कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 17 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 17

17: आनंद का मापन

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, "अवश्य! यह शरीर ही तो वह साधन है जिसके माध्यम से आत्म कल्याण के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है….. यह योग उचित आहार-विहार करने वाले लोगों के लिए है…. यह योग संतुलित होकर कर्म करने वालों के लिए है….. इस योग में वह शक्ति है कि मनुष्य को दुखों से छुटकारा दिला दे। "

पांडव राजकुमार होने के नाते अर्जुन ने हस्तिनापुर आने वाले अनेक ऋषियों से योग की शक्ति का अनुभव किया था। स्वयं गुरु द्रोणाचार्य से पांडवों का परिचय एक कुएं में पड़ी गेंद को अपनी धनुर्विद्या से बाहर निकाल कर किया था। अर्जुन इस तेजस्वी तपस्वी को देखकर पहले ही समझ गए थे कि इनके पास योग से प्राप्त अनेक अलौकिक सिद्धियां हैं, तब ही इनकी धनुर्विद्या इतनी सटीक है। 

अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा, आपने योग को दुखों का नाश करने वाला कहा है। ऐसा कैसे संभव है कि योग करने से लोगों के दुख दूर हो जाएंगे। 

श्री कृष्ण: योग में दुखों को दूर करने की क्षमता है। सर्वप्रथम तो यह सुख और दुख की प्रचलित अवधारणा को ही बदल कर रख देता है। अगर भौतिक वस्तुओं को हमने सुख का मापदंड मान लिया तो इस धारणा में परिवर्तन आवश्यक है। योग इस दृष्टिकोण में परिवर्तन करता है। दूसरे यह दुख की संभावित स्थिति को अपने पुरुषार्थ से आने के पहले ही रोक देता है। तीसरे दुख के आ जाने पर यह इससे संतुलित होकर और संयत भाव से निकलने की सूझ भी प्रदान करता है। 

परमात्मा में चित्त का स्थित होना ही योग

श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि योग के इच्छुक साधकों के आचरण के संबंध में भगवान कृष्ण ने सम मार्ग का प्रतिपादन किया। किसी भी चीज की अति बुरी है। अपनी अत्यधिक मात्रा में भी और अपनी न्यूनतम मात्रा में भी। 

अर्जुन अतियां के मध्य संतुलन को तो समझ गए, लेकिन उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से एक और जिज्ञासा प्रकट की। 

अर्जुन: यह कैसे ज्ञात होगा भगवन कि योगसाधना सफल हो गई है, या योग में एक वांछित स्तर को प्राप्त कर लिया गया है। क्या किसी तरह इसकी पहचान संभव है?

भगवान श्रीकृष्ण ने हंसते हुए कहा: अब योग में सफलता का मापन यंत्र कहां से लाया जाएगा अर्जुन? वह तो साधक को स्वयं अनुभूत करना होगा। ऐसे योगी को देखकर दूसरा व्यक्ति भी केवल अनुमान ही लगा सकता है। 

अर्जुन: वह कैसे प्रभु?

श्रीकृष्ण: हम किसी व्यक्ति की बाह्य मुखाकृति और प्रसन्नता देखकर यह अनुमान अवश्य लगा सकते हैं लेकिन इस पर भी ठीक- ठीक बता पाना कठिन है कि योग की साधना सफल होने पर वह इतना प्रसन्न है। क्या तुम्हें किसी योगी और संन्यासी की ऐसी स्थिति को देखने का अवसर प्राप्त हुआ है?

अर्जुन: मैंने अनेक साधु महात्माओं को प्रसन्नचित्त देखा है और ऐसी प्रसन्नता केवल अस्थाई नहीं रहती, उनके मुख मंडल पर एक स्थाई आनंद भाव रहता है। 

श्री कृष्ण: बिल्कुल सही कहा, अर्जुन लेकिन दूसरे का प्रेक्षण भी केवल अनुमान पर आधारित होता है। एक व्यक्ति योग में आनंद प्राप्त कर पाया है इसका सही आकलन वह व्यक्ति स्वयं कर सकता है , कोई दूसरा देखने वाला नहीं। व्यक्तिगत तौर पर वह इसकी पुष्टि तब कर सकता है, जब ध्यान लगाने पर उसका चित्त क्षण भर में ही परमात्मा में स्थित हो जाए; इसके बाद उसका ध्यान और कहीं विचलित ना हो, यही है योग युक्त होना और योग की सफलता। 

अर्जुन ने हाथ जोड़ते हुए कहा: हे भगवन!मुझे तो आपके मुखमंडल पर वह सदैव रहने वाला आनंद दृष्टिगोचर होता है। 

अत्यंत वश में (अभ्यास द्वारा) किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही पूरी तरह स्थित हो जाता है, उस काल में संपूर्ण भोगों से स्पृहा रहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है। 

अर्जुन ने पूछा, हे प्रभु के परमात्मा के ध्यान में चित्त के स्थित हो जाने के बाद और किसी साधना की आवश्यकता नहीं होती और क्या यह अवस्था स्थाई रूप से उपलब्ध हो जाती है?

श्री कृष्ण ने कहा: परमात्मा में चित्त का स्थित हो जाना योग- ध्यान की सफलता है, तथापि इस स्थिति के स्थायीकरण के लिए स्वयं पर अभ्यास से प्राप्त नियंत्रण को भी प्रभावी रखना होगा, जिसने साधक को यह अवस्था प्राप्त कराई है।