(भाग 19)
रघुनाथ का साथ पाते ही शोभना को राहत महसूस हुई। रघुनाथ व शोभना ने ज़मीन पर बैठी हुई उस महिला को सहमते हुए देखा। कमरे में ऐसी शांति पसरी हुई थी जैसी शांति तूफ़ान के आने से पहले होती है।
शोभना की बातों का उस औरत पर गहरा असर पड़ा। उसे एहसास हुआ कि बदलें की आग में जलकर उसने अपने आप को इस घर की चार दीवारी में कैद कर लिया है। इस तरह से तो वह सदियों तक भटकती रहेंगी क्योकिं आत्मा तो अमर है। उसका तो कोई अंत ही नहीं है। यह घर, शरीर, इस घर में आने वाले लोग यह सब कुछ नश्वर है। एक न एक दिन इन सबकों नष्ट हो जाना है ; फ़िर वह किस पर अपना अधिकार जमाएँगी..? किनसे बदला लेंगी..? किन्हें तड़पायेगी..? आज उसे अपना अब तक का यह सफ़र बहुत भयानक जान पड़ रहा था। उसने इस प्रेतयोनि से मुक्ति का कभी कोई उपाय ही नहीं किया। वह तो अपने अहम और वहम में इतनी अधिक उलझी हुई थी कि उसे यहीं योनि श्रेष्ठ लगने लगीं थीं।
उस महाभयंकर औरत ने मानो आत्मसमर्पण कर दिया था। अब वह पश्चाताप की अग्नि में जल रहीं थीं। इस अग्नि में उसके अदंर व्याप्त ईर्ष्या, जलन व बदलें की भावना भी भस्म हो गई। वह निर्मल, निश्छल नदी सी हो गई।
वह नरम स्वर में बोली । उसके स्वर में पश्चाताप था।
"तुमनें ठीक कहा था कि मैं ही अपनी दुश्मन हूँ। अब तक मैंने अपने आपको धोखा दिया है।"
इतना कहकर वह चुप हो गई। कमरे में शांति पसर गई।
कुछ देर चुप्पी साधे रहने के बाद शोभना ने हिम्मत करके उस औरत से सवाल पूछा - "आपके साथ क्या हुआ था ? प्रेतयोनि में आप क्यों है ? किसने आपकों धोखा दिया था ? मैं आपकी मुक्ति के लिए पूरी कोशिश करूँगी यदि आप मुझें अपने अतीत के विषय में बताएंगी..!"
शोभना की बातों को, उसके प्रश्नों को सुनकर अबकी बार वह औरत नाराज़ नहीं हुई। उसने कातर भाव से शोभना की ओर देखा फिर वह अपने अतीत के बारे में बताने लगीं...
बात उन दिनों की है जब मैं अपने माता-पिता की मृत्यु से पूरी तरह टूट चूंकि थीं। मैं अपने माता-पिता की इकलौती बेटी थी। उन्होंने मुझें बहुत लाड़-प्यार से पाला-पोसा था। वह अक्सर कहते थे कि मैं उनके प्रेम की एकमात्र निशानी हूँ, इसीलिए मेरा नाम 'प्रेमलता' रखा गया था। माँ मुझें लाड़ से प्रेमा बुलाती थी तो पापा लता कहकर पुकारते थे। हम सब बहुत सुखी थे। सब कुछ ठीक ही था कि अचानक आई महामारी ने मेरा हँसता-खेलता परिवार उजाड़ दिया। महामारी की चपेट में पापा आ गए। माँ ने मुझें उनसे दूर ही रखा और वह उनकी रात-दिन सेवा करती। वह इस आस का दीप सँजोये हुए थी कि पापा जल्दी स्वस्थ हो जायेगे। लेक़िन एक शाम उनकी आस का दीपक बुझ गया और पिताजी ने अंतिम सांस ली।
अचानक हम पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। पापा के यूँ चले जाने से घर ही नहीं हमारा जीवन ही सूना हो गया। माँ भी दिन रात रोती रहती थीं। वह गुमसुम ही रहती थीं। उनकी हालत भी दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। उनकी सुगठित काया भी क्षीण होने लगी थी। सब उन्हें यहीं समझाते कि अपना खयाल रखों। एक जवान बेटी की जिम्मेदारी अब उनके ऊपर ही आन पड़ी है। कोई भी यह समझ नही पाया कि वह भी महामारी की चपेट में आ चूंकि थी और एक रात जब वह सोई तो फ़िर कभी नहीं जागी। वह सुबह तो मेरे जीवन में घनघोर अँधेरा लेकर आई थीं। माँ के चले जाने के बाद से मैं डिप्रेशन में चलीं गई थीं। मुझें तो यह भी भान नहीं था कि मैं कब अस्पताल में भर्ती करवा दी गई थीं। कुछ दिनों तक तो मामा आते-जाते रहे फिर महामारी के डर से मामी ने उनका आना भी बन्द करवा दिया। मामी की अपने पति को लेकर फिक्र जायज़ थीं। अपनो को खोने का दर्द मैं बहुत अच्छी तरह से समझ चूंकि थीं।
शेष अगलें भाग में...