज्ञात है यशवर्धन!, सारे पुरुष ऐसे ही होते हैं और मेरे समक्ष सदाचारी बनने का अभिनय ना ही करो तो ही अच्छा होगा",चारुचित्रा क्रोधित होकर बोली....
"तुम जो कहना चाहती हो कह सकती हो, मैं तुम्हारा अपराधी हूंँ चारुचित्रा!,यशवर्धन बोला...
तब चारुचित्रा बोली....
"तुम्हारा अपराध अक्षम्य है, मेरी दृष्टि में तुम एक चरित्रहीन पुरुष हो, जिसे एक स्त्री का सम्मान करना नहीं आता, जो पुरुष वासना में लिप्त हो, उसे मैं कैसे क्षमा प्रदान कर सकती हूंँ, तुम्हारे मस्तिष्क और हृदय में कामाग्नि प्रज्जवलित है,भला उसे मेरी क्षमा कैसे शान्त कर सकती है,जाओ..जाओ...अपने मधुलिप्त वार्तालाप से किसी और को मूर्ख बनाओ,तुम मुझे मूर्ख नहीं बना सकते",
और इतना कहकर चारुचित्रा वहांँ से चली गई....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....