कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 45 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 45

45.मैं तुम हो और तुम मैं हूं

चतुर्भुजी विष्णु रूप के बाद श्री कृष्ण अपने मनोहरी मानव रूप में आ गए, जिसे देखकर अर्जुन का चित्त स्थिर हो गया और वे स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गए। अर्जुन ने श्री कृष्ण का विराट ईश्वरीय स्वरूप भी देख लिया, मानव रूप भी और चतुर्भुजी विष्णु रूप भी देख लिया। उन्होंने श्री कृष्ण से आगे पूछा। 

अर्जुन:हे प्रभु! आपकी सगुण रूप में आराधना करना श्रेष्ठ है या निराकार ब्रह्म के रूप में आपको प्राप्त करना उत्तम है? कृपया मेरा मार्गदर्शन करिए। 

हंसते हुए श्री कृष्ण ने कहा, " दोनों ही उपाय अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं। जो मेरे सगुण रूप की उपासना करते हैं और मेरे भजन ध्यान में लगे हुए हैं, वे मुझे अति उत्तम योगी के रुप में मान्य हैं। वहीं जिन मनुष्यों ने अपने इंद्रियों को वश में करके मन और बुद्धि से परे सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान किया है, वे सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त हो जाते हैं। "

अर्जुन: मैंने अभी आपका विश्वरुप देखा है प्रभु! आप अकथनीय स्वरूप वाले, सदा रसपूर्ण, नित्य, अचल, निराकार , अविनाशी और सदा आनंद से परिपूर्ण हैं। आपको प्राप्त करना इतना सहज नहीं है। कृपया मुझे सूत्र रूप में एक स्पष्ट मार्ग बताइए। 

श्री कृष्ण: अगर निराकार ब्रह्म में ध्यान लगाने में विशेष श्रम है अर्जुन, तो अपने समस्त कर्मों को मुझ में अर्पण कर मेरे सगुण रूप की भक्ति भाव से साधना करो। दोनों ही स्थितियों में मन और बुद्धि को तुम्हें मुझ में लगाना ही होगा पार्थ और मन को मुझमें अचल रूप से स्थापित करने के लिए अभ्यास करना ही होगा। अगर तुम्हें अभ्यास में कठिनाई होगी तो सिर्फ आसक्ति रहित कर्म करते जाओ और स्वयं को केवल निमित्त मानते हुए कर्म करो, तब भी मुझे ही प्राप्त करोगे। ऐसा भी नहीं कर पाओगे तो जिन कर्मों को तुम कर रहे हो, उसमें फलों की कामना का त्याग कर दो। अगर यह कर सको तो सगुण पथ अपनाओ या निर्गुण पथ;दोनों में सफलता प्राप्त करोगे। 

अर्जुन: क्या ये दोनों मार्ग एक दूसरे से स्पष्ट रूप से अलग हैं?

श्री कृष्ण: वास्तव में ये दोनों मार्ग भी एक दूसरे का आश्रय लिए बिना पूर्ण नहीं होते हैं पार्थ। अभ्यास अगर उचित रीति से नहीं किया जा जाए तो इससे अच्छा ज्ञान है। ज्ञान से परमेश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है। अब ध्यान लगाना भी कठिन है तो कर्म करते हुए इन कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। 

अर्जुन: हे केशव! भक्तगण आपको पाने का प्रयत्न करते हैं और आपके मार्ग का अनुसरण करते हैं, तो एक भक्त में क्या व्यक्तिगत विशेषताएं होनी चाहिए?

श्री कृष्ण:वह भक्त मुझे प्रिय है जो आकांक्षा से रहित है। बाहर और भीतर से शुद्ध है, जो चतुर है, पक्षपात से रहित है। वह अनावश्यक कार्य आरंभ का त्यागी है। वह कभी न अधिक हर्षित होता है न घोर दुख में पड़ा रहता है। न वह हर्षित होता है, न किसी से द्वेष रखता है, न शोक करता है, न उसे कोई कामना है, न वह उद्वेग को प्राप्त होता है। वह मिट्टी , पत्थर और सोने को एक समान समझता है। वह ज्ञानी- अज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय सभी को एक समान समझता है और अपनी निंदा तथा स्तुति में भी समान भाव रखता है। वह मान और अपमान में सम है। मित्र और शत्रु में भी सम है। उसमें स्वार्थ नहीं है। वह सब का प्रेमी और दयालु है। वह संवेदनशील तो है लेकिन इसमें भी अति का निषेध है। इसमें अहंकार नहीं है। वह सुख दुखों की प्राप्ति में सम है। वह अपराध करने वाले को भी उचित व्यवहार के बाद क्षमा प्रदान करने वाला है। वह संतुष्ट है। उसके मन और उसकी इंद्रियां, शरीर, उसके वश में है। उसने अपने मन और बुद्धि को मुझे अर्पित किया हुआ है। 

अर्जुन: आपने सम स्थिति की चर्चा की है। किन- किन स्थितियों में उसे सम रहना चाहिए?

श्री कृष्ण :शत्रु - मित्र, मान - अपमान , सर्दी- गर्मी, सुख-दुख, निंदा - स्तुति आदि द्वंद्वों में उसे सम रहना चाहिए। 

अर्जुन: जीवन की अपरिहार्य आवश्यकताएं उसके लिए किस अनुपात में होनी चाहिए?

श्री कृष्ण: बस उतनी जिससे उसका जीवन निर्वाह हो जाए। उसे अपने रहने के स्थान से भी ममता न हो, उसे लोगों से इस तरह गहरी आसक्ति न हो कि वह किसी वियोग और असुविधा की स्थिति में अपना संतुलन खो दे।