ताश का आशियाना - भाग 38 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

ताश का आशियाना - भाग 38

आखिरकार सिद्धार्थ पूरी तरह अपना आपा खो बैठा।

उसे अजीब–अजीब आवाजो का आभास होने लगा।

वह खुद के प्रति इनसिक्योर होने लगा।

नारायण जी ने सिद्धार्थ की बीमारी को ट्रिगर कर दिया था।

आगे कहीं बढ़ न पाना उसके लिए बहुत बड़ी हार साबित हो रही थी।

उसकी अंदर की आवाजे उसे पागल कर रही थी।

प्रकाश जो उसका कोपिंग मेकैनिज्म था वो भी थक गया था समझा–समझा कर की सब कुछ ठीक है।

धीरे-धीरे खुद पर का संतुलन खोते जा रहा था वो।

"अच्छा हुआ मैं लंदन चली गई, तुम मेरे लायक ही नहीं हो। I hate you Sidharth, I hate you."


"तुम बिलकुल नालायक हो, जो सपने मैं नहीं पूरे कर सका वह तू कर लेगा। मां–बाप का सिर फक्र से ऊंचा करेगा लेकिन निकला तो तू निकम्मा ही!"

"बेटा, तुमसे यह उम्मीद नहीं थी आज तूने एक मां का दिल तोड़ा है तू मेरा बेटा नही, काश तू कोख में ही मर जाता।"

"भाई आपने तो बड़े–बड़े सपने दिखाएं थे मुझे। लेकिन क्या हुआ अब?" तुषार के चेहरे पर उदासी थी।

यह कही लोगों ने बोले हुए शब्द नहीं थे बल्कि सारी सिद्धार्थ की कल्पनाएं थी। उसे वह आवाज है पागल कर रही थी।

उसकी कुछ अंदर की आवाजे

"मार दो खुदको मार दो।"

"नहीं छोटे, नहीं! हम तुम्हरे साथ हैं।"

"मार दो खुदको, कोई जरुरत नहीं तुम्हारी।"

"आह!!" सिद्धार्थ जोर से चिल्लाया।

गंगाजी भागकर आई। कल्पना को सच मान वो खुदके मां से ही डरने लगा। उनके आगे बढ़ते ही वो पीछे पीछे जाने लगा।

"छोड़ दो मुझे मैने कुछ नही किया।"

"नही बेटा, मैं तुम्हारी मां! क्या हुआ मेरे लल्ला?"

"नही प्लीज़! मुझे छोड़ दो।"

सिद्धार्थ की चीख सुन नारायणजी और तुषार भी मदद करने आ गए।

सिद्धार्थ के बोल अपने–आप लडखडाने लगे, "दूर नहीं... प्लीज़... माफ कर दो मुझे।"

सिद्धार्थ और भी डर गया। सहम दुबककर एक कोने में बैठ गया। लेकिन जैसे ही गंगा जी ने उसे हाथ लगाया उसने टेबल पर रखा पेपर बॉल उन्हें फेंक कर मारा, जिससे उनके सर पर चोट आ गई।

नारायणजी गंगा जी को लगते ही डिफेंसिव हो गए।

उन्होंने तुषार को इशारा दिया, सिद्धार्थ को संभालने की दोनो ने अपनी अपनी कोशिशें की।

नारायणजी ने सिद्धार्थ के दोनों हाथ पकड़ लिए उसे चीजें फेंकने से रोका वही तुषार ने उसे पीछे से पकड़ लिया।

दोनों की कोशिशें के चलते सिद्धार्थ तड़पने लगा, वह इन सब से बाहर निकलना चाहता था।

उसके दिमाग के खेल के अनुसार, सिद्धार्थ की बीमारी के अनुसार यह तीनों उसे जान से मार डालना चाहते थे। उसे अपनी वश में करना चाहते थे ताकि सिद्धार्थ कभी आजाद ना हो पाए।

