उसने अपने राजसी वस्त्र अपने शरीर से उतारे और साधारण से वस्त्र पहनकर वो चारुचित्रा के बगल में बिछौने पर आकर लेट गया,चारुचित्रा भी उस समय चुपचाप लेटकर कुछ सोच रही थी तब विराटज्योति ने उससे पूछा....
"क्या सोच रही हो प्रिऐ!"
"यही कि पहले आप मुझसे कितना प्रेम करते थे किन्तु अब आपके पास मेरे लिए समय ही नहीं है",चारुचित्रा बोली...
"ऐसी बात नहीं है प्रिऐ! तुम जानती तो हो ना कि आजकल राज्य में कैसीं परिस्थितियाँ चल रहीं हैं,इसका तात्पर्य ये बिलकुल नहीं है कि मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम कम हो गया है",विराटज्योति बोला...
तब चारुचित्रा बोली...
"जी! मैं ये भलीभाँति समझ सकती हूँ,माता जी, पिता जी भी ना जाने कहाँ चले गए हैं,कह रहे थे कि किसी चामुण्डा पर्वत पर जा रहे हैं,किसी आवश्यक कार्य हेतु, ना जाने उन्हें वहाँ क्या कार्य आन पड़ा, इसके अलावा उन्होंने कुछ भी नहीं बताया,उनसे वार्तालाप होता रहता था तो मेरा मन लगा रहता था और आपकी माता त्रिलोचना और पिता कौत्रेय ने यशवर्धन के राजपाट को सम्भाल लिया है,वे भी यहाँ नहीं आ सकते,वे भी विवश हैं,इसलिए मुझे अकेलेपन का अनुभव और अधिक होने लगा है"
"मैं तुम्हारी मनोदशा समझ सकता हूँ प्रिऐ!",विराटज्योति बोला....
"मैं आपको उलाहना नहीं दे रही हूँ महाराज! बस अपने हृदय की बात आपको बता रही थी",चारुचित्रा बोली...
"अब तुम्हें दुखी होने की आवश्यकता नहीं है प्रिऐ! अभी जितनी भी रात्रि शेष बची है तो मैं तुम्हारे संग ही बिताऊँगा,आज रात्रि मैं राज्य के भ्रमण पर नहीं जाऊँगा,मैं सेनापति दिग्विजय सिंह से कह आया था कि यदि मेरी आवश्यकता पड़े तभी बुलाइएगा ,नहीं तो आज रात्रि आप ही सबकुछ सम्भाल लीजिएगा" , विराटज्योति बोला...
"सच कहते हैं आप!",चारुचित्रा ने पूछा...
"हाँ! बिलकुल सच!",विराटज्योति बोला...
और इसके पश्चात् विराटज्योति चारुचित्रा के समीप आया,चारुचित्रा कुछ लजाई और दोनों प्रेमालाप में लीन हो गए,आज इतने दिवस के पश्चात् विराटज्योति चारुचित्रा के समीप आया था,इसलिए चारुचित्रा इस क्षण को भरपूर जी लेना चाहती थी और उस रात्रि दोनों ने उस समय का भरपूर लाभ उठाया,कुछ समय के पश्चात् दोनों सो गए और तभी विराटज्योति को एक अनोखे स्वप्न ने आ घेरा,उसने देखा कि जिस बिछौने पर चारुचित्रा का अधिकार है, उस बिछौने पर उसके संग मनोज्ञा है और वो उसके संग प्रेमालाप में लीन है,ऐसा स्वप्न देखकर एकाएक विराटज्योति जाग उठा और उसके मुँह से जो वाक्य निकले वो ये थे....
"ये नहीं हो सकता.....ऐसा कभी नहीं होगा"
विराटज्योति के वाक्य सुनकर चारुचित्रा भी जाग उठी और उसने विराटज्योति से पूछा...
