Kalvachi-Pretni Rahashy - S2 - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

कालवाची-प्रेतनी रहस्य--सीजन-२--भाग(१३)

दूसरे दिवस सायंकाल के समय यशवर्धन चारुचित्रा से भेंट करने राज्य के बाहर वाले मंदिर में पहुँचा,वो चारुचित्रा की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि वहाँ चारुचित्रा आ पहुँची और उसे देखकर बोली...
"यशवर्धन!कैंसे हो"?,
"मैं तो एकदम ठीक हूँ,तुम बताओ कि कैंसी हो",यशवर्धन ने चारुचित्रा से पूछा...
"मैं ठीक नहीं हूँ यशवर्धन! इसलिए तो मैं तुमसे भेंट करना चाहती थी",चारुचित्रा बोली...
"तुम्हें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है चारुचित्रा! तुम निश्चिन्त होकर अपनी समस्या मुझसे कह सकती हो",चारुचित्रा बोली...
"मैं मनोज्ञा को लेकर चिन्तित हूँ,क्योंकि उसके आने के पश्चात् ही महल में समस्याएँ खड़ी हुईं हैं",चारुचित्रा बोली...
"मुझे विस्तारपूर्वक समूची घटना से अवगत कराओ चारुचित्रा!",यशवर्धन बोला...
इसके पश्चात् चारुचित्रा यशवर्धन को विस्तारपूर्वक मनोज्ञा के विषय में बताने लगी कि मनोज्ञा किसी स्वर्णकार की पुत्री थी,दस्युओं ने उसके पिता और भाई की हत्या करके उसका आपहरण कर लिया था,जब महाराज विराटज्योति को ज्ञात हुआ कि दस्युओं ने युवतियों का आपहरण करके उन्हें बंदी बना रखा है तो वे दस्युओं के पास उन युवतियों को मुक्त कराने गए,उन्होंने अपने सेनापति एवं सैनिकों के संग वीरतापूर्वक उन सभी दस्युओं की हत्या कर दी और सभी युवतियों को वहाँ से मुक्त करा लिया....
इसके पश्चात् महाराज ने मुक्त हुईं उन सभी युवतियों को सुरक्षित उनके परिवारजनों के पास पहुँचा दिया,इसके पश्चात् प्रश्न उठा कि मनोज्ञा कहाँ जाऐगी क्योंकि वो तो अनाथ हो चुकी थी,इसलिए महाराज ने उसे राजमहल में शरण देने का निर्णय लिया,जब कि सेनापति दिग्विजय सिंह ऐसा नहीं चाहते थे,इसके पश्चात् महाराज मनोज्ञा को राजमहल ले आए और उसके आने के बाद ही सभी समस्याएंँ प्रारम्भ हो गईं, उसने राजमहल के सभी दास दासियों को अपना सेवक बना रखा है,वे उसकी ही आज्ञा मानने लगे हैं,मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वो एक दृष्टिबंधक(जादूगरनी) है,जैसा वो चाहती है,वैसा ही होने लगता है,उसने शनैः शनैः महाराज को भी अपने वश में करना प्रारम्भ कर दिया है....
उसके वशीकरण की सीमा का उलन्घन तो तब हो गया जब एक बार हमारे राजमहल में पड़ोसी राजा और उनकी रानी पधारे,वे पड़ोसी राजा महाराज विराटज्योति के मित्र थे,उनकी रानी का व्यवहार उचित नहीं था,वे मृदुभाषी और शिष्ट नहीं थीं,उनका व्यवहार अत्यधिक शुष्क था,मैं उस रानी के उदण्ड व्यवहार को जैसे तैसे सहन कर रही थी,उसकी उदण्डता उस समय अधिक बढ़ गई जब उसने दासी के लाए भोजन की थाली को यूँ ही उठाकर फेंक दिया,क्योंकि भोजन की थाली में उड़ते हुए एक मक्षिका(मक्खी) ना जाने कहाँ से आकर बैठ गई थी,हमारे यहाँ स्वच्छता का अत्यधिक ध्यान रखा जाता है परन्तु उस दिन ना जाने हमसे वो चूक कैंसे हो गई,मुझे तो लग रहा है कि ये सब मनोज्ञा का ही षणयन्त्र था,वो रानी क्रोधित होकर उस दासी पर तीव्र स्वर में चिल्लाने लगी,सभी विवश होकर उसकी उदण्डता सहन कर रहे थे,जब सीमा का उलन्घन अत्यधिक होने लगा तो तब मनोज्ञा उस रानी के समीप गई और उनके मस्तक पर अपना हाथ रखा,इसके पश्चात् ना जाने उस रानी को क्या हो गया,वो हम सभी से सामान्य व्यवहार करने लगी, उसका क्रोध ना जाने कहाँ चला गया था.....
