Mandir ke Pat - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

मंदिर के पट - 3


"अच्छा साहब !"गेंदा सिंह ने लंबा सलाम ठोंका और चला गया । उसके जाने के बाद रजत बैठा नहीं । उसने अपने सामान को एक ओर जमाया और साफ़ की हुई फ़र्श पर अपना बिस्तर लगा दिया । आते समय वह अपने साथ कुछ अखरोट बादाम और सूखे मेवे ले आया था । थोड़े से अखरोट जेब में डाल कर वह कमरे से बाहर निकला ।

द्वार अच्छी तरह बंद करके उसने एक बार पूरे खंडहर का चक्कर लगाया । कहीं कोई खास बात नजर न आयी । पुराने समय के जमींदारों के भवनों के ही समान ही यह भी था । जिस कमरे में रजत ने ठहरने का निश्चय किया था उसी के पार्श्व में एक छोटी सीढ़ी भी थी जो नागिन की तरह बलखाती ऊपर चली गई थी ।

पूरे खंडहर का निरीक्षण करके रजत इस सीढ़ी से चढ़ कर ऊपर पहुंचा । खुली हुई छत कहीं कहीं टूट गई थी । किनारे की मुंडेर की ईटें भी खिसकने लगी थीं । काई की काली परत ने पूरी इमारत को स्याह रंग में रंग दिया था । इमारत के बाजू में एक कुंआ था जो अब भग्न अवस्था में था । कुंआ देख कर रजत की प्यास चमक आई । उसकी बोतल में पानी था फिर भी उसने पानी की तलाश में चारों ओर देखा । अंधेरा गहरा हो चला था । कहीं कुछ स्पष्ट दिखाई न पड़ा ।

मंदिर और टीले अंधेरे में दैत्यों के सायों के समान काँप रहे थे । अंधेरा थरथराने लगा था । रजत ने ऊपर सिर उठाया । नीला आकाश काली चादर ओढ़ चुका था । कालिमा की फटी चादर के सुराखों से रह रह कर किसी सुंदरी भिखारिन के बदन जैसा आकाश चमक रहा था ।

रजत ने टार्च जला ली और उसकी प्रकाश - रेखा के सहारे धीरे-धीरे संभल संभल कर नीचे उतर आया ।

कमरे में आकर उसने मोमबत्ती जला दी । टिफ़िन कैरियर से निकाल कर खाना खाया और बिस्तर पर लेट कर उपन्यास के पन्नों में डूब गया । रात खिसकती रही और जब नींद में उसकी पलकें बोझिल कर दीं तब हाथ की किताब सिरहाने रख कर वह सो गया ।

नींद खुली तो सवेरा हो चुका था और सूर्य की सुनहरी किरणें कमरे में खेलने लगी थीं । गेंदा सिंह की कथित आशंका की बात सोच कर वह मुस्करा उठा था । सारी रात उस वर्जित प्रदेश में बिता कर संभवतः उसने उन आत्माओं के प्रति धृष्ठता की थी लेकिन उसे इस वर्जित कृत्य से रोकने के लिए किसी आत्मा ने उस तक आने का कष्ट नहीं उठाया था ।

नित्यकर्म से निवृत हो कर उसने आसपास के वातावरण का जायज़ा लिया । टीले पर के उस मंदिर में उसे एक विचित्र प्रकार का आकर्षण प्रतीत हो रहा था । बार-बार मंदिर के खुले पट उसका आह्वान सा कर रहे थे । चांदी सी चमकती धूप चारों ओर बिखरी हुई थी ।

गेंदा सिंह उसके लिए बस्ती से सहज प्राप्त फल, सब्जियां और आटा लाया था । लकड़ियां बटोर कर उसने खंडहर के आंगन में ही एक ओर चूल्हा बना लिया था और अब रसोई के प्रबंध में जुटा था ।

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