मंदिर के पट - 8 Sonali Rawat द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मंदिर के पट - 8


जब वह मंदिर के सामने पहुंचा वह हाँफ रहा था । कुछ देर तक रुक कर उसने अपनी सांसे ठीक कीं और आगे बढ़ने के लिए टार्च का रुख फर्श की ओर किया । एक बार फिर उसे चौंक जाना पड़ा । उसके सामने वही चरण - चिन्ह उपस्थित थे ।

उसने आंखें मल कर देखा । कहीं यह कोई स्वप्न तो नहीं है ? किंतु वह स्वप्न नहीं हो सकता । वही छोटे-छोटे सुडौल और मांसल पांवों के निशान .... जैसे धीरे-धीरे मस्तानी चाल से कोई सुंदरी अभी-अभी यहां से गुजरी हो । इतनी तेज वर्षा की धारा भी उन चरण चिन्हों को बहा नहीं पाई थी । कितने स्पष्ट, उभरे हुए थे वे पैरों के निशान ।

मंदिर की देहरी पर जाकर वे चिन्ह समाप्त हो गए । रजत ने मंदिर के द्वारों पर दृष्टि डाली । द्वार वैसे ही बंद थे जैसे वह उन्हें दिन में देख गया था । फिर ये किसके पड़ चिन्ह हैं ? कहां गई इन चिन्हों की स्वामिनी ? उसने टार्च का प्रकाश मंदिर के आसपास डाला और खोजपूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखने लगा ।

मंदिर के समीप स्थित आम्र वृक्ष पर उसकी दृष्टि ठहर गई । वृक्ष की फलों से भरी डालों के बीच एक साया लहरा रहा था । हां साया ही था वह । रजत ने फिर अपनी आंखें मलीं और देखा -

वह साया एक नारी मूर्ति में बदल रहा था । आकार उभर रहा था । एक पन्द्रह सोलह वर्षीया युवती बालिका का चेहरा था वह । उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में ढेर सारा भोलापन और कौतुक भरा था । गुलाबी अधर काँप रहे थे सफेद साड़ी में लिपटी हुई उस बालिका ने अपने केश के खोल रखे थे । ऐसा लगता था जैसे अभी अभी नहा कर आई हो ।

उसके बालों से पानी की बूंदें टपक रही थीं । काली काली अलकों से घिरा वह सुंदर मुख स्पष्ट नहीं था परंतु रजत उसके अपरिमित सौंदर्य को अनुभव कर पा रहा था । पत्तों की ओट लेकर वह खड़ी थी । सफेद साड़ी के नीचे झांक रहे थे दो सुंदर संगमरमरी पाँव जिनमें पायल बंधी थी पर बेआवाज । उनकी छम छम खोई हुई थी । उसके अधर खामोश थे । प्रस्तर प्रतिमा जैसा वह अपरिमित सौंदर्य बिना बोले ही जैसे कोई दर्दीली कथा कह रहा था । उसके खामोश थरथराते अधर, उसकी मासूम नजरें बिना बोले ही बहुत कुछ बोल रही थीं । एक ऐसी कहानी जो आदि से अंत तक दर्द में डूबी थी ।

रजत उसे एकटक देख रहा था । वह उसके सुंदर रूप में डूबा हुआ था । उसकी वेदना से अभिभूत था । बाएं हाथ में पूजा का थाल लिए वह एक हाथ से वृक्ष की डाल पकड़े आगे की झुक कर खड़ी थी ।
रजत पर नशा जैसा छाता जा रहा था । उसने अपनी चेतना को संभाल कर लड़खड़ाते पांवों से उसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न किया किंतु उसके पांवों पर मानो मनो का बोझ था । चाह कर भी वह आगे नहीं बढ़ पा रहा था । तभी बादल जोर से गड़गड़ा उठे । बिजली की तेज चमक ने उसकी आंखें बंद कर दीं और जब चकाचौंध से दूर हुई वह सुंदरी बालिका वहां नही थी ।