(भाग 18)
रघुनाथ खुद को जकड़ा हुआ सा महसूस कर रहा था। वह शोभना से बहुत कुछ बोलना चाहता है लेक़िन कुछ भी कह नहीं पाता है। उसका अपना ही शरीर किसी और शक्ति द्वारा संचालित हो रहा था। अपने मस्तिष्क पर ज़ोर देने पर अचानक ही जैसे उस शक्ति का रघुनाथ के शरीर से नियंत्रण हट गया।
रघुनाथ किसी कैद से रिहा हुआ कैदी सा ख़ुद को स्वतंत्र महसूस करते हुए झट से अपनी पत्नी से बोला - "शोभना यहाँ से चली जाओ। बच्चों को लेकर कही दूर चली जाना। यहाँ तुम्हारा रुकना खतरे से खाली से नहीं है। ख़ुद को और बच्चों को बचाओ।"
शोभना ने घबराते हुए किन्तु दृढ़तापूर्वक कहा - " रघु चाहें कुछ भी हो जाए मैं तुम्हें यहाँ छोड़कर नहीं जा सकती हुँ। मैं तुम्हें अपने साथ लेकर ही जाऊँगी।"
शोभना आगें कुछ कहने को हुई ही थी कि अचानक रघुनाथ के चेहरे के भाव औऱ आवाज़ बदल गई वह शोभना को घूरते हुए बोला - "जिंदा या मुर्दा..? कैसे ले जाओगी अपने पति को..? अब रघुनाथ मेरा है। यह घर मेरा है। मैं इस घर की मालकिन हुँ।"
शोभना ने गिड़गिड़ाते हुए रोकर कहा - "कौन हो तुम ? हमसें तुम्हारी क्या दुश्मनी है ? मेरे पति ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? यह सब करके तुम्हें क्या हासिल होगा.?"
शोभना की इस बात पर उस औरत को इतना गुस्सा आया कि रघुनाथ के शरीर से निकलकर वह औरत ठीक शोभना के सामने आ गई। वह बोली - " यह सब करके मुझे सुकून मिलता है। जैसे मैं तड़पी थीं वेसे ही लोगों को को इस बन्द कमरें में तड़पकर मरता हुआ देखकर मुझे ठंडक मिलती है।"
शोभना ने इस बार उस औरत को धिक्कारते हुए कहा - " न जाने कितने सालों से बदले की आग में जलते हुए तुमनें अब तक कितने ही बेगुनाहों को इस आग में झोंक दिया फ़िर भी अब तक ठंडक न पा सकी। तभी तो आजतक आत्मा बनकर भटक रही हों। क्या यह सिलसिला यूँ ही जारी रखकर हमेशा ऐसे ही रहोगीं या क्षमादान देकर स्वयं को मुक्त करने का प्रयत्न करोगी ? इस तरह से तो तुम हमेशा इस घर में कैद रहकर यहाँ भटकती रहोगीं। जिस इंसान ने तुम्हें धोखा दिया उससे भी कही अधिक धोखा तुमने अपने आप को दिया है।
यह तुम्हारी गलतफहमी है कि तुम लोगों को तड़पा रही हो..असल में तो तुम ख़ुद को ही सज़ा दे रही हों। तुम ख़ुद ही हो अपनी दुश्मन..!"
शोभना का इतना कहते ही वह गुस्से से तिलमिला उठी। उसकी भयानक काली, पथरीली आँखों में अंगारे उतर आए। चिंघाड़ते हुए उसने शोभना का गला पकड़ लिया और एक झटके में उसके शरीर को ऊपर उठा लिया। उसकी हथेलियां शोभना के गले पर कसती चली जा रहीं थीं। हवा में शोभना के पैर व गले में पड़ा दुप्पटा लहरा रहा था। शोभना की सांसे थमने लगीं थीं, उसका शरीर पस्त पड़ने लगा था।
रघुनाथ रॉकिंग चेयर पर बेसुध पड़ा हुआ अधखुली आँखों से यह सब नजारा देख रहा था। न जाने उसके अंदर अचानक से फुर्ती आ गई। वह साइड में रखी हुई टेबल का सहारा लेकर झटके से खड़ा हो गया। उसके यूँ खड़े होने से पुरानी जर्जर टेबल का एक पाया टूट गया और टेबल सहित ग्रामोफोन धड़ाम से ज़मीन पर गिर गया। ग्रामोफोन के गिरते ही ड्रेसिंग टेबल का शीशा भी तेज़ धमाके की आवाज़ के साथ दरक गया और फ़िर टूटकर चकनाचूर हो गया। ज़मीन पर जहां-तहां शीशें के टुकड़े बिखर गए। टुकडों में उस औरत का ही अक्स दिखाई दे रहा था।
उसने शोभना को एक तरफ़ फेंक दिया और ज़मीन पर धम्म से बैठ गई।
शोभना अब भी ऊर्जाहींन थी । वह हाँफते हुए उस औरत की ओर देख रहीं थीं। रघुनाथ शोभना की ओर दौड़कर जाता है।
शेष अगलें भाग में...
क्या है उस औरत की कहानी ? क्या वह अब स्वयं को इस घर से मुक्त कर देंगी ?