"क्या हुआ महाराज! आप चीखे क्यों!",
"कुछ नहीं चारुचित्रा! तुम मुझसे कभी भी दूर मत होना",
और ऐसा कहकर विराटज्योति ने चारुचित्रा को अपने अंकपाश में ले लिया और उसे अपने हृदय से बलपूर्वक लगा लिया,उसे ऐसा स्वप्न देखकर आत्मग्लानि हो रही थी,उसे स्वयं पर अत्यधिक अपराधबोध हो रहा था,वो चारुचित्रा को अपने हृदय से लगाए हुए सोच रहा था कि ये कैसा स्वप्न देख लिया उसने,वो केवल चारुचित्रा से प्रेम करता है,उसके जीवन में चारुचित्रा के अलावा और कोई नहीं आ सकता,कदाचित मैं भटक रहा हूँ ,मनोज्ञा चारुचित्रा के प्रति मेरा मोहभंग कर रही है,किन्तु ऐसा कभी नहीं होगा....
विराटज्योति के मन में इसी प्रकार के विचारों का आवगमन चल रहा था,तब चारुचित्रा उससे बोली...
"महाराज! ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित आपने कोई दुःस्वप्न देख लिया है,इसलिए आप इतने चिन्तित दिखाई दे रहे हैं",
"हाँ! चारुचित्रा! वो दुःस्वप्न ही था,ऐसा दुःस्वप्न जिसमें मेरा संसार उजड़ रहा था",विराटज्योति बोला...
विराटज्योति की बात सुनकर चारुचित्रा बोली...
"मुझे भी ऐसे ही दुःस्वप्न आते हैं महाराज! मैं भी इस बात को लेकर अत्यधिक चिन्तित थी",
"चिन्ता मत करो प्रिऐ! कुछ भी अप्रिय घटित नहीं होगा,तुम निश्चिन्त होकर सो जाओ",विराटज्योति ने चारुचित्रा से कहा...
विराटज्योति की बात सुनकर चारुचित्रा पुनः अपने बिछौने पर लेटते हुए विराटज्योति से बोली...
"महाराज! आप भी विश्राम कर लीजिए,प्रातःकाल होने में अभी बिलम्ब है"
"हाँ! मैं भी सो जाता हूँ "
और ऐसा कहकर विराटज्योति भी बिछौने पर लेट गया,किन्तु अब उसकी आँखों में निंद्रा नहीं थी,वो तो उस स्वप्न को लेकर अभी भी चिन्तित था,कुछ समय तक तो वो सोने का प्रयास करता रहा,किन्तु उसकी निंद्रा उस दुःस्वप्न ने हर ली थी,उसे अपने कक्ष में श्वासारोध(घुटन) का अनुभव हो रहा था,इसलिए वो अपने कक्ष से निकलकर प्राँगण में आ गया और प्राँगण के स्तम्भों में लगी हुई अग्निशलाका के प्रकाश में उसने देखा कि वहाँ पर मनोज्ञा थी,वहाँ और कोई भी दासी उपस्थित नहीं थी इसलिए इतनी रात्रि को वहाँ पर मनोज्ञा की उपस्थिति देखकर विराटज्योति को कुछ अटपटा सा लगा,किन्तु उसने मनोज्ञा से ये नहीं पूछा कि वो इतनी रात्रि को यहाँ क्या कर रही है,उसे देखते ही वो पुनः अपने कक्षा में आकर बिछौने पर लेट गया एवं कुछ समय पश्चात् कुछ सोचते विचारते उसे नींद आ गई...
प्रातःकाल हो चुकी थी,पंक्षियों के कलरव से चारुचित्रा की आँख खुली तो उसने देखा कि विराटज्योति अभी भी अपने बिछौने पर लेटा सो रहा है,वो उसे ध्यान से निहारने लगी,उसका शान्त मुँख किसी नन्हें बालक की भाँति प्रतीत हो रहा था,चारुचित्रा उसके इस रुप को देखकर भावविभोर हो उठी और उसने विराटज्योति के मस्तक पर एक चुम्बन ले लिया,चुम्बन का स्पर्श पाकर विराटज्योति निंद्रा में ही चारुचित्रा से बोला...