सिद्धार्थ अपने बीमारी के अंदर पूरी तरह ढक चुका था। स्कीझोफेनिया को किसी ने ट्रिगर कर दिया था। सिद्धार्थ चिल्ला रहा था चीख रहा था लेकिन दोनों सुनने को तैयार नहीं थे।

गंगाजी को क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दोनों मर्द उसे संभालने की कोशिश कर रहे थे।

रात के समय के बीच जब पूरा मोहल्ला सोया हुआ था तब शुक्ला परिवार जाग रहा था।

गंगा ने पहले तो आंसू बहाए लेकिन जब दोनों के हाथों से परिस्थितिया नहीं संभली। तो तब उन्हे डॉक्टर के कुछ शब्द याद आए।

जब सिद्धार्थ को सिजर्स आए थे तब डॉक्टर ने यही कहा था कि उसके आजू-बाजू की सारी चीज उठा ली जाए, जिससे वह किसी को नुकसान न पहुंचा सके, जिससे उसे नुकसान न पहुंचे।

सिद्धार्थ अपना आपा पूरी तरह खो चुका था।वह अपनी मानसिक अवस्था के चलते कुछ भी कर सकता था इसलिए उन्होंने समझदारी दिखाते हुए डॉक्टर की कही हुई वो बाते मान ली।

सिद्धार्थ की बेड की चादर को निकाल उसमें उसकी रूम की तमाम वह चीजें भरी जिससे वो खुदको और उससे जुड़े लोगों को कोई नुकसान पहुंचा सकता था।

चीजों को इकट्ठा कर उसकी एक पोटली बनाकर उसे हॉल में जाकर पटक दिया।


नारायणजी यह सब चीजे देख रहे थे लेकिन गंगा जी को इतना आत्मविश्वास से भरे देख उन्होने कुछ भी नही बोला।

लेकिन धीरे-धीरे पता चला सिद्धार्थ की रूम की सारी चीजे खाली हो चुकी थी।

गंगाजी ने सामान हॉल में रखते ही दोनो को कहा, "छोड़ दो उसे अब।"

जब चीखते–चिल्लाते सिद्धार्थ को छोड़ा दिया गया। तब उसने पहला कदम यही उठाया कि उसने अपनी आजू-बाजू की चीजे ढूंढी, जिससे वह खुद की सुरक्षा कर सके।

पर जब चीज़े नहीं मिली तब वह बौखला गया और जोर–जोर से रोने लगा।

तीनों ने उसे वही छोड़ दिया और बाहर से दरवाजा लगा लिया।दरवाजा लगाते ही सिद्धार्थ घबरा गया अंधेरे में उसे और डर लगने लगा।

सिद्धार्थ जिस बीमारी से गुजर रहा था उसमें असुरक्षा की, निराशा की भावनाएं पैदा होना आम बाते थी। मूड स्विंग होना भी उसी का हिस्सा था।

रूम की तमाम चीज हॉल में बिखरी हुई थी।

सोफे पर तीन शख्स बैठे हुए थे गंगाजी रो रही थी खुद के किए पर पछतावा कर रही थी, नारायणजी भी काफी अफसोस जाता रहे थे।

दुसरी और सिद्धार्थ दरवाजा खड़खड़ रहा था लेकिन दरवाजा खोलने के लिए कोई तैयार नहीं था।


"कहीं भाई ने फिर से एक बार भागने की कोशिश की तो?" यही सवाल तुषार ने नारायणजी से पूछा।

"उसके खिड़कियों पर ग्रील लगा दिए थे मैने, जब वो पहली बार भागा था।"

सिद्धार्थ के शादी के कांड के बाद ही नारायणजी ने उसी दिन लोहार को बुला उसकी रूम की खिड़कियों पर ग्रिल बैठा दिए थे उस दिन लिए गए फैसले पर उन्हें आज नाज हो रहा था।

सिद्धार्थ की हालत ठीक करने के लिए नारायणजी ने पहिला फोन डॉक्टर को लगाने का सोचा जो विचार सबको जचा भी।

