ताश का आशियाना - भाग 35 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ताश का आशियाना - भाग 35

2 दिन हो चुके थे l

सिद्धार्थ को उससे मिले हुए, उसका का कोई जवाब नहीं आया था।

फिर रागिनी ने अपने लंदन के टिकट बुक कर ली थी, आज शाम के फ्लाइट से ही वह लंदन वापस जाने वाली थी।

जाने से पहले वह अपने कपड़े भर रही थी तभी उसकी नजर कपड़ों में दबे उस सोने के कंगन के डिबिया पर गई

जिसको गंगाजी ने उसे दिया था कैफे वाली मुलाकात में।

उन्हे अटूट विश्वास था की, रागिनी ही उनके घर की बहू बनेंगी।

यह जानते हुए भी कि उनका लड़का एक मेंटल पेशेंट , मानसिक रोगी है। फिर भी उन्हें एक उम्मीद थी इस रिश्ते से।

रागिनी को पता था की सिद्धार्थ उन्हें उस दिन की मुलाकात के बारे में कुछ नहीं बताएंगा।

और उसने भी गंगाजी को तब से फोन भी नहीं किया था।

क्योंकि उसे याद थी गंगाजी से हुई उसकी आखिरी बातें, जिसमें उन्होंने ने कहा था, "अगर सिद्धार्थ शादी के लिए नहीं माना तो वह सिद्धार्थ की शादी की जिद्द छोड़ देंगी।" यही कुछ शब्द उसे याद आ रहे थे।

रागिनी की हालत नहीं हो रही थी कि वह एक मां का दिल तोड़े लेकिन असलियत बताना भी तो जरूरी था।

इसलिए रागिनी ने एयरपोर्ट जाने से पहले उन्हें मैसेज कर दिया,

"सिद्धार्थ ने मुझे रिजेक्ट कर दिया है। वह इस रिश्ते को आगे बढाना नहीं चाहता। मैं आज की फ्लाइट से लंदन जा रही हूं।"

और इतना कहकर शायद रागिनी वहां से निकल गई।

पहले भी निकल सकती थी लेकिन यह पता चलते ही कि वह लंदन जाने वाली है, इस बात से घर में गर्मागर्मी बढ़ गई।

दादाजी, रागिनी की मां वैशाली, उसके पापा श्रीकांत सभी सक्ते में आ गए थे।

बाकी लोगो पर इसका खासा असर नहीं पड़ा, क्योंकि वो उनके लिए कुछ ना के बराबर ही थी।

श्रीकांत ने रागिनी को रोकते हुए कहा, "लंदन एक बार फिर से क्यों वापस जा रही हो? हो गई जितनी पढ़ाई होनी थी, अब घर बसालो बस्स!"

"पापा मैंने आपको पहले ही बताया, मैं शादी नहीं करना चाहती और अगर कभी करुंगी भी तो वह खुद की मर्जी से। आप जो अभी कर रहे है वो गलत है।"

"तेरे लिए क्या सही है, और क्या गलत वह हम जानते हैं। उस पराए देश में कौन रखने वाला है तुम्हारा ख्याल?"

"यहां अगर हम हमारे ही रिश्तेदारों के साथ तुम्हारा रिश्ता जोड़ देते हैं, तो वह फूलों की तरह संभालेंगे तुम्हें!"

"हां क्यों नहीं उनके घर का शो–पीस ही तो हूं मैं।जो वह मुझे नाझो से पालेंगे या फिर कहीं रख देंगे किसी कोने में।"

वैशाली रोते हुए बोली, "बस हो गया बेटी कितना अपने देश से दूर रहेगी एक बार शादी का फैसला ले-ले फिर देख जिंदगी कैसे संवर जाएंगी।"

"आपने मुझे पिछले वाले रिश्ते में ही वादा किया था कि, अगर यह रिश्ता तय नहीं होता है तो आप मुझे लंदन वापस जाने देंगी।"

"वह रिश्ता कभी तय हुआ ही नहीं तय तो तब होता ना!‌ जब वह लड़का नहीं भागता, वह भगोड़ा निकला साला!"

जाने अनजाने में यह लोग सिद्धार्थ की ही बातें कर रहे थे।

क्योंकी सिद्धार्थ ही वह आखरी लड़का था जिसके चलते रागिनी ने अपने पिता से यह वचन लिया था कि, अगर यह शादी नहीं होती तो वह उसे लंदन वापस जाने देंगे, अपनी डिग्री कंप्लीट करने देंगे।

"वो मैं कुछ नहीं जानती बस में अभी शादी नहीं करना चाहती। दादाजी प्लीज! आप ही इन दोनों को समझाइए मुझे इस साल मेरी डिग्री कंप्लीट करना जरूरी है, मेरे इंटर्नशिप का आखिरी साल है।"

"श्रीकांत जाने दे उसे।" दादाजी गंभीरता से बोल उठे।

"पर पापा?"

