Kalvachi-Pretni Rahashy - S2 - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

कालवाची--प्रेतनी रहस्य-सीजन-२-भाग(४)

विराटज्योति ने राजमहल के बाहर आकर अपने सेनापति दिग्विजय सिंह को आदेश दिया कि वो सैनिकों को टुकड़ियों में विभाजित करना होगा तभी हम उस स्थान को सरलता से चारों ओर से घेर सकते हैं,जहाँ पर वे सभी दस्यु रह रहे हैं...
"जी! महाराज! सारा कार्य योजनानुसार ही होगा,आप तनिक भी चिन्ता ना करें,हम सभी की विजय निश्चित है",सेनापति दिग्विजय सिंह बोले....
"जी! आप सभी से मैं ऐसी ही आशा रखता हूँ",विराटज्योति बोला...
"जी! महाराज! हम आपकी आशा को निराशा में कदापि नहीं बदलेगें" सेनापति दिग्विजय सिंह बोले....
"तो चलिए! इस कार्य को सफल बनाने हेतु प्रस्थान करते हैं",विराटज्योति बोला....
"जी! महाराज! हम सभी तत्पर हैं",सेनापति दिग्विजय सिंह बोले....
इसके पश्चात विराटज्योति सेनापति दिग्विजय सिंह और अपने सैनिकों के संग दस्युओं के निवासस्थान पर आक्रमण करने हेतु चल पड़ा,वे सभी सायंकाल तक वहाँ पहुँच गए,उस समय सूर्य डूब चुका था और अँधेरा भी गहराने लगा था,इस पर सेनापति दिग्विजय सिंह बोलें....
"महाराज! मेरा तो ये विचार है कि हमें पूर्णतः रात्रि होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए,हम सभी तब तक इसी वन में यहीं कहीं छिप जाते हैं,रात्रि के दूसरे पहर में हम उन दस्युओं पर आक्रमण करेगें,तब वे सावधान भी नहीं होगें और हो सकता है कि वे सभी गहरी निंद्रा में हो तो तब हम उन सभी पर सरलता से विजय प्राप्त कर सकते हैं"
"जी! मैं आपके विचार से पूर्णतः सहमत हूँ",विराटज्योति बोला....
"जी! तो हम सभी तब तक अपने साथ लाए जलपान को ग्रहण करके रात्रि होने तक यही छुप जाते हैं", सेनापति दिग्विजय सिंह बोले...
"जी! यही उचित रहेगा",विराटज्योति बोला....
इसके पश्चात सर्वसहमति से वही किया गया जैसा सेनापति दिग्विजय सिंह ने सुझाव दिया था,अब रात्रि का पहला पहर बीत चुका था और दूसरा पहर लग चुका था,इसलिए सेनापति दिग्विजय सिंह ने कुछ सैनिकों को दस्युओं के निवासस्थान की ओर ये ज्ञात करने के लिए भेजा कि अब वहाँ कोई कौतूहल तो नहीं है,क्योंकि रात्रि को उस स्थान पर दस्यु मदिरापान करके उन सुन्दरियों के संग व्यभिचार करते थे जिन्हें वे चुराकर लाया करते थे,ये बात विराटज्योति के गुप्तचरों ने उसे बताई थी,इसलिए विराटज्योति को उन दस्युओं के सभी क्रियाकलाप ज्ञात थे......
सैनिक उस स्थान से वापस लौटे और उन्होंने सभी को बताया कि अब वहाँ कोई भी कौतूहल नहीं हो रहा है,कदाचित सभी दस्यु मदिरा पीकर गहरी निंद्रा में लीन हैं,अग्निशलाकाओं का प्रकाश भी अत्यधिक नहीं है,इक्का दुक्का अग्निशलाकाओं का प्रकाश ही प्रकाशमान है,ऐसा प्रतीत होता है कि वे अब प्रातःकाल तक जागने वाले नहीं....
"तब तो यही उचित अवसर है उन पर आक्रमण करने का", सेनापति दिग्विजय सिंह बोले....
"जी! तो सभी सैनिक सावधानीपूर्वक उस स्थान की ओर प्रस्थान करें,ध्यान रहें किसी भी प्रकार का कोई भी स्वर नहीं होना चाहिए"",विराटज्योति बोला....
और सभी विराटज्योति के आदेश पर उस स्थान की ओर बढ़ चले,वे सभी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने देखा कि आठ दस झोपड़ियाँ बनीं हैं जिसमें वे दस्यु रहते हैं और उस स्थान के अगल बगल पेड़ पौधे भी नहीं हैं क्योंकि वे सभी एक मरुस्थलीय टीले पर अपनी झोपड़ियाँ बनाकर रह रहे थे,अब सभी सैनिकों को ये विश्वास हो गया था कि उन सभी की विजय निश्चित है क्योंकि वे दस्यु वहाँ से सरलता से नहीं भाग सकते थे,उस स्थान पर उन सभी के छुपने योग्य कुछ भी नहीं था.....
इसलिए बिलम्ब ना करते हुए विराटज्योति ने अपने सैनिकों को आक्रमण करने का आदेश दिया और सैनिक उन दस्युओं की झोपड़ियों पर भूखे बाघ की भाँति टूट पड़े,दस्युओं को अपने अस्त्र उठाने और कुछ सोचने समझने का अवसर ही नहीं मिला ,इसलिए सभी सैनिक उन सभी दस्युओं को क्रमशः मृत्यु के घाट उतारते जा रहे थे, एक एक करके सैनिकों ने सभी दस्युओं को मृत्यु दे दी,किन्तु इसी मध्य उन दस्युओं का (प्रमुख)मुखिया दस्यु विराटज्योति के समक्ष एक नवयुवती को उसके समक्ष लेकर पहुँचा और उसकी ग्रीवा पर कृपाण(चाकू) रखते हुए बोला....
