मंदिर के पट - 13 Sonali Rawat द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मंदिर के पट - 13


काफी दिन चढ़ने के बाद रजत की मूर्छा टूटी । उसने देखा - गेंदा सिंह का शरीर अब भी टीले की धूल में पड़ा था । मंदिर के पट खुले हुए थे किंतु उसके अंदर रात देखे दृश्य का कोई भी चिन्ह शेष न था । एक बार फिर रजत का सिर चकरा गया ।

"तो क्या वह सब स्वप्न था ? रूप कुंवर को किसने मारा ? उसकी लाश कहां गई ? और खून की वह धारा .... उफ़ ! हे भगवान ... क्या था वह सब ?"

उसने दोनों हाथों से अपना सिर दबा लिया ।

कुछ देर बाद जब वह कुछ ठीक हुआ तो उठ कर शिवालय के पास स्थित सोते से पानी लाकर गेंदा सिंह के मुंह पर डाल कर उसका शीतोपचार करने लगा । थोड़े से प्रयत्न के बाद वह होश में आ गया किंतु उसकी आंखों में अब भी भय की परछाइयां काँप रही थीं । भयभीत दृष्टि से उसने मंदिर के खुले द्वार पर टिका दी । उस के रोएं खड़े हो गए ।

रजत ने सांत्वना दी -

"वहां अब कुछ नहीं है गेंदा सिंह ! चलो ।"

गेंदा सिंह कुछ कह न सका । रजत ने उसे सहारा दिया और दोनों टीले से नीचे उतर आए ।

नहा धोकर जब वे कुछ स्वस्थ हुए तो गेंदा सिंह ने नाश्ते का प्रबंध किया । रजत उसके पास ही बैठा रहा ।

अपने साथ उसने गेंदा सिंह को भी नाश्ता कराया और स्नेह भरे स्वर में पूछा -

"गेंदा सिंह ! वह रूप कुंवर ही थी न ?"

"हां साहब ! कुमारी जू ही थीं लेकिन ..."

"वह सब छोड़ो गेंदा सिंह ! लो, थोड़ी चाय और पियो ।"

"आप क्या अभी यहां ठहरेगें ?"

उसने पूछा ।

"नहीं, अब मेरा मन यहां न लगेगा । मेरा काम भी पूरा हो चुका है । मैं सोचता हूँ आज ही वापस चला जाऊं ।"

रजत ने कुछ सोचते हुए कहा ।

"साहब ! आज राजा जू से मिलने न चलेंगे ?"

"क्यों ?"

"उनसे मिल कर कुमारी जू के बारे में कुछ मालूम हो सकता है । फिर आप उन्हें मंदिर के पट खुलने की सूचना भी दे दीजिएगा ।"

"हां, यह तुम ठीक कह रहे हो । चलो । सामान समेट लो । आज ही मैं उनसे मिल कर उधर से ही शहर चला जाऊंगा ।"

रजत ने स्वीकार किया । एक घंटे बाद वे अपने सफ़र पर रवाना हुए । रजत ने चलने से पूर्व शिवाले में जाकर सिर नवाया और 'जय भवानी' का नारा लगा कर चल पड़ा । रात की घटना का प्रभाव अभी भी उसके हृदय पर तारी था ।

राजा जू की उपाधि धारी ठाकुर जय सिंह की हवेली पहुंच कर एक बार फिर रजत को चौंक जाना पड़ा । जय सिंह के सामने आते ही वह चीख पड़ा-

"तुम ? तुम हत्यारे हो ...तुम खूनी हो ।"

गेंदा सिंह ने रजत को संभाला अन्यथा आवेश में वह जयसिंह से भिड़ ही जाता ।

"साहब ! धीरज रखें साहब ! थोड़ा बुद्धि से काम लें । यह राजा जू हैं ।"

"नहीं । यह हत्यारा है । रूप कुंवर का हत्यारा ।"
रजत चीख पड़ा । जिस व्यक्ति की झलक उसने मंदिर में देखी थी वह राजा जू ही थे किंतु इस समय राजा जू के चेहरे पर स्थायी पीड़ा घनीभूत हो चुकी थी ।

मंदिर में देखा व्यक्ति निश्चित रूप से यही था किंतु उसमें और इसमें बहुत अंतर था । वह एक भरपूर जवान हट्टे कट्टे शरीर का स्वामी था और यह एक ढलती उम्र का व्यक्ति जिसकी शक्ति उससे विदा ले रही थी । रजत के आरोप को सुन कर वह चौका किंतु क्रोधित नहीं हुआ ।

रजत के बार बार जोर देने पर वह आहत स्वर्ग में चीत्कार कर उठा । उसके स्वर में आवेश की अपेक्षा रुदन अधिक था । व्यथा से कराह कर कहा उसने -

"हां बाबू ! मैंने रूप कुँवर को मारा है । मैंने ही अपनी बेटी को मारा है । अपनी बेटी किसी के लिए दुश्मन नहीं होती । और फिर रूप कुंवर जैसी बेटी पर हाथ हाथ उठाने के पहले तो भगवान का दिल भी कांप उठता । लेकिन ..... लेकिन मैंने उसे मार डाला । भवानी मैया को अपनी ही बेटी की बलि चढ़ा दी । मेरे सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था । बाबू ! रूपा डाकू ने मेरी बेटी मांगी थी । उसने धमकी दी थी कि वह रूपकुवर को अपने साथ एक महीने के भीतर ही उठा ले जाएगा और अगर उससे धोखा हुआ तो वह गांव में आग लगा देगा । तुम ही बताओ बाबू ! कोई बाप अपनी बेटी को किसी डाकू के हाथ कैसे सौंप सकता है ? उस हत्यारे के पास उसे भेज कर मैं अपने कुल की इज्जत और उसका जीवन मिट्टी में कैसे मिलने देता ?

रूप कुंवर को उस दिन नहला धुला कर आधी रात के बाद भवानी के मंदिर में मैं पूजा कराने ले गया था । मैंने पूजा के बाद प्रणाम करते समय अपनी बेटी का सिर भवानी मैया के चरणों पर चढ़ा दिया । उसके पवित्र खून से मैया के चरण धो डाले लेकिन मेरे मंदिर से बाहर आते ही मंदिर के पट तेज आवाज के साथ बंद हो गए और फिर न खुले । भवानी मैया भी मेरी विवशता को नहीं समझ पायीं तो कोई दूसरा कैसे समझेगा ? हाय ...मेरी बच्ची ....मेरी रूप कुवर....."

राजा जू फूट-फूट कर रो पड़े । रजत स्तब्ध सा उसे देखता रह गया । बहुत देर बाद उसके कंपित अधरों से कुछ बोल फूट पड़े -

"राजा जू ! मंदिर के पट खुल गए हैं ।"