मंदिर के पट - 9 Sonali Rawat द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मंदिर के पट - 9

रजत की जड़ता भी टूट चुकी थी । पागलों की तरह वह वृक्ष की ओर झपटा किंतु वहां कुछ भी न था ।

रजत ने वहां का चप्पा चप्पा छान मारा और अंत में निराश होकर वहीं मंदिर की देहरी पर सिर रख कर बैठ गया । वर्षा कब बंद हु,कब उसे नींद ने धर दबाया इसका उसे एहसास भी न हो सका ।

नींद टूटने पर उसने स्वयं को उसी कमरे में पाया जहां वह ठहरा हुआ था । गेंदा सिंह उसके पास बैठा था । रजत को आंखें खोलते देख कर उसने चाय का प्याला बढ़ा दिया -

"साहब ! चाय पी लीजिए ।"

"मैं यहां कैसे आया गया गेंदा सिंह ?"

"साहब ! आपको कमरे में न पाकर मैं डर गया था । आस पास ढूंढने पर जब आप नहीं मिले तो मैं मन्दिर की ओर चला गया । वहीं मंदिर के सामने आपको पड़े देखा और उठा कर यहां ले आया । आपके सारे कपड़े भीग गए थे । साहब ! अब रात में वहां क्यों गए थे ?"

"कुछ नहीं । ऐसे ही ।"

रजत बात टाल गया ।

वह स्वयं रात की घटना पर विश्वास नहीं कर पा रहा था । गेंदा सिंह से कहने पर वह उसे देवी मैया की कृपा कहेगा या फिर भूत-प्रेतों का उत्पात बताएगा । रजत इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं था । वह उस रहस्य की तह तक जाना चाहता था । सारे दिन वह खंडहर और उसके निकट के टीलों पर घूमता रहा ।

उस दिन उसका किसी काम में मन लगा । तीसरे पहर ही वह अपने कमरे में लौट आया और आर्ट पेपर पर रात देखें सौंदर्य को साकार रूप देने लगा ।शाम होते-होते उसने पेंसिल स्केच तैयार कर लिया । शाम गहरी होने लगी थी इसलिए रंग भरने का कार्य दूसरे दिन पर छोड़ कर वह चक्करदार सीढ़ियों से होता हुआ छत पर जा पहुंचा । मुंडेर के पास खड़े होकर चारों ओर बिखरे प्राकृतिक सौंदर्य में वह खो सा गया ।

प्राकृतिक दृश्यों में आज कुछ नया ही सौंदर्य था । कोयल की कूक में अनोखी ही मादकता थी । सनसनाती हुई हवा पिछली रात देखे सौंदर्य का गीत गा रही थी । फिज़ा में वही खामोश संगीत - लहरी गूंज रही थी । उन थरथराते अधरों की अनकही कहानी हजारों स्रोतों से होकर अपना दर्द वातावरण में उड़ेल रही थी ।

रजत को इंतजार था रात गहराने का । रात के अंधेरे में वह फिर उस सौंदर्य को देखना चाहता था । उसके अनबोले अधरों की कहानी सुनना चाहता था । उन खूबसूरत पग - चिन्हों को एक बार फिर देखना चाहता था जो अपनी स्वामिनी के दर्द के भागीदार थे । पायल की वही खामोश छम छम सुनने के लिए उसका मन व्याकुल था किंतु .... क्या वह आज भी आएगी ? वे खूबसूरत नक्शे पा क्या वह फिर देख सकेगा ?

आज उसका मन नीचे जाने का न हुआ । मुंडेर के पास बैठ कर ही वह मंदिर के बन्द दरवाजों को देखता रहा । उनकी कशिश महसूस करता रहा । उनके आह्वान को सुनता रहा और प्रतीक्षा करता रहा उस अनजाने अस्तित्व की ।