वो दृश्य देखकर हम सभी आश्चर्यचकित थे कि ये सब कैंसे हो सकता है,जो रानी अभी कुछ समय पूर्व उदण्डता भरा व्यवहार कर रही थी,वो एकाएक इतना सामान्य व्यवहार कैंसे करने लगी,तब मुझे मनोज्ञा पर संदेह हुआ और मैं ने उस घटना का विवरण राजपुरोहित जी को दिया,ये बात सुनकर राजपुरोहित जी भी चिन्ता में डूब गए और मुझसे बोले...
"महारानी! राज्य पर जो संकट आन पड़ा है ,कदाचित उसका कारण मनोज्ञा ही है,आपके कथन के अनुसार मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उसके पास मायावी शक्तियांँ हैं और उसकी शक्तियों को ज्ञात करने हेतु आपको उसे यहाँ लाना होगा,उसकी शक्तियों को राजमहल में ज्ञात करना सम्भव नहीं है क्योंकि वो वहांँ कोई ना कोई बाँधा अवश्य डाल देगी"
"जैसा आप कहें राजपुरोहित जी!,मैं तो केवल ये चाहती हूँ कि उसकी अशुभ छाया राजमहल और इस राज्य से हट जाएँ",मैंने राजपुरोहित जी से कहा...
"मैं समझ सकता हूँ महारानी जी! कि आप कितनी दुविधा में हैं और महाराज की सुरक्षा भी अत्यधिक आवश्यक है,यदि उसने महाराज को अपने वश में करके इस राज्य पर अधिकार पा लिया तो हम सभी राज्यवासियों का क्या होगा,वो तो एक एक करके हम सभी की हत्या कर देगी,",पुरोहित जी बोले...
"जी! और मैं ऐसा कदापि नहीं चाहती",मैंने राजपुरोहित जी से कहा...
"अब आप बिलकुल भी चिन्ता ना करें,उसे कल ही यहाँ पर ले आएँ,अब और अधिक बिलम्ब करना मूर्खता होगी",राजपुरोहित जी बोले...
"जी!मैं कल ही उसे यहाँ पर ले आती हूँ",
और मैं राजपुरोहित जी से भेंट करके राजमहल लौट आई और दूसरे दिन प्रातःकाल मुझे सूचना मिली की राजपुरोहित जी की हत्या हो चुकी है,हत्यारे ने उनकी हत्या भी उसी प्रकार की है जिस प्रकार और भी हत्याएँ की हैं,उनके हृदय को निकाल लिया गया था और उनका शव भी विक्षिप्त अवस्था में था,मैं उनके शव को देखने गई थी, शव को देखकर मैं विचलित हो उठी,ऐसा कहकर चारुचित्रा के मस्तिष्क पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आईं,उसके चिन्ता भरे मुँख को देखकर यशवर्धन उससे बोला....
"चारुचित्रा! इतनी चिन्ता अच्छी नहीं,तुम इतनी चिन्ता करोगी तो इससे तुम्हारे स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ेगा"
"तो मैं क्या करूँ यशवर्धन! वो सदैव मेरी आँखों के समक्ष रहती है,उसका भोला मुँख जैसा दिखता है वो वैसी है ही नहीं है,उसके क्रियाकलाप साधारण युवतियों जैसे नहीं है",चारुचित्रा बोली....
"तुम चिन्ता मत करो,मैं आज से इस समस्या का समाधान करने में जुट जाता हूँ,वैसे मुझे तो उस पर उसी दिन संदेह हो गया,जब मैं ने राजमहल में उससे वार्तालाप किया था,इसलिए तो मैं राजमहल से वापस चला आया था,मेरा उद्देश्य उसी के विषय में ही जानकारी प्राप्त करना था,जिसमें मैं अभी तक सफल नहीं हो पाया हूँ",यशवर्धन बोला....
"मैं सदैव तुम्हें कैसा समझती रही,परन्तु तुम मेरे सच्चे मित्र निकले",चारुचित्रा बोली....
"उन सभी बातों को स्मरण करने से कोई लाभ नहीं है चारुचित्रा!,भूतकाल में जो हो चुका है,हम दोनों उसे अब बदल नहीं सकते,इसलिए अब तुम केवल वर्तमान के विषय में सोचो",यशवर्धन बोला....
"कदाचित! तुम ठीक कहते हो",चारुचित्रा बोली...
"अच्छा! मैं चलता हूँ,क्योंकि अब रात्रि होने वाली है,तुम भी राजमहल लौट जाओ,विराटज्योति तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा होगा",यशवर्धन चारुचित्रा से बोला...
"ठीक है!",
और ऐसा कहकर चारुचित्रा वहाँ से चली आई,इसके पश्चात् यशवर्धन भी राज्य का भ्रमण करने लगा,उसे भूख लगी तो वो राज्य के एक भोजनालय में भोजन करने हेतु चला गया और उसने वहाँ एक नवयुवती को देखा जो अत्यधिक आकर्षक थी....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....


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