फ़िल्म 'बवाल' रिव्यूज़
पति पत्नी जीवन वाया द्वितीय विश्व युद्ध
नीलम कुलश्रेष्ठ
मॉरल ऑफ़ द स्टोरी --हीरोइन जाह्नवी कपूर का अंत का वाक्य --''हम सब हिटलर जैसे हैं जो हमारे पास है उससे ख़ुश नहीं हैं लेकिन जो हमारे पास नहीं है उसे पाना चाहते हैं।''
दरअसल ये सूक्ति वाक्य अंत में मुझे लिखना चाहिए लेकिन फ़िल्म का आधार ही ये है ,चाहे वे इस फ़िल्म के हीरो लखनऊ के अध्यापक अज्जू भैया ऊर्फ़ अजय दीक्षित हों या हिटलर .अज्जू भैया पश्चिम भारत की भाषा में टपोरी हैं। उत्तर प्रदेश की भाषा में लपाड़िया यानी खूब हांकने वाले जो नहीं हैं ऐसी इमेज बनाकर जीने वाले। टीचर ऐसे हैं कि जिस बात का ज्ञान नहीं हैं उस बात के उत्तर को छात्र से उगलवा लेते हैं। उनकी पत्नी ही समझदार और सलीकेदार
' धाँय धूं 'टायप फ़िल्मों से ऊबे दर्शकों को इस साफ़ सुथरी मूवी को देखना एक राहत है। फ़िल्म दो दुनियाओं यानी कि मध्यमवर्गीय घर व द्वितीय युद्ध की यादों को जिस तरह संतुलित करती हुई चलती है उसके लिए निदेशक नितेश तिवारी का स्वागत होना चाहिये। इससे पहले भी वे दो साफ़ सुथरी उद्देश्यपूर्ण फ़िल्मों 'दंगल 'व 'छिछोरे ' कर चुके हैं। साजिद नाडियाडवाला व अश्विन तिवारी को भी धन्यवाद जिन्होंने ऐसी उद्देश्यपूर्ण फ़िल्म में अपने रुपये लगाए।हलके फुल्के रोल में काम करने वाले वरुण धवन भी अपना टपोरीपन दिखाकर व एक सुधरे हुए व्यक्ति के रुप में अभिनय में एक अलग ही वरुण धवन नज़र आते हैं ।
अज्जू भइया ने अपनी पूरी शहर में ऐसी इमेज बनाई है कि वे चाहते तो बहुत बड़े पद पर काम कर सकते थे लेकिन बच्चों के जीवन को बनाना उनके जीवन उद्देश्य है इसलिए टीचर हो गए। उनका एक मित्र ही जानता है कि उनके सारे दावे खोखले हैं। टीचर भी वे कोई जुगाड़ लगाकर बने हैं।पढ़ी लिखी टॉपर सलीकेदार निशा से वे ये जानते हुए भी कि उसे मिर्गी के दौरे आते हैं, इसलिए शादी करते हैं कि इतनी ज़हीन बीवी होना भी एक स्टेटस सिंबल है। शादी के बाद बात बात पर उसका अपमान करना अपनी शान समझते हैं। वह सब्र से हर अपमान सहती जाती है. इसी शान की ख़ातिर वे एक विधायक के बेटे को थप्पड़ मार बैठते हैं और एक महीने के लिए स्कूल से सस्पेंड कर दिए जाते हैं।
अज्जू भइया यदि हार मान लें तो वे अज्जू भइया कैसे हुए ? स्कूल में ये बात फैला देते हैं कि वे योरुप ट्रिप पर द्वित्तीय विश्व युद्ध की जानकारी लेने पेरिस, नॉर्मैंडी, एमस्टरडम, बर्लिन और ऑस्टोविट्ज़ जा रहे हैं जिससे स्कूल के बच्चों को आँखों देखी सही जानकारी मिल सके। इनके हनीमून ट्रिप लिए इनके मध्यमवर्गीय माता पिता रुपयों का इंतज़ाम कर देते हैं। एक दूसरा कारण भी है इन दोनों का वैवाहिक जीवन टूटने पर है। तलाक लेने की बात फिलहाल हनीमून ट्रिप के बाद टल जाती है।फ़िल्म के प्रथम भाग का एक आकर्षण है कि उत्तर प्रदेश के मध्यमवर्गीय घरों के आपसी व्यवहार को, वातावरण को, उनकी साज सज्जा को बहुत प्रमाणिकता से फिलमाँकित किया है।
अश्वनी अय्यर व उनकी कहानीकार टीम का कमाल अब शुरू होता है। विश्व युद्ध की घटनाओं व अज्जू भैया, निशा के अंदर के अंतर्द्वंद को रोचक ढंग से जोड़ना आसान नहीं था। इस फ़िल्म को रोचक बनाने के लिए एक मज़ेदार कॉमेडी डाली गई है कि प्लेन में एक गुजराती परिवार के पुरुष से अज्जू भैया का सूटकेस बदल जाता है।गुजराती बस हो या ट्रेन या प्लेन रास्ते में खाने पीने में मशगूल रहते हैं। 'चकली आपो न ',ढो'कला आपो 'बस यही आवाज़ें प्लेन में गूंजती रहतीं हैं। अज्जू भैया भी गुजरातियों के बीच फंसे इनके डिब्बे इधर उधर करते नज़र आते हैं। न चाहते हुए भी गुस्से में योरुप में ये प्रिंटेड चटक मटक फ़ूलोंदार शर्ट पहने घूम रहे हैं व वे गुजराती भाई सादा शर्ट पहनकर झुंझलाते हैं, 'ऐसी भी कोई बदरंग शर्ट पहनता है ?''
धीरे धीरे निशा की क़ाबलियत से अज्जू भाई प्रभावित होने लगते हैं क्योंकि उसे विश्वयुद्ध की सभी जानकारियां हैं। वहां की हर घटनाओं में समझदारी से हल खोजकर अज्जू भाई की सहायता करती है. स्लीवलेस गाउन में निशा को देखकर अज्जू भाई इस के सौंदर्य के जादू से मदहोश होने लगते हैं। इस फ़िल्म के वो भाग दुर्लभ हैं जब अज्जू भाई ऑडियो गाइड कान पर लगाये विश्वयुद्ध की किसी घटना के विषय में सुन रहे हैं और वे दृश्य फ़िल्म में दिखाये जा रहे हैं। निशा भी इस युद्ध की घटनाओं की जानकारी देती चल रही है। इस मिले हुए ज्ञान को इकठ्ठा कर वे अपने स्कूल के बच्चों को अपने वीडियो से बताते चल रहे हैं. जैसे वीडियो आरम्भ होता है बच्चे क्रेज़ी होकर मोबाइल ऑन कर बहुत ध्यान से सुनकर ये ज्ञान अर्जित करते रहते हैं। बच्चे वीडियो देखते सुनते अपने टीचर से ,उनके ज्ञान से बहुत प्रभावित होते जा रहे हैं।
हिटलर के गैस चैंबर्स के विषय में सुनना या पढ़ना अलग बात है। पोलेंड के ऑस्टोविट्ज़ गैस चैंबर्स में पेस्टीसाइड के धुंए से तड़प तड़प कर मरते युद्धबंदियों के होलोकॉस्ट द्व्रारा उस दृश्य को देखकर अज्जू भैया व निशा ही नहीं भीषण भय से थरथराराते, हम दर्शक भी स्तब्ध हो उन दृश्यों को देख आंसुओं से रो उठते हैं। कैसा होता है साँसों का गैस से घुटना व दम तोड़ना। लगता है कि गैस की तपन से हमारी त्वचा जली जा रही है, सांस घुटकर हमें बेहोश किये जा रही है। उफ़ --दम घुटने से एक के ऊपर गिरते मृत शरीर। डेनियल बी जार्ज का युद्ध की करुणा अभिव्यक्त करता भावपूर्ण पार्श्व संगीत इन दृश्यों को अद्भुत बना देता है।
पेरिस फ़ैशनेबल लोगों का ख़्वाब है लेकिन इसके उत्तर व पश्चिम में बसे नॉर्मैंडी के एक उद्यान में ज्यामितीय में लगे सफ़ेद पत्थरों को देख मन भाव विभोर हो जाता है। लेकिन जब क्लोज़ अप में ये दृश्य आता है तो आँसु फिर निकल पड़ते हैं --उफ़ ! यहीं डी -डे यानी डैथ- डे यानी 6 जून 1944 को 160,000 अलाइड ट्रूप के, जिनमे 2,501 अमेरिकन व देशों के सैनिक थे, युद्ध में मारे गए थे। समुद्री तट पर इनके उतरते ही इन्हें नाज़ियों ने घेर कर मार डाला था। फ़िल्म में भयानक हैं ये दृश्य। हम जिन्हें खूबसूरत सफ़ेद पत्थर समझ रहे थे दरअसल हरे भरे गार्डन के बीच ये उन मृत सैनिकों की याद में लगाये स्मृति चिन्ह हैं।
युद्ध में अकेले घर में जीवित बची छिपी हुई बच्ची जो डायरी लिखती जा रही थी ,जिस एनी फ़्रेंक की डायरी इस दौर के दस्तावेज के रुप में बाद में मशहूर हुई, को अकेले घर में सहमते देखकर हम खुद सहम जाते हैं क्या बीती होगी उस प्यारी सी बच्ची पर ?
इन दृश्यों के बीच अज्जू भैया की अकड़ व एक पढ़ी लिखी पत्नी निशा की समझदारी ,उसके सुझाव चलते रहते हैं।मैं तो फ़िल्म 'मिली 'से जान्हवी कपूर के संतुलित मध्यम वर्गीय लड़की के अभिनय को देख प्रभावित हो गई थी। इस बार फिर वे मुझे प्रभावित कर गईं । वरुण धवन को इस अच्छी भूमिका में अच्छे अभिनेता के रूप में देखना अच्छा लगा। क्या होगा जब दोनों लखनऊ लौटेंगे ? अज्जू भैया सुधरेंगे या नहीं ? इनका तलाक होगा या नहीं ?ये बात आप इस उद्देश्यपूर्ण साफ़ सुथरी फिल्म को देखकर ही जान सकते हैं।
गीतों में सिर्फ़ 'तुम जो मिले तो ---'गीत सुमधुर है।
घाव देते इस अतीत से गुज़रना इस फ़िल्म के दर्शकों की उपलब्धि है। इस फ़िल्म को बनाने का उद्देश्य था कि लोग इस अतीत से सबक लें। कहाँ पता होगा इस टीम को कि समय बार बार हिटलर पैदा ही करता ही रहता है। यदि ऐसा न होता तो यूक्रेन, रूस, इज़रायल व हमास बारूद के चैम्बर्स न बनते।
नीलम कुलश्रेष्ठ
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