नारायणजी ने डॉक्टर को फोन लगा सिद्धार्थ के तबियत से जुड़ी सारी बातें बता दी।

डॉक्टर ने पूरी कहानी सुन सिर्फ साइकैटरिस्ट से मिलने का बारे में सजेस्ट किया।

नारायण जी ने सिद्धार्थ के एग्रेसिव बिहेवियर एक्सप्लेन करने के बाद भी डॉक्टर के पास ऐसा कोई अच्छा जवाब नहीं था।

"या तो फिर आप अपने बेटे को साइकैटरिस्ट के पास लेकर जाइए वरना पागलखाने में डाल दीजिए। अगर वह ज्यादा एग्रेसिव बिहेवियर कर रहा है तो मैं आपको सलाह दूंगा कि आप एक बार मेंटल हॉस्पिटल को कांटेक्ट कीजिए।"

नारायण जी और सिद्धार्थ के बीच संबंध काफी गहरी नहीं थे फिर भी यह पिता के दिल पर चोट कर गया था।

नारायणजी तमतमा उठे, "मेरा बेटा पागल नहीं है। वह बस बीमार है। अगर आपको उसे कोई दवाइयां नहीं देनी या फिर उसका इलाज नहीं करना तो हम उसकी देखभाल कर लेंगे। आप अपनी सलाह अपने पास ही रखिए।"

इतना कहकर नारायण जी ने फोन काट दिया फोन स्पीकर पर था तो सारे लोगों ने बातें सुन ली थी

गंगा जी जोर-जोर से रोने लगी। तुषार को खुद के लिए और सिद्धार्थ के लिए दोनों के लिए बुरा लग रहा था। उसे यह दिन भी कभी आएगा इसकी कल्पना नहीं थी।

दोनों बूढ़े मां-बाप क्या करते उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था

दूसरी तरफ सिद्धार्थ अंधेरे में जूझ रहा था। रो रहा था चिल्ला रहा था।

अचानक एक परछाई खिड़की से उसके सामने आ गई वह भी एक उसकी कल्पना ही थी।

उसके लिए सारी कल्पनाए ही सच थी।

वो उसके पास आकर बैठी। सिद्धार्थ की आंखों में आंसू होते हुए भी वह मुस्कुरा दिया।

रागिनी ने उससे पूछा, "क्यों रो रहे हो क्या हुआ?"

"पता नहीं बहुत दर्द हो रहा है, यह सब लोग गंदे हैं।"

"मैं हूं ना! मैं आ गई हूं, तुम फिकर मत करो।"

"प्रोमिस करो की तुम मुझे छोड़कर कभी नही जाऊंगी।"

"लेकिन तुमने ही तो मुझसे खुद से दूर भेजा, मैं जा रही हु सिद्धार्थ।"

"आई हेट यू ! सिद्धार्थ।"

"नही रुक जाओ!" सिद्धार्थ चिल्ला उठा।

और आखिरकार सिद्धार्थ गहरी नींद में सो गया।

कुछ हफ़्ते हाल ऐसा ही रहा। सिद्धार्थ की हालत बत से बत्तर होती जा रही थी।

खाना खाना तक छोड़ दिया था उसने। लोग बातें बनाने लगे थे।

सिद्धार्थ की हालत दिन प्रतिदिन खराब होते जा रही थी।

गंगा को लग रहा था कि यह सब उसके किए की वजह से है। नारायण जी को लग रहा था कि उनके रोक-टोक के वजह से यह सबकुछ हुआ है।

दोनों अपने अपने पश्चाताप (रिग्रेशन) में जी रहे थे।

घंटो सिर्फ सोच में डूबे रहना, अगर कोई उसे अप्रोच करने की भी कोशिश करें तो एक एग्रेसिव बिहेवियर दिखाना, गाली गलौच करना, खाना ना खाना, मूड स्विंग्स होना यह सब कुछ सामान्य बातें हो गई थी।

