Mandir ke Pat - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

मंदिर के पट - 12


रजत ने उसे बहुत समझाया । भूत-प्रेतों की बातें भी कहीं लेकिन वह अपने निश्चय पर अडिग रहा ।

धीरे-धीरे समय बीतता रहा । रात गहरी होने लगी । रजत मोमबत्ती जला कर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा था । पास ही बैठा गेंदा सिंह किसी अनहोनी की प्रतीक्षा में सन्नद्ध था ।

रजत का मन भटक रहा था । अपने हृदय में आज वह कुछ अधिक ही उतावली, ज्यादा ही बेचैनी का अनुभव कर रहा था ।

रात के ग्यारह बज गए । उसके लिए बैठे रहना असह्य होता जा रहा था । जब न रहा गया तो बोला -

"गेंदा सिंह ! चलो । बाहर चलें । मेरा मन बहुत व्याकुल हो रहा है ।"

"डर लग रहा है साहब ?"

गेंदा सिंह ने पूछा ।

"नहीं । बड़ी अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही है ।"

रजत ने पहलू बदलते हुए कहा ।

थोड़ा समय और बीता । एक बज गया तो रजत उठ खड़ा हुआ । उसने एक हाथ में टार्च और दूसरे में पिस्तौल ले लिया और बाहर निकल आया । गेंदा सिंह उसके साथ था ।

खंडहर के बाहर आकर वह ठहर गया । सामने मंदिर की ओर देख कर वह चीख पड़ा -

"तुम कुछ देर देख रहे हो गेंदा सिंह ?"

"हां साहब ! मंदिर के पास कोई खड़ा है । अंधेरे में साफ दिखाई नहीं दे रहा है ।"

गेंदा सिंह ने उत्तर दिया ।

"वह साया रूप कुंवर का ही है गेंदा सिंह ! और ध्यान से देखो । उसके बाएं हाथ में पूजा की थाली है और...और उसके काले बालों की लटें हवा में लहरा रही हैं ।"

गेंदा सिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया । रजत वातावरण में बिखरते उस खामोशी के संगीत को सुन रहा था । हवा में बिखरती उस दर्द भरी दास्तान का एक-एक शब्द उसके जेहन के करीब से गुजरता जा रहा था ।

साये के लहराते आंचल के पीछे पीछे उसके कदम उठ रहे थे । सीढ़ियों पर बने पद - चिन्हों को हसरत भरी नजर से देखता हुआ वह टीले पर चढ़ता गया । गेंदा सिंह खामोशी से उसका अनुकरण कर रहा था ।

मंदिर की दहलीज तक जाकर वह ठिठक गया । उसके मुख से चीख निकलते निकलते रह गई । गेंदा सिंह का तो खून ही ज़र्द हो गया था । रजत ने लड़खड़ा कर मंदिर की चौखट का सहारा ले लिया ।

वर्षों से बंद मंदिर के द्वार इस समय किसी अभिसारिका की बाहों के समान खुले हुए उनका आह्वान कर रहे थे । फटी फटी आंखों से दोनों मंदिर के भीतर का दृश्य देखने लगे ।
सामने भवानी की विशाल भव्य मूर्ति खड़ी थी । उनकी बड़ी बड़ी आंखें सुर्ख थीं । मूर्ति के पास ही एक छोटा सा दिया जल रहा था । दिए की काँपती लौ के प्रकाश में थरथराते हुए साये वातावरण की भयावहता में वृद्धि कर रहे थे ।

मूर्ति के सम्मुख वही किशोरी बैठी थी । पूजा का थाल उसकी बाईं तरफ रखा हुआ था । उसके मधुर कंठ से वन्दना के स्वर बिखर रहे थे । धीरे-धीरे वह फूल आदि भवानी को चढ़ा रही थी ।

रजत द्वार से टिका खड़ा था । उसका शरीर जड़ बन चुका था ।

रूप कुंवर ने पूजा पूरी की और हाथ जोड़ कर मस्तक नवाया । तभी अचानक मूर्ति के पास स्थित स्तंभ के पीछे से एक हाथ बाहर निकला । कटार के एक ही वार से रूपकुंवर का सर कट कर भवानी के चरणों में जा गिरा । दीपक की लौ और भी तेज हो गई ।रूपकुंवर का सिर और धड़ कुछ देर तड़प कर शांत हो गए । खून का फव्वारा देवी के चरण धोता रहा । स्तंभ के पीछे खड़े व्यक्ति की एक झलक भर देख पाया रजत । उसकी चेतना जवाब दे चुकी थी ।

थोड़ी ही देर बाद उसका बेहोश शरीर मंदिर की दहलीज पर गिर पड़ा । गेंदा सिंह तो बहुत पहले ही होश खो चुका था ।

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