"इतना प्रेम...वो भला किसलिए"
"क्या मुझे अपने स्वामी से प्रेम करने का अधिकार भी नहीं है?",चारुचित्रा ने रुठते हुए कहा....
"अरे! तुम तो रुठ गईं प्रिऐ!",विराटज्योति बोला....
"आपने बात ही ऐसी कही",चारुचित्रा बोली....
"अच्छा! अब से ऐसा नहीं कहूँगा,अब क्या ऐसे ही रुठी रहोगी",विराटज्योति बोला....
और विराटज्योति की बात सुनकर चारुचित्रा विराटज्योति के अंकपाश में समा गई,दोनों के मध्य प्रेम भरा वार्तालाप प्रारम्भ ही हुआ था कि तभी मनोज्ञा ने उनके कक्ष के द्वार पर आकर कहा....
"महाराज! आपको आपके अतिथि ने अपने कक्ष में बुलाया है",
मनोज्ञा का आना चारुचित्रा को तनिक भी ना भाया,उसने उन दोनों के मध्य आकर अवरोध उत्पन्न कर दिया था,तब विराटज्योति चारुचित्रा को अपने अंकपाश से विलग करते हुए बोला....
"मैं यशवर्धन के कक्ष में जा रहा हूँ",
"जी! ठीक है!",चारुचित्रा बोली...
और विराटज्योति यशवर्धन के कक्ष की ओर बढ़ गया,इधर चारुचित्रा ने भी सोचा कि उसे भी यशवर्धन के कक्ष में उसके स्वास्थ्य के विषय में पूछने जाना चाहिए,यशवर्धन की ऐसी दशा उसके कारण ही तो हुई है, किन्तु मैं ऐसा कुछ नहीं चाहती थी,मुझे ज्ञात नहीं था कि यशवर्धन मेरी कही उस बात को हृदय से इस प्रकार लगा लेगा कि अपना राजपाट ही छोड़कर चला जाएगा और यही सब सोचकर वो भी अपने वस्त्र ठीक करके यशवर्धन के कक्ष में पहुँची,तब उसने देखा कि वहाँ मनोज्ञा भी थी और वो यशवर्धन की औषधियों को सहेज कर रख रही थी,ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो महाराज को ये दिखाना चाह रही थी कि उसे सबकी कितनी चिन्ता है,जिससे वो महाराज के हृदय में एक विशेष स्थान पा सके....
इसके पश्चात् चारुचित्रा ने यशवर्धन के बिछौने के समीप आकर पूछा....
"अब कैसा स्वास्थ्य है तुम्हारा,मैं रात्रि को भी तुम्हें देखने आई थी,तब तुम गहरी निंद्रा में लीन थे",
"अब मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ एवं यहाँ से जा रहा हूँ",यशवर्धन बोला....
"देखो ना चारुचित्रा! ये जाने की बात कह रहा है",विराटज्योति बोला....
"उसमें चारुचित्रा कुछ नहीं कर सकती,मुझे किसी आवश्यक कार्य हेतु बाहर जाना है",यशवर्धन बोला...
"तुम्हारा जाना क्या इतना आवश्यक है?",चारुचित्रा ने पूछा....
"हाँ! अत्यधिक आवश्यक है,इसलिए तो जा रहा हूँ",
और ऐसा कहकर यशवर्धन अपने बिछौने से उठा,उसने अपना कवच पहना और अपनी खड्ग हाथ में ली,विराटज्योति को अपने हृदय से लगाया और चारुचित्रा से इतने शीघ्र जाने की क्षमा माँगकर वो राजमहल से बाहर निकल गया और चारुचित्रा उसे जाते हुए देखती रही...
क्रमशः...
सरोज वर्मा....