तीनों ने मिलकर जब इस बात पर चर्चा–विमर्श किया तब सिद्धार्थ दिल्ली में किसी साइकैटरिस्ट के पास जाता था, यह बात तुषार से पता चली।

तुषार ने ही सलाह दी की, "हमें भाई को उसी साइकैटरिस्ट के पास लेकर जाना होगा। वही है जो उन्हें पूरी तरह ठीक कर सकते हैं। उनकी तबीयत खराब होने से पहले तक वह उनकी ही गोलियां खाते थे।"

सिद्धार्थ के माता-पिता को यह सुझाव जच गया। उन्हे इस बात से दुख जरूर हुआ की सिद्धार्थ की साइकैटरिस्ट से मिलने वाली बात से वह अनजान थे लेकिन सिद्धार्थ की जीवन की यह कोई एक बात थोड़ी ही थी जिससे वह बेखबर थे।

ऐसी तमाम बाते थी जो किसीने आगे बढाने की कोशिश ही नही की थी।

उन्होंने कभी सिद्धार्थ को यह नही जताया की उसके जाने से इतने सालो उनपर में क्या बीती होगी।

और नाही कभी सिद्धार्थ ने यह बताया की इतने सालो में वो बिना मां–बाप के सहारे कैसे रहा।

जितनी बातें सिद्धार्थ ने उन्हें बताई उतनी ही वह सच मानते गए।

उन्हे आज भी याद था वो दिन जिस दिन सिद्धार्थ सालो बाद, घर वापस आया था।

बेटे के आने का आश्चर्य और खुशी इतनी ज्यादा थी कि वह कभी दुख बाट ही नहीं पाए।‌ उन्हें अपना बेटा खुद के पास है इस बात की तसल्ली थी और आज भी है।

तुषार ने दोनों की परमिशन मिलते ही पहले काम यही किया की सिद्धार्थ का हाल हव लेकर वह उसके कमरे में घुस गया।

फाइल ढूंढना इतना आसान नहीं था लेकिन सिद्धार्थ इतनी गहरी नींद में था कि उसे पता ही नहीं चला की तुषार उसके कमरे में आकर उसकी अलमारी खोल वहां से फाइल चुरा कर लेकर गया है।

फाइल को चुराते ही पहला कदम तुषार ने यही उठाया की सीधा फोन सिद्धार्थ के साइकैटरिस्ट को घुमा डाला।

तुषार ने साइकैटरिस्ट को सिद्धार्थ से जुड़ी सारी बातें बताई।

"क्या उसने गोलियां बंद कर दी है?" हालात जानने के बाद साइकैटरिस्ट का यही पहला सवाल था।

"नही डॉक्टर लेकिन उसकी हालत इतनी खराब हो गई है की वो गोलियां खुद ही नही लेना चाहता।"

"आप सिद्धार्थ को दिल्ली लेकर आइए। मैं उसे चेक करता हु।"

फोन नारायण जी ने उठा लिया।

देखिए डॉक्टर," हम उसके पिता बोल रहे है।"

"सिद्धार्थ को दिल्ली लाना असंभव है, वो हमे ही अपना दुश्मन समझे बैठा है। मारपीट पर भी उतर आया है। उसकी मां को तक उसने जख्मी कर दिया है। आप ही हमारी आखरी उम्मीद है कुछ कीजिए डॉक्टर साहब, प्लीज़, प्लीज़!"

डॉक्टर ने कुछ सोच विचार करने पर अपना सुझाव दिया।

"U.P. में डॉक्टर चतुर्वेदी है वह एक बहुत बड़े साइकैटरिस्ट है। हमारी एक कॉन्फ्रेंस के दौरान मुलाकात हुई थी उनसे।

वह U.P. के मेंटल हेल्थ मिनिस्ट्री के अंदर भी काम करते रहते है। उनका खुदका प्राइवेट हॉस्पिटल भी है आप उन्हें वहा लेकर जाइए। मैं आपको उनका नंबर भेजता हूं।"