"राजा! अपने सैनिकों से कहो कि ये सब बंद करें नहीं तो मैं इस युवती को जीवित नहीं छोड़ूगा और यदि ये युवती मरी तो इसका सारा दोष तुम्हारे सिर पर ही होगा"
तब विराटज्योति दस्युओं के प्रमुख से बोला....
"नहीं! तुम इस युवती को नहीं मार सकते,तुम जो चाहते हो मैं वो करने हेतु तत्पर हूँ"
"नहीं! महाराज! आप ऐसा कुछ भी नहीं करेगें,आपको इन सभी युवतियों को बचाना ही होगा,आप मेरे प्राणों की चिन्ता मत कीजिए",वो युवती बोली....
"नहीं! तुम्हारे प्राण बचाने भी उतने ही आवश्यक हैं,जितने कि इन सभी के",विराटज्योति बोला....
"नहीं! महाराज! आप आक्रमण नहीं रोकेगें,आपको मेरी सौगन्ध",वो युवती बोली....
किन्तु उस दस्यु का ये दाँव चल नहीं सका,इसी मध्य सेनापति दिग्विजय सिंह ने उस दस्यु की पीठ पर अपनी खड्ग से प्रहार किया और उस युवती ने उस दस्यु की कृपाण छीनकर उसके हृदय में घोप दी जिससे कि प्रमुख दस्यु के प्राणपखेरु उड़ गए,अब वहाँ की स्थिति पुनः सामान्य हो चुकी थी और सभी सैनिकों ने उन सभी दस्युओं को तत्काल मृत्युदण्ड दे दिया,अब एक भी दस्यु ना बचा था,उस स्थान पर अब केवल दस्युओं के शवों का ढ़ेर पड़ा था,सैनिकों को भी क्षति पहुँची थीं जो कि इतनी गम्भीर ना थीं कि उनका उपचार ना हो सके.....
सदैव की भाँति इस बार भी विराटज्योति की जीत हुई थी और उसने सेनापति दिग्विजय सिंह सहित सभी सैनिकों को इस जीत के लिए बधाई दी और वहाँ उपस्थित सभी बंदी नवयुवतियों को छुड़ा लिया, विराटज्योति ने सभी नवयुवतियों से उनके परिजनों के विषय में पूछकर उन्हें यथास्थान पहुँचाने का आश्वासन दिया,वे सभी नवयुवतियाँ अब मुक्त होकर प्रसन्न थीं और उन्होंने भी अपने महाराज विराटज्योति का आभार प्रकट किया....
इसके पश्चात विराटज्योति उस नवयुवती के समीप भी आया जिसकी ग्रीवा पर प्रमुख दस्यु ने कृपाण रखी थी एवं उस नवयुवती से उसके परिजनों के विषय में पूछा तो वो विराटज्योति से बोली....
"महाराज! मैं तो अनाथ हूँ,मैं एक स्वर्णकार की पुत्री थी,इन दस्युओं ने मेरे पिता,मेरे भाई और मेरी माता की हत्या कर दी है,अब इस संसार में मेरा अपना कोई नहीं है,मुझे स्वयं ज्ञात नहीं कि अब मैं कहाँ जाऊँगी"
"कोई तो होगा तुम्हारा सगा सम्बन्धी,हम तुम्हें उनके यहाँ पहुँचा देते हैं",दिग्विजय सिंह ने कहा...
"जी! नहीं! कोई नहीं है मेरा",वो युवती बोली....
"नाम क्या है तुम्हारा"विराटज्योति ने उस नवयुवती से पूछा....
"जी! मेरा नाम मनोज्ञा है",वो नवयुवती बोली...
तब महाराज विराटज्योति ने दिग्विजय सिंह से कहा....
"सेनापति! दिग्विजय सिंह! आप मनोज्ञा को लेकर राजमहल चलिए,अब से ये वहीं रहेगीं",
ये सुनकर दिग्विजय सिंह ने विराटज्योति से कहा....
"महाराज! आप कैसें इतनी शीघ्र किसी अपरिचित युवती पर विश्वास कर सकते हैं,कदाचित ये कोई गुप्तचर हुई तो हमारे राज्य पर कोई संकट खड़ा हो सकता है,तनिक तो इस विषय पर विचार कीजिए "
"ये कैसीं बातें कर रहे हैं आप सेनापति जी! मुझे मनोज्ञा पर पूर्ण विश्वास है,वो एक साधारण युवती है जो अब अनाथ है"?,विराटज्योति बोला....
"हाँ! महाराज! आपके सेनापति जी का कथन उचित है,मैं राजमहल में रहने योग्य नहीं हूँ,मैं संदेह करने योग्य ही हूँ"मनोज्ञा बोली...
तब विराटज्योति बोला...
"मनोज्ञा! तुम ऐसा कोई भी विचार अपने मस्तिष्क एवं हृदय में मत लाओ,ये हमारे राज्य के सेनापति हैं इसलिए ये इस प्रकार सोच रहे हैं,राज्य की सुरक्षा इनके लिए सर्वोपरि है,अपरिचित लोगों पर संदेह करना ये ही इनका कार्य है,किन्तु मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है,इनकी बात का बुरा मत मानो और राजमहल चलो,अब से तुम वही रहोगी"
विराटज्योति का कथन सुनकर दिग्विजय सिंह के कहने योग्य अब कुछ ना रह गया था इसलिए विवश होकर वो सैनिकों के संग मनोज्ञा को लेकर वैतालिक राज्य की ओर चल पड़ा....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....



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