मंदिर के पट - 7 Sonali Rawat द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मंदिर के पट - 7


"साहब ! यह देवी मैया की राजधानी है । मंदिर के पट पिछले दस वर्षों से नहीं खुले हैं । लगभग दस वर्ष पहले अचानक ही दिन रात खुले रहने वाले पट आधी रात के समय जोर की आवाज के साथ बंद हो गए और तब से आज तक बंद हैं । राजा जू ने भी बड़ी मिन्नत की लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ । तब से इधर आने से लोग डरते हैं । कुमारी जू पहले यहां रोज पूजा के लिए आया करती थीं ।"

"कौन कुमारी जू ?"

"राजा जयसिंह की बेटी रूप कुंवर जू ।"

वे ही पट इस समय खुले हुए थे । आधी रात के बाद ....। क्या वे पट सचमुच खुले हुए हैं ? रजत को आश्चर्य हुआ कि इतने घने अंधकार में भी वह कैसे समझ पा रहा है कि मंदिर खुला है ।

गेंदा सिंह ने ही बताया था -

"उस दिन के बाद रूपकुंवर जू को किसी ने नहीं देखा । वह कभी घर से बाहर न निकलीं । किसी ने उनकी आवाज़ न सुनी ।"

"ओह ।"

रजत गहन चिंतन में डूब गया ।



वे खुले हुए मंदिर के पट । रजत का मन उसी ओर खिंचा जा रहा था । बड़ी ही आत्मीयता से, बड़े आग्रह से मंदिर के खुले हुए पट बाहें पसारे उसे बुला रहे थे । उस ओर जाने की तीव्र इच्छा को वह रोक नहीं पा रहा था । यह अदम्य अभिलाषा क्यों ?

आकाश पर बादल छाने लगे थे । हवा की गति और तेज हो गई थी । थोड़ी ही देर में आकाश घने बादलों मैं छिप गया । बिजली चमकने लगी और आसमान की फटी चादर से ढेरों मोती तरल होकर बरस पड़े । बड़ी-बड़ी बूंदों के साथ छोटे-छोटे ओले भी गिरने लगे ।

असमय की वर्षा और यह उपल पात । रजत नीचे उतर आया । कमरे का द्वार खुला था । टार्च के प्रकाश से उसने कमरे के अंधेरे को चीर दिया और बिस्तर पर बैठ गया । मन में उठने वाली इच्छा, मंदिर का आह्वान और आत्मिक आकर्षण उसे चैन नहीं लेने दे रहे थे । मस्तिष्क ने भी तर्क किया - यदि मंदिर के पट खुले हैं तो उनका रहस्य जानना ही चाहिए । कितनी अद्भुत खोज होगी यह । यदि ऐसा नहीं है तब भी शंका का निराकरण तो हो ही जाएगा ।

अंततः मानसिक जिज्ञासा की ही विजय हुई । टार्च और पिस्तौल लेकर वह बरसते पानी में ही कमरे से बाहर निकल पड़ा । कमरे का द्वार अच्छी तरह बंद करके उसने आँगन पार किया और फिर सावधानी से कदम बढ़ाता गलियारा पार करके खंडहर के बाहर आ गया ।

सामने लगभग डेढ़ फर्लांग की दूरी पर खड़ा टीला अभी भी उसे इशारा कर रहा था । मंदिर के कँगूरे पर स्थित कलश बिजली की चमक पाकर जल से उठता था । मंदिर का द्वार खुला हुआ ही प्रतीत हो रहा था ।
रजत तेज कदमों से आगे बढ़ गया । ओले और भी तेजी से गिरने लगे थे । उनका आकार भी अब बड़ा हो चला था ।बदन से टकराते ओले रजत को सिहरा देते ।

वर्षा के तेज होने के साथ रजत दौड़ने लगा । दौड़ते हुए रास्ता तय किया उसने और जल्दी-जल्दी सीढ़ियां चढ़ने लगा । यह शीघ्रता बहुत खतरनाक थी । वर्षा के कारण सीढ़ियों पर फिसलन हो गई थी । ऊबड़ खाबड़ सीढ़ियां थोड़ी सी भी असावधानी होने पर उसे नीचे धकेल देती लेकिन रजत इन सारी विपत्तियों से बेफिक्र ऊपर चढ़ता जा रहा था ।