उसे जब हमारी जरूरत थी, तब हम उसके साथ नहीं थे।तब उसने खुद के फैसले खुद लिए, वह खुद अपने लिए खड़े रही। फिर आज उसके लिए फैसले लेने का क्या मतलब?

वह आगे बढ़ना चाहती है। पढ़ना चाहती है, तो उसे पढ़ने दो। वैसे भी हमारा गिल्ट कम करने के लिए सबसे कारगर तरीका यही है कि उसे अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेने दिए जाएं।

किसी के घर की शोभा बढ़ाने से अच्छा वह खुद की जिंदगी में कुछ बन जाए यही हमारे लिए बहुत है। इसी से ही हम आगे शांति से अपना जीवन बसर कर सकेंगे।

आखिरकार श्रीकांत ने अपने पिता की बात मान ही ली।

रागिनी को लंदन वापस जाने की परमिशन मिल गई।

वैशाली उस दिन पहली बार रागिनी को गले लगा कर रोई।

इतने साल उसके साथ ना रहने का गम जताया।

उसे माफी मांगी और आखिरकार रागिनी ने उन्हें माफ कर ही दिया।

वो भी अपने माता-पिता से किसी तरह के गिले शिकवे नहीं रखना चाहती थी। वह उनसे अभी भी प्रेम करती थी। उसने न सिर्फ मां को गले लगाया बल्कि बचपन की तरह गले लगाकर सो गई।

श्रीकांत जब रात में वैशाली को ढूंढते हुए थोड़ा सा घबरा गया। तो उसने देखा की रागिनी और वैशाली एक ही बिस्तर पर सोए हुए हैं। यह देखकर श्रीकांत की आंखों में नमी फ़ैल गई।

श्रीकांत खुद को अभागा बाप मानता था। उसे यह डर हमेशा सताए रहता कि, वह अपनी बेटी को कभी यह बता पाएगा भी या नहीं कि वह उसे कितना प्यार करता है।

वह रागिनी उनके जिंदगी में वापस आते ही उसे अपने दिल की बात खोल कर बताना चाहता था,उसका उनकी जिंदगी में आना कोई बदकिस्मती नहीं है।

वह कभी नहीं चाहता था की रागिनी उनसे दूर रहे।

वह बस अपने लोगों के लिए कुछ कर रहा था।

रागिनी को तो यह तक भी नहीं पता था की, प्रताप के यह फैसला लेने के बाद की रागिनी उनके साथ नहीं रहेगी दोनों भाईयों के बीच माहौल गर्मा–गर्मी का हो गया था।

श्रीकांत ने जरूर अपने बड़े भाई की बात मानी लेकिन इतने सालों में वह कभी अपने भाई से एक नहीं हो पाया।

सालों से उनमें बातें काफी प्रोफेशनल सी हो गई थी।

डाइनिंग टेबल पर भी वह बस एक रूममेट की तरह हो गए थे, जो सिर्फ एक घर बांट रहे थे क्योंकि उनके पिताजी जिंदा है।

आखिरकार दो दिन के तनाव के बाद

रागिनी ने घर से रुखसत ले ही ली। गंगाजी को किया गया मैसेज उसका आखिरी मैसेज था।

उसके हाथ कहीं बार लास्ट डायल वाली बटन पर गए कि वह सिद्धार्थ को एक आखरी बार फोन कर ले।

पर हर एक चीज की हद होती है। उसने अपनी कोशिश की थी, अब सिद्धार्थ की बारी थी फैसला लेने की।

सिद्धार्थ जिस बीमारी के चलते उससे दूर रहना चाहता थी। वो उसी के चलते उसे खुदके करीब चाहती थी।

वह जिंदगी में कोई प्रिंस चार्मिंग नहीं चाहती थी, बस एक सुलझा हुआ समझदार रिश्ता चाहती थी।

दूसरी तरफ

दूसरी तरफ रागिनी का मैसेज किसी हिरोशिमा या नागासाकी के बम की तरह राजू के मतलब सिद्धार्थ के घर जाकर गिरा।

गंगाजी का दिल मैसेज पढ़ते ही खट्टा हो गया।

(दिल खट्टा होना : extreme disappointment)

रागिनी के यहां से वापस आने के बाद जो सिद्धार्थ के लिए चिंता थी वह एकाएक बंद हो गई।

सिद्धार्थ ने रेस्टोरेंट से वापस आने के बाद से ही खुद को 2 दिन से कमरे में बंद करके रखा था। उन दो दिनों में गंगाजी ने सिद्धार्थ को मनाने की बहुत कोशिशें की, की वह बाहर आ जाए।

हर एक घंटे में दरवाजे पर दस्तक देती वह और सिद्धार्थ को क्या हुआ है? यह पूछती।

"बेटा क्या हुआ है, बताओ तो सही!"

"तुम्हारी तबियत खराब है क्या?"

"बेटा खाना खालो, प्लीज बेटा जवाब दो!"

"सिद्धार्थ!!"

लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं आता।

उनकी कोशिशें फिर भी रुकी नहीं। जैसे ही रागिनी ने मैसेज किया की, सिद्धार्थ ने उसे रिजेक्ट कर दिया है।

तो उनकी सारी कोशिशे एकाएक रुक गई।

उन्हें इन सब में सिद्धार्थ की गलती दिखाई दे रही थी।

उनके इच्छाओं का मरना उनके दिल पर आघात पहुंचा गया था। वह कही खोई–खोई सी रहने लगी थी, ज्यादा से ज्यादा वक्त काम में बिताने लगी थी।


रागिनी के जाने के, कुछ एक दिन बाद नारायण जी गांव से वापस आए।

आते हुए उन्होंने गंगाजी को बुलाया, गंगाजी ने उन्हें गिलास भर पानी ला कर दिया।

"मैं बहुत थक गया हूं। वहां बहुत सारा काम था। भाभी मां को मेरी जरूरत थी, बहुत सारे लोग आए थे।

वहां भैया का औदा है ही ऐसा।

13वीं में तो गांव के बाहर के भी लोग आए थे, शोक जताने। संभालते संभालते पूरा दिन चला गया। भैया थे भी इतने अच्छे...."

बोलते–बोलते नारायण जी जरा रुक गए जब उन्होंने देखा की गंगाजी उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी। वह कही खोई हुई थी।

यह बात काफी विचित्र थी क्योंकि गंगाजी हमेशा से ही नारायणजी के चलते काफी मिलनसार और उत्साही व्यक्ति थी।

नारायण जी कई बाहर से आते तो, गंगाजी उनपर सवालों की लड़ियां छोड़ देती। लेकिन आज उन्होंने उनका हाल तक नहीं पूछा था।

कुछ तो गलत हुआ था, जो गंगाजी उनसे छुपा रही थी। उन्होंने उन्हे गंभीर स्वर में पूछा, "गंगा क्या हुआ? कुछ हुआ है क्या जब मैं यहां नहीं था?" बातों में गंगाजी के लिए चिंता साफ-साफ नजर आ रही थी।

वह कुछ नहीं बोली। "बस आज थोड़ी तबीयत खराब है।कल बात करते हैं।" उनके बातो मे तक उदासीनता झलक रही थी।

"ठीक है, मैं फ्रेश होकर आता हूं।" नारायण जी थोड़ा हताश से हो गए।

वह फ्रेश होने अंदर चले गए और गंगाजी किचन में चली गई।

एक प्लेट में जब वह नारायण जी के लिए खाना परोस ही रही थी की तभी उनकी नजर बंद दरवाजे पर गई जहां सिद्धार्थ अभी भी खुद को बंद किए हुए था।

नारायण जी फ्रेश होकर डाइनिंग टेबल पर बैठ गए। प्लेट में काफी सारी चीज सजी हुई थी बैगन का भर्ता रोटी ,चावल दाल, रायता, पापड़।

नारायण जी खाने पर ऐसे टूट पड़े थे कि वह सालों से भूखे हो। लेकिन खाना खाते-खाते उन्हें सिद्धार्थ की याद आ गई।

"सिद्धार्थ कहां है?"

"अपने कमरे में है।" गंगाजी ने रुखा–रुखा सा जवाब दिया। "उसने खाना खाया?" नारायण जी ने उनसे पूछा।

"नहीं!"

"अरे! फिर, उसे भी बुला लो।"

"अभी नहीं कोई जरूरत नहीं।"

"बाद में भूख लगी तो खा लेगा।"

गंगाजी का यह वर्तन (behaviour) देख नारायण जी थोड़ा शॉक हो गए।

जो गंगा बेटे के खाने से पहले खुद खाना भी नहीं खाती थी, वह यह बात बोल रही थी। कुछ तो सच में गड़बड़ हुआ था।

उन्होंने ठान लिया कि वह गंगाजी से एक बार इस बारे में बात करेंगे।

"वह हमारे साथ ही खा लेंगा। मुझे उससे बात भी करनी थी।"

"कोई जरूरत नहीं! आप खाना खा लीजिए मुझे प्लेट भी साफ करनी है, नींद आ रही है।"

इतना बोलकर वह ऊपर अपने कमरे में चली गई।

नारायण जी गंगाजी के जाने के बाद अधमरे मन से खाना खत्म कर रहे थे। इतने साल में वह उनके रूखेपन से परिचित नहीं थे।

सिद्धार्थ और गंगाजी के बीच में कुछ तो तनाव पैदा हुआ था। जिसकी उन्हें खबर नहीं थी।

खाते-खाते ही उनकी नजर सिद्धार्थ के कमरे की ओर चली गई। अंदर से दरवाजा बंद था। अंदर क्या चल रहा है उन्हें इस बारे में कोई खबर नहीं थी।

अंदर कमरे में, सिद्धार्थ खुद के ही इनसिक्योरिटी से जूझ रहा था।

एक बड़े से सिंगल बेड पर वह एक कोकून की तरह सोया हुआ था। दोनों पैर छाती से लगाए रो रहा था, खुद की किस्मत पर।

उसे बाहर की दुनिया से कोई लेना देना नहीं था, वह कब से सोने की कोशिश कर रहा था लेकिन नींद उससे कोसो दूर थी।

वह अब तक एक नींद की गोली खा चुका था लेकिन तब भी नींद आना मुश्किल था।

उसे भी नहीं पता था कि वह क्यों रो रहा है।

जो हुआ वह सही था फिर भी उसका मन उसको कचोट रहा था।

उसे रागिनी खुद के पास चाहिए थी, बहुत पास लेकिन यह सब गलत था, काफी गलत।

वह इन सब से बाहर निकलना चाहता था लेकिन निकल नहीं पा रहा था और आखिरकार इतने सालों बाद फिर से एक बार उसके शरीर का कंट्रोल उससे छूटने लगा।

दांत पीसने लगे, पसीना आने लगा, आंखों में पानी भर चुका था, मुंह से झाग निकलने लगा।

उसका हाथ खुदको रोकने की कोशिश में टेबल लैंप पर जाकर लगा।

उसे लगा यह उसका आखिरी दिन होंगा लेकिन अचानक रूम का दरवाजा खुल गया।

उसे संभालने वाला कोई नहीं उसके पिता थे।

नारायण जी खाना खा ही रहे थे कि अचानक उन्हें कुछ गिरने की आवाज आई।

वह आवाज सिद्धार्थ के कमरे से थी यह जानकर वह थोड़ा घबरा गए। उन्होंने दरवाजा खटखटाया पर कोई जवाब नही मिला इसके चलते वह अपने सूटकेस के पास भाग कर गए।

जो उन्होंने ड्राइंग रूम में ही रखी थी और उस से ही उन्होंने चाबियो का गुच्छा निकाला। जिनमे जरूरी चाबिया लगी हुई थी। जिसमें सिद्धार्थ के रूम की स्पेयर चाबी भी थी। झट से जाकर उन्होंने दरवाजा खोल दिया।

देखा तो सिद्धार्थ को सिजर्स (मिर्गी) आए थे।

बचपन में जब यह हादसा हुआ था तो सिद्धार्थ पूरे 12 घंटे इससे बाहर नहीं आ पाया था। तब भी पिता होते हुए नारायनजी बैचन हुए थे और आज भी।

उन्होने गंगाजी को आवाज लगाया ।

पहले तो गंगाजी को कुछ समझ में ही नहीं आया लेकिन जब नारायण जी ने गुस्से से एक बार फिर आवाज लगाई तब वह भाग कर नीचे आए।

और उन्होंने देखा की नारायण जी सिद्धार्थ को संभालने की कोशिश कर रहे हैं।

नारायण जी ने सिर्फ गंगाजी को इतना ही कहा, "डॉक्टर को फोन लगाओ।"

उन्होंने बिना वक्त गंवाएं डॉक्टर को फोन लगाया।

डॉक्टर 10 मिनिट में क्लिनिक बंद करने वाले है, वो आ जायेगे। ऐसा उनके रिस्पेक्शनिस्ट ने जवाब दिया।

लेकिन जब गंगा ने सिद्धार्थ के हालत समझाई तो रिस्पेक्शनिस्ट ने डॉक्टर को फोन लगाते हुए गंगा की बात आगे बढ़ाई, तो डॉक्टर मान गए।

लेकिन वहा पहुंचने से पहले सिजर्स में ली जाने वाली सारी प्रिकॉशन के बारे में बताया।

जिससे पेशेंट को कोई खतरा ना पहुंचे।

आजू-बाजू की कोई नुकीली चीज दूर रखने को कही, वातावरण थोड़ा सा हवामय (ब्रेथबल) बनाने को कहा और भी कही बाते बताई।

नारायण जी ने एक–एक सारे प्रिकॉशन पाले।

और आखिरकार 20 मिनट में डॉक्टर वहां आ पहुंचे।

डॉक्टर ने सिद्धार्थ को चेक किया इंजेक्शंस दिए।

और यह भी कहा की, "सिद्धार्थ की मेंटल स्टेट ठीक नहीं, और उन्हे फूड डिफिशिएंसी भी हुई है।आपको इन्हे किसी बड़े अस्पताल में दिखाना होगा।"

डॉक्टर ने सिद्धार्थ की हिस्ट्री तक पूछी, "इन्हे कब से यह सिजर्स की बीमारी है?"

नारायण जी ने सवाल का जवाब दिया "आठवीं में एक बार आई थी। लेकिन उसके बाद उसे ऐसी कोई भी तकलीफ नहीं हुई लेकिन कुछ सालों पहले सिद्धार्थ को कोई कोई मतीभ्रम (सिज़ोफ़्रेनिया की एक स्थिति) की बीमारी निकल आई थी।"

"फिर तो आपको उन्हे साइकैटरिस्ट के पास लेकर जाना होगा और उस पर भी सीजर्स काफी डेंजरस हो सकते हैं।"

"मैंने उन्हें इंजेक्शन दे दिया है। जब उन्होंने ली हुई गोलियों का असर कम हो जाएगा तब अपने आप वह ठीक हो जाएंगे। लेकिन ठीक होने पर उन्हें एक बार साइकैटरिस्ट को दिखाना मत भूलिएगा।"

डॉक्टर काफी समझदार थे। उन्होंने कुछ गोलियां दी जो खासा विटामिन की ही थी, अपनी फीस ली और वहां से चल दिए।

साइकैटरिस्ट की बात सोच गंगा और नारायण जी दोनों ही थोड़ा बेचैन हो गए।

डॉक्टर के जाते ही, नारायणजी गंगाजी की तरफ मुडे जो माथा पकड़ कर बैठी थी, सोफे पर।

"सिद्धार्थ को फूड डिफिशिएंसी हुई है, कैसे?"

"वह कुछ दिनो से खाना नही खा रहा था।"

"क्यों?"

गंगाजी ने आंखें चुराते हुए, "उसने कुछ दिनों से खुद को कमरे में बंद करके रखा है।"

"तुमने उसे बाहर बुलाने की कोशिश क्यों नहीं की?"

"मैंने कोशिशें की, लेकिन वह बाहर नहीं आया।

तो फिर चाबी से दरवाजा खोलना था।"

"सिद्धार्थ के रूम के डुप्लीकेट चाबी आप ही के पास तो थी। शादी वाले कांड के बाद जब उसे पता चला कि उसके रूम के डुप्लीकेट चाबी है, हमारे पास है।तो उसने उसे चुराने की कोशिश की थी।यह पता चलने पर आपने ही तो उस चाबी को अपनी चाबियां के गुच्छे में डाल दिया था।वह चाबियो का गुच्छा आप अपने पास ही तो रखते हो तो मैं कैसे खोलती?"

"लेकिन यह सब कुछ गलत हुआ है, गंगा।"

"क्या हुआ होगा सिद्धार्थ के साथ जो उसकी ऐसी हालत हो गई?"

नारायण जी भी हताश होकर सोफे पर बैठ गए।

गंगाजी भी काफी रो रही थी। खुद के बेटे की इस हालात के लिए वह खुद को दोषी मान रहीं थी।

और ऐसी ही उलझी हुई अवस्था में वह बोल उठी,

"मैं बस सिद्धार्थ की भलाई चाहती थी।"

"गंगा तुम क्या कह रही हो,मुझे समझ में नहीं आ रहा?"

गंगाजी अपने ही मुंह से निकले हुए वाक्य कितने गलत हो सकते है, यह बात जानते ही वो सक्ते में आ गई। वह चुप रही और कुछ नहीं बोली।

नारायण जी को शक पहले से ही था की दोनों के बीच में कुछ गलत हुआ है लेकिन अब शक यकीन में बदल चुका था।

"गंगा अब छुपाने से कोई फायदा नहीं। जो सच है वह बताओ आखिर क्या हुआ है सिद्धार्थ को और क्यों?"

गंगाजी बस बिना रुके आंसू बहाने लगी। नारायण जी थोड़ा डर गए कि आखिर इन दोनों में क्या हुआ है?