कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 18 Dr Yogendra Kumar Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 18

18: आनंद का समंदर

अर्जुन श्री कृष्ण की वाणी को समझने का प्रयत्न करने लगे। 

अर्जुन: इसका अर्थ यह है कि साधना की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने के बाद भी लोग पतित हो सकते हैं, विचलित हो सकते हैं और अपने मार्ग से भटक सकते हैं। 

श्री कृष्ण: हां अर्जुन!वह ध्यान अवस्था मनुष्य के हृदय को परमात्मा की प्राप्ति का आनंद उपलब्ध करा देती है लेकिन अगर मनुष्य पुनः सांसारिक मोहमाया, प्रलोभनों और आसक्ति की ओर आकृष्ट हो गया तो वह "जैसे थे" की पूर्व अवस्था में भी पहुंच सकता है। ध्यान की इतनी बड़ी सफलता को प्राप्त करने के बाद फिर से इसे खो देना उसी तरह से है जैसे किसी को हीरे जैसा बहुमूल्य रत्न मिल जाए और उसका महत्व न समझकर वह उसे खो दे। 

अर्जुन: हे प्रभु! इस योगयुक्त वातावरण को बनाए रखने हेतु साधक के लिए क्या आवश्यक है?

श्री कृष्ण: इसके लिए आवश्यक यह है कि वे स्थितियां, जिनसे वह साधना के मार्ग पर आगे बढ़ा है, समाप्त ना होने दे और हृदय में आत्मसाक्षात्कार के दीपक के जलने पर आसपास वही निर्वात बना रहने दे, जो इस दीपक को बुझने नहीं देगी और सदा प्रज्वलित रखेगी। 

अर्जुन:हे द्वारिकाधीश! इस निर्वात से क्या तात्पर्य है?

श्री कृष्ण: यह निर्वात है:सांसारिक मोह- माया और प्रलोभनों के हवा के झोंकों की वास्तविकता को समझ कर इन्हें उस ज्ञान दीपक के आसपास प्रभावी न होने देना। 

चित्त की सही शुद्धि होती है परमात्मा के ध्यान से

जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की लौ हिलती-डुलती नहीं है, योग का अभ्यास करते हुए जीते हुए चित्तवाले योगी के चित्त की भी वही अवस्था होती है। 

अर्जुन ध्यान और अभ्यास का महत्व जानते हैं। इंद्रप्रस्थ में वे कभी-कभी अकेले यमुना के पास के जंगल में जाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करते थे। कभी-कभी रात्रि के गहन अंधकार में भी वे लक्ष्य का अचूक संधान करने का अभ्यास करते थे। उनके मन में गुरु द्रोणाचार्य के शब्द बार-बार गूंजते थे कि केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना या किसी विद्या में निपुणता हासिल कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, उसका निरंतर अभ्यास आवश्यक है, तभी आप उसे अपने साथ सदैव धारण रख सकते हैं। आज जब भगवान श्री कृष्ण ने दीपक की लौ का उदाहरण दिया, तो अर्जुन के सामने थोड़ी देर के लिए अपने गुरु की बात का स्मरण हो आया। 

भगवान श्री कृष्ण द्वारा योग से चित्त वृत्तियों की स्थिरता के बारे में समझाए जाने के बाद अर्जुन ने अगला प्रश्न किया:-

अर्जुन: हे योगेश्वर!आपने सत्य समझाया कि योग के माध्यम से हम परमात्म तत्व अर्थात उस परम शक्ति के दर्शन कर सकते हैं। अगर योग के विभिन्न चरणों के माध्यम से और ध्यान में डूबकर मनुष्य उस ऊंचाई तक पहुंच सकता है तो वह ईश्वर का ही ध्यान क्यों लगाएं? इस संसार में तो भांति-भांति के आकर्षण बिंदु हैं। वह उस अनदेखे परमात्मा तत्व की ओर क्यों आकर्षित हो?

हंसते हुए श्री कृष्ण ने कहा: आकर्षण के जिन बिंदुओं की ओर मनुष्य का ध्यान आकृष्ट होता है, वे बाह्य आवरण पर आधारित हैं। यह आकर्षण क्षणिक सुख का आभास करा सकते हैं, लेकिन थोड़ी देर बाद ही मनुष्य को इनसे ऊब होने लगेगी या वह इनसे भी अलग किसी रोचक और नए सुख की तलाश करने लगेगा। 

अर्जुन: तो इसका अर्थ यह हुआ कि बाह्य आवरण के परे भीतर भी सत्य की महत्वपूर्ण परतें होती हैं। वहीं बाह्य साधनों से प्राप्त होने वाले सुख मनुष्य के पास स्थाई रूप से नहीं रहने वाले हैं। ऐसे में परमात्मा तत्व का अभ्यास आवश्यक है। 

श्री कृष्ण:सही समझे अर्जुन! समुद्र के गहरे पानी में ही मोती मिलता है, पर समुद्र की ऊपरी सतह पर मूंगा, सीपें, आदि चीजें जो प्राप्त हो रही हैं, मनुष्य उन्हें ही महत्वपूर्ण समझ लेता है। उसे परमात्मा रूपी मोती के मिलने तक धैर्य तो बनाए रखना होगा। 

अर्जुन: तो इसीलिए आपने कहा कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए चित्त का शुद्धिकरण आवश्यक है और मन की यह निर्मलता सांसारिक पदार्थों के पीछे भागने से नहीं बल्कि ईश्वर के ध्यान से प्राप्त होती है। 

श्री कृष्ण :हां अर्जुन!मन की यही निर्मलता योग साधना के समय ध्यान लगाने में सहायक होती है और इसीलिए सांसारिक प्रलोभन बिंदुओं के बदले ईश्वर को केंद्रित कर ध्यान लगाना महत्वपूर्ण और लाभदायक है। उस परमात्मा तत्व को प्राप्त करने की चेष्टा में कहीं कुछ खो देने का भय, प्राप्त करने के लिए कुछ शेष रह जाने का भय, आदि सभी तरह की अपूर्णता और असुरक्षा बोध का समापन